अभिक्रमित अनुदेशन क्या है? (What is Programmed Learning?)
शिक्षण प्रक्रिया के दो प्रमुख बिन्दु अध्यापक व विद्यार्थी होते हैं। शिक्षण-प्रक्रिया में विद्यार्थियों की क्रियाशील तथा सक्रियता की अपेक्षा विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण पर विशेष ध्यान दिया जाता है इसके अतिरिक्त शिक्षण-विधियाँ, सहायक सामग्री, पाठ्य-पुस्तकें भी विद्यार्थी के अधिगम की तत्काल जाँच के लिए कोई ऐसा अवसर प्रदान नहीं कर पातीं, जिससे यह पता चलता है कि विद्यार्थियों ने कहाँ तक सफलता प्राप्त की है ? जिससे विद्यार्थियों की केवल सामान्य स्तर की आवश्यकताओं को ही ध्यान में रखा जाता है। अतः शिक्षा की इन समस्याओं का समाधान करने की अभिक्रमित अनुदेशन का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
अभिक्रमित अनुदेशन, शिक्षा प्रक्रिया की एक आधुनिकतम विधि है, जो अध्यापक व विद्यार्थी के मध्य संतुलन की स्थिति उत्पन्न करती है। पूर्ण रूप से सुव्यवस्थित और व्यक्तिगत अनुदेशनात्मक प्रविधि के रूप में प्रभावपूर्व कक्षा-शिक्षण के लिए लोकप्रिय सिद्ध हुआ है। अभिक्रमित अनुदेशन में विषय-वस्तु को छोटे-छोटे पदों में इस प्रकार से अभिक्रमित किया जाता है कि विद्यार्थी स्वयं प्रयत्न और स्वगति से रहकर निरंतर ज्ञान से अज्ञान की ओर अग्रसर है इसमें प्रत्येक कार्य को करने के बाद उसके कार्य करने की तुरंत पुष्टि करा दी जाती है इससे विद्यार्थी को पुनर्बलन मिलता है। इससे स्वाध्याय, स्व-शिक्षण व पत्राचार पद्धति से भली-भाँति अध्ययन व अध्यापन भी सरल व सहज है।
अभिक्रमित अनुदेशन तकनीक के जन्मदाता बी. एफ. स्किनर हैं। सामान्य भाषा में अभिक्रमित अधिगम या अनुदेशन इस अधिगम या अनुदेशन को कहा जाता है, जो अभिक्रमित पाठ्य-पुस्तक या शिक्षण मशीन और कम्प्यूटरों की सहायता से प्रदत्त वैयक्तिक शिक्षण कार्यक्रमों के द्वारा पूर्ण रूप में दिया जाता है। इसका सम्बन्ध बालक की क्रियाओं से होता है।
अभिक्रमित अनुदेशन की परिभाषाएँ (Definitions)
अभिक्रमित अनुदेशन या अधिगम की प्रमुख परिभाषाएँ निम्न हैं:
(i) एस्पिच एवं विलियम्स के अनुसार, “अभिक्रमित अनुदेशन से तात्पर्य, अनुभवों की उस नियोजन श्रृंखला से है, जो उद्दीपन-अनुक्रिया सम्बन्ध के संदर्भ में प्रभावशाली मानी जाने वाली दक्षता की तरफ अग्रसर करती है।”
(ii) बी.एफ. स्किनर के अनुसार, “अभिक्रमित अनुदेशन या अधिगम एक ऐसी विधि है, जिसमें अध्यापक की आवश्यकता नहीं होती है। इसमें व्यक्तिगत अनुदेशन के रूप में सीखने के लिए अवसर प्रदान किए जाते हैं। इसमें विद्यार्थी तत्पर होकर अपनी गति एवं क्षमताओं के अनुसार सीखता है और अपनी ज्ञान प्राप्ति का भी बोध करता है। इसे व्यवहार परिवर्तन की प्रक्रिया मानते हैं।”
(iii) स्मिथ एवं पूरे के अनुसार, “अभिक्रमित अधिगम किसी अधिगम सामग्री को क्रमिक पदों की श्रृंखला में व्यवस्थित करने वाली एक प्रक्रिया है और प्रायः इसके द्वारा किसी विद्यार्थी को उसकी परिचित पृष्ठभूमि में संप्रत्ययों, नियमों व बोध के एक जटिल और नवीन ” स्तर पर लाया जाता बालक
(iv) कोरे के अनुसार, “अभिक्रमित अधिगम एक ऐसी शिक्षण प्रक्रिया है, जिसमें के वातावरण को सुव्यवस्थित करके पूर्व-निर्धारित व्यवहारों को उसमें विकसित कर लिया जाता है। “
(v) सुसन मार्कल के अनुसार, “अभिक्रमित अनुदेशन पुनः प्रस्तुत की जा सकने वाली क्रियाओं की श्रृंखला को संरचित करने की वह विधि है, जिसकी सहायता से व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक विद्यार्थी के व्यवहार में मापनीय व विश्वसनीय परिवर्तन लाया जा सके। “
(vi) डनहिल के अनुसार, “ अभिक्रमित अनुदेशन शिक्षा का माध्यम न होकर शिक्षा की विधि है। यह विधि हमें यह निश्चित करने में सहायता देती है कि प्रत्येक विद्यार्थी अपना अध्ययन बिल्कुल उसी बात से शुरू करता है, जो उसे ज्ञात होती है और अपनी सर्वोत्तम गति से निर्धारित लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है।”
(vii) एस्पिच एवं विलियम्स के अनुसार, “अभिक्रमित अनुदेशन अनुभवों की नियोजित श्रृंखला है, जो उद्दीपक अनुक्रिया सम्बन्ध के संदर्भ में प्रभावी मानी जाने वाली दक्षता की तरफ अग्रसर करती है।”
अतः अभिक्रमित अनुदेशन सीखने की वह विधि है, जिसमें अध्यापक अध्यापन मशीनों, पाठ्य-पुस्तकों तथा विशेष प्रकार के पाठ्यक्रम की सहायता से विद्यार्थी स्वयं शिक्षा ग्रहण करें। जिसमें शिक्षा सामग्री को छोटे-छोटे भागों में संगठित करके, उसके प्रत्येक भाग को श्रेणीबद्ध किया जाता है, जिसमें विद्यार्थी एक प्रश्न का सही उत्तर देने के बाद, दूसरे भाग की तरफ बढ़ता है
अभिक्रमित अनुदेशन की विशेषताएँ (Characteristics of Programmed Instruction)
इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित होती हैं :
(i) यह मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित अधिगम प्रविधि है।
(ii) इसमें पाठ्य-वस्तु को क्रमबद्ध रूप से अनुदेशन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
(iii) यह स्वतः अध्ययन की आदत का विकास करने क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया जाता है।
(v) इसमें बालक अधिक क्रियाशील रहते हैं।
(iv) इसमें पाठ्य-वस्तु को छोटे-छोटे पदों में सहायक है।
(vi) शिक्षण की अन्तःक्रिया विद्यार्थी तथा पाठ्य वस्तु के माध्यम से होती है।
(vii) इसमें बालक को अपनी गति के क्षमतानुसार सीखने के अवसर प्राप्त होते हैं।
(viii) इसमें विद्यार्थियों के पूर्व-व्यवहार का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है।
(ix) अनुदेशन के उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखा जाता है।
(x) इसकी सहायता से कठिन प्रत्यय नियमों को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।
(xi) इसमें विद्यार्थी के व्यवहार को समुचित पृष्ठ पोषण प्रदान किया जाता है।
(xii) अध्यापक की उपस्थिति के बिना विद्यार्थी सरलता व सुगमता से ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं।
(xiii) इसमें विद्यार्थियों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार सीखने के अवसर प्राप्त होते हैं।
(xiv) इसमें पदों को एक तार्किक क्रम में व्यवस्थित किया जाता है।
(xv) अभिक्रमित अनुदेशन द्वारा परम्परागत शिक्षण की अपेक्षाकृत विद्यार्थी अधिक सीखता है।
अभिक्रमित अनुदेशन के सिद्धांत (Principles of Programmed Instruction of Learning)
(1) लंघु पदों का सिद्धांत,
(2) संक्रिय अनुक्रिया का सिद्धांत,
(3) तत्काल पुनर्बलन का सिद्धांत,
(4) स्व-गति का सिद्धांत,
(5) स्व-परीक्षण का सिद्धांत,
(6) प्रतिपद सुखद अनुभूति का सिद्धान्त ।
(1) लघु-पदों का सिद्धान्त (Principle of Small Steps) – अभिक्रमित अधिगम या अनुदेशन में विषय-वस्तु को छोटे-छोटे पदों में बाँटा जाता है। जिससे प्रत्येक पद को स्पष्ट व सरलतापूर्वक पढ़ाया जा सके व इसका पृथक् रूप से मूल्यांकन कर बालक की उपलब्धि का पता लगाया जा सके। विषय-वस्तु को बाँटने का क्रम ‘सरल से जटिल’ व ‘ज्ञात से अज्ञात की ओर’ होता है ये सभी पद अर्थपूर्ण होते हैं। स्किनर के अनुसार विषय-वस्तु को छोटे-छोटे पदों में विभाजित करके सीखने में सहायता मिलती है। इस छोटे प्रारूप या पद को फ्रेम कहते हैं। ये पद आपस में जुड़कर समग्र रूप से ज्ञान प्रदान करते हैं। ये सभी पद आपस में एक शृंखला की तरह जुड़कर अर्थयुक्त बनते हैं।
(2) सक्रिय अनुक्रिया का सिद्धांत (Principle of Active Responding) — इसमें प्रत्येक चयन किया गया तत्व एक उत्तेजक की तरह कार्य करता है, जो विद्यार्थी को उसके प्रति सक्रिय रूप से अनुक्रिया करने के लिए बाध्य करता है। वैसे भी शोध कार्यों द्वारा यह स्पष्ट हुआ है कि विद्यार्थी अधिगम प्रक्रिया में जब तत्पर रहता है, तब ही वह अधिक सीख पाता है । अत: इस सिद्धांत द्वारा अधिगम प्रक्रिया को ‘करके सीखना’ पर आधारित होता | बालक विषय-वस्तु के साथ जब सक्रिय अनुक्रिया करता है तब वह सरलता से सीख जाता है। अतः सक्रिय अनुक्रिया द्वारा बालक पाठ्य वस्तु का तत्परता के साथ अध्ययन करता है । साथ-ही-साथ पढ़े हुए पाठ को समझकर सक्रिय-अनुक्रिया करना होता है । अतः इसे उत्तर देना होता है।
(3) तत्काल पुनर्बलन का सिद्धांत (Principle of Immediate Reinforcement)- यह सिद्धांत पुनर्बलन सम्बन्धी मनोवैज्ञानिक संप्रत्यय पर आधारित है। सक्रिय सहयोग के लिए इस तकनीक के लिए यह अत्यन्त आवश्यक समझा गया है कि विद्यार्थी के मनोबल को निरंतर बनाए रखा जाए। इसलिए इस सिद्धांत में उत्तर या परिणाम की तुरंत जाँच की जाती है। वह अभिक्रमित अध्ययन सामग्री में उपलब्ध सही उत्तर को देखकर अपने उत्तर की पुष्टि कर सकता है। इससे उसे आन्तरिक संतुष्टि एवं बल मिलता है जिसके कारण सीखने की क्रिया की गति बढ़ जाती है। इस प्रकार से परिणामों की जानकारी पुनर्बलन का कार्य करती जो अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होता है।
(4) स्व-गति का सिद्धांत (Principle of Self-pacing) – ये सिद्धान्त व्यक्तिगत विभिन्नता पर आधारित है, क्योंकि इस जगत में कोई भी दो विद्यार्थी किसी भी दृष्टि से समान नहीं होते। प्रत्येक की ग्रहणशीलता व अधिगम की क्षमता, किसी दूसरे से अलग होती है, इस प्रकार विद्यार्थी समान गति से ज्ञान को अर्जित भी नहीं कर सकते। इसलिए इस शिक्षण व्यवस्था में विद्यार्थी को अपनी अधिगम गति स्वयं निर्धारित करने की स्वतंत्रता प्रदान की जाती है। इस कारण से अभिक्रमित अनुदेशन को वैयक्तिक रूप में शिक्षण या अनुदेशन प्राप्त करने की तकनीक कहा जा सकता है। इसकी मूल धारणा में प्रत्येक बालक (सीखने वाला) अपनी गति (बुद्धि, क्षमता, योग्यता आदि) के अनुसार सीखाता है। किसी बालक को, अन्य बालक के साथ चलने या सीखने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।
(5) स्व-परीक्षण का सिद्धांत (Principle of Self-testing) – परीक्षण या मूल्यांकन के द्वारा ही विद्यार्थियों को कमजोरियों एवं कार्यक्रम की कमियों के विषय में पता चलता है जिससे कि कार्यक्रम के पुनः निर्धारण में सहायता मिलती है। इससे कार्यक्रम की विश्वसनीयता व वैधता को बढ़ाकर उसे अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है। इसमें बालक स्वयं अपना परीक्षण या मूल्यांकन करता है और जान पाता है कि उसने कितना सीखा है और कितना शेष रह गया है।
(6) सुखद अनुभूति का सिद्धांत (Principle of Gaiety) – स्व-मूल्यांकन के बाद जो सफलता प्राप्त होती है, तो प्रसन्नता का अनुभव होता है। इस सफलता का स्तर जितना अधिक ऊँचा होता है, सुख की अनुभूति भी उतनी ही अधिक होती है। अभिक्रमित अध्ययन में प्रत्येक विद्यार्थी को सीखने की प्रक्रिया के प्रत्येक कदम पर सफलता का ज्ञान कराकर ऐसी सुखद अनुभूति करने का अवसर प्रदान किए जाते हैं।
अभिक्रमित अनुदेशन की आवश्यकता (Need of Programmed Instruction)
अभिक्रमित अनुदेशन की निम्नलिखित रूप से आवश्यकता है :
(i) प्रत्येक विद्यार्थी की अपनी गति होती है और वह उसी के अनुसार सीखता है इसलिए अपनी गति के अनुसार सीखने के लिए अभिक्रमित अनुदेशन की आवश्यकता महसूस हुई।
(ii) विद्यार्थियों को उनकी सफलता की जानकारी देने के लिए अभिक्रमित अनुदेशन की आवश्यकता होती है।
(iii) विद्यार्थियों को उनकी गलतियों को दूर करने के लिए तत्कालीन पृष्ठ-पोषण चाहिए जिसकी व्यवस्था अभिक्रमित अनुदेशन में है।
अभिक्रमित अनुदेशन की सीमाएँ (Limitations of Programmed Instruction)
उपरोक्त विशेषताओं के होते हुए भी अभिक्रमित अनुदेशन की निम्नलिखित सीमाएँ हैं-
(i) इसमें विद्यार्थियों की रुचि व आवश्यकता पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।
(ii) इसमें बालक नियंत्रित परिस्थितियों में ही सीख सकता है।
(iii) इसके द्वारा शिक्षण करने के लिए प्रशिक्षित अध्यापकों की आवश्यकता होती है।
(iv) इसमें शिक्षण करने के लिए पदों की रचना करना कठिन होता है।
(v) ये अधिकतर पिछड़े बालकों, मन्द-बुद्धि बच्चों के लिए अधिक उपयोगी होती है, प्रतिभाशाली बालकों के लिए नहीं।
(vi) इसके द्वारा उपचारात्मक शिक्षण सम्भव नहीं हो पाता है।
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