अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सिद्धान्त की आवश्यकता
सिद्धान्त निर्माण की आवश्यकता- दूसरे विश्व युद्ध के बाद का काल- अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध के चौथे चरण का आगमन दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुआ। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के ह्रास ने जिसके कारण 1939 में दूसरा महायुद्ध छिड़ा, अन्तर्युद्ध चरण की विचारधाराओं की कमियों को प्रचुर मात्रा में सिद्ध कर दिया। अब एक ऐसे नए दृष्टिकोण की आवश्यकता अनुभव हुई जो राष्ट्रों के मध्य सम्बन्धों का पूर्ण वर्णन करने तथा उनकी जांच करने के योग्य हो। दूसरे महायुद्ध द्वारा लाए गए गहरे परिवर्तनों तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शक्ति के ढांचे पर इसके प्रभाव ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन में नये दृष्टिकोण विकसित करने के काम को और भी चुनौतीपूर्ण बना दिया। बहुत से विद्वान इस चुनौती को स्वीकार करके आगे आए तथा इस प्रक्रिया में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’ के अध्ययन में चौथे चरण का सूत्रपात हुआ जो अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन का वर्तमान युग है।
केवल संख्याओं पर ही नहीं बल्कि सभी तत्वों और शक्तियों के अध्ययन पर बल- विकास के चौथे चरण में कानून तथा संगठन की अपेक्षा, राष्ट्रों के व्यवहार को आकार देने तथा प्रतिबन्धित करने वाली शक्तियों तथा तत्वों के अध्ययन को अधिक महत्व दिया जाने लगा। यह महसूस किया गया कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार के निश्चित लक्ष्य हैं जो आदर्शवाद से कोसो दूर हैं। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में शक्ति की भूमिका को विवादरहित सत्य माना गया है। इस एहसास ने राजनीतिक यथार्थवाद को जन्म दिया जिसने ‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’ के अध्ययन को राष्ट्र के मध्य शक्ति के लिए संघर्ष का अध्ययन माना। अब विदेशी नीतियों की कार्य प्रणाली तथा निर्धारक तत्वों के अध्ययन पर महत्व दिया जाने लगा।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद के चरण की प्रमुख अभिरुचि- 1945 के बाद से इस दिशा में काफी प्रगति हुई है। कितने ही लाभदायक सिद्धान्त तथा दृष्टिकोण विकसित हो गए हैं। इसकी शुरूआत सन् 1940 के उत्तरार्द्ध में मार्गेन्थो द्वारा प्रस्तुत ‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी सिद्धान्त’ से हुई। मार्गेन्थों के यथार्थवादी सिद्धान्त ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में राष्ट्रों के मध्य शक्ति के लिये संघर्ष की प्रक्रिया के अध्ययन में वकालत की। उसने राष्ट्रीय शक्ति, राष्ट्रीय हित तथा विदेश नीतियों को अध्ययन की मूल इकाइयां माना। उसी समय से अध्ययन के मुख्य विषय रहे है।
(1) सब जगह विदेशी नीतियों को प्रेरित करने वाले तत्व,
(2) विदेश नीतियों के चलाने की तकनीकें, तथा
(3) अन्तर्राष्ट्रीय विरोध सुलझाव के ढंग।
अब अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं का अध्ययन किसी कानूनी तथा नैतिक परिप्रेक्ष्य में नहीं बल्कि राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में किया जाने लगा। उदाहरण के लिए “संयुक्त राष्ट्र संघ एक ऐसी राजनीतिक संस्था है जो शक्ति राजनीति का विकल्प नहीं बल्कि एक ऐसा उपयुक्त रचना तन्त्र है जिसमें राष्ट्रों की सीधी प्रतिद्वन्द्विताओं के सम्बन्ध में सामान्य प्रक्रिया द्वारा सुलझाव किया जाता है।”
एक ऐसे युग में, जिसने थोड़े ही अन्तराल में दो विश्व युद्धों को देखा था और जो अन्य शक्तियों के आपसी द्वेष तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में शीत युद्ध से भरा था, एक यथार्थवादी के लिए अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को शक्ति के लिए संघर्ष परिभाषित करना अत्यन्त स्वाभाविक था जिसमें प्रत्येक राष्ट्र शक्ति के प्रयोग द्वारा अपने राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील था। अतः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को शक्ति राजनीति ही माना गया।
यथार्थवादी की ‘वास्तविकतावादी’ मुद्रा ने युद्धोत्तर वर्षों में इसे शक्ति दृष्टिकोण बना दिया परन्तु शीघ्र ही इसमें दरारें उत्पन्न हो गई जिसने धीरे-धीरे इस विचारधारा के टुकड़े-टुकड़े कर दिया। कुछ एक प्रश्नों पर जैसे, क्या ‘समझौते’ शांति का साधन है या अस्थिरता का ? क्या शस्त्रों ने सुरक्षा को बढ़ावा दिया है या खतरे को ? क्या शीत युद्ध वरदान था क्योंकि इसने गर्म युद्ध को रोका अथवा क्या यह अभिशाप था जिसने संसार को विश्व युद्ध के कगार पर खड़ा किये रखा? क्या विचारधारा सम्बन्धी टकराव राष्ट्रीय हित में था या उसके विरोध में? ऐसे प्रश्नों पर बड़े पैमाने पर मतभेद पैदा हो गए। यह अनुभव किया गया कि इन प्रश्नों का उत्तर किसी एक सिद्धान्त के आधार पर नहीं दिया जा सकता। इसके लिए आनुभाविक विश्लेषण तथा उत्तरों की आवश्यकता है। इसलिए राजनीतिक यथार्थवाद के स्थान पर व्यवहारवाद या वैज्ञानिकवादी दृष्टिकोण, जो आनुभाविक साधनों पर आधारित था, लोकप्रिय होना आरम्भ हो गया।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर व्यवहारवाद का प्रभाव- राजनीति में व्यवहारवादी क्रान्ति के प्रभाव अधीन अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन करने वाले राजनीतिक वैज्ञानिक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन करने के लिए नये दृष्टिकोण तथा विधियों को विकसित करने के प्रयत्न करने लगे। 1945 के बाद इस विषय के अध्ययन के विकास में वैज्ञानिक दृष्टिकोण एक महत्वपूर्ण कदम सिद्ध हुआ। अन्तर्विषयक संकेन्द्रण को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन करने वाले बहुसंख्यक विद्वानों ने बहुत किया। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में महत्वपूर्ण विषयों तथा समस्याओं का वैज्ञानिक अध्ययन आजकल बेहद लोकप्रिय दिशा में पहुंच चुका है। इसके साथ-साथ अध्ययन की अधिक विकसित विधियों तथा अवधारणाओं के विकास के प्रयत्न अभी भी जारी है। इन सभी प्रयत्नों ने हमारे समय में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन को क्रान्तिकारी बना दिया हैं। अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार के अध्ययन में वैज्ञानिक रूप में विकसित सिद्धान्तों के विकास की ओर पर्याप्त प्रयत्न अभी भी किये जा हैं।
इस तरह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विकास के चौथे चरण में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है। इसका अध्ययन अधिक-से-अधिक नियोजित हो गया है तथा और भी होता जा रहा है, यद्यपि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के जटिल स्वरूप तथा विशाल क्षेत्र ने सर्वमान्य सिद्धान्तों तथा दृष्टिकोण के विकास को सीमित रखा है।
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