राजनीति विज्ञान / Political Science

भारत का संविधान स्वरूप में संघात्मक है किन्तु आत्मा में एकात्मक है। विवेचना कीजिये।

भारत का संविधान स्वरूप में संघात्मक है किन्तु आत्मा में एकात्मक है।
भारत का संविधान स्वरूप में संघात्मक है किन्तु आत्मा में एकात्मक है।

अनुक्रम (Contents)

भारत का संविधान स्वरूप में संघात्मक है किन्तु आत्मा में एकात्मक है।

सिद्धान्ततः भारत एक संघीय राज्य है। संविधान के प्रथम अनुच्छेद में घोषणा की गयी है कि भारत राज्यों का ‘यूनियन’ है तथापि संविधान निर्माताओं ने संघ राज्य की घोषणा करते हुए भी भारत में राष्ट्रीय एकता को बनाये रखने के उद्देश्य से, ‘यूनियन’ शब्द का प्रयोग किया है, ‘फेडेरेशन’ का नहीं। इसका कारण यह है कि ‘यूनियन’ शब्द से राष्ट्रीय एकता का बोध होता है तथा यह ‘फेडरेशन’ शब्द से अधिक एकतावादी है। ‘फेडेरेशन’ शब्द से राज्यों की पृथकता और स्वायत्तता को बल मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि भारतीय संघ राज्यों द्वारा सम्पन्न किसी संविदा का परिणाम है लेकिन स्थिति चूँकि इसके पूर्णतया विपरीत रही है, अतः ‘यूनियन’ शब्द का प्रयोग किया गया।

यूनियन शब्द का महत्व (Significance of the Term Union)- ‘यूनियन’ शब्द भारत के सन्दर्भ में दो बातें स्पष्ट करता है-

(i) भारतीय संघ एकक राज्यों के समझौते का परिणाम नहीं है तथा

(ii) एककों को संघ से पृथक् होने का अधिकार नहीं है।

भारतीय संघ का निर्माण तथा उसके राज्यों का भी निर्माण एक संविधान सभा द्वारा हुआ है, अतः भारतीय संघ विश्व के सभी संघ राज्यों से पृथक् प्रकृति का है।

भारतीय संघ व्यवस्था की प्रकृति (Nature of Indian Federal System)

भारतीय संविधान संघात्मक शासन स्थापित करता है अथवा एकात्मक शासन, इस विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है।

डी. डी. बसु के अनुसार,” भारत का संविधान न तो पूर्ण रूप से एकात्मक है और न ही पूर्ण रूप से संघात्मक है वरन् दोनों का सम्मिश्रण है।”

के. सी. व्हीयरे के मतानुसार, “भारत मुख्यतः एकात्मक राज्य है जिसमें संघीय विशेषतायें नाममात्र की हैं। भारत का संविधान संघीय कम है और एकात्मक अधिक।”

जी. एन. जोशी के अनुसार, “भारत संघ राज्य नहीं है अपितु अर्द्ध संघ है और उसमें कतिपय एकात्मकता के भी लक्षण हैं।”

नारमन डी. पामर के शब्दों में, “भारतीय गणतंत्र एक संघ है तथा उसकी अपनी विशेषतायें हैं जिन्होंने स्वरूप को अपने ढंग से ढाला है। “

इस प्रकार भारतीय संविधान का स्वरूप या प्रकृति पर्याप्त वाद-विवाद का विषय रहा है।

डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय संघ की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि अमेरिका में केन्द्र तथा राज्यों के मध्य ” ढीला-ढाला सम्बन्ध है, जबकि भारत एक ऐसा संघ है जिसमें कोई भी राज्य अलग नहीं हो सकता और जिसके अन्तर्गत उन्हें कार्य करना ही है।”

भारतीय संघ की प्रकृति का विश्लेषण करते हुए प्रो. व्हीयरे ने लिखा है ” भारतवर्ष का नया संविधान ऐसी शासन व्यवस्था को जन्म देता है, जो अधिक से अधिक अर्द्ध संघीय है । स्वरूप में लगभग प्रक्रमणशील (Devolutionary) भारत एक एकात्मक राज्य है, जिसमें गौण रूप से कतिपय संघीय विशेषतायें हैं न कि यह संघात्मक राज्य है, जिसमें कतिपय एकात्मक विशेषतायें हैं।” डॉ. के. वी. राव के शब्दों में, “दृढ़तापूर्वक सोचने पर तथा कसौटियों को दृढ़तापूर्वक लागू करने पर हम पाते हैं कि न तो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, न तो सामाजिक तथा आर्थिक दशायें और न तो अनिवार्य संघात्मक सिद्धांत ही वस्तुतः इस संविधान में पाये जाते हैं । दृढ़ अभिप्राय में हम इसे संघात्मक एकदम नहीं कह सकते हैं।” डॉ. अम्बेडकर ने भी स्वीकार किया कि, “संविधान को एकात्मकता के सुनिश्चित ढाँचे में नहीं ढाला गया है।” तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि भारत एक संघ नहीं है, वरन् यह एक विचित्र तथा नये ढंग का संघ कहा जा सकता है।” सरदार वल्लभ भाई पटेल के शब्दों में, “भारत प्रजातंत्र तथा राजवंशों के मध्य एक गठबंधन नहीं है, बल्कि सार्वभौम जनता के मूल सिद्धांतों पर आधारित भारतीय जनता का एक संघ है।”

भारतीय संविधान के संघात्मक लक्षण (Federal Features of the Indian Constitution)

भारतीय संविधान में संघात्मक व्यवस्था के निम्नलिखित लक्षण विद्यमान हैं-

1. संविधान की सर्वोच्चता

संघीय राज्य में लिखित संविधान सर्वोच्च कानून होता है। संविधान के लिखित होने से मतभेद की संभावना काफी कम हो जाती है। संविधान के द्वारा सरकारों के संगठन एवं कार्यों का कानूनी एवं संवैधानिक आधार तथा संघ व राज्यों के सम्बन्ध एवं क्षेत्राधिकार निश्चित किये जाते हैं। भारतीय संविधान देश का लिखित सर्वोच्च कानून है।

2. शक्तियों का विभाजन

भारतीय संविधान द्वारा संघ एवं राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन किया गया है। यह विभाजन तीन सूचियों के आधार पर किया गया है-

(क) संघ सूची- संघ सूची में 97 विषय हैं जिन पर केवल संसद को ही विधि निर्माण का अधिकार प्राप्त है। ऐसे प्रमुख विषय हैं— प्रतिरक्षा, विदेश कार्य, युद्ध एवं शांति, डाक-तार, संचार, विदेशी विनिमय, सीमा कर आदि ।

(ख) राज्य सूची– मूल संविधान के अन्तर्गत राज्य सूची में 66 विषय रखे गये थे नं लेकिन 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा राज्य सूची के चार विषय शिक्षा, वन, जंगली जानवरों व पक्षियों की रक्षा तथा नाप-तोल राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में कर दिये गये, जिससे राज्य सूची के कुल विषयों की संख्या 62 रह गई। इस सूची के प्रमुख विषय हैं- पुलिस, न्याय, जेल, स्थानीय शासन, कृषि, सिंचाई, स्वास्थ्य, सड़कें आदि।

(ग) समवर्ती सूची – मूल संविधान में इस सूची में 47 विषय थे किन्तु राज्य सूची के चार विषय हस्तान्तरित होने तथा एक नया विषय ‘जनसंख्या नियंत्रण तथा परिवार नियोजन’ जोड़े जाने से अब इस सूची के विषयों की संख्या 52 हो गयी है जिसमें से प्रमुख विषय हैं विवाह, विवाह विच्छेद, कारखानें, श्रमिक, फौजदारी प्रक्रिया आदि ।

“समवर्ती सूची के विषय केन्द्र एवं राज्य दोनों के ही क्षेत्राधिकार में रखे गये हैं । इन विषयों पर यदि केन्द्रीय सरकार ने कोई व्यवस्थापन नहीं किया है तो राज्यों के विधानमण्डल कानून बना सकते हैं किन्तु यदि संसद कभी भी कानून बना दे तो वह राज्य द्वारा पारित विधि को शून्य कर सकती है। किन्तु अनुच्छेद 254 के अनुसार इसका अपवाद भी है कि यदि समवर्ती सूची पर राज्य के व्यवस्थापन को राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त हो चुकी है तो वह विधि संसद की विधि के बावजूद ही लागू हो सकेगी।

3. उच्च सदन का राज्य सदन होना

भारतीय संसद का उच्च सदन अर्थात् राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है किन्तु यह प्रतिनिधित्व समानता पर आधारित न होकर जनसंख्या पर आधारित है।

4. संशोधन प्रक्रिया

भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया भी पूर्णतया संघीय प्रक्रिया के अनुरूप है । महत्त्वपूर्ण विषयों पर प्रस्तुत संशोधन विधेयकों को राष्ट्रपति के समक्ष अनुमति हेतु प्रस्तुति से पूर्व कम से कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक है।

5. स्वतंत्र सर्वोच्च न्यायपालिका

भारतीय संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करने के लिये एक स्वतंत्र सर्वोच्च न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है। सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों के उच्च न्यायालयों को संविधान विरुद्ध कानूनों को अवैधानिक घोषित करने का अधिकार प्राप्त है।

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान एक पूर्ण संघात्मक प्रणाली की स्थापना करता है। पायसी ने लिखा है, “भारतीय संविधान के संघीय न होने पर विवाद उठाने का कोई कारण दृष्टिगत नहीं होता है। संविधान संघवाद की कसौटी पर खरा उतरता है।”

संविधान के संघात्मक स्वरूप को बताते हुए डॉ. अम्बेडकर ने भी संविधान सभा में कहा था, “यह एक संघीय संविधान । केन्द्र तथा राज्य दोनों का गठन संविधान द्वारा हुआ है और दोनों की शक्ति एवं प्राधिकार का स्रोत संविधान है। अपने क्षेत्राधिकार में कोई किसी के आधीन नहीं है । एक का प्राधिकार दूसरे का पूरक है।”

भारतीय संविधान के एकात्मक लक्षण (Unitary Features of the Indian Constitution)

भारतीय संविधान निर्माता इस ऐतिहासिक तथ्य से परिचित थे कि जब भी केन्द्रीय सत्ता दुर्बल सिद्ध हुई है देश को पराधीन होना पड़ा है। इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए एक शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता अनुभव की गई। अतः भारतीय संविधान में संघात्मक तत्वों के साथ-साथ कतिपय एकात्मक तत्वों का भी समावेश किया गया है। भारतीय संविधान के प्रमुख एकात्मक लक्षण निम्नलिखित हैं-

1. इकहरी नागरिकता 

यद्यपि संघात्मक संविधानों में दोहरी नागरिकता पाई जाती है। किन्तु भारतीय संविधान में इकहरी नागरिकता का प्रावधान है। इसका तात्पर्य यह है कि नागरिकता का संबंध केवल संघ से है राज्यों की अपनी कोई नागरिकता नहीं है।

2. शक्तिशाली केन्द्र 

भारतीय संविधान में शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में है। उदाहरणार्थ संघ सूची के 97 विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार केन्द्रीय संसद को प्राप्त। है इसके अतिरिक्त समवर्ती सूची के 47 विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार केन्द्रीय संसद एवं राज्यों के विधानमण्डलों दोनों को प्राप्त है किन्तु मतभेद की स्थिति में केन्द्रीय कानून मान्य होगा। जहाँ तक राज्य सूची का सम्बन्ध है इस पर राज्य विधानमण्डल कानून बना सकता है किन्तु कतिपय विशेष परिस्थितियों में संसद इस सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है। अवशिष्ट भी केन्द्र को प्राप्त हैं न कि राज्यों को।

3. केन्द्रीय संसद राज्य की सीमाओं में परिवर्तन करने में समर्थ

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 3 के अनुसार संसद को यह अधिकार है कि वह (i) किसी राज्य से उसका कोई प्रदेश पृथक करके या दो या अधिक राज्यों को मिलाकर कोई नया राज्य बना दे। (ii) किसी राज्य के क्षेत्रफल में कमी या वृद्धि कर दे। (iii) राज्य की सीमायें तथा उनके नाम परिवर्तित कर दे ।

यद्यपि इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति द्वारा राज्य की इच्छा की जानकारी प्राप्त की जाती है। किन्तु उसे मानना या न मानना राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर है।

4. एकीकृत न्याय व्यवस्था 

सामान्यतया संघात्मक शासन में दोहरी न्याय व्यवस्था देखने को मिलती है किन्तु भारत में ऐसा नहीं है। यहाँ एकीकृत न्याय व्यवस्था की स्थापना की गई है तथा सर्वोच्च न्यायालय के बाद न्यायालयों का गठन एक पिरामिड के रूप में किया जाता । सर्वोच्च न्यायालय को उच्च न्यायालयों पर व्यापक क्षेत्राधिकार प्रदान किया जाता है तथा उच्च न्यायालयों का निर्माण और गठन संघीय सत्ता के द्वारा ही किया जाता है।

5. संघ व राज्यों के लिये एक ही संविधान

संघात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत राज्यों के पृथक संविधान होते हैं किन्तु भारतीय संविधान के अन्तर्गत संघ के साथ-साथ राज्यों का संविधान भी सम्मिलित है। राज्यों को अलग से अपने संविधान के निर्माण का अधिकार नहीं है।

6. संकटकाल में एकात्मक

भारतीय संविधान की विशेषता यह है कि सामान्य काल में तो यह संघात्मक बना रहता है किन्तु संकटकाल में बिना किसी औपचारिक संशोधन के इसको एकात्मक रूप प्रदान दिया जाता है। संकटकाल के दौरान संघीय संसद को राज्य सूची के विषयों पर भी कानून निर्माण का अधिकार प्राप्त हो जाता है। साथ ही राज्यों को उनके निश्चित क्षेत्र में आवश्यक निर्देश दिये जा सकते हैं। राष्ट्रपति को अनुच्छेद 352, 356 एवं 360 के द्वारा संकटकाल की घोषणा करने का अधिकार है। संकटकाल के समय राज्यों की स्वतंत्रता का पूर्णतः अन्त हो जाता है।

7. राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति

भारतीय संघ के अन्तर्गत राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं तथा राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त अपने पद पर रहते हैं। राज्यपाल अपने पद की सुरक्षा हेतु सदैव केन्द्र को सन्तुष्ट करने के प्रयास में लगे रहते हैं। निश्चित ही राज्यपाल की नियुक्ति की विधि संघात्मक सिद्धांतों के प्रतिकूल है।

8. राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व

प्रायः संघात्मक राज्यों की इकाईयों को उच्च सदन में समान प्रतिनिधित्व दिया जाता है किन्तु भारत में राज्यों को उच्च सदन अर्थात् राज्यसभा में समानता के आधार पर प्रतिनिधित्व न देकर जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया गया है।

9. राज्यों की दुर्बल आर्थिक स्थिति

भारतीय संविधान के द्वारा राज्यों को आर्थिक दृष्टि से केन्द्र पर निर्भर बनाया गया है। केन्द्र द्वारा राज्यों को दिये जाने वाले अनुदान तथा अन्य वित्तीय सहायता के कारण केन्द्र सदैव राज्यों पर प्रभावी रहता है। वित्तीय क्षेत्र में आत्म-निर्भर न होने के कारण राज्यों की स्वायत्तता नाममात्र की है।

10. केन्द्र शासित प्रदेश

भारतीय संघ में दो प्रकार की इकाईयाँ हैं- राज्य तथा केन्द्र शासित प्रदेश । राज्यों को राज्य सूची के विषयों पर विधि निर्माण का पूर्ण अधिकार प्राप्त है किन्तु केन्द्र शासित क्षेत्रों के सम्बन्ध में केन्द्र को नियंत्रण की प्रभावशाली शक्तियाँ प्राप्त हैं। साथ ही इन क्षेत्रों के प्रशासन के लिए राष्ट्रपति एक प्रशासक की नियुक्ति करता है। डॉ. महादेव शर्मा के अनुसार, “वास्तव में इन प्रदेशों का केन्द्र के साथ वही सम्बन्ध है जो किसी एकात्मक राज्यों के उपखण्डों का उसकी केन्द्रीय सरकार के साथ होता है।”

11. योजना आयोग 

संविधान के बाद ‘योजना आयोग’ ने बहुत अधिक केन्द्रवादी तत्व के रूप में कार्य किया है। योजना आयोग ने संघ एवं राज्य सूची के विभिन्न विषयों पर योजनाओं का निर्माण करते समय राज्य सरकारों के कार्य संचालन पर बहुत अधिक नियंत्रण रखा है जिससे राज्य सरकारें एकात्मक व्यवस्था की इकाईयाँ बनकर रह गई हैं T इस सम्बन्ध में के. वी. राव ने लिखा है, “केन्द्र ही योजना बनाता है, केन्द्र ही निर्णय लेता है, केन्द्र ही निर्देश देता है और राज्य योजना आयोग के द्वार पर अनुदान के लिये प्रतीक्षा करने के अलावा और कोई सकारात्मक कार्य करने के योग्य नहीं है।”

निष्कर्ष (Conclusion ) — अन्ततः कहा जा सकता है कि भारतीय संघ का स्वरूप अब पूर्वापेक्षा अधिक एकात्मक होता जा रहा है । अनेक बार राज्यों के मुख्य मंत्रियों के लगाये गये आरोपों की केन्द्र द्वारा जाँच कराई गई जो असंघीय विचार है । केन्द्रीयकृत आर्थिक नियोजन ने भी केन्द्रीयकरण को प्रोत्साहित किया है। आज राज्य वित्तीय सहायता, खाद्यान्न तथा अन्य प्रश्नों पर केन्द्र पर आश्रित हो गये हैं इससे केन्द्रीयकरण की भावना बढ़ी है पर इससे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। समय और परिस्थितियों की माँग के कारण आज विश्व के अनेक संघीय राज्य केन्द्रीयकरण और एकात्मकता की ओर बढ़ रहे हैं। आपात काल में अमेरिका में भी राज्य एकात्मक हो जाता है । भारतीय संघ के विषय में जेनिंग्स ने ठीक ही कहा है कि- ” भारतीय संघ एक संघात्मक व्यवस्था है जिसमें कठोर केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति विद्यमान है।” डॉ. के. सी. व्हीयर, ए. एच. बिर्च एवं ग्रेनविल ऑस्टिन ने भारतीय संघवाद को ‘सहकारी संघवाद’ की संज्ञा दी है। संभवतः आधुनिक युग की जटिल परिस्थितियों में यही व्यवस्था प्रचलित संघीय व्यवस्थाओं को टूटने से बचाती है।

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