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भारतीय दर्शन के शैक्षिक प्रभाव | Educational Impact of Indian Philosophy in Hindi

भारतीय दर्शन के शैक्षिक प्रभाव
भारतीय दर्शन के शैक्षिक प्रभाव

भारतीय दर्शन के शैक्षिक प्रभाव (Educational Impact of Indian Philosophy)

भारतीय छः दर्शन तथा उसके शैक्षिक प्रभाव :

(i) वैशेषिक दर्शन तथा शैक्षिक प्रभाव :

ग्रन्थ वैशेषिक दर्शन का अर्थ (Meaning of Vaisheshikas Philosophy) वैशेषिक दर्शन-ज्ञान के प्रवर्तक तथा विचारक कणाद मुनि थे। उन्होंने वैशेषिक सूत्रों की रचना की उन पर आचार्य प्रशस्तपाद ने अपना भाष्य लिखा। वैशेषिक दर्शन के मूल प्रामाणिक ये ही हैं। बाद में इन पर व्योमशिखाचार्य ने ‘व्योमवती’ तथा उदयनाचार्य ने ‘किरणावली’ नाम की टीकाएँ लिखीं। श्रीधराचार्य की ‘न्यायकन्दली’ तथा वल्लभाचार्य की ‘न्याय लीलावती’ आदि अनेक पुस्तकें वैशेषिक दर्शन के सम्बन्ध में लिखी गई हैं।

ज्ञान का अर्थ- वैशेषिक के अनुसार संसार के कुछ पदार्थ सात भागों में बाँटे जा सकते हैं- द्रव्य, गुण, कर्म, विशेष, सामान्य, समय और अभाव। पदार्थ का अभिप्राय है, ज्ञान का विषय । संसार की प्रत्येक सत्ता या प्रत्येक ज्ञातव्य (जिसे हम जान सकें) वस्तु को इन सात भागों के अन्तर्गत विभाजित किया जा सकता है।

द्रव्य नौ प्रकार के होते हैं- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन । इन नौ में से पहले पाँच वे हैं, जिन्हें, पंचभूत कहा जाता है। काल और दिशा (Time and Space) ऐसे द्रव्य हैं, जिनसे बाहर विश्व की कोई भौतिक सत्ता कल्पित ही नहीं की जा सकती। आत्मा और मन ऐसी सत्ताएँ हैं, जिनका सम्बन्ध भौतिक पदार्थों से नहीं है। पृथ्वी, जल आदि पाँच द्रव्य भौतिक हैं और इनका निर्माण परमाणुओं द्वारा हुआ है परमाणु नित्य और शाश्वत हैं वह तत्त्व जिसका विभाग नहीं किया जा सकता, परमाणु कहलाता है। परमाणुओं के संयोग से ही पृथ्वी, जल आदि द्रव्यों का निर्माण होता है ।

ज्ञान प्रक्रिया- वैशेषिक दर्शन के अनुसार ज्ञान के चार साधन हैं, प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति और आर्षज्ञान ज्ञानेन्द्रियों, मन और आत्म द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। अनुमान चार प्रकार से होता है—अनुमान से, उपमान से, शब्द से और ऐतिहा से ऐतिह्य का अभिप्राय अनुश्रुति से है। पहले जानी हुई वस्तु की याद (स्मृति) से जो ज्ञान होता है, उसे स्मृति कहते हैं। यह भी ज्ञान का साधन है। आर्षज्ञान वह है, जो ऋषियों ने अपनी अन्तर्दृष्टि से प्राप्त किया था। हम कितनी ही बातों को केवल इस आर्षज्ञान द्वारा ही जानते हैं।

(ii) न्याय दर्शन तथा इसका शैक्षिक प्रभाव 

न्याय दर्शन के प्रवर्त्तक तथा विचारक- न्याय दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम थे। उन्होंने सूत्र रूप में न्याय दर्शन की रचना की। गौतम रचित इन न्याय सूत्रों पर वात्स्यायन मुनि ने विस्तृत भाष्य लिखा। न्याय दर्शन के मूल ग्रन्थ गौतम द्वारा रचित सूत्र और उन पर किया गया वात्स्यायन-भाष्य ही हैं। बाद में न्याय दर्शन सम्बन्धी अन्य अनेक ग्रन्थ लिखे गये। सातवीं सदी में आचार्य उद्योतकर ने ‘न्याय-वार्तिक’ लिखा, जो वात्स्यायन भाष्य की व्याख्या के रूप में है। फिर वाचस्पति मिश्र ने उसके ऊपर ‘तात्पर्य टीका’ लिखी। इस तात्पर्य टीका की व्याख्या उदयनाचार्य ने ‘तात्पर्य परिशुद्धि’ नाम से की। इस प्रकार न्याय दर्शन का निरन्तर विकास होता गया । इसमें सन्देह नहीं कि न्याय दर्शन के रूप में भारत के आयों ने एक ऐसे ज्ञान को विकसित किया जिसके द्वारा पदार्थों के ज्ञान व सत्यासत्य निर्णय में बड़ी सहायता मिलती है।

न्याय दर्शन का सार – ज्ञान के आधारभूत जो विविध प्रमाण हैं, इनका खूब विस्तार से विवेचन न्याय दर्शन में किया गया है। ज्ञान के इन साधनों का विवेचन करके फिर न्याय दर्शन में संसार के विविध तत्त्वों का निरूपण कराने का प्रयत्न किया गया है। न्याय के अनुसार मूल पदार्थ या तत्त्व तीन हैं— ईश्वर, जीव और प्रकृति । जीवात्मा शरीर से भिन्न है। चार्वाक लोग शरीर और जीवात्मा में कोई भेद नहीं मानते थे। उनका कहना था कि मृत्यु के साथ ही प्राणी की भी समाप्ति हो जाती है पर नैयायिकों ने इसका खण्डन करके यह सिद्ध किया कि जीवात्मा की पृथक् सत्ता है और वह शरीर, मन व बुद्धि से भिन्न एक स्वतन्त्र तत्त्व है । इसी प्रकार ईश्वर और प्रकृति के स्वरूप का भी न्याय दर्शन में बड़े विस्तार के साथ विवेचन किया गया है।

न्याय दर्शन की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ है-

(1) इसमें ईश्वर को सृष्टि का निर्माता माना गया है।

(2) यह एक तर्कशास्त्र है।

(3) इसमें ज्ञान के स्रोतों या साक्ष्यों का विस्तृत अध्ययन किया जाता है।

(4) किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए इसमें निम्नलिखित पहलुओं पर विचार किया जाता है- (i) प्रत्यक्ष बोध, (ii) अनुमान, (iii) उपमान, (iv) शब्द ।

न्याय दर्शन की ज्ञान सम्बन्धी खोज प्रणाली तथा शिक्षा पर प्रभाव- न्याय दर्शन का प्रधान लक्ष्य यह निश्चित करना है कि सही-सही की प्राप्ति के लिए कितने और कौन-कौन से प्रमाण हैं। प्रमाण चार हैं— प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । जिस बात को हम स्वयं साक्षात् रूप से जानें, वह प्रत्यक्ष है। ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं- आँख, नाक, कान, जिह्वा और त्वचा। जब किसी इन्द्रिय का उसके विषय (अर्थ) से सीधा सम्पर्क (सन्निकर्ष) होता है, तो उस विषय के सम्बन्ध में हमें ज्ञान होता है। यही ज्ञान प्रत्यक्ष है। हम कोई बात आँख से देखते हैं, कान से सुनते हैं, नाक से सूँघते हैं, जिह्वा से किसी रस का स्वाद लेते हैं, त्वचा के स्पर्श से किसी को जानते हैं, तो अपितु किसी हेतु द्वारा उसे जानते हैं, तो वह ज्ञान हमें अनुमान द्वारा होता है। हमने दूर पहाड़ की चोटी पर धुआँ उठता हुआ देखा। इस हेतु से हमने अनुमान किया कि वहाँ बिना अग्नि के धुआँ नहीं हो सकता । अतः धुआँ की सत्ता से हमने अग्नि की सत्ता का अनुमान किया। इस प्रकार के ज्ञान को अनुमान कहा जाता है। जब किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य (साधर्म्य) से हम न जानी हुई वस्तु को जानते हैं, तो उसे उपमान कहते हैं। एक आदमी गौ को अच्छी तरह जानता है, पर गवय (चंवर गौ) को नहीं जानता। उसे कहा जाता है कि गवय भी गाय के सदृश है जंगल में एक पशु को देखता है, जिसकी आकृति आदि गाय के सदृश है । इससे वह समझ लेता है कि वह पशु गवय है । इस प्रकार जो ज्ञान प्राप्त होता है; उसे उपमान कहते हैं पर बहुत-सी वस्तुएँ ऐसी हैं, जिन्हें हम प्रत्यक्ष, अनुमान या उपमान द्वारा नहीं जान सकते। उन्हें जानने का साधन केवल शब्द है। महाराज अशोक भारत में शासन करता था और उसने धर्म विजय की नीति का अनुसरण किया था, यह बात हम केवल शब्द द्वारा जानते हैं। भूमण्डल के उत्तरी भाग में ध्रुव हैं, जो सदा बर्फ से आच्छादित करता है, यह बात भी हमें केवल शब्द द्वारा ज्ञात हुई है। इसी प्रकार की कितनी ही बातें हैं, जिनके ज्ञान का आधार शब्द प्रमाण के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । | वह

(iii) सांख्य दर्शन 

प्रवर्त्तक—सांख्य दर्शन के प्रवर्त्तक कपिल मुनि थे। ऐसा माना जाता है कि ये सावतीं शताब्दी ई. पू. में हुए थे। सांख्य दर्शन प्राचीनतम दर्शन है। गीता में इस दर्शन का अनेक बार उल्लेख मिलता है।

सांख्य दर्शन के मूल तत्त्व – (1) इस दर्शन के अनुसार आत्मा अमर है। आत्मा सर्वव्यापी और अविनाशी है। केवल इस भौतिक शरीर का नाश होता है। शुद्ध आत्मा न तो किसी को मारती है और न ही स्वयं मरती है। शरीर वस्त्र के समान है। जिस प्रकार हम पुराने वस्त्रों का त्याग करके नवीन वस्त्र धारण करते हैं उसी प्रकार आत्मा पुराने और जीर्ण-शीर्ण शरीर का त्याग करके नया शरीर धारण करती है। इस परिवर्तन चक्र में शरीर मरता है और फिर से जन्म लेता है।

(2) शरीरधारी का जन्म बाल्यकाल, युवावस्था, वृद्धावस्था और मृत्यु आत्मा के विभिन्न पर्याय हैं जो शरीर धारण करती है या शरीर का त्याग करती है।

(3) शरीर का भौतिक तत्त्वों से मेल दुख या सुख उत्पन्न करता है जिन्हें सहन किया जाना चाहिए क्योंकि ये अनुभूतियाँ नित्य परिवर्तनशील होती हैं।

(4) हमें अपने शरीर को बल और तेज से युक्त रखना चाहिए ताकि हम सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकें और अपने स्वयं के प्रति तथा समाज के प्रति अपने दायित्वों का संतोषजनक रूप में निर्वहन कर सकें ।

(5) सांख्य दर्शन में व्यक्तित्व (प्रकृति) के निर्माण के लिए उत्तरदायी तीन गुणों का विवेचन किया गया है—सत्त्व गुण या विशुद्धता का गुण, रजोगुण या ऐसा गुण जिसके कारण भोग-विलास, प्रदर्शन की रूचि उत्पन्न होती है तथा तमोगुण जो अज्ञान, आलस्य, क्रोध, भ्रम आदि का कारण है। सुसंतुलित व्यक्तित्व सत्त्व के सिद्धान्त अर्थात् अच्छे विचार, अच्छी सोच, अच्छी समझ और शुद्ध भोजन पर आधारित होता है । इन तीनों गुणों को निम्नलिखित रूप में भी व्यक्त किया जाता है—एक आदर्श व्यक्ति के सभी कार्यों में सत्त्व गुण की प्रधानता होती है।

 

सांख्य दर्शन का एक अन्य विवेचन भी है। इस दर्शन के अनुसार कुल पच्चीस मूल सिद्धान्त (तत्त्व) होते हैं जिनमें से पहला तत्त्व प्रकृति अर्थात् पदार्थ है । यह पदार्थ ही है जिससे सभी तत्त्व जैसे वायु, जल, गगन, बुद्धि, आत्म-चेतना, दृष्टि, स्पर्श, श्रवण आदि विकसित होते हैं एक अन्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्व है पुरुष (आत्मा) पुरुष प्रकृति पर निर्भर नहीं करता । यह वह मुख्य तत्व है जिसके संयोग से प्रकृति विश्व की सृष्टि करती है अर्थात् ‘प्रकृति’ पुरुष पर निर्भर करती है। मोक्ष का अर्थ इसी भेद को पहचानने में अंतर्निहित है ।

(iv) योग 

योग का अर्थ – योगशास्त्र नामक प्राचीन पुस्तक के रचयिता पतंजलि (इ. पू. दूसरी शताब्दी) के अनुसार योग मन की प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने की एक विद्या है। कुछ विद्वानों के अनुसार योग का अर्थ है आत्मा का परमात्मा या ईश्वर से मिलन। योग का वर्णन शरीर, मन और आत्मा के सामंजस्यपूर्ण विकास के लिए अपनाई जाने वाली जीवन शैली के रूप में भी किया जाता है। योग क्या नहीं है ? प्रायः योग का अर्थ समझने में हम भूल कर जाते हैं और इसका अर्थ शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए किए जाने वाले कुछ व्यायाम या आसन मान बैठते हैं। यह योग का बहुत संकीर्ण अर्थ या अवधारणा है। यह मात्र एक शारीरिक क्रिया या व्यायाम नहीं है। यह उससे काफी अधिक ऊपर है।

योग की प्रकृति- योग का उद्देश्य व्यक्ति की इच्छाओं और आकांक्षाओं को नियंत्रित करना है । योग आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझने का प्रयास करता है। इसे इच्छाओं और आकांक्षाओं को नियंत्रित करके वास्तविक अर्थों में समझा जा सकता है। योग की अवस्था इच्छाओं और वासनाओं को नियंत्रित करके प्राप्त की जा सकती है। जिस प्रकार हम अशांत जल में अपना सही प्रतिबिंब नहीं देख सकते उसी प्रकार यदि हमारा मन अस्थिर और अनियंत्रित हो तो हम ईश्वर को नहीं समझ सकते। ईश्वर की झलक पाने के लिए योग का चिंतन आवश्यक है।

योग के घटक- योग के आठ घटक हैं जिसे अष्टांग कहते हैं। ये हैं-यम, नियम आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। योग के इन घटकों या अंगों की साधना करके अज्ञान को दूर किया जा सकता है और वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति की जा सकती है। जैसे-जैसे साधक अपनी साधना में ऊपर उठता जाता है वैसे-वैसे उसका अज्ञान दूर होता जाता है और उसमें ज्ञान जाग्रत होता जाता । अतः योग का मुख्य उद्देश्य अज्ञान को भगाना और ज्ञान प्राप्त करना है। अब हम योग के इन आठ घटकों या अंगों की अलग से चर्चा करेंगे ।

योग के चरण-पतंजलि ऋषि के अनुसार योग के निम्नलिखित आठ अंग हैं-

पूर्व मीमांसा 

प्रवर्त्तक—मीमांसा सूत्र के रचयिता जैमिनी ऋषि हैं। इस दर्शन का प्रतिपादन चौथी शताब्दी ई. पू. में किया गया था। मीमांसा सूत्रों की संख्या दो हजार पाँच सौ है ।

मीमांसा के प्रमुख तत्त्व (Cheif Characteristics of Mimansa)

(1) जैमिनीय दर्शन के अनुसार वेदों में उक्त कर्त्तव्यों के उचित रूप में निर्वहन से स्वर्ग की प्राप्ति होती है जहाँ प्राणी शाश्वत आनंद और सुख का भोग करता है जैमिनी ऋषि को मनुष्य और उसके प्रयासों में प्रचुर विश्वास था। उनका कहना था कि वैदिक अनुष्ठानों को निष्पादित करने के लिए मनुष्य में नैतिक शुद्धता का होना अनिवार्य है।

(2) उन्होंने कर्म के सिद्धान्त का भी प्रतिपादन किया और कहा कि प्रत्येक कर्म की अपनी एक अंत: शक्ति होती है जिनका प्रभाव समय आने पर सामने आता है।

(3) उन्होंने कहा कि कर्म ही धर्म है। अतः उनके अनुसार कर्म मनुष्य का अनिवार्य कर्त्तव्य है।

(4) जैमिनीय दर्शन में मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्गों का वर्णन किया गया है। पहला मार्ग वेदों में निहित कर्मकांड (अनुष्ठानों) से सम्बन्धित है, दूसरा मार्ग वेदों में निहित ज्ञानकांड (ज्ञान की खोज) से सम्बन्धित है और तीसरा मार्ग वेदों में लिखित कर्त्तव्य के निर्वहन से सम्बन्धित है।

शैक्षिक प्रभाव :

(1) मीमांसा दर्शन इस बात पर बल देता है कि नैतिक मूल्यों को जीवन का आधार बनाया जाए अर्थात् नैतिक शिक्षा का प्रावधान किया जाना चाहिये।

(2) छात्रों में निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए प्रशिक्षण आवश्यक है।

(3) जहाँ तक सम्भव हो छात्र ज्ञानोपार्जन करते रहें। दूसरे शब्दों में शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। अतः ज्ञान प्राप्ति के लिए सतत् परिश्रम की आवश्यकता है।

वेदान्त :

प्रवर्तक- इसके प्रवर्त्तक बादरायण व्यास थे। उन्होंने ही वेदान्त सूत्रों की रचना की । इन सूत्रों पर आचार्यों ने अपने-अपने मत के अनुसार अनेक भाष्य लिखे। इनमें शंकराचार्य का ‘ब्रह्मसूत्र- शांकर भाष्य’ सबसे प्रसिद्ध है। वस्तुतः, शंकर ने वेदान्त के एक नए सम्प्रदाय का प्रारम्भ किया, जिसे ‘अद्वैतवाद’ कहते हैं। इसके अनुसार सब जगत् मिथ्या है। जिस प्रकार रात के समय मनुष्य को रज्जु में साँप का भ्रम हो जाता है, वैसे ही संसार की दृष्टिगोचर होने वाली सब सत्ताएँ भ्रम का परिणाम हैं। जगत् माया के अतिरिक्त कुछ नहीं है । माया की परमार्थ में कोई सत्ता नहीं होती। जब ब्रह्म माया से अविच्छिन्न हो जाता है, तो वह ईश्वर कहलाता है । जीवात्मा वस्तुतः ब्रह्म ही है। जैसे एक ही सर्वव्यापी आकाश घट में घटाकाश के रूप में और मठ में मठाकाश के रूप में आभासित होता है, पर वस्तुतः वह एक ही आकाश होता है, ऐसे ही अन्तःकरणाविच्छिन ब्रह्म जीवात्मा के रूप में आभासित होता है । पर वस्तुतः जीवात्मा ब्रह्म से पृथक नहीं है, वह ब्रह्म ही है, ठीक वैसे ही जैसे घटाकाश आकाश ही है, वह सर्वव्यापी आकाश से पृथक् नहीं है। स्वामी शंकराचार्य ने बल देकर कहा है, “ज्ञान द्वारा ही आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है । “

स्वामी शंकराचार्य का संक्षिप्त जीवन चरित्र (Brief Life Sketch of Swami Shankaracharya 788 to 822 AD)

स्वामी शंकराचार्य हिन्दू धर्म के प्रमुख सुधारक माने जाते हैं। प्रायः उन्हें जगद्गुरू शंकराचार्य कहा जाता है। उनका जन्म केरल के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था किन्तु उन्होंने समस्त भारत को अपना घर बना लिया ऐसा माना जाता है कि उन्होंने 7 वर्ष की आयु में वेदों तथा शास्त्रों का गहन अध्ययन कर लिया था।

आठ वर्ष की अवस्था में उन्होंने संसार त्याग कर संन्यासी का जीवन व्यतीत करना शुरू किया।

संस्कृत के महान् विद्वान और दार्शनिक होने के नाते हिन्दू धर्म के पुनरुद्धार के बारह वर्ष की आयु में दर्शन पर अनेक पुस्तकें लिखीं। उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया। आन्दोलन का नेतृत्व किया। उनका कहना था कि हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्त वही हैं जो वेदों और उपनिषदों में हैं।

उसके द्वारा रचा गया संसार एक ही है। मोक्ष का मार्ग ईश्वर की भक्ति है। इस ज्ञान का उन्होंने अद्वैतवाद के दर्शन या सिद्धान्त की व्याख्या की। उनके अनुसार ईश्वर और सार है कि ईश्वर और उसके द्वारा बनाए गए जीव एक ही हैं। एकात्मवादी इस दर्शन को वेदान्त कहते हैं।

उनकी मृत्यु 32 वर्ष की अल्पावस्था में ही केदारनाथ में हुई। उन्हें आज भी भारत तथ भारत से बाहर करोड़ों हिन्दू प्रेम तथा श्रद्धा के साथ याद करते हैं।

शंकराचार्य का दर्शन बहुत ही ऊँचे स्तर का है।

वेदान्त दर्शन के मुख्य सिद्धान्त :

(1) वेदान्त का मूल भाव है कि सत्य आत्मा या ब्रह्म है।

(2) ब्रह्म और आत्मा एक है।

(3) ब्रह्म अमर है।

(4) जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ अपना अलग नाम छोड़कर समुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार ज्ञानी, नाम रूप से उत्पन्न भेद-भाव से मुक्त होकर ज्योतिर्मय परमात्मा को प्राप्त करता है जो परे (अर्थात् अव्यक्त प्रकृति) से भी परे है

(5) मनाव जीवन में ब्रह्मानुभूति का सबसे अधिक महत्त्व है ।

(6) मनुष्य मूलतः एक आध्यात्मिक प्राणी है, मन, बुद्धि तथा शरीर आदि उसका वास्तविक रूप नहीं है।

(7) ज्ञान व्यक्ति के दोषों का निवारण करता है।

(8) उठो! जागो और लक्ष्य की प्राप्ति होने तक रुको मत ।

(9) हम सबके भीतर ब्रह्म की शक्ति है। दरिद्र के भीतर बैठा देवता हमारी सेवा चाहता है।

(10) निर्भीकता से शारीरिक स्वतन्त्रता, मानसिक स्वतन्त्रता तथा आध्यात्मिक स्वतन्त्रता पनपती है ।

(11) वेदान्त सहिष्णुता तथा सर्वग्राह्यता पर जोर देता है

(12) ल्याग भाव अत्यन्त आवश्यक है। इसी से ब्रह्म की प्राप्ति हो सकती है।

(13) मोक्ष का अर्थ है ब्रह्म के साथ आत्मा का अन्तिम विलयीकरण ।

वेदान्त दर्शन की शैक्षिक विशेषताएँ :

(1) शिक्षा आध्यात्मिक प्रक्रिया है।

(2) शिक्षा मनुष्य के अज्ञान, शोक, मोह तथा क्रोध आदि दोषों का निवारण करती है।

(3) शिक्षा व्यक्ति में निहित ब्रह्म भाव को जाग्रत करती है।

(4) शिक्षा और जीवन अन्योन्याश्रित हैं।

(5) शिक्षा केवल मात्र भौतिक पदार्थों की जानकारी नहीं है, वरन् ब्रह्मात्मा के ऐक्य का बोध है।

(6) शिक्षा व्यक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण तथा आवश्यक है।

(7) शिक्षा श्रेष्ठ व्यक्तियों का निर्माण कर श्रेष्ठ समाज के सृजन में योगदान करती है।

(8) शिक्षा व्यक्ति को आत्म-संयमी, वैरागी तथा त्यागी बनाकर उसमें आत्म-चिंतन की प्रवृत्ति पैदा करती है।

शिक्षा का अर्थ तथा स्वरूप (Meaning and Concept of Education)

स्वामी शंकाराचार्य के अनुसार शिक्षा व्यक्ति की ज्ञान प्राप्ति का साधन है। यही अज्ञान की निवृति का माध्यम है। इसी द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है।

ज्ञान से व्यक्ति को शोक-मोह आदि से छुटकारा मिलता है। शंकराचार्य ने शिक्षा की  परिभाषा इस प्रकार की है, “शक्ति मुक्ति- पर्यन्त चलने वाली आध्यात्मिक प्रक्रिया है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को उसमें निहित ब्रह्म भाव का जागरण होता है। शिक्षा द्वारा उसे अपने यथार्थ स्वरूप का बोध होता है। शिक्षा ही जीवन जगत् के प्रति उसके व्यवहार तथा विचारों में परिवर्तन, परिमार्जन एवं संशोधन करती है। शिक्षा व्यक्ति को ब्रह्मात्मैक्य की अनुभूति के 1 योग्य बनाकर सर्वत्र सम (ब्रह्म) दर्शन करने में समर्थ बनाती है ।”

शिक्षण विधियाँ (Methods of Teaching)

(1) प्रश्नोत्तर विधि (Question Answer Method),

(2) व्याख्या विधि (Explanation Method),

(3) भाषण विधि (Lecture Method),

(4) दृष्टान्त विधि (Illustrative Method),

(5) कथा-कथन विधि (Story Telling Method),

(6) उपदेश संकल्पना विधि (Sermon Method),

(7) तर्कपूर्ण निष्कर्ष विधि (Logical Conclusion Method),

(8) यथार्थ संकल्पना विधि (Real Vision Method),

(9) निदिध्यासन विधि (Nididhyasan Method),

(10) मनन विधि (Contemplation Method) ।

अध्यापक का स्थान (Place of the Teacher ) — वेदांत दर्शन में शिक्षक का अत्यन्त महत्त्व है । उसे विचारों, शब्दों तथा कर्मों से अत्यन्त पवित्र होना चाहिए। उसके व्यक्तित्व का प्रभाव छात्रों को बहुत प्रभावित करता है। उसे अपने विषयों पर अधिकार होना चाहिए।

अनुशासन (Discipline ) — विद्यार्थी को धीरे-धीरे इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने का प्रशिक्षण मिलना चाहिए ।

जन-साधारण की आध्यात्मिक शिक्षा (Spiritual Education of the Masses)- स्वामी शंकराचार्य ने जन-साधारण की आध्यात्मिक शिक्षा पर बल दिया।

भारत की भावात्मक एकता (Emotional Integration of India)- भारत की भावात्मक एकता को बढ़ावा देने के लिए स्वामी शंकराचार्य ने भारत की चार दिशाओं में चार मठ स्थापित किए।

 

वेदान्त दर्शन का मूल्यांकन (Evaluation of Vedanta Philosophy) — वेदांत सच्चे ज्ञान का उपासक है तथा छात्रों में ज्ञान की जिज्ञासा जाग्रत करता है। ज्ञान से जीवन को अपने कर्त्तव्यों का बोध होता है। शिक्षा इस प्रकार का ज्ञान बालक को प्राप्त करने के लिए तैयारी करती है। शिक्षा एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। इसे विभिन्न विधियों से प्राप्त किया जा सकता है। वेदान्त अनेक शिक्षण विधियों पर जोर देता है। वेदान्त को भावी प्रकार से समझने के लिए कठोर परिश्रम तथा धीरज की आवश्यकता है।

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