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मूल्य का अर्थ | मूल्यों की परिभाषाएँ | Mulya ka Arth Paribhasha

मूल्य का अर्थ
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मूल्य का अर्थ

‘मूल्य’ पद का अर्थ समाज या दर्शनशास्त्र में किसी भी तरह से स्पष्ट नहीं है (मैकमिलन व नैलर, 1964)। हम किसी एक परिभाषा पर एकमत नहीं हो सके हैं। मतैक्य के रूप में तो केवल इतना ही कहा जा सकता है कि मूल्य मानव अस्तित्व में किसी महत्त्वपूर्ण चीज का प्रतिनिधित्व करते हैं। मनुष्य जीवन पर्यन्त सीखता रहता है तथा उसके अनुभवों में निरन्तर अभिवृद्धि होती है । जैसे-जैसे वह अधिकाधिक सीखता जाता है तथा परिपक्व होता है वह ऐसे अनुभव भी प्राप्त करता है जो उसके व्यवहार को निर्देशित करते हैं। ये निर्देशक जीवन को दिशा प्रदान करते हैं तथा इन्हें मूल्य कहा जा सकता है व्यवहार के निर्देशक के रूप में वे अनुभवों के विकसित व परिपक्व होने के साथ-साथ विकसित तथा परिपक्व होते हैं।

मूल्य किसी वस्तु या स्थिति का वह गुण है जो समालोचना व वरीयता को प्रकट करता है है। यह एक आदर्श या इच्छा है जिसे पूरा करने के लिए व्यक्ति जीता है तथा आजीवन प्रयास करता है।

मनोवैज्ञानिक अर्थ (Psychological meaning) — जो हमारी इच्छा को पूरी करता है वह मूल्य है।

जैविक अर्थ (Biological meaning) — मूल्य उस वस्तु या क्रिया की विशेषता है जो हमारे जीवन की सुरक्षा एवं वृद्धि में संहायक होती है ।

नीतिशास्त्र सम्बन्धी अर्थ (Ethical meaning)- वे वस्तुयें अथवा क्रियायें मूल्यवान होती हैं जो हमारी आत्मा को पूर्णता प्रदान करने में सहायक होती हैं ।

दार्शनिक अर्थ (Philosophical meaning) — मूल्य किसी वस्तु या व्यक्ति से सम्बन्धित नहीं होते बल्कि किसी विचार या दृष्टिकोण से सम्बन्धित होते हैं। अतः जो चीज किसी व्यक्ति के लिये उपयोगी होती है वही उसके लिये मूल्यवान बन जाती है।

मूल्यों की परिभाषाएँ

आलपोर्ट का विचार’ व्यक्ति की रूचि का सापेक्षिक महत्त्व अथवा व्यक्तित्व की प्रबल इच्छा ‘मूल्य’ कहलाता है।’

आर. के. मुकर्जी का विचार- ‘मूल्य समाज द्वारा स्वीकृत वे प्रेरणायें एवं लक्ष्य हैं जो अनुकूलन, सीखने एवं समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति के भीतर स्थित होकर उसकी प्राथमिकताओं, स्तरों एवं आकांक्षाओं का रूप धारण कर लेते हैं।’

डी. एच. पार्कर का विचार- ‘मूल्य पूर्णतया मन के साथ सम्बन्धित है। इच्छा की पूर्ति वास्तविक मूल्य है जिससे वह इच्छा पूरी होती है वह केवल साधन है । मूल्य का सम्बन्ध हमेशा अनुभव से होता है, किसी वस्तु के साथ नहीं ।’

आर. बी. पैरी के विचार—‘ कोई भी लक्ष्य तब ‘मूल्य’ बन जाता है जब उसमें कोई रुचि लेता है, जैसे कोई भी चीज तब निशाना बन जाती है जब उस पर कोई निशाना लगाता है।’

एड्गर ब्राइटमैन का विचार- ‘सामान्य अर्थों में मूल्य वह है जिसे किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी समय पसन्द किया जाये, पुरस्कृत किया जाये, सम्मानित किया जाये, जिसकी इच्छा की जाये और अनुमोदन किया जाये। यह इच्छित वस्तु या क्रिया की वास्तविक आनन्दानुभूति है।’

जॉन डीवी का विचार — ‘मुख्यतः मूल्य का अर्थ है पुरस्कृत करना, सम्मानित करना, प्रशंसा करना, अनुमान लगाना; यह किसी को पोषित एवं प्रेम पूर्वक चाहने की क्रिया है। यह तुलनात्मक अध्ययन की निर्णायक क्रिया भी है।’

कनिंघम के विचार — ‘ शिक्षा मूल्य शिक्षा के उद्देश्य बन जाते हैं। इन्हीं के अनुसार व्यक्ति के उन गुणों, योग्यताओं तथा क्षमताओं को विकसित किया जाता है, जो वस्तुतः जीवन-मूल्यों में निहित होते हैं ।’

बुबेकर का विचार – ‘किसी के शिक्षा उद्देश्यों को व्यक्त करना वस्तुत: उसके शिक्षा-मूल्यों को व्यक्त करना है।’ शिक्षात्मक वे क्रियायें हैं जो शिक्षा के दृष्टिकोण से अच्छे, उपयोगी एवं मूल्यवान हों।

सी.वी. गुड के अनुसार, मूल्य वह चारित्रिक विशेषता है जो मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सौन्दर्य-बोध की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।

आक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोश में मूल्य को ‘महत्ता, उपयोगिता, वांछनीयता तथा उन गुणों, जिन पर ये निर्भर हैं, के रूप में परिभाषित किया गया है।

आलपोर्ट के अनुसार, मूल्य एक मानव विश्वास है जिसके आधार पर मनुष्य वरीयता प्रदान करते हुए कार्य करता है। अन्तरवैयक्तिक रूप से वैध अभीष्ट है जो ज्ञात इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करता है।

हीडलर (1958) के अनुसार, मूल्य अवैयक्तिक, सापेक्षिक दृष्टि से निश्चय तथा परावैयक्तिक वस्तुनिष्ठ व्यवस्था की जरूरत अनुभव कराता है, जिसमें निश्चर यथार्थता होती है तथा जिसकी वैधता किसी एक व्यक्ति के दृष्टिकोण के दायरे के बाहर होती है।

आर. बी. पर्सी ने मूल्य को किसी व्यक्ति के लिए रुचि को ऐसा ध्येय माना है जिसकी उत्पत्ति ध्येय तथा रूचि के बीच विशिष्ट सम्बन्धों से होती है।

आर. के. मुखर्जी ने मूल्यों को सामाजिक दृष्टि से स्वीकार्य उन इच्छाओं तथा लक्ष्यों  के रूप में परिभाषित किया है जिन्हें अनुबन्धन, अधिगम या सामाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा  आभ्यन्तरीकृत किया जाता है तथा जो आत्मनिष्ठ प्राथमिकताओं, मानकों तथा आकांक्षाओं का रूप ग्रहण कर लेती हैं।

क्लकहॉन के शब्दों में मूल्य ‘वांछनीय की एक संकल्पना’ है। वे मात्रा वांछित नहीं है। वांछनीय को परिभाषित करना बहुत कठिन है। वांछनीय की संकल्पना एक विशिष्ट प्रकार की वरीयता — एक व्यवहार प्रारूप को दूसरे विरोधी व्यवहार प्रारूप से अधिक महत्व देना या एक साध्य स्थिति को विरोधी साध्य स्थिति से अधिक वरीयता देने, से अधिक कुछ नहीं है इसमें विभिन्न प्रकार के भोजनों के लिए वरीयता शामिल नहीं है। व्यक्ति एक विशिष्ट व्यवहार या साध्य स्थिति को तब पसन्द करता है जब उसकी तुलना उसके विरोधी से करता है अथवा वह उसकी अपनी मूल्य तन्त्र में अन्य मूल्यों से तुलना करता है वह उस विशिष्ट व्यवहार प्रारूप या साध्य स्थिति को अन्य प्रारूपों या साध्य स्थितियों से अधिक वरीयता देता है, जो उसके मूल्य-श्रेणीक्रम में निम्नस्थ होते हैं। जब हम कहते हैं किसी व्यक्ति का मूल्य अमुक है, तब हमारे मन में उस व्यक्ति के वांछनीय आचरण प्रारूप या अस्तित्व की वांछनीय आचरण प्रारूप या अस्तित्व की वांछनीय साध्य-स्थिति सम्बन्धी विश्वास अवश्य होते हैं।

जेम्स पी. शेवर तथा विलियम स्ट्रांग का मत है कि ” मूल्य के महत्त्व के बारे में निर्णय के मानदण्ड तथा नियम हैं। ये वे मानदण्ड हैं जिनसे हम चीजों (लोगों, वस्तुओं, विचारों, क्रियाओं तथा परिस्थितियों) के अच्छा, महत्त्वपूर्ण व वांछनीय होने अथवा खराब, महत्त्वहीन व तिरस्करणीय होने के बारे में निर्णय करते हैं। ” 

रिचर्ड एल. मॉरिल (1980) के अनुसार, “मूल्यों को चयन के उन मानदण्डों तथा प्रतिमानों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो व्यक्तियों व समूहों को सन्तोष, परितोष तथा अर्थ की ओर निर्देशित करें।” इस परिभाषा में मानकीय माप निहित हैं।

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