मौखिक और लिखित भाषा में संबंध (Relation in Oral and Written Language)
मनुष्य अपनी जिन विशेषताओं के कारण पशु से भिन्न है, उनमें से एक विशेषता उसके पास अभिव्यक्ति की विविधता है। व्यक्ति वही है जो व्यक्त होता है। व्यक्ति में अनुभूति की गहराई और अभिव्यक्ति की विविधता दोनों गुण विद्यमान होते हैं। अभिव्यक्ति व्यक्ति के जीवन में सफलता का बहुत बड़ा कारक है। जिसकी लिखित अभिव्यक्ति अच्छी होती है, वह परीक्षा में दूसरों से अच्छे अंक पा जाता है। अभिव्यक्ति चाहे वह मौखिक हो या लिखित हमारे जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
बोलना एवं सुनने में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसमें अन्तः प्रक्रिया आमने-सामने होती है। शिक्षक के सामने छात्र बैठकर सुनते हैं। अनेक ऐसे अवसर भी आते हैं जब विचारों तथा भावनाओं के सम्प्रेषण में साझेदारी होती है। विद्यार्थीगण शिक्षक द्वारा मौखिक दी गई जानकारी को सुनते हैं और उसे लिखित स्वरूप देते हैं। प्राप्त मौखिक जानकारी को ही सुनकर लिखित स्वरूप प्रदान किया जाता है।
लिखने और पढ़ने में ज्ञानात्मक पक्ष अधिक होता है। यह सम्प्रेषण प्रवाह बोलने सुनने के समान है। इसमें अन्तः प्रक्रिया अप्रत्यक्ष रूप से लेखक तथा पाठक में होती है। भाषा के संकेतों एवं चिह्नों से संपादक को अनुभव प्रदान किए जाते हैं। भाषा के माध्यम से विचारों तथा भावों को समझाया जाता है।
श्रीमती मांण्टेसरी ने चाहे लिखने की क्रिया को सरल कहा हो। परन्तु वह पढ़ने की क्रिया से कठिन है। पढ़ने में बालकों को अक्षर की आकृति का ज्ञान चाहिए। परन्तु, लिखने में अक्षरों की आकृति के ज्ञान के साथ-साथ उन अक्षरों को वैसा लिख सकने की क्षमता भी होनी चाहिए और इसके लिए आवश्यक है हाथ की अँगुलियों की माँसपेशियों का यथोचित संतुलन। यदि शब्दों का ध्वन्यात्मक परिचय बालकों को पहले से ही प्राप्त होगा तो उनके लिए वचन के सहारे लिखना अधिक सुविधाजनक होगा। यह अनुभव की बात है कि यदि किसी नई भाषा को सीखने में छह सप्ताह लगते हैं तो उस भाषा में लिखाना सीखने में कहीं अधिक समय लगेगा। कई बार ऐसा होता है कि हम किसी भाषा को पढ़कर समझ तो सकते हैं, परन्तु उसे लिख नहीं सकते इससे यह स्पष्ट होता है कि वाचन-क्रिया के विकास के बाद ही लिखना सीखना चाहिए। वही विद्यार्थी अच्छा लिख सकेगा जिसमें ठीक-ठीक पढ़ने की क्षमता होगी हम बालक की पढ़ी हुई वस्तु से उसके लेखक का समन्वय करवा सकते हैं। जो बात बालक ने पढ़ी अथवा बातचीत द्वारा सुनी होगी, उसी पर वह अच्छी प्रकार से लिख सकेगा।
भाषा पर अधिकार प्राप्ति के लिए किसी भाषा का सुनना, बोलना और पढ़ना महत्त्व रखता, उसी प्रकार लिखना और मौखिक अभिव्यक्ति महत्त्वपूर्ण है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। भाषाई कौशलों में बोलना-कौशल, भाव-ग्रहण का महत्त्वपूर्ण साधन है। श्रवण और भाषण कौशल के विकास की प्रक्रिया में छात्र को अन्य भाषा में वाचन सिखना आवश्यक हो जाता है। भाषा शिक्षण के परम्परागत क्रम में भी वाचन की शिक्षा को विशेष महत्व प्राप्त रहा है। पहले भी यह धारण थीं कि अन्य भाषा को सीखने वाले अधिकतर छात्रों को भाषा के मौखिक व्यवहार का समुचित अवसर नहीं प्राप्त होता। फलस्वरूप, अन्य भाषा शिक्षण में भाषा के प्रमुख कौशलों-श्रवण और भाषा को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता था। वाचन की शिक्षा ही महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी क्योंकि, इसके माध्यम से देश-विदेश के साहित्य एवं विविध प्रकार की लिखित सामग्री का सफलता से ज्ञान प्राप्त करना संभव था। वाचन सिखाने का उद्देश्य केवल भावग्रहण की माना जाता था। परन्तु, भाषा शिक्षण में नवीन मान्यताओं के समावेश के फलस्वरूप क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ । भाषा के मौखिक व्यवहार को श्रवण तथा भाषण को विशेष महत्त्व दिया जाने लगा। इन आधारभूत कौशलों में अपेक्षित दक्षता प्राप्त कराने के बाद ही वाचन कौशल का विशिष्ट स्थान है। भाषा कौशलों में मौखिक रूप से भाषा की सहजता से प्रयोग वाचन की तत्परता की सूचक है।
मौखिक अभव्यक्ति भाषा के माध्यम से की जाती है। किन्तु, इसमें आंशिक मुद्राओं का भी विशेष योगदान है। मौखिक अभिव्यक्ति की निम्नांकित विशेषताएँ हो सकती हैं-
1. सुश्रव्यता
2. उचित गति
3. भावानुरूप उतार-चढ़ाव
4. शुद्धता
5. क्रमबद्धता
6. शिष्टाचार
7. अवसरानुकूलता
8. सम्प्रेषणीयता ।
लिखित अभिव्यक्ति लिपि के माध्यम से की जाती है। जिस प्रकार मौखिक अभिव्यक्ति में कथन भंगिमा इसकी प्रभावशीलता में वृद्धि करती है। ठीक उसी प्रकार लिखित अभिव्यक्ति में शैली प्रभाव उत्पन्न करने में विशेष भूमिका का निर्वाह करती है। लिखित अभिव्यक्ति की अन्य विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
1. सुपाठ्यता
2. सुस्पष्टता
3. दोषरहित वर्तनी
4. वाक्य रचना
5. विराम चिह्न
6. अनुच्छेदन
7. क्रमबद्धता
8. सामाजिक शिष्टाचार
9. व्याकरण की दृष्टि से त्रुटि रहित भाषा,
10. शब्द चयन
11. प्रस्तुति की मौलिकता ।
इस प्रकार, कहा जा सकता है कि हम अपने विचारों को दूसरों के समक्ष दो रूपों में रख सकते हैं-मौखिक और लिखित रूप में। बालक छोटे-छोटे वाक्यों को बोलना सीख जाता है और वह धीरे-धीरे अपने विचारों को दूसरों के सामने मौखिक रूप में व्यक्त करना सीखता है। बालक को लिखने-पढ़ने से पूर्व मौखिक अभिव्यक्ति का अभ्यास करना परमावश्यक है। मौखिक अभिव्यक्ति का विकास जीवन पर्यन्त चलता रहता है।
मौखिक अभिव्यक्ति का प्रयोग हमारे व्यावहारिक जीवन में लिखित अभिव्यक्ति की अपेक्षा अधिक होता है। प्रातः काल से रात तक जितने भी व्यक्ति हमारे सम्पर्क में आते हैं, उन सबमें हम मौखिक अभिव्यक्ति के माध्यम से ही विचार विनिमय करते हैं। लिखित अभिव्यक्ति का विकास बाद में और धीरे-धीरे होता है। लिखित अभिव्यक्ति से पूर्व बालकों को शुद्ध-शुद्ध बोलने तथा शुद्ध-शुद्ध लिखने का अभ्यास कराना परमावश्यक है। स्पष्ट है कि मौखिक अभिव्यक्ति के द्वारा ही बालक का उच्चारण शुद्ध होता है। रचना-कार्य मौखिक अभिव्यक्ति से ही प्रारंभ होता है।
मौखिक अभिव्यक्ति क्षणिक व अस्थायी होती है तथा श्रोता सम्मुख होता है जबकि लिखित अभिव्यक्ति स्थायी होता है, उसमें पाठक दूरस्थ हो या भविष्य में हो तो वह स्थिर होती है। पाठक का जब भी इच्छा हो उसका लाभ उठा सकता है। मौखिक अभिव्यक्ति में बालक जितना कुशल होगा, लिखित अभिव्यक्ति उतनी ही सशक्त होगी। मौखिक अभिव्यक्ति की शुद्धता पर ही लिखित अभिव्यक्ति शुद्ध होती है। अतः बालक की मौखिक अभिव्यक्ति कौशल अर्जित करने के बाद लिखित अभिव्यक्ति प्रारंभ करनी चाहिए।
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