विचार गोष्ठी प्रविधि से आप क्या समझते हैं? (What do you understand by Seminar-Technique?)
विचार गोष्ठी प्रविधि का अर्थ- विचार गोष्ठी अनुदेशन की ऐसी प्रविधि है जिससे चिन्तन स्तर के अधिगम के लिए अन्तः प्रक्रिया की परिस्थिति उत्पन्न की जाती है। तथा विभिन्न स्तरों पर अनुदेशन परिस्थितियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
विचार गोष्ठी प्रविधि के उद्देश्य :
(अ) ज्ञानात्मक उद्देश्य (Cognitive Objectives) :
(i) विश्लेषण तथा आलोचनात्मक क्षमताओं का विकास।
(ii) संश्लेषण तथा मूल्यांकन की योग्यता का विकास।
(iii) निरीक्षण तथा अनुभवों के प्रस्तुतीकरण की क्षमताओं का विकास।
(iv) किसी प्रकरण सम्बन्धी स्पष्टीकरण करने तथा उससे सम्बन्धित समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता का विकास।
(ब) भावात्मक विकास (Affective Objectives) :
(i) अन्य व्यक्तियों के विरोधी विचार तथा दृष्टिकोण की सहनशीलता का विकास।
(ii) विचारों की स्वच्छन्ता तथा दूसरों से सहयोग की भावना का विकास।
(iii) भावात्मक स्थिरिता का विकास।
(iv) दूसरों की भावनाओं के प्रति सम्मान की भावना का विकास।
(स) अन्य उद्देश्य (Other Objectives)
इससे अपना दृष्टिकोण रखने, स्पष्टीकरण करने तथा स्पष्टीकरण माँगने के व्यवहारों का विकास होता है। प्रश्नों के पूछने तथा प्रश्नों के उत्तर देने के कौशल का विकास होता है । अपने विरोधी दृष्टिकोण को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने तथा तर्क करने के संतुलित ढंग का विकास होता है। सेमीनार से मानक व्यवहारों के आचरण के कौशल का विकास होता है।
विचार गोष्ठी की भूमिकाएँ:
(1) अनुदेशक/व्यवस्थापक (Instructor/Organisor)- अनुदेशक या व्यवस्थापक पर विचार गोष्ठी आयोजन का पूर्ण उत्तरदायित्व होता है। यह निर्णय लेता है कि विचार गोष्ठी का प्रकरण, वक्तागण कौन होंगे तथा प्रकरण के किस पक्ष को तैयार करेंगे तथा किस क्रम में प्रस्तुतीकरण करेंगे। यह विचार गोष्ठी की तिथियों एवं समय, कार्य की रूप-रेखा तैयार करता है। वही अधिकांश परिस्थितियों में अध्यक्ष का भी चयन करता है। उसी पर विचार गोष्ठी की योजना तथा व्यवस्था का उत्तरदायित्व होता है।
(2) अध्यक्ष (President or Chairman or Convener) – अध्यक्ष या संचालक का चयन विचार गोष्ठी के भागीदारों के द्वारा किया जाता है । अध्यक्ष के लिए ऐसे व्यक्ति का इयन करना चाहिए जो प्रकरण को समझता हो । संचालन की क्षमता के साथ अध्यक्ष अपने अधिकार और कर्त्तव्यों को भी समझता हो। वह भागीदारों को प्रश्न पूछने को प्रोत्साहित भी कर सके। वह वाद-विवाद के प्रकरण पर ही नियंत्रण रख सके।
(3) वक्तागण (Speakers) — प्रकरण को तैयार करने और प्रस्तुतीकरण के लिए अनुदेशक वक्ताओं का निर्धारण करता है। वक्ता प्रकरण को गहन रूप में तैयार करता है और उसकी प्रतिलिपि तैयार करके विचार गोष्ठी के पूर्व उनका वितरण कर देता है। अच्छा वक्ता वह है जो वाद-विवाद को उत्साहित कर सके और प्रकरण पर वाद-विवाद अधिक समय तक चल सके। उसमें प्रश्नों के स्पष्टीकरण की क्षमता होनी चाहिए तथा विरोधी के प्रति सम्मान तथा सहनशीलता होनी चाहिए।
(4) भागीदार या श्रोतागण (Participants) — श्रोतागणों को प्रकरण का बोध होना चाहिए। उन्हें वक्तागणों के प्रस्तुतीकरण की प्रशंसा करनी चाहिए। वे और स्पष्टीकरण माँग सकते हैं तथा प्रकरण सम्बन्धी समस्याओं पर अपने विचारों तथा अनुभवों को रख सकते हैं। उन्हें अपने प्रश्नों को अध्यक्ष द्वारा वक्ता तक पहुँचाना चाहिए। उन्हें प्रत्यक्ष रूप से आदान-प्रदान नहीं करना चाहिए। उनके व्यवहार में शिष्टता होनी चाहिए । विचार गोष्ठी में 25 से 40 भागीदारों को सम्मिलित किया जाता है।
विचार गोष्ठी प्रविधि का स्वरूप :
(i) विचार गोष्ठी प्रविधि में सबसे पहले किसी प्रकरण का चयन किया जाता है। जो व्यक्ति उस प्रकरण का प्रपत्र तैयार करते हैं, उन्हें प्रवक्ता कहते हैं। प्रकरण के विभिन्न पक्षों पर एक से अधिक व्यक्ति अलग-अलग प्रपत्र तैयार कर सकते हैं। विचार गोष्ठी की व्यवस्था महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों तथा शोध संस्थाओं के स्तर पर एक कक्षा तथा विभाग से की जाती है । किन्हीं संस्थाओं में इसकी व्यवस्था प्रति सप्ताह नियमित रूप से की जाती है। किन्हीं ‘प्रकरणों’ पर कुछ संगठन; जैसे : राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग आदि सेमीनार प्रोत्साहित करते हैं। इस प्रकार के सेमीनार राष्ट्रीय स्तर पर होते हैं। इनमें विभिन्न संस्थाओं से व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाता है। उनके व्यय के लिए संगठन आर्थिक सहायता देता है।
(ii) विचार गोष्ठी का प्रकरण पूर्व नियोजित होता है। वक्ता अपने प्रपत्र की प्रतिलिपियाँ करा लेता है और सेमीनार के आरम्भ में उनका वितरण कर देता है। सेमीनार के कार्य संचालन के लिए उसी समय भागीदारों में से ही अध्यक्ष का चयन किया जाता है। अध्यक्ष पूर्व निर्धारित नहीं होता है। यदि सेमीनार एक दिन से अधिक चलता है तो अध्यक्ष का प्रतिदिन चयन किया जाता है जिस पर सेमीनार के संचालन का उत्तरदायित्व होता है । अध्यक्ष ही संचालन प्रक्रिया निर्धारित करता है।
(iii) विचार गोष्ठी का अध्यक्ष यह निर्धारित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति के प्रस्तुतीकरण के अन्त में वाद-विवाद किया जाएगा अथवा सभी वक्ताओं के द्वारा प्रकरण प्रस्तुत करने के उपरांत उस पर वाद-विवाद का अवसर दिया जाएगा। तद्नुसार सेमीनार का संचालन किया जाता है। प्रकरण के प्रस्तुत करने के उपरांत अध्यक्ष वाद-विवाद के लिए अवसर देता है। सेमीनार में ‘प्रकरण’ पर जो वाद-विवाद किया जाता है उसके अधोलिखित प्रमुख उद्देश्य होते हैं :
(i) ‘प्रकरण’ सम्बन्धी स्पष्टीकरण ।
(ii) ‘प्रकरण’ के सम्बन्ध में भागीदार द्वारा अनुभवों तथा निरीक्षणों का प्रस्तुतीकरण ।
(iii) ‘प्रकरण’ सम्बन्धी समस्याओं के विश्लेषण तथा मूल्यांकन के लिए प्रश्न उठाना । अध्यक्ष का कर्त्तव्य यह देखना है कि वाद-विवाद प्रकरण से ही सम्बन्धित रहे । वह भागीदारों को वाद-विवाद में अधिक-से-अधिक भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करता है। उसे सभी विचारों को संगठित करके अपने विचारों की अभिव्यक्ति भी करनी होती है। उसे ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करनी होती है जिसमें अधिक-से-अधिक व्यक्ति ‘प्रकरण’ के संदर्भ में अन्तःक्रिया कर सकें । उसको प्रपत्र करने के समय की अपेक्षा वाद-विवाद के लिए पर्याप्त समय देना चाहिए। सेमीनार में प्रपत्र प्रस्तुत करने का मुख्य उद्देश्य ‘प्रकरण’ पर समूह द्वारा वाद-विवाद अधिक समय तक चल सके। वाद-विवाद के समय जो विरोधी अथवा विभिन्न प्रकार के दृष्टिकोण रखे जाते हैं वे प्रकरण पर चिन्तन के लिए शक्ति एवं दिशा प्रदान करते है। विरोधी दृष्टिकोण तथा विचारधारा भागीदारों को एक नए ढंग से सोचने के लिए दिशा देते हैं। विचारधाराओं की समानता से ‘प्रकरण’ की वैधता सिद्ध होती है और उसके विचारों एवं दृष्टिकोण में दृढ़ता आती है।
वाद-विवाद के समापन पर अध्यक्ष अपने विचार प्रस्तुत करता है। इसमें वह निम्नलिखित बातों पर बल देता है। :
(i) ‘प्रकरण’ सम्बन्धी वाद-विवाद के निष्कर्ष का संक्षेपीकरण।
(ii) ‘प्रकरण’ के सम्बन्ध में उसका दृष्टिकोण
(iii) वक्ताओं की सराहना करता है और सभी भागीदारों के सहयोग के लिए धन्यवाद । विचार गोष्ठी की कार्य-प्रणाली तथा वाद-विवाद के प्रमुख पक्षों का आलेख भी तैयार किया जाता है। उपयोगी प्रकरणों पर वाद-विवाद के निष्कर्षों को प्रकाशित भी किया जाता है।
विचार गोष्ठी के प्रकार :
(1) लघु विचार गोष्ठी (Mini Seminar) – लघु सेमीनार को छात्र किसी ‘प्रकरण’ पर कक्षा स्तर पर स्वयं आयोजित करते हैं। इसका उद्देश्य छात्रों को विचार गोष्ठी का प्रशिक्षण देना, उन्हें सेमीनार प्रविधि का अनुकरण करने का अवसर देना है।
(2) मुख्य विचार गोष्ठी (Main Seminar) – किसी विभाग या संस्था द्वारा मुख्य सेमीनार का आयोजन किया जाता है जिसमें विभाग या संस्था के सभी छात्र और अध्यापक ‘लेते हैं। ऐसे सेमीनार का आयोजन किसी विशिष्ट प्रकरण पर सप्ताह या माह में एक भाग बार नियमित रूप से किया जाता है।
(3) राष्ट्रीय विचार गोष्ठी (National Seminar) — ऐसे सेमीनार का आयोजन किसी संगठन द्वारा किया जाता है और ‘प्रकरण’ सम्बन्धी विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता संगठन भागीदारों के व्यय का वहन करता है। विचार गोष्ठी स्थल तथा तिथियों को पूर्व निर्धारित कर लिया जाता है और सभी से ‘प्रकरण’ पर प्रपत्र भेजने के लिए आग्रह किया जाता है । इस प्रकार के सेमीनार राष्ट्रीय अनुसंधान एवं परिषद् संस्थान तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा प्रस्तावित किए जाते हैं। इनके प्रकरण अधिक व्यापक होते हैं, जैसे : शैक्षिक तकनीकी, जनसंख्या की शिक्षा, पत्राचार पाठ्यक्रम, सत्र प्रणाली आदि।
(4) अन्तर्राष्ट्रीय विचार गोष्ठी (International Seminar) — ऐसे सेमीनार की व्यवस्था किसी राष्ट्र के संगठन द्वारा की जाती है। भारतवर्ष में शिक्षा के अन्तर्गत राष्ट्रीय अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् ऐसे सेमीनारों का आयोजन करती है। अधिकतर ऐसे सेमीनारों का आयोजन यूनेस्को द्वारा किया जाता है।
विचार गोष्ठी प्रविधि के लाभ अथवा गुण
(i) शिक्षा के ज्ञानात्मक तथा भावात्मक उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति।
(ii) प्रजातांत्रिक मूल्यों का विकास।
(iii) प्रस्तुतीकरण तथा तर्क करने की क्षमताओं का विकास।
(iv) उत्तम प्रकार अधिगम आदतों तथा शिक्षार्थी के अधिगम में तन्मयता का विकास।
(v) शिक्षार्थी केन्द्रित सेमीनार प्रविधि।
(vi) स्वतंत्र अध्ययन को प्रोत्साहन।
(vii) वाद-विवाद में भाग लेने तथा बोलने के कौशल का विकास।
(viii) शिक्षार्थी द्वारा स्वाभाविक ढंग से सीखना।
(ix) आलोचनात्मक चिन्तन का विकास।
(x) सामाजिक तथा भावात्मक गुणों का विकास।
(xi) प्रकरण सम्बन्धी निरीक्षण तथा अनुभवों को प्रस्तुत करने का अवसर ।
विचार गोष्ठी प्रविधि की सीमाएँ :
(i) किसी विषय के सभी प्रकरणों के लिए सेमीनार का आयोजन नहीं किया जा सकता है। उन्हीं प्रकरणों का चयन किया जाता है जिन पर वाद-विवाद हो सके।
(ii) इस प्रविधि को सभी शिक्षा के स्तरों पर प्रयोग नहीं कर सकते हैं क्योंकि इसके लिए भाषा, सामाजिक- भावात्मक परिपक्वता होनी चाहिए। निम्न स्तर पर इसका प्रयोग सम्भव नहीं है।
(iii) सेमीनार के वाद-विवाद काल में ऐसा देखा गया है कि इसमें कुछ ही व्यक्ति भाग लेते हैं और अपना अधिकार स्थापित कर लेते हैं। अन्य व्यक्ति बिल्कुल नहीं बोलते अथवा उन्हें बोलने का अवसर नहीं मिलता। सम्पूर्ण समूह में अन्तःक्रिया नहीं होती।
(iv) सेमीनार के वाद-विवाद काल में समूह बनने की सम्भावना बनी रहती है। विरोधी विचारों के व्यक्ति एक समूह में तथा मूल विचारों व्यक्ति के दूसरे समूह में बँट जाते हैं। भागीदार उसे विजय या पराजय के रूप में लेते हैं। ऐसी परिस्थिति में सेमीनार का उद्देश्य प्राप्त नहीं होता है।
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