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दल-शिक्षण- अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ, आवश्यकता, लाभ तथा सीमाएँ | Team Teaching in Hindi

दल-शिक्षण
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दल-शिक्षण क्या है? Team Teaching in Hindi

शैपलिन तथा ओल्ड के अनुसार, “दल शिक्षण अनुदेशनात्मक संगठन का वह प्रकार है जिसमें शिक्षण प्रदान करने वाले व्यक्तियों को कुछ छात्र सुपुर्द कर दिए जाते हैं। शिक्षण प्रदान करने वालों की संख्या दो या दो से अधिक होती है, जिन्हें शिक्षण का दायित्व सौंपा जाता है तथा जो एक छात्र समूह को सम्पूर्ण विषय-वस्तु या उसके किसी महत्त्वपूर्ण अंग का एक साथ शिक्षण कराते हैं।”

कालो आलसन के शब्दों में, “यह एक शैक्षणिक परिस्थिति है जिसमें अतिरिक्त ज्ञान व कौशल से युक्त दो या अधिक अध्यापक पारस्परिक सहयोग से किसी शीर्षक के शिक्षण की योजना बनाते हैं तथा एक ही समय में एक छात्र समूह को विशिष्ट अनुदेशन हेतु लोचवान कार्यक्रम तथा सामूहिक विधियों का प्रयोग करते हैं।”

दल शिक्षण की विशेषताएँ

दल-शिक्षण की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

(i) दल-शिक्षण अनुदेशनात्मक संगठन का एक विशिष्ट प्रकार है जो पूरी तरह से औपचारिक होता है।

(ii) दल-शिक्षण शिक्षक दल को सामूहिक उत्तरदायित्व प्रदान करता है।

(iii) दल शिक्षण के लिए निश्चित संख्या में कुछ शिक्षण कर्मचारी होते हैं तथा उन्हें निश्चित संख्या में कुछ छात्र अनुदेशन हेतु प्रदान किए जाते हैं। इससे शिक्षण कर्मचारियों तथा छात्रों में एक विशिष्ट प्रकार के सम्बन्ध स्थापना पर बल दिया जाता है।

(iv) दल-शिक्षण में अध्यापक दल द्वारा औपचारिक ढंग से की गई अनुदेशनात्मक क्रियाएँ सम्मिलित की जा सकती हैं।

(v) अनुदेशनात्मक व्यवस्था ऐसी होती है, जो सम्पूर्ण विद्यालय व्यवस्था के साथ समन्वित हो सके।

(vi) दल-शिक्षण के लिए एक साथ दो या से अधिक अध्यापक कक्षा-कक्ष में छात्रों को अनुदेशन प्रदान करते हैं।

(vii) दल-शिक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत अनुदेशन पूरी तरह से पूर्व नियोजित तथा व्यवस्थित होता है।

(viii) प्रत्येक शिक्षक को कुछ सामूहिक तथा कुछ व्यक्तिगत उत्तरदायित्व प्रदान किए जाते हैं

(ix) सभी अध्यापक तथा अन्य शिक्षा कर्मचारी पूर्ण पारस्परिक सहयोग के साथ कार्य करते हैं।

(x) सभी अध्यापकों तथा शिक्षण कर्मचारियों के कार्य किसी एक विशिष्ट पाठ्य-वस्तु या उसके किसी एक महत्त्वपूर्ण अंग से सम्बन्धित अनुदेशन प्रदान करने तक ही सीमित रहती है।

(xi) कक्षा-कक्ष में गए सभी अध्यापकों तथा अन्य कर्मचारियों की स्थिति पहले से ही निश्चित कर दी जाती है। इनमें से किसी को एक संयोजक, किसी को वरिष्ठ अध्यापक, किसी को अध्यापक तो किसी को घनिष्ठ अध्यापक जैसी स्थितियाँ प्रदान की जाती हैं।

(xii) आवश्यकता पड़ने पर दल- शिक्षण हेतु विद्यालय के बाहर के कुछ विशेषज्ञों की सहायता व सहयोग भी किया जा सकता है।

(xiii) एक दल में कितने सदस्य हों, निश्चित नहीं होती है।

दल-शिक्षण की आवश्यकता (Needs of Team-Teaching)

आधुनिक युग में दल-शिक्षण की दिनोंदिन आवश्यकता बढ़ती जा रही है। इसके निम्नलिखित कारण हैं-

(1) शिक्षकों का अभाव- प्रथम और विशेष तौर पर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शिक्षकों की संख्या में कमी आई। अनेक शिक्षक अच्छे वेतन प्राप्त करने की दृष्टि से अन्य व्यवसायों में चले गए, जिनके स्थान पर अपेक्षाकृत कम योग्यता वाले शिक्षक आए इस प्रकार शिक्षकों का अभाव संख्यात्मक तथा गुणात्मक दोनों ही दृष्टिकोणों से हुआ। इस अभाव को विशेष तौर से गुणात्मक विकास को दूर करने हेतु दल- शिक्षण की आवश्यकता हुई ।

(2) छात्र-शिक्षण में वृद्धि – पिछले दशकों में कक्षाओं में छात्रों की संख्या पर्याप्त मात्रा में बढ़ी है। जिन कक्षाओं में सामान्यतः 20-25 छात्र होते थे, आज उन्हीं कक्षाओं में 60-65 छात्र पाये जाते हैं।

एक अकेले अध्यापक के लिए इतने छात्रों को सम्भालना, अनुशासन में रखना तथा उनकी शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना सम्भव नहीं है। इसलिए आवश्यकता इस बात की अनुभव हुई कि कक्षा में 60-65 छात्रों का मुकाबला करने के लिए एक अकेले अध्यापक को न भेजा जाए, अपितु कई अध्यापक मिल कर एक दल के रूप में कक्षा में जाएँ और छात्रों को शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति करें।

(3) विज्ञान की प्रगति – विज्ञान की प्रगति का स्पष्ट प्रभाव शिक्षा कला पर पड़ता है। विज्ञान ने शिक्षा जगत को आज विविध प्रकार के शिक्षण यंत्र तथा वैज्ञानिक उपकरण प्रदान किए हैं। कक्षा-कक्ष में इनका प्रयोग अकेला अध्यापक नहीं कर सकता है। उसे इनके प्रयोग के लिए लिपिक, टैक्नीशियन तथा विद्युत कर्मचारी आदि की आवश्यकता पड़ती है । इन व्यक्तियों की उपस्थिति के कारण शिक्षक न केवल अपना कार्य अधिक सुगमता से करता है, अपितु उसके कारण शिक्षण कार्य पर चिंतन करने के लिए अधिक समय एवं श्रम भी उपलब्ध होता है।

(4) पाठ्यक्रमों में परिवर्तन- पिछले तीन-चार दशकों में विश्व के प्रायः प्रत्येक राष्ट्र की शिक्षा व्यवस्था में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं। शिक्षा जगत के इन परिवर्तनों में सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन पाठ्यक्रमों में हुआ है। शैक्षणिक विषयों की संख्या बढ़ी है, नए-नए विषयों का विकास हुआ, विषयों में विशिष्टीकरण और भी सूक्ष्म हुआ है तथा विषयों का महत्त्व भी दब गया है। पाठ्यक्रम के इस बदलाव के कारण शिक्षण भी कठिन हो गया। अब यह कठिन लगता है कि एक शिक्षक इन नवीन तकनीकी विषयों का अकेला ही सफलतापूर्वक ज्ञान प्रदान कर सकेगा।

(5) ज्ञान की वृद्धि – पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न विषयों से सम्बन्धित ज्ञान में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। प्रत्येक विषय की व्याख्या व विवेचना वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर की जाने लगी है। इतना ही नहीं, आज ज्ञान की खोज भी बड़ी तीव्र गति से हो रही है। इसलिए छात्रों को नवीनतम ज्ञान देने की आवश्यकता होती है। एक अकेला शिक्षक अपने छात्रों को नवीनतम ज्ञान नहीं दे सकता है, क्योंकि प्रत्येक अध्यापक के ज्ञान की मात्रा सीमित होती है। विषयों के विशिष्टीकरण के कारण भी आज प्रत्येक अध्यापक का भी विशिष्टीकरण हो गया है। दल- शिक्षण से विशिष्टीकृत ज्ञान प्रदान करने में सहायता मिलती है।

(6) नवीन शिक्षा योजनाओं का विकास – विगत कुछ वर्षों से विभिन्न विद्वानों ने कुछ विशिष्ट शिक्षण योजनाओं का विकास किया। इनमें बिनेट का प्लान तथा डाल्टन प्लान का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। इस प्रकार की शिक्षण योजनाएँ व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षण कार्य करने पर बल देती । अकेला शिक्षक न तो एक कक्षा के सभी छात्रों की व्यक्तित्व विभिन्नताओं का पता ही कर सकता है और न यह उन सबकी विभिन्नीकृत आवश्यकताओं की पूर्ति ही कर सकता । इसलिए कक्षा का उत्तरदायित्व एक साथ कई अध्यापकों को सौंपा जाता है।

(7) व्यक्तिगत विभिन्नताओं की स्वीकृति – मनोविज्ञान ने शिक्षा के क्षेत्रों में क्रांति ला दी है। इन्हीं क्षेत्रों में एक क्षेत्र व्यक्तिगत विभिन्नताओं का है। अब बालक शिक्षा के लिए नहीं, अपितु शिक्षा, बालक के लिए हैं। इस तथ्य के अनुसार बालक की जो योग्यताएँ, क्षमताएँ तथा प्रवृत्तियाँ आदि हैं, उसे उसी के अनुसार शिक्षा दी जानी चाहिए। इसलिए आज औसत मंद बुद्धि, तीव्र बुद्धि तथा मेधावी आदि सभी प्रकार के बालकों के लिए पृथक्-पृथक प्रकार की शिक्षण विधियाँ अधिक उपयुक्त होती हैं, इस उद्देश्य से ‘दल-शिक्षण आवश्यक हो गया।

(8) शिक्षा तकनीक का विकास- पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा-तकनीक का विकास होना भी एक प्रमुख घटना है। इस सम्बन्ध में शैक्षिक दूरदर्शन का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। शैक्षिक दूरदर्शन के अलावा अभिक्रमित अधिगम का भी इन्हीं वर्षों में विकास किया गया इन सबके विकास का स्पष्ट प्रभाव विद्यालय संगठन पर पड़ा है। इन सबका उपयोगी ढंग से प्रयोग हो सके, इसके लिए दल-शिक्षण अनिवार्य है। फोर्ड फाउण्डेशन के एक प्रतिवेदन में इस सम्बन्ध में कहा गया है, “शैक्षिक दक्षताओं का प्रयोग दल-शिक्षण की सहायता से सरल हो गया है।”

दल के सदस्य (Member of Team)

दल-शिक्षण के लिए अध्यापकों तथा अन्य कर्मचारियों के लिए एक दल की आवश्यकता होती है। इस दल में कुल कितने सदस्य हों तथा कौन-कौन से सदस्य हों, यह बहुत कुछ विद्यालय के स्तर, विद्यालय के पास उपलब्ध साधन तथा विषय-वस्तु की विशेषता पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए एक साधनहीन प्राथमिक विद्यालय में दो या तीन अध्यापक ही दल का गठन कर लेते हैं, जबकि किसी साध सम्पन्न उच्च माध्यमिक विद्यालय में कई श्रेणी के अध्यापक बिजली मिस्त्री, तकनीकी व्यक्ति तथा एक-दो लिपिकीय कर्मचारी मिलकर दल का गठन कर सकते हैं। जिन व्यक्तियों के पास साधन उपलब्ध होते हैं, वहाँ पर निम्नलिखित व्यक्तियों का दल गठित किया जाता है— (i) प्रधानाध्यापक, (ii) दल संयोजक, (iii) वरिष्ठ अध्यापक, (iv) कनिष्ठ अध्यापक, (v) प्रयोगशाला सहायक, (vi) लिपिक, (vii) शरीर शिक्षा अध्यापक, (viii) कला अध्यापक व संगीत अध्यापक।

इसमें भी यह बहुत कुछ उपलब्ध साधनों पर निर्भर करता है कि विभिन्न स्तरों के अध्यापकों की संख्या कितनी हो । संयोजक दो या तीन भी हो सकते हैं, जो विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित कार्यों का समन्वय करेंगे। इसी प्रकार वरिष्ठ व कनिष्ठ अध्यापकों की संख्या भी कम या अधिक हो सकती है। दल-शिक्षण व्यवस्था में दल के विभिन्न सदस्यों की क्या स्थिति रहती है, इसका निर्धारण करने के लिए विभिन्न विद्वानों, प्रशासकों तथा विद्यालयों ने अपने-अपने प्रारूप विकसित कर रखे हैं। नीचे लैवि संगठन शिक्षण दल प्रारूप का एक ऐसा ही नमूना दिया गया है, वह प्रारूप सैपलिन तथा ओल्ड ने अपनी पुस्तक ‘टीम टीचिंग’ में दिया है।

(1) लघु रूप-

दल के सदस्य

इसमें TL = Team Leader ( दल संयोजक), ST = Senior Teacher (वरिष्ठ अध्यापक), T = Teacher (अध्यापक), TA = Teacher Aide (अध्यापक सहायक), CA = Clerical Aide (लिपिकीय सहायक) ।

(2) वृहत् रूप- बड़े विद्यालयों के लिए लैवि संगठन शिक्षा दल को एक वृहत् प्रारूप का भी विकास किया गया, यह प्रारूप नीचे दिया जा रहा है-

दल के सदस्य

इस प्रारूप में दल का गठन सीधे प्राचार्य की देख-रेख में हुआ है तथा तीन संयोजक हैं, जो पृथक्-पृथक् क्षेत्रों से सम्बन्धित मामलों को संयोजन करेंगे तथा प्रत्येक संयोजक को एकाधिक वरिष्ठ अध्यापक दिए गए हैं। जहाँ तक भारतीय विद्यालयों का प्रश्न है, यहाँ आर्थिक तथा व्यवस्थागत कारणों से इतने वृहत् स्तर के दलों को गठित किया जा सकता है। भारतीय विद्यालयों में लघु-आकार के दल ही गठित किए जा सकते हैं। इन लघु-दलों में एक दल नेता, एक-दो सहयोगी अध्यापक तथा एक-दो सहायक रखे जा सकते हैं। दल नेता विषय-वस्तु पढ़ा रहा है, उसमें सम्बन्धित विषयानुसार आवश्यक मात्रा में सहयोगी अध्यापकों की आवश्यकता पड़ेगी तथा एक लिपिक एक ऐसे चपरासी की आवश्यकता पड़ेगी जो थोड़ा-बहुत बिजली का काम भी जानता हो। यही व्यक्ति श्रव्य-दृश्य सामग्री का दल नेता निर्देशानुसार प्रयोग करेगा। इस दल के प्रारूप को हम निम्न प्रकार से व्यक्त कर सकते हैं :

विभिन्न विषयों से

सम्बन्धित सहयोगी दल नेता लिपिकीय सहायक सामान्य सहायक
अध्यापक प्रमुख शिक्षक   छात्र

दल शिक्षण के लाभ (Advantages of Team Teaching)

दल- शिक्षण के अग्रलिखित लाभ हैं: 

(1) अनुदेशन में वृद्धि – दल शिक्षण के अन्तर्गत एक साथ कक्षा में नई अनुभवी व प्रतिष्ठित अध्यापक आते हैं। इतने अध्यापकों के होते कक्षा में अनुशासनहीनता की समस्या उत्पन्न नहीं होती है।

 (2) विशिष्टीकृत अनुदेशन सम्भव- दल-शिक्षण के अन्तर्गत विभिन्न विषयों तथा कार्यों के विशिष्ट अध्यापक तथा व्यक्ति दल का गठन करते हैं। ये विशिष्ट व्यक्ति अपने-अपने विषयों से सम्बन्धित अनुदेशन प्रदान करते हैं। इससे छात्रों को विभिन्न विषयों की आधुनिकतम जानकारी प्राप्त होती है।

(3) वार्ताओं के लिए अवसर- दल-शिक्षण में वाद-विवाद को प्रमुख स्थान दिया जाता है। इसमें छात्रों तथा अध्यापकों को विषय सम्बन्धी उपयोगी वार्ता करने का अवसर मिलता है।

(4) नियोजित शिक्षण सम्भव- दल-शिक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत जब दल कक्षा-कक्ष में शिक्षण हेतु आते हैं तो अपने विभिन्न कार्यों तथा विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण के सदस्य की पूरी तरह योजना बना लेते हैं। इससे नियोजित शिक्षण सम्भव है।

(5) श्रव्य-दृश्य सामग्री का उचित प्रयोग – दल शिक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत श्रव्य-सामग्री का अधिक प्रयोग करना सम्भव होता है । अतः इस प्रकार की सामग्री के समस्त लाभ दल- शिक्षण को भी प्राप्त होते हैं।

(6) मानवीय सम्बन्धों की स्थापना – दल शिक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत छात्र तथा शिक्षकों के मध्य अधिक निकट सम्बन्ध स्थापित होने की सम्भावना होती है। इससे छात्रों का संतुलित सामाजिक विकास सम्भव होता है।

(7) लोचनशीलता – दल-शिक्षण के सभी कार्यों में लोच होती है। यह एक अध्यापक तथा कर्मचारी वर्ग तथा सहायक सामग्री तथा अन्य व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में अधिक लोचवान नीति अपनाती है।

(8) शिक्षकों के ज्ञान में वृद्धि – दल- शिक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षक को न केवल छात्रों की उपस्थिति में पढ़ाना पड़ता है, अपितु उन्हें अन्य अध्यापकों तथा कर्मचारियों की उपस्थिति में भी पढ़ाना पड़ता है।

दल-शिक्षण की सीमाएँ (Limitations of Team Teaching)

एक ओर दल-शिक्षण के इतने सारे गुण या लाभ हैं, वहीं दूसरी ओर इसकी अपनी कुछ सीमाएँ तथा दोष भी हैं। नीचे इन्हीं सीमाओं का उल्लेख किया है:

(1) सहयोग की भावना अनिवार्य- दल शिक्षण की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि दल के सभी सदस्य सहयोग की भावना से कार्य करें। सामान्यतया दल के सदस्यों में वांछित मात्रा में सहयोग की भावना कम ही पायी जाती है। परिणामस्वरूप दल- शिक्षण अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं रहता है।

(2) स्वतंत्र शिक्षण का हनन – कुछ ऐसे सफल शिक्षक होते हैं, जो अकेले ही बहुत ही प्रभावी शिक्षण अपने छात्रों को प्रदान करते हैं। दल-शिक्षण ऐसे सफल शिक्षकों को निराश करती है, क्योंकि यहाँ वे सफल शिक्षण का श्रेय स्वयं नहीं ले पाते हैं।

(3) समन्वय स्थापना में कठिनाई- तीव्र व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण अनेक बार दल संयोजक को विभिन्न शिक्षकों तथा अन्य कर्मचारियों के कार्यों में समन्वय करने में कठिनाई हो जाती है। इनके कार्यों में जब तक समन्वय नहीं होगा तब तक दल शिक्षण सफल नहीं हो सकता है ।

(4) आर्थिक स्तर- दल-शिक्षण के लिए विद्यालय को अनेक प्रकार की व्यवस्थाएँ व साधन जुटाने पड़ते हैं। परिणामस्वरूप, इन पर काफी व्यय विद्यालय को करना पड़ता इससे उन पर आर्थिक भार हो जाता है।

(5) अतिरिक्त व्यवस्था की आवश्यकता- दल-शिक्षण के लिए न केवल अतिरिक्त धन की ही आवश्यकता पड़ती है, अपितु कुछ अन्य अतिरिक्त व्यवस्थाएँ भी करनी पड़ती हैं, जिनके लिए बहुत अधिक मात्रा में धन की आवश्यकता पड़ती है। जैसे दल-शिक्षण के लिए काफी बड़े-बड़े कमरों की आवश्यकता पड़ती है ।

दल-शिक्षण के कुछ सुझाव

दल-शिक्षण को सफलता प्रदान करने के लिए कुछ बातें आवश्यक होती हैं। इन बातों को सुझाव के रूप में नीचे दिया जा सकता है-

(1) दल का गठन- दल-शिक्षण के लिए दल का गठन बड़ी सावधानी से करना चाहिए। दल के सदस्यों का चुनाव करते समय निम्न बातें ध्यान में रखी जाएँ :

(i) दल के सदस्य विभिन्न विषयों से सम्बन्धित हों।

(ii) उनकी क्षमताएँ तथा योग्यताएँ पृथक्-पृथक् हों

(iii) दल के विभिन्न सदस्यों की स्थिति को सुनिश्चित क्रम दिया जाए।

(iv) प्रत्येक सदस्य के दायित्व सदस्य को स्पष्ट हों।

(v) प्रत्येक सदस्य के कार्यों में समन्वय स्थापित किया जाए।

(2) पर्याप्त व्यवस्था- दल-शिक्षण के लिए पर्याप्त एवं सहायक सामग्री तथा अन्य वस्तुओं तथा उपकरणों की पूर्ण व्यवस्था पहले से ही कर ली जाए।

(3) व्यवस्थित नियोजन दलशिक्षण का कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व विषय-वस्तु पाठ सामग्री आदि की पूर्ण व्यवस्थित योजना पहले से ही बना लेनी चाहिए।

(4) समय तत्त्व का निर्धारण- दल-शिक्षण में समय तत्त्व का पर्याप्त महत्त्व होता है। अतः सभी क्रियाओं का निर्धारण समय तत्त्व के संदर्भ में कर लेना चाहिए तथा प्रत्येक क्रिया के लिए समय निश्चित कर देना चाहिए। इस हेतु सुविचार समय चक्र बना लेना ठीक रहता है।

(5) निरीक्षण की व्यवस्था – सम्पूर्ण दल तथा दल के प्रत्येक सदस्य के कार्य की न केवल निरीक्षण करने की व्यवस्था हो, अपितु उनके कार्यों का मूल्यांकन करने की व्यवस्था भी कर लेनी चाहिए। मूल्यांकन के द्वारा दल-शिक्षण की सफलता का भी मूल्यांकन करना चाहिए।

संक्षेप में, आज कक्षाओं, छात्रों की विशेषताओं तथा विषयों के बाहुल्य तथा कठिनाई स्तर को देखते हुए कहा जा सकता है कि दल -शिक्षण आज भी आवश्यक तथा अनिवार्य है, किन्तु हमें यह देखना है कि दल-शिक्षण को गम्भीरता के साथ लिया जाए और दल में केवल वही शिक्षक तथा अन्य कर्मचारी सम्मिलित किए जाएँ, जो अपना पूर्ण सहयोग प्रदान कर सकते हैं। यह बहुत कुछ दल के नेता पर भी निर्भर करता है कि वह अन्य का किस प्रकार तथा किस सीमा तक सहयोग प्राप्त कर सकता है। अतः नेता ऐसा हो, जिसमें यथेष्ट मात्रा में नेतृत्व का गुण हो।

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