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मारिया मान्तेसरी के शिक्षा सिद्धान्त | Principles of education of Maria Montessary in Hindi

मारिया मान्तेसरी के शिक्षा सिद्धान्त
मारिया मान्तेसरी के शिक्षा सिद्धान्त

मारिया मान्तेसरी के शिक्षा सिद्धान्त (Principles of education of Maria Montessary)

शिक्षा के मनोवैज्ञानिक आधार का महत्त्व मान्तेसरी से पहले के शिक्षाशास्त्रियों ने भी स्वीकार किया है। रूसो ने इस बात पर बल दिया था कि शिक्षक को बालक का अध्ययन अवश्य करना चाहिए; किन्तु उसके सिद्धान्त में हम अतिवाद का दर्शन करते हैं । पेस्तालात्सी ने भी शिक्षा को मनोविज्ञानानुकूल बनाना चाहा था और उसने आनशांग का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। हरबार्ट ने पूर्व-प्रत्यक्ष तथा प्रत्यय के सिद्धान्तों को देकर शिक्षा-जगत का बड़ा उपकार किया था। मान्तेसरी रूसो के प्रकृतिवाद से प्रभावित थीं और पेस्तालात्सी के मनोविज्ञान के प्रति भी उनका आकर्षण था । उन्होंने पेस्तालात्सी के काम को आगे बढ़ाया और शिक्षण-पद्धति को नवीन मनोविज्ञान पर आधारित किया। मान्तेसरी के शिक्षा-सिद्धान्तों का संक्षेप में नीचे वर्णन किया जा रहा है-

1. स्वतन्त्रता – रूसो की भाँति मान्तेसरी भी बालकों की पूर्ण स्वतन्त्रता के पक्ष में है। बालक के व्यक्तित्व का विकास करने के लिए उसे अत्यधिक नियन्त्रण में नहीं रखा जा सकता। बालक को अपनी रुचि के अनुसार विकास करने की स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए।

सही शिक्षा प्राकृतिक एवं स्वतन्त्र वातावरण में होती है। बालक की रुचि में अवरोध उत्पन्न करने से उसके विकास में बाधा पड़ती है। मान्तेसरी ने बालक की मूल प्रवृत्तियों एवं रुचियों को ही शिक्षा का आधार माना है। उसके अनुसार स्वतन्त्र वातावरण में शिक्षा देने का उद्देश्य-बालक में स्वावलम्बन, आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास आदि गुणों को उत्पन्न करना है।

2. वैयक्तिकता का विकास- मान्तेसरी के अनुसार शिक्षा विकास की एक प्रक्रिया है किन्तु यह विकास आन्तरिक होता है। उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य बालक की ‘वैयक्तिता का विकास’ करना है। मान्तेसरी ने बालक के प्राकृतिक विकास पर बल दिया। उनके अनुसार बालक जो कुछ आगे बनेगा, वह उसमें जन्म के समय ही बीज-रूप में निहित है। अतः शिक्षक का कार्य जन्म के समय उपस्थित शक्तियों के विकास का वातावरण प्रदान करना है।

3. आत्म-शिक्षा- डॉ० मान्तेसरी का कथन है कि सच्ची शिक्षा वह है जिसमें बालक अपनी आवश्यकता के अनुसार स्वयं सीखता है। अपने आप ज्ञान की खोज करने से ज्ञान का सच्चा रूप सामने आता है। इस सिद्धान्त द्वारा स्वानुभव के सिद्धान्त के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। शिक्षक को अपनी ओर से कोई आज्ञा या निर्देश नहीं देना चाहिए। बालक जब अपने आप कुछ सीखता है और अपनी उन्नति देखता है तो वह बहुत प्रसन्न होता है।

आत्म-शिक्षा के लिए मान्तेसरी ने कुछ शैक्षिक यन्त्रों का निर्माण किया है। बालक को ये शैक्षिक यन्त्र दे दिये जाते हैं और वह उनसे खेलने लगता है । इन यन्त्रों को प्रबोधन यन्त्र कहा जा सकता है। जब बालक एक प्रकार के यन्त्र से खेलते-खेलते थक जाता है, तो उसे छोड़ देता है। फिर वह दूसरे यन्त्र की ओर प्रेरित होता है। यह प्रेरणा उसकी आत्मा से ही मिलती है। अतः बालक बड़ी रुचि के साथ खेल खेलता है और आनन्दमय हो जाता है।

4. ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण द्वारा शिक्षा – मैडम मान्तेसरी के अनुसार ज्ञानेन्द्रिय की शिक्षा का अत्यधिक महत्त्व है। ज्ञान वस्तुतः ज्ञानेन्द्रियों पर ही आधारित होता है। यदि ज्ञानेन्द्रिय निर्बल हुई तो उस इन्द्रिय से प्राप्त ज्ञान भी सदोष होगा। इसलिए वे ज्ञानेन्द्रिय की शिक्षा पर विशेष बल देती हैं । मान्तेसरी के अनुसार तीन से सात वर्ष की अवस्था के बीच बालक की ज्ञानेन्द्रियाँ विशेष रूप में क्रियाशील रहते हैं। अतः इस अवस्था में ज्ञानेन्द्रियों के विकास पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। यदि इस अवस्था में ज्ञानेन्द्रियों के विकास पर ध्यान न दिया गया तो साधारण बुद्धि बालक भी मन्द बुद्धि बालक बन जायेगा।

5. कर्मेन्द्रियों की शिक्षा- ज्ञानेन्द्रियों की भाँति कर्मेन्द्रियाँ भी मानव जीवन के लिए आवश्यक हैं। शरीर के अंग सबल बनें, इसलिए यह आवश्यक है कि अंगों के सही संचालन की शिक्षा दी जाए। जब तक माँसपेशियों को नियन्त्रित नहीं किया जाता तब तक उसे अंग-संचालन में कठिनाई का अनुभव होगा। यदि माँसपेशियों को साधा न गया तो लिखना-पढ़ना, चलना-दौड़ना कठिन हो जायेगा। अतः प्रारम्भ में बालक की माँसपेशियों को साध लिया जाय यदि बालक माँसपेशियों पर नियन्त्रण की क्षमता प्राप्त कर लेता है। तो उसमें आत्म-निर्भरता आ जाती है।

6. खेल द्वारा शिक्षा- मान्तेसरी के अनुसार शिक्षा बालक की प्रकृति के अनुकूल होनी चाहिए। बालक की रुचि खेल में स्वभाव से होती है। बालक की सबसे प्रिय वस्तु खेल है, अतः प्रारम्भ में खेल द्वारा ही शिक्षा देना ठीक है। बालक को शैक्षिक यन्त्र दे दिये जायँ और वह उनसे खेलने लगेगा। बालक के खेल में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करना ठीक नहीं है। बालक शिक्षा-यन्त्रों से खेलता रहता है और खेल में ही वर्णमाला, आदि विषय सीख जाता । इन उपकरणों की सहायता से उसकी ज्ञानन्द्रियाँ भी विकसित होती चलती हैं।

7. व्यक्तिगत आधार द्वारा शिक्षा- मान्तेसरी व्यक्ति की वैयक्तिकता को शिक्षा का उद्देश्य बताती हैं। अतः वह शिक्षा को व्यक्तिगत आधार द्वारा देना चाहती है। प्रत्येक बालक को उसके स्वभाव के अनुसार शिक्षा देनी है। अतः समूह को शिक्षा देने से काम नहीं चलेगा। कुछ पाठ ऐसे अवश्य होते हैं जिनका सामूहिक शिक्षण लाभप्रद सकता है। सामूहिकता की भावना के उदय के लिए ऐसे पाठों का सामूहिक शिक्षण किया जा सकता है, किन्तु ऐसे समय में भी व्यक्तिगत ध्यान की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।

8. तार्किक अनुशासन का सिद्धान्त- यदि बालक को स्वतन्त्रता दी जाय और उन्हें आत्म-शिक्षा के लिए प्रेरित किया जाय तो छात्रों में अनुशासनहीनता का प्रश्न ही नहीं उठेगा । अनुशासन बाहर से नहीं लाया जा सकता है। वह तो अन्तःप्रेरणा की वस्तु । अतः छात्रों में उत्तरदायित्व की भावना भर देनी चाहिए जिससे वे अनुशासन के प्रति सजग हो जायँ। बालक स्वयं ही अनुशासन स्थापित कर लेंगे। ऐसा अनुशासन तर्क पर आधारित होने के कारण अच्छा रहेगा।

9. उपयुक्त वातावरण- अभीष्ट विकास के लिए शिक्षाप्रद वातावरण बहुत आवश्यक है। डॉ० मान्तेसरी ने बाल-गृहों को वास्तविक विद्यालय बताया है क्योंकि वहाँ पर बालक है रचनात्मक कार्यों में जुटे रहते हैं और रचनात्मक कार्यों में आनन्द लेते हुए वे बहुत-सी बातें सीख जाते हैं। मान्तेसरी विद्यालयों में उपयुक्त वातावरण के निर्माण पर बहुत बल दिया जाता है।

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