पृच्छा अधिगम क्या है?(What is inquiry learning? )
हम सबका अनुभव है कि जब बच्चों के सामने कोई नई वस्तु उपस्थित होती है तो वे अपनों से बड़ों से यह प्रश्न करते हैं कि यह क्या है। सामान्य जीवन में हम देखते हैं कि जब कोई घटना घट जाती है तो उस घटना के कारणों को पता लगाने के लिये सम्बन्धित लोग जानकारी एकत्रित करते हैं। सामान्य रूप में इसी प्रक्रिया को पृच्छया अथवा पूछना कहते हैं, परन्तु मनोविज्ञान में इसका अर्थ इससे कुछ अधिक होता है। मनोविज्ञान की भाषा में जब किसी व्यक्ति के मन में किसी वस्तु, तथ्य अथवा क्रिया के विषय में स्वाभाविक रूप से जानने की इच्छा जागृत होती है और वह उसके विषय में भिन्न-भिन्न स्रोतों—जानकार व्यक्तियों, पुस्तकों एवं अन्य अधिकारी विद्वानों आदि से जानकारी प्राप्त कर उसके विषय में स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करता है तो इस प्रकार सीखने की विधि को पृच्छया कहते हैं और इस प्रकार सीखने को पृच्छा सीखना कहते हैं।
इस विधि से सीखने के निम्नांकित पद होते हैं-
1. समस्या की उपस्थिति (Presentation of Problem)- सर्वप्रथम छात्र के सामने समस्या उपस्थित की जाती है अथवा वह स्वयं ही किसी समस्या का अनुभव करता है। इसके पश्चात् वह समस्या का स्पष्ट कथन करता है और उसके प्रत्येक पद (शब्द) की व्याख्या करता है ओर उसके हल की एक प्रक्रिया निश्चित करता है।
2. समस्या के सम्बन्ध में विभिन्न स्रोतों की जानकारी (Inquiry from Different Source)- समस्या के कथन एवं उसके शब्दों की व्याख्या करने के पश्चात् वह उससे सम्बन्धित जानकारी, विभिन्न व्यक्तियों, संस्थानों, पुस्तकों एवं उस विषय में निष्णात विद्वानों से प्राप्त करता है । इस जानकारी द्वारा वह समस्या के कारणों और उन्हें दूर करने के विषय में स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करता है।
3. प्राप्त जानकारी का सत्यापन (Verification of the Knowledge)— इस अन्तिम पद पर छात्र समस्या से सम्बन्धित कारण एवं उसके हल से सम्बन्धित ज्ञान अथवा तथ्यों की सत्यता की समान परिस्थिति में जाँच करता है। जाँच के पश्चात् जो तथ्य सत्यता की कसौटी पर खरे उतरते हैं उन्हें वह समस्या के समाधान के तथ्य, नियम अथवा सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत करता है।
इस विधि द्वारा छात्र स्वयं ही विभिन्न स्रोतों से जानकारी प्राप्त कर किसी समस्या का हल ढूँढ़ कर तत्सम्बन्धी तथ्य, नियम अथवा सिद्धान्त से सीखता है।
अधिगम (सीखने) के स्तर (Levels of Learning)
सीखना एक सतत् प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति सर्वप्रथम अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा किसी वस्तु, क्रिया, तथ्य अथवा विचार की जानकारी प्राप्त करता है। उसके बाद वह उन्हें समझाने का प्रयास करता है और अन्त में परिस्थितिवश उनका प्रयोग करता है। सीखना तभी पूर्ण होता है जब वह उसका प्रयोग करना सीख ले। सीखना एक मानसिक प्रक्रिया है और मनोवैज्ञानिकों ने इस मानसिक प्रक्रिया द्वारा सीखने को तीन स्तरों में विभाजित किया है। इन तीन स्तरों को सीखने का स्तर कहा जाता है। ये स्तर निम्नानुसार हैं-
(i) स्मृति स्तर का सीखना (Memory Level Learning) – जब सीखने वाला किसी वस्तु, क्रिया, तथ्य अथवा विचार को बिना सोचे-समझे या उसका अर्थ समझे सीख लेता है तो इस प्रकार का सीखना स्मृति स्तर का सीखना कहलाता है। इस प्रकार के सीखने में व्यक्ति कोई विचार नहीं करता कि वह क्या सीख रहा है इसलिये इसे विचारहीन सीखना भी कहते हैं। स्मृति स्तर के सीखने में प्रायः निम्नांकित चार प्रक्रियाएँ पूरी होती हैं-
(a) ग्रहण (Perception) – सर्वप्रथम सीखने वाला किसी वस्तु, क्रिया, तथ्य आदि का ज्ञान ज्ञानेन्द्रियों द्वारा करता है। इस प्रक्रिया में इन वस्तु, क्रिया और तथ्य की प्रतिमाएँ अथवा चिन्ह उसके अचेतन मन में संचित हो जाते हैं। इस क्रिया को मनोविज्ञान की भाषा में ग्रहण या ग्रहण कहते हैं।
(b) धारण (Retention)- व्यक्ति ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त वस्तु, क्रिया अथवा तथ्य आदि के चिन्हों को कुछ समय तक मस्तिष्क में स्थिर रखता है। इस क्रिया को धारण कहते हैं । यह धारण अल्पकालीन या दीर्घकाल के लिये हो सकता है। यह धारण शक्ति व्यक्ति की आयु, शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य आदि पर निर्भर करती है।
(c) प्रत्यास्मरण (Recall)- धारण किये हुए ज्ञान को पुनः चेतन मन में लाना प्रत्यास्मरण कहलाता है यह क्षमता भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न होती है। कुछ व्यक्ति सम्पूर्ण धारण किये गये ज्ञान को चेतन स्तर पर ले आने की क्षमता रखते हैं तो कुछ व्यक्ति उसके अंश को ही चेतन मन में ला सकते हैं। कुछ व्यक्ति सम्पूर्ण ज्ञान को ही चेतन मन में लाने में असफल होते हैं। इसे विस्मरण कहा जाता है।
(d) पहचान (Recognition)- धारण किये गये ज्ञान को चेतन मन में लाकर उन्हें कुछ अनुभवों से अलग करना, कुछ से जोड़ना और उन्हें स्पष्ट समझ कर अभिव्यक्त करना मनोवैज्ञानिक भाषा में पहचान करना कहलाता है सीखने वाले में उपर्युक्त वर्णित चारों प्रक्रियाएँ जितने सही रूप से होती हैं उसका सीखने का स्तर भी उतना ही अच्छा होता है।
(ii) अवबोध स्तर का सीखना (Understanding Level Learning)- जब व्यक्ति सोच-समझ कर किसी वस्तु, क्रिया, तथ्य अथवा विचार का ज्ञान प्राप्त करता है तो उसे अवबोध स्तर का सीखना कहते हैं। इस स्तर को सीखने के लिये व्यक्ति अपनी बुद्धि का प्रयोग करता है और इस पर विचार करता है इसलिये इसे विचारपूर्ण सीखना भी कहते हैं। अवबोध स्तर पर सीखने में निम्नांकित क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं—
(a) सीखे गये ज्ञान को पूर्व ज्ञान के आधार पर समझना ।
(b) सीखे गये ज्ञान का विश्लेषण करना और उसमें कोई कार्य-कारण सम्बन्ध ढूँढ़ना।
(c) इसमें छिपे तथ्यों की खोज करना।
(d) इससे मिलते-जुलते तथ्यों से विभेद करना।
(e) अपने शब्दों में अभिव्यक्त करना।
(f) नवीन परिस्थिति में उपयोग करना।
उपर्युक्त वर्णित क्रियाएँ सीखने वाले द्वारा जितने सही ढंग से पूर्ण होती हैं उतना ही व्यक्ति का इस स्तर पर सीखना सही होता है।
(iii) चिन्तन स्तर का सीखना (Reflective Learning) – इस स्तर पर सीखने के लिए व्यक्ति को गूढ़ चिन्तन करना होता है। अवबोध स्तर के चिन्तन से भी आगे और उच्च चिन्तन करना इस स्तर के सीखने में किया जाता है। इस स्तर पर सीखने में विचारों का परिणाम महत्त्वपूर्ण होते हैं। इस स्तर पर सीखना प्रायः समस्या केन्द्रित होता है जिसमें स्मृति स्तर एवं अवबोध स्तर पर सीखना भी निहित होता है। इस स्तर पर सीखना निम्नलिखित क्रम से पूरा होता है—
(a) समस्या के स्वरूप को समझना।
(b) पूर्व ज्ञान के आधार पर समस्या के समाधान के लिये उपकल्पनाओं का निर्माण करना।
(c) एक-एक उपकल्पनाओं की प्रयोगों द्वारा सत्यता की जाँच करना।
(d) समस्या समाधान के लिये उपयुक्त परिकल्पना की पुनः जाँच करना।
इस स्तर में व्यक्ति स्मृति एवं अवबोध द्वारा प्राप्त ज्ञान एवं कौशल का प्रयोग करता है और यह उसके पूर्व ज्ञान पर अधिक निर्भर रहता है। पूर्व ज्ञान जितना विस्तृत एवं स्पष्ट होगा, उसकी चिन्तन शक्ति भी उतनी ही उच्च होगी। इस स्तर पर सीखना तर्क, चिन्तन एवं कल्पना पर आधारित होता है। अतः यह उच्चतम स्तर का सीखना होता है और इस स्तर पर सीखा गया ज्ञान एवं कौशल स्थायी होता है।
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