ब्रिटिश साम्राज्य में आधुनिक शिक्षा के प्रसार
भारत में ब्रिटिश युग (Colonial Era) का आरम्भ 1502 ई. से शुरू हुआ था जब पुर्तगाली सम्राट ने 1905 में केरल के कोलम शहर में पहला यूरोपीय व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया।
भारत में पुर्तगालियों के आगमन के उपरान्त 1510 ई. में अल फ्रांसो-डी- अलबुल ने गोवा पर अधिकार कर लिया तथा यहीं से सभी यूरोपीय देश भारत में धर्म व्यापार व अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार हेतु भारत की ओर आकर्षित हो गये ।
(1) पुर्तगाली मिशनरियों के द्वारा सम्पन्न शैक्षिक कार्य- यूरोपीय जातियों में सर्वप्रथम भारत में प्रवेश करने वाले पुर्तगाली थे। पुर्तगाली व्यापारियों के साथ ईसाई मिशनरियाँ भी ईसाई धर्म व संस्कृति के प्रचार तथा शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना व संचालन के उद्देश्य से भारत में आए। सेन्ट फ्रांसिस जेवियर (St. Francis Xavier) तथा राबर्ट डी. नोविल (Robert Di Noville) प्रारंभिक मिशनरियाँ थीं। उन्होंने देश भर में पैदल घूम-घूमकर प्रचार किया तथा शिक्षण संस्थाएँ स्थापित कीं आज भी सेन्ट फ्रांसिस की अनेक संस्थाएँ सम्पूर्ण भारत में संचालित हो रही हैं।
पुर्तगाली व्यापारियों ने गोआ में अपना व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया इन्होंने कोचीन, बम्बई, गोआ, सीलोन, हुगली, चट्गांव, दमन तथा दीव में शिक्षा संस्थाएँ स्थापित कीं इन्होंने प्राथमिक स्कूलों की स्थापना की। इन स्कूलों में इन्होंने पुर्तगाली, भाषा, गणित तथा स्थानीय शिल्पों की शिक्षा प्रदान की। 1556 में पुर्तगालियों द्वारा ही सर्वप्रथम प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की गई, जिसके द्वारा उन्होंने ईसाई धर्म की पाठ्य-पुस्तकों की भारी मात्रा में छपाई की।
इन पुर्तगाली मिशनरियों ने प्राथमिक शिक्षा के साथ ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी कार्य किये सर्वप्रथम 1575 में गोवा में जैसुएट कॉलेज (Jesuet College) तथा 1577 में बान्द्रा (बम्बई) में सेण्ट एनी कॉलेज (St. Anni College) की स्थापना की। इन कॉलेजों में आधुनिक शिक्षा प्रणाली को अपनाया गया तथा लैटिन भाषा, व्याकरण, तर्कशास्त्र व संगीत की शिक्षा प्रदान की गई, यहाँ पर ईसाई धर्म की भी शिक्षा प्रदान की गई। अन्ततः स्वतंत्रता के उपरान्त तक पुर्तगालियों का प्रभुत्व सम्पूर्ण भारत में तो नहीं किन्तु गोवा में अवश्य विद्यमान रहा, आजादी के उपरान्त भारत सरकार ने गोवा को पुर्तगालियों से खाली करवा लिया।
(2) डच ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक कार्य- पुर्तगालियों के पश्चात् 17वीं शताब्दी में हॉलैण्ड के डच व्यापारियों ने भारत में प्रवेश किया, किन्तु इनके मिशनरियों ने विद्यालयों को ईसाई धर्म शिक्षा का केन्द्र नहीं बनाया। डच व्यापारियों ने तटीय क्षेत्रों, जैसे- बंगाल में हुगली व चिनसुरा तथा मद्रास में नागापट्टम, व बिल्लीपट्टम में अपनी व्यापारिक गतिविधियों को सक्रिय रखा। इन्होंने भारतीयों व विदेशियों दोनों बच्चों को संयुक्त रूप से शिक्षा प्रदान करने के लिए प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना की तथा इन्होंने शिक्षा पद्धति में डच भाषा, स्थानीय भाषाओं, भूगोल, गणित तथा स्थानीय कौशलों की व्यवस्था की। किन्तु यह भी भारत से शीघ्र ही पलायन कर गये।
(3) फ्रांसीसी मिशनरियों के शैक्षिक कार्य- 17वीं शताब्दी के मध्य में 1667 में फ्रांसीसी व्यापारियों ने भी भारत में व्यापारिक गतिविधियों को आरंभ किया तथा अपने व्यापारिक केन्द्र पांडिचेरी, माही, यमन, कारीकल, चन्द्रनगर में स्थापित किये। इन व्यापारियों के साथ जो मिशनरियाँ आई उन्होंने फ्रांसीसी तथा स्थानीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा प्रदान की । इन मिशनरियों में कैथलिक शिक्षा अनिवार्य रूप से प्रदान की जाती थी तथा कैथलिक शिक्षक को ‘पादरी’ कहा जाता था। फ्रांसीसी मिशनरियों ने पांडिचेरी में एक माध्यमिक विद्यालय की स्थापना की। इन मिशनरियों द्वारा ईसाई धर्म के साथ-साथ उपयोगी विषयों की भी शिक्षा प्रदान की जाती थी, किन्तु अंततः कर्नाटक के युद्धों में परास्त होने के उपरान्त फ्रांसीसी भारत छोड़ने पर विवश हो गये।
(4) ड्रेन मिशनरियों के शैक्षिक कार्य- 17वीं शताब्दी के अन्त (सन् 1689 ) तक अन्य यूरोपीय देश भी भारत की ओर आकर्षित हुए तथा परिणामस्वरूप डेनमार्क निवासी डेन व्यापारी भी यहाँ पर अपनी व्यापारिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु आए। डेन व्यापारियों ने ट्रावनकोर, त्रिचनापल्ली, सीरमपुर व तंजौर में अपने कारखाने स्थापित किये, इन्होंने भी शिक्षा के माध्यम से धर्म प्रचार के लक्ष्य को केन्द्र में रखा तथा इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना की। इन विद्यालयों में स्थानीय भारतीय भाषाओं के माध्यम से ईसाई धर्म व साहित्य को शिक्षा प्रदान की जाती थी। दक्षिण भारत में मद्रास के एक विद्यालय में तमिल भाषियों के लिए बाईबिल का तमिल भाषा में अनुवाद किया गया तथा इसकी छपाई हेतु प्रिंटिंग प्रेस भी लगाया गया। डेन मिशनरियों ने ट्रावनकोर में एक ‘शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय’ भी खोला । 1711 ई. में इस महाविद्यालय में अंग्रेजी व विभिन्न भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा का प्रशिक्षण दिया जाता था । उपर्युक्त व्यापक प्रयासों से ये लगभग 50,000 भारतीयों को ईसाई बनाने के लक्ष्य को प्राप्त कर सके किन्तु आगे यह व्यापार के क्षेत्र में सफल न हो सके तथा 1845 ई. में अपनी सम्पत्ति अंग्रेजों को बेचकर स्वदेश लौट गए।
(5) अंग्रेज मिशनरियों के शैक्षिक कार्य- भारत में पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी व डेन के अतिरिक्त इंग्लैण्ड के व्यापारी भी सन् 1600 में व्यापारिक उद्देश्य से आए तथा यहाँ अपनी कंपनी स्थापित की। हमारे देश में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के विकास में सर्वाधिक योगदान अंग्रेज ईसाई मिशनरियों का ही है। इन मिशनरियों का भारत में प्रवेश व्यापारियों के माध्यम से होता था, प्रत्येक ईस्ट इण्डिया कंपनी के जहाज के साथ एक पादरी अवश्य आता था व उनका लक्ष्य ईसाई धर्म व संस्कृति का प्रचार करना था। ये ईसाई मिशनरियाँ, शिक्षा तथा दीन-दुखियों की सेवा द्वारा अपने लक्ष प्राप्त करने हेतु तत्पर थीं।
ब्रिटिश मिशनरियों को वास्तव में शिक्षा के कार्य में अधिक कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा, क्योंकि भारत में पहले से अन्य यूरोपीय मिशनरियों ने आधुनिक शिक्षा की इबारत लिख दी थी किन्तु अंग्रेज मिशनरियाँ इस कार्य में अत्यधिक सफल इसीलिए हुई, क्योंकि इन्होंने कूटनीति के द्वारा भारतीय जनता की भावनाओं पर आक्रमण किया, इन्होंने दीन-दुखियों की सेवा कर उन्हें संबल प्रदान किया तदुपरान्त अपनी भाषा शैली, धर्म शिक्षा को अपनाने का लक्ष्य साधा। उन्होंने यह प्रदर्शित किया कि भारतीय अपने इतिहास ज्ञान-विज्ञान, धर्म- शैली, सभ्यता इत्यादि को केवल पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के द्वारा ही संभाल सकते हैं। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि अंग्रेजों ने भारतीय मस्तिष्कों को पूर्णतया वश में करने का कुत्सित प्रयास किया। अंग्रेज मिशनरियों के लक्ष्य वास्तव में ईस्ट इण्डिया कंपनी के स्वार्थों की पूर्ति करते हैं। इसीलिए धर्म प्रचार हेतु धन इत्यादि की पूरी व्यवस्था भी कंपनी द्वारा ही की जाती थी।
अंग्रेज ईसाई मिशनरियों ने कलकत्ता, बम्बई व मद्रास में अनेक धर्मार्थ विद्यालय (Charity Schools) स्थापित किया। ये विद्यालय दो प्रकार के थे—अंग्रेजी व स्थानीय भाषा शिक्षण के दो अलग माध्यम थे, किन्तु दोनों प्रकार के विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा अनिवार्य थी। चेन्नई में एक एंग्लो वर्नाक्यूलर तथा संडे स्कूल ( Sunday School) भी खोला गया।
1698 ई. में ब्रिटिश सरकार द्वारा ईस्ट इण्डिया कंपनी को एक आज्ञा पत्र के द्वारा ईसाई पादरियों को रखने व विद्यालय को संचालित करने की आज्ञा दे दी गई। इस आज्ञा पत्र से उत्साह और भी बढ़ गया तथा कुछ ही वर्षों में 1731 तक अंग्रेज मिशनरियों ने बंगाल, बम्बई व मद्रास में भारी मात्रा में प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना कर डाली।
1757 में प्लासी का युद्ध तथा 1764 में बक्सर के युद्ध की विजय से कंपनी को बंगाल, बिहार तथा अवध प्राप्त हो गए। अतः अब कंपनी ने मिशनरियों को सहायता देने के साथ ही स्वयं ही अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। किन्तु बंगाल में शिक्षा सम्बन्धी कार्य चलते रहे ।
बंगाल के सीरामपुर के तीन देसाई मिशनरी-कैरे (Carey), वार्ड (Ward), मार्शमैन (Marshmen), ‘सीरामपुरं’ ‘त्रिमूर्ति’ (Serampuretretrlo) के नाम से प्रसिद्ध थे। 1808 में उन्होंने एक पुस्तिका ‘हिन्दुपुर’ मुसलमानों के नाम निवेदन’ (Address to Hindus and Muslims) प्रकाशित की। इसमें उन्होंने हिन्दू धर्म को अज्ञान व अन्ध-विश्वासपूर्ण व मुस्लिमों के धर्म गुरु मुहम्मद साहब को ‘झूठा पैगम्बर’ बताया। इस टिप्पणी से हिन्दू मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुँची व दोनों धर्म से सम्बन्धित लोग भड़क उठे। इस समस्या को हल करने तथा जनता को शान्त करने के लिए तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड मिण्टो (Lord Minto) ने इन तीन मिशनरियों को बंदी बना लिया तथा इनके (Printing Press) मुद्रण प्रेस को जब्त कर लिया। ईसाई मिशनरियों के द्वारा किए जाने वाले धर्म प्रचार पर रोक भी लगा दी गई, किन्तु इंग्लैण्ड में कंपनी के इस निर्णय को भारी विरोध का सामना करना पड़ा, वहाँ पर पार्लियामेण्ट में दो दल बन गए एक कंपनी का समर्थक व दूसरा कंपनी के निर्णय का विरोधी दल था । किन्तु 1813 के आज्ञा पत्र में ईसाई मिशनरियों को भारत में बिना किसी नियम-कानून के व रोक के आने-जाने का अधिकार प्राप्त हो गया तथा कंपनी को ईसाई मिशनरियों को शिक्षा की व्यवस्था करने की छूट देने का आदेश दिया गया। इस आज्ञा पत्र के उपरान्त ब्रिटिश साम्राज्य की समाप्ति तक ये मिशनरियाँ भारत में विद्यालयों की स्थापना तथा ईसाई धर्म का प्रचार निरंतर करती रही।
इस प्रकार भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव यूरोपीय ईसाई धर्म प्रचारक तथा व्यापारियों के हाथों से डाली गई। उन्होंने कई विद्यालय स्थापित किए। प्रारम्भ में मद्रास ही उनका कार्य-क्षेत्र रहा। धीरे-धीरे कार्य-क्षेत्र का विस्तार बंगाल में भी होने लगा। इन विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ-साथ इतिहास, भूगोल, व्याकरण, गणित, साहित्य आदि विषय भी पढ़ाए जाते थे। रविवार को विद्यालय बंद रहता था। अनेक शिक्षक छात्रों की पढ़ाई विभिन्न श्रेणियों में कराते थे। अध्यापन का समय नियत था ।
प्रायः 150 वर्ष बीतते-बीतते ईस्ट इंडिया कंपनी राज्य का विस्तार करने लगी। विस्तार में बाधा पड़ने के डर से कंपनी शिक्षा के विषय से उदासीन रहीं । फिर भी विशेष कारण और उद्देश्य से 1780 में कलकत्ता में ‘कलकत्ता मदरसा’ और 1790 में बनारस में ‘संस्कृत कॉलेज’ कंपनी द्वारा स्थापित किए गए। धर्म प्रचार के विषय में भी कंपनी की पूर्व नीति बदलने लगी। कंपनी अब अपने राज्य के भारतीयों को शिक्षा देने की आवश्यकता समझने लगी। 1813 के आज्ञापत्र के अनुसार शिक्षा में धन व्यय करने का निश्चय करने के लिए तीन नई धारायें जोड़ी गई ।
आंग्ल प्राच्य विवाद (Orientalist-Anglicist Controversy)
1813 के आज्ञापत्र के अनुसार भारत में जनसाधारण के शिक्षा का सम्पूर्ण दायित्व कंपनी का था तथा इस कार्य हेतु प्रतिवर्ष लाख रुपयों की धनराशि सुरक्षित कर दी गई थी। इसके लिये 1823 ई. में एक ‘लोक शिक्षा समिति’ की स्थापना की गई। इस लोक शिक्षा की सामान्य समिति (General Committee of Public Instruction) में 10 सदस्य थे। उनमें दो दल थे, एक प्राच्य विद्या समर्थक दल था, जबकि दूसरी ओर आंग्ल दल था जो अंग्रेजी को शिक्षा के माध्यम के समर्थक था। यह विवाद 20 वर्षों तक चलता रहा। यह विवाद विस्तृत रूप में इस प्रकार था । आंग्ल-प्राच्य विवाद के वास्तव में कुछ कारण निम्नलिखित थे, जैसे-
1. 1813 के आज्ञा पत्र की धारा 43 में वर्णित शब्दों- ‘साहित्य’, ‘भारतीय विद्वान’, भारतीय भाषा व निवासी आदि की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई थी।
2. इस राजपत्र में शैक्षिक विकास हेतु 1 लाख रुपये की धनराशि की पेशकश की गई थी।
किन्तु इन दोनों बिन्दुओं से सम्बन्धित अनेक विवादास्पद प्रश्न दोनों दलों के लोगों द्वारा उठाये जाने लगे तथा दोनों ही समूहों को द्वारा तर्कपूर्ण पक्ष प्रस्तुत किये जा रहे थे, जिसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था ।
प्राच्य विद्या समर्थक दल का नेता एच. टी. प्रिन्सेप था तथा कुछ विद्वान, जैसे- लार्ड मिण्टो, एच. विल्सन आदि भी इस वर्ग का समर्थन कर रहे थे। ये सभी लोग प्राचीन भारतीय साहित्य के समर्थक थे तथा चाहते थे कि भारत में शिक्षा का प्रचार-प्रसार भारतीय स्थानीय भाषाओं के माध्यम से हो तथा धारा 43 में वर्णित ‘साहित्य’ शब्द को यह अपने मतानुसार भारतीय प्राचीन साहित्य के रूप में ग्रहण कर रहे थे।
1813 के आज्ञा पत्र के उपरान्त कंपनी के शैक्षिक कार्य
1813 के आज्ञा पत्र के अनुसार ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में शिक्षा के प्रबंध से सम्बन्धित अधिकार प्राप्त हो गए । अतः 3 जून, 1814 को कंपनी द्वारा हिन्दू पद्धति का विकास करने के लिए एक अधिसूचना जारी की गई। वारेन हेस्टिंग्ज ने प्रत्येक जिले में एक हिन्दू व मुसलमान कॉलेज खोलने की बात कही ।
विभिन्न प्रान्तों में व्यापक रूप से कार्य किये गये। भारत में बैरिस्टर मिशन सोसाइटी, लंदन मिशनरी सोसाइटी, वैसलियन मिशन, चर्च मिशनरी सोसाइटी, स्कॉच मिशनरी सोसाइटी इत्यादि मिशनरियों ने प्रवेश किया तथा ईसाई धर्म व शिक्षा से सम्बन्धित विभिन्न कार्य किये।
बम्बई क्षेत्र में किये गये कार्य — बम्बई में अमेरिकन मिशनरी अत्यधिक सक्रिय था । 1815 में बालकों के विद्यालय तथा 1824-26 के मध्य 9 बालिका विद्यालय स्थापित किये गये । लदन मिशनरी सोसाइटी ने गुजरात व कोंकण क्षेत्र में आयरिश प्रेवस्टेरियन मिशनरी सोसाइटी में काठियावाड़ में चर्च मिशनरी सोसाइटी ने बम्बई, थाना, नासिक व सूरत में अनेक स्कूल स्थापित किए।
बंगाल क्षेत्र में किए गए शैक्षिक कार्य — बंगाल क्षेत्र में बैरिस्टर मिशनरियाँ अत्यधिक सक्रियता से कार्यरत थीं इन्होंने 1817 में सीरामपुर में ‘सीरामपुर कॉलेज’ की स्थापना की और इसे धर्म प्रचार का केन्द्र बनाया। चर्च सोसाइटी ने चिन्सूरा और इसके आस-पास 26 विद्यालय स्थापित किये व लंदन मिशनरी सोसाइटी ने बर्द्धमान व आस-पास 10 विद्यालय स्थापित किए। 1820 में इसी मिशनरी द्वारा ‘बिशप कॉलेज’ की स्थापना की गई।
मद्रास क्षेत्र के शैक्षिक कार्य- मद्रास में चर्च मिशनरी सोसाइटी ने 1815 से 1830 के मध्य 107 विद्यालय स्थापित किए। ईसाई ज्ञान प्रचारक सीमित ने 1817 में मद्रास में 9 स्कूल स्थापित किये मिशनरियों ने कोयम्बटूर, विशाखापट्टनम, बिल्लारी, चिन्तूर व झेलम आदि स्थानों पर अनेक मिशनरी स्कूल स्थापित किये।
इन क्षेत्रों के अतिरिक्त इन मिशनरियों ने कुछ विद्यालय लुधियाना, जौनपुर, बनारस, आजमगढ़, आगरा, मथुरा व अजमेर में भी स्थापित किये।
गैर मिशनरियों के शैक्षिक कार्य
गैर मिशनरियों में कुछ भारतीयों का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिन्होंने भारत की शिक्षा के विकास में व्यापक योगदान दिया।
राजा राम मोहन राय- राजा राममोहन राय भारतीय संस्कृति के पुजारी व पाश्चात्य संस्कृति के प्रशंसक थे । वे बंगाली तथा संस्कृत भाषा के विद्वान थे। राजा राममोहन राय ने कलकत्ता मदरसे, बनारस में संस्कृत कॉलेज खोलने के सरकार के प्रयत्नों की कड़ी आलोचना की । इन्होंने 1817 में कलकत्ता में ‘हिन्दू कॉलेज’ की स्थापना की । इस कॉलेज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य हिन्दू बच्चों को उच्च स्तर की अंग्रेजी शिक्षा प्रदान करना था। इस कॉलेज में बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, इतिहास, भूगोल, गणित व ज्योतिष विषयों को भी सम्मिलित किया गया किन्तु कक्षा का माध्यम अंग्रेजी था। 1819 में इन्होंने कलकत्ता विद्यालय समाज की स्थापना की व 115 विद्यालय स्थापित किए ।
जी. जयनारायण घोषाल- ये भी राजा राममोहन राय के समर्थक थे। 1820 में इनके प्रयासों से ‘जय नारायण स्कूल’ की स्थापना की गई। इस विद्यालय में संस्कृत, हिन्दी, बांग्ला, फारसी व अंग्रेजी भाषा की शिक्षा की व्यवस्था की गई ।
पं. गंगाधर शास्त्री — इन्होंने स्वयं धनराशि दान देकर आगरा के संस्कृत कॉलेज को ‘आगरा कॉलेज’ नाम दिया व इसमें संस्कृत भाषा व साहित्य के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा व पाश्चात्य साहित्य की भी शिक्षा की व्यवस्था की गई।
सन् 1821 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने संस्कृत व अंग्रेजी भाषा व साहित्य के अध्ययन के लिये पूना संस्कृत कॉलेज की पूना में स्थापना की ।
इस प्रकार यह वह युग था जब भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली के कॉलेज व स्कूलों की स्थापना की गई।
1833 का राजपत्र
सन् 1813 के राजपत्र के उपरान्त 1833 ई. में 20 वर्षों बाद ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में ईस्ट इण्डिया कंपनी को नया आज्ञा पत्र जारी किया गया। इस आज्ञा पत्र में कंपनी को अपने द्वारा शासित प्रदेशों में शिक्षा की उचित व्यवस्था हेतु निम्नलिखित निर्देश दिये गये-
1. बंगाल प्रान्त के गवर्नर के परिषद् में एक कानूनी सलाहकार होगा तथा अन्य प्रान्तों के गवर्नर कुछ मामलों में उसके अधीन होंगे।
2. गवर्नर जनरल की परिषद् में एक कानूनी सलाहकार होगा, जो गवर्नर जनरल को किसी भी मामले में कानून से अवगत कराएगा ।
3. शिक्षा हेतु 1813 के राजपत्र में जो राशि 1 लाख रुपये थी वह बढ़ाकर 10 लाख रुपये कर दी गई।
4. भारत में ब्रिटिश शासन का प्रभुत्व और अधिक बढ़ गया ।
5. कंपनी ने जाति, धर्म व वर्ग का भेद समाप्त कर सभी व्यक्तियों को शैक्षिक योग्यता व कार्य क्षमता के आधार पर समान पक्ष प्रदान करने का प्रावधान कर दिया।
इसी राजपत्र की प्रथम धारा के आधार पर लार्ड विलियम बैंटिक की सहायता एवं विवाद को निपटाने हेतु लार्ड मैकाले को कानूनी सलाहकार के रूप में भेजा गया था।
1813 के आज्ञा पत्र ने जिस दीर्घकालिक विवाद को जन्म दिया था उससे कंपनी में दो विचारधाराओं से सम्बन्धित व्यक्ति आपने-सामने आ गए एक प्राच्यवादी व दूसरे पाश्चात्यवादी । यह सम्पूर्ण विवाद लगभग 20 वर्षों तक चलता रहा तथा 1833 का आज्ञा – पत्र भी इस विवाद को सुलझा नहीं पाया ।
मैकाले का विवरण पत्र (Macaulay’s Minute)
आंग्ल प्राच्य विवाद को सुलझाने के लिए मैकाले ने अत्यंत गंभीरता पूर्वक 1813 के आज्ञा पत्र का विस्तार से अध्ययन किया तथा कुछ प्रमुख विवादास्पद बिन्दुओं पर उसने अपनी निम्न स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत की :
1. ‘साहित्य’ शब्द की व्याख्या— मैकाले ने स्पष्ट रूप से साहित्य शब्द की व्याख्या ‘अंग्रेजी साहित्य’ के रूप में की। उसका कहना था कि प्राचीन भाषाओं, जैसे— संस्कृत, अरबी, फारसी के साहित्य को बनाये रखने से नवीन ज्ञान में बाधा उत्पन्न होगी ।
2. भारतीय विद्वान की व्याख्या- उसने भारतीय विद्वान में उन व्यक्तियों को शामिल किया, जो अंग्रेजी साहित्य, जैसे—मिल्टन व शेक्सपियर, पाश्चात्य दर्शन, जैसे—लॉक का दर्शन व विज्ञान, जैसे—न्यूटन की खोज इत्यादि का ज्ञाता हो ।
3. धनराशि के व्यय की व्याख्या- 1 लाख रुपये के व्यय पर उसने कंपनी की इच्छा को सर्वोपरि माना। कंपनी जिस पद पर जितना भी धन व्यय करना चाहे कर सकती है ।
4. शिक्षा का माध्यम — उसने कड़े शब्दों में शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी की वकालत की।
5. विज्ञान विषय की व्याख्या- विज्ञान के अन्तर्गत, पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के अन्तर्गत पढ़ाए जाने वाले विज्ञान को सम्मिलित किया गया ।
6. अंग्रेजी का पक्ष — मैकाले अंग्रेजी शिक्षा का घोर प्रशंसक था तथा प्राच्य शिक्षा व संस्कृति का उपहास उड़ाता था । उसने अंग्रेजी के पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए-
1. . उसके अनुसार अंग्रेजी आधुनिक ज्ञान की कुंजी है व पश्चिमी भाषाओं में सर्वश्रेष्ठ है।
2. यह भाषा ज्ञान के क्षेत्र में पुनर्जीवन की स्थापना करेगी, जैसे ग्रीक व लैटिन भाषा ने इंग्लैण्ड की शिक्षा में किया।
3. भारतीय स्वयं भी प्राच्य भाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी को बढ़ाने के इच्छुक हैं।
4. अंग्रेजी भाषा संभ्रान्त व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली भाषा हैं।
5. अंग्रेजी द्वारा भारत में भी ‘अंग्रेज भारतीयों’ का निर्माण किया जा सकता है।
6. अंग्रेजी के ज्ञान द्वारा ब्रिटिश सरकार को अच्छे व सस्ते दुभाषिये प्राप्त हो जाते हैं।
उपर्युक्त तर्कों के आधार पर मैकाले भारतीयों में एक ऐसा वर्ग स्थापित करना चाहता था, जो कि सामान्य जनता से कोई सहानुभूति न रखे तथा पृथक् रहें ताकि समाज में वर्ष संघर्ष जन्म ले । वह सरकारी कार्य हेतु कुशल क्लर्क का कार्य कर सके तथा अंग्रेजी शासन को दृढ़ता प्रदान करने में सहायता प्रदान करे। उसका यह मत था कि भारतीयों में संघर्ष फैलाकर कंपनी को शासन के क्षेत्र में व्यापक सफलता प्राप्त होगी। यही कारण है कि अंग्रेज शिक्षा की प्रगति में मैकाले एक ‘मार्ग दर्शक’ (Torch Bearer) कहलाता है।
मैकाले के विवरण की दो प्रतिक्रियायें हुईं, कुछ लोगों ने मैकाले की अत्यधिक प्रशंसा की तो कुछ ने अत्यधिक विरोध । मैकाले के प्रशंसक उसे भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रवर्तक और भारतीय प्रगति का मार्गदर्शक मानते हैं, तो उसके निंदक उस पर प्रचलित भारतीय भाषाओं की अवहेलना, प्राचीन भारतीय साहित्य का अपमान, भारत पर अंग्रेजी शिक्षा लादने और पाश्चात्य संस्कृति के प्रचार द्वारा भारत को स्थायी रूप से परतंत्र बनाने का षड्यंत्र रचने का दोष लगाते हैं, यहाँ तक कि कुछ अंग्रेजों ने उसे भारतीय राजनैतिक चेतना के लिए भी उत्तरदायी बताया है ।
एडम्स का सर्वेक्षण और उसके तीन प्रतिवेदन (Adams Survey and its three Reports)
वाइसराय लॉर्ड विलियम बैंटिक ने एडम्स को बंगाल व बिहार तथा उससे सम्बद्ध क्षेत्रों में प्रचलित शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण करने के लिए विशेष कमिश्नर के रूप में नियुक्त किया। इस कार्य हेतु बैंटिक ने एडम्स को 1,000 रुपये प्रति मास की धनराशि भी प्रदान करने का निर्णय किया । वायसराय द्वारा दिये गये इस भत्ते से उत्साहित होकर एडम्स बंगाल तथा बिहार के क्षेत्रों में संचालित हो रही शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण का प्रारंभ कर 1835 में दिया उसने लगातार तीन वर्षों तक समस्त शैक्षिक गतिविधियों पर नजर रखी तथा समस्त जांच के आधार पर इन तीन वर्षों में उसने तीन प्रतिवेदन 1835, 1836 और 1838 में क्रमशः प्रस्तुत किये।
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट रूप से तत्कालीन भारत में व्याप्त कुरीतियों, अन्धविश्वास, अशिक्षा का अंदाजा लग गया था। विलियम एडम्स ने अत्यन्त उत्साह व सत्यता से इस प्रतिवेदन का निर्माण किया था। अतः सन्देह का प्रश्न उठाना कुछ कठिन है।
लॉर्ड ऑकलैण्ड की शिक्षा नीति (Education Policy of Lord Auckland)
जब 1935 में लॉर्ड ऑकलैण्ड भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया तो उसके सामने प्राच्य पाश्चात्य विवाद का निस्तारण व शिक्षा की नई नीति का निर्धारण करने की समस्या थीं । सर्वप्रथम उसने प्राच्य पाश्चात्य विवाद के कारणों की खोज की व उसके समाधान उपाय खोजे । प्राच्यवादियों का मुख्य विरोध प्राच्यवादी शिक्षा के लिये अपेक्षाकृत कम राशि का आवंटन था, जिसे उसने प्राच्यवादी शिक्षा हेतु 31 हजार रुपये प्रति वर्ष स्वीकृत करक को सुलझाने का प्रयास किया । दूसरी तरफ पाश्चात्यवादियों को संतुष्ट करने हेतु पाश्चात्यवादी शिक्षा की व्यवस्था के लिये भी अतिरिक्त एक लाख रुपये प्रति वर्ष देने मंजूर किये । अतः उसने 24 नवम्बर, 1839 को अपनी शिक्षा नीति की घोषणा की और उसमें स्पष्ट बताया कि “सरकार के प्रयास समाज के उच्च वर्ग के व्यक्तियों में उच्च शिक्षा का प्रसार करने तक सीमित रहने चाहिये, जिनके पास अध्ययन के लिये अवकाश (समय है और जिनकी संस्कृति छन-छनकर जनसाधारण तक पहुँचेगी ।”
“Attempts of government should be restricted to the extension of Higher Education to the upper class of society who have leisure for study and whose culture would filter down to the masses.”-Auckland Minute
1853 में शिक्षा की प्रगति की जाँच के लिए एक समिति बनी। 1854 में वुड शासनादेश में समिति के निर्णय कंपनी के पास भेज दिए गए। संस्कृत, अरबी और फारसी का ज्ञान आवश्यक समझा गया। औद्योगिक विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया तथा प्रान्तों में शिक्षण विभाग, अध्यापक प्रशिक्षण, नारी शिक्षा आदि की सिफारिश की गई । 1857 में स्वतंत्रता का युद्ध छिड़ गया जिससे शिक्षा की प्रगति में बाधा पड़ी। प्राथमिक शिक्षा उपेक्षित ही रही। उच्च शिक्षा की उन्नति होती गई। 1857 में कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित हुए।
हण्टर आयोग के सुझाव (Suggestion of Hunter Commission)
प्राथमिक शिक्षा की दशा की जाँच करने हेतु, शिक्षा के प्रश्नों पर विचार करने के लिए 1882 में सर विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में भारतीय शिक्षा आयोग की नियुक्ति हुई जिसने प्राथमिक शिक्षा के लिए उचित सुझाव दिये। सरकारी प्रयत्न को माध्यमिक शिक्षा से हटाकर प्राथमिक शिक्षा के संगठन में लगाने की सिफारिश की। सरकारी माध्यमिक स्कूल प्रत्येक जिले में एक से अधिक न हों, शिक्षा का माध्यम माध्यमिक स्तर में अंग्रेजी रहे माध्यमिक स्कूलों के सुधार और व्यावसायिक शिक्षा के प्रसार के लिए भी आयोग ने सिफारिशें की। इस आयोग ने सहायता, अनुदान प्रथा और सरकारी शिक्षा विभागों का सुधार, धार्मिक शिक्षा, स्त्री शिक्षा, मुसलमानों की शिक्षा इत्यादि पर भी प्रकाश डाला।
आयोग की इन सिफारिशों से भारतीय शिक्षा की उन्नति हुई। विद्यालयों की संख्या बढ़ी, नगरों में नगरपालिका और गाँवों में जिला परिषद् का गठन हुआ और प्राथमिक शिक्षा का भार इन पर सौंपा गया, परंतु इससे विशेष लाभ नहीं हुआ तथा प्राथमिक शिक्षा की दशा नहीं सुधर पाई। सरकारी शिक्षा विभाग माध्यमिक शिक्षा की सहायता करता रहा । शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही रहा तथा मातृभाषा की उपेक्षा होती गई। शिक्षा संस्थाओं व शिक्षितों की संख्या तो बढ़ी परंतु शिक्षा का स्तर गिरता गया। देश की उन्नति चाहने वाले भारतीयों में व्यापक और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा की आवश्यकता का बोध होने लगा। स्वतंत्रता प्रेमी भारतीयों और भारत प्रेमियों ने इस तरफ सोचा व 1870 में बाल गंगाधर तिलक और उसके सहयोगियों द्वारा पूना में फर्ग्युसन कॉलेज, 1886 में आर्य समाज द्वारा लाहौर में दयानन्द ऐंग्लो वैदिक कॉलेज और 1898 में काशी में श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज स्थापित किए गए।
गोखले के प्रयास (Efforts of Gokhale)
1911 में गोपाल कृष्ण गोखले ने प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क और अनिवार्य करने का प्रयास किया। अंग्रेज सरकार और उसके समर्थकों के विरोध के कारण वे सफल न हो सके। 1913 में भारत सरकार ने शिक्षा नीति में अनेक परिवर्तनों की कल्पना की परंतु प्रथम विश्व युद्ध के कारण कुछ हो न पाया। प्रथम महायुद्ध के समाप्त होने पर कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग गठित हुआ। आयोग ने शिक्षकों का प्रशिक्षण, इण्टरमीडिएट कॉलेजों की स्थापना, हाई स्कूल और इण्टरमीडिएट बोर्डों का संगठन, शिक्षा का माध्यम, ढाका में विश्वविद्यालय की स्थापना कलकत्ते में कॉलेजों की व्यवस्था, वैतनिक उपकुलपति, परीक्षा, मुस्लिम शिक्षा, स्त्री शिक्षा, व्यावसायिक और औद्यौगिक शिक्षा आदि विषयों पर सिफारिशों की। बम्बई, बंगाल, बिहार, आसाम आदि प्रान्तों में प्राथमिक शिक्षा कानून बना जाने लगे। माध्यमिक क्षेत्र में भी उन्नति होती गई। छात्रों की संख्या बढ़ी, माध्यमिक पाठ्यक्रम में वाणिज्य और व्यवसाय विषय रखे गए। स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट परीक्षा का प्रचलन बढ़ा। तब अंग्रेजी का महत्त्व बढ़ता गया । इसी समय शिक्षकों का प्रशिक्षण भी अधिक संख्या में होने लगा।
1916 तक भारत में पाँच विश्वविद्यालय थे। अब सात नए विश्वविद्यालय स्थापित किये गए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय तथा मैसूर विश्वविद्यालय 1916 में, पटना विश्वविद्यालय 1917 में उस्मानिया विश्वविद्यालय, 1918 में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, 1920 में और लखनऊ और ढाका विश्वविद्यालय 1921 में स्थापित हुए। असहयोग आंदोलन से भी राष्ट्रीय शिक्षा में प्रगति आई। बिहार विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, गौड़ीय सर्वविद्यालय, तिलक विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, जामिया मिलिया इस्लामीया आदि राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना हुई तथा शिक्षा में व्यावहारिकता लाने की चेष्टा की गई। 1921 से नए शासन सुधार कानून के अनुसार सभी प्रान्तों में शिक्षा भारतीय मंत्रियों के अधिकार में आ गई। परंतु सरकारी सहयोग के अभाव के कारण उपयोगी योजनाओं को क्रियान्वित करना सम्भव न हो सका । प्रायः सभी प्रान्तों में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य करने की कोशिश व्यर्थ हुई । माध्यमिक शिक्षा में विस्तार होता चला गया। परंतु उचित संगठन के अभाव में उसकी समस्याएँ नहीं हो पाईं। शिक्षा समाप्त कर विद्यार्थी कुछ करने के योग्य नहीं बन पाते थे। दिल्ली (1922), नागपुर (1923), आगरा (1927), आन्ध्रप्रदेश (1926) और अन्नामलाई ( 1926), विश्वविद्यालय स्थापित हुए। बम्बई, पटना, कलकत्ता, पंजाब, मद्रास और इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पुनर्गठन हुआ। कॉलेजों की संख्या में वृद्धि होती गई। व्यावसायिक शिक्षा, स्त्री शिक्षा, मुसलमानों की शिक्षा, हरिजनों की शिक्षा तथा अपराधी जातियों की शिक्षा की उन्नति होती गई।
इसी प्रकार केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (CABE) ने दिसम्बर, 1935 में एक बैठक करके भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सुधार हेतु अनेक प्रस्ताव पारित किये। भारत सरकार समिति के प्रस्ताव जो कि छात्रों के लिए उच्चतर माध्यमिक स्तर पर प्राविधिक विषयों के शिक्षा की व्यवस्था से सम्बन्धित था, पर अपनी रिपोर्ट देने के लिए एक द्विसदस्यीय समिति बुर्ड-ऐबट समिति की नियुक्ति की जिसके सदस्य थे— (i) इंग्लैण्ड में शिक्षा परिषद् इन्टेलिजेन्स के निदेशक (Director of Intelligence Board of Education, England), एस. एच. वुड (S. H. Wood), (ii) इंग्लैण्ड में इसी परिषद् के तकनीकी विद्यालयों अवकाश प्राप्त मुख्य निरीक्षण (Ex. Chief Inspector of Technical Schools, Board Education, England) ए. ऐबट (A. Abbot) । इस समिति ने 1936 से मार्च 1937 तक दिल्ली, पंजाब व संयुक्त प्रान्त की शैक्षिक परिस्थितियों का बारीक से अध्ययन किया । वुड ने सामान्य शिक्षा का, ऐबट ने व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा का अध्ययन किया तथा संयुक्त रिपोर्ट जून 1937 को सरकार को सौंप दी। यह रिपोर्ट दो भागों में विभाजित थी ।
वुड द्वारा लिखित- सामान्य शिक्षा एवं प्रशासन (General Education and Administration) व ऐबट द्वारा लिखित व्यावसायिक शिक्षा (Vocational Education)। परंतु वास्तविक रूप से इस समिति के सुझावों को पूर्ण रूप से लागू नहीं किया जा सका । क्योंकि सितम्बर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के आरम्भ से सभी विकास कार्य बाधित हो गए । किन्तु आज भी यह रिपोर्ट व्यावसायिक शिक्षा के सम्बन्ध में मार्गदर्शक की भूमिका निभा रही है।
1937 में शिक्षा की एक योजना तैयार की गई जो 1938 में बुनियादी शिक्षा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसमें 7 से 11 वर्ष के बालक-बालिकाओं के लिए शिक्षा को अनिवार्य कर दिया गया है। शिक्षा मातृभाषा में हो, हिन्दुस्तानी पढ़ाई जाए, चरखा, करघा, कृषि, लकड़ी का काम शिक्षा का केन्द्र हो जिसकी बुनियाद पर साहित्य, भूगोल, इतिहास, गणित की पढ़ाई हो। 1945 में इसमें परिवर्तन किए गए और परिवर्तित योजना का नाम रखा गया । ‘नई तालीम’ इसके चार भाग थे— (1) पूर्व बुनियादी, (2) बुनियादी, (3) उच्च बुनियादी, व (4) वयस्क शिक्षा ।
हिन्दुस्तानी तालीमी संघ (भारतीय शैक्षिक संघ) पर इसके संचालन का भार छोड़ दिया गया।
1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होते-होते सार्जेंट योजना का निर्माण हुआ। 6 से 14 वर्ष की अवस्था के बालकों तथा बालिकाओं के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव किया गया। जूनियर बेसिक स्कूल, सीनियर बेसिक स्कूल, साहित्यिक हाई स्कूल और व्यावसायिक हाई स्कूल की पढ़ाई 11 वर्ष की अवस्था से 17 वर्ष की अवस्था तक करने का प्रस्ताव किया गया जिसके बाद विश्वविद्यालय में प्रवेश होना चाहिए। डिग्री पाठ्यक्रम तीन वर्ष का कर दिया गया । इण्टरमीडिएट कक्षाएँ समाप्त कर देने की संस्तुति की गई तथा पाँच से कम वर्ष की आयु वालों के लिए नर्सरी स्कूल की स्थापना व माध्यम मातृभाषा से करने की भी सिफारिश की गई ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में ब्रिटिश राज के दौरान बड़े सांस्कृतिक बदलाव आये। आज भी देश में जो कुछ समस्याएँ दिखती हैं उनमें से कई सीधे-सीधे ब्रिटिश राज का ही परिणाम है । उदाहरण के लिए, भाषा की समस्या को ही लेते हैं तो आज आजादी के 70 वर्ष बाद भी अंग्रेजी का ही वर्चस्व बना हुआ है। अक्सर कहा तो यह जाता है कि हम 300 वर्षों तक अंग्रेजों के गुलाम रहे, परंतु 1757 से पहले तक ईस्ट इण्डिया कंपनी की हैसियत महज एक व्यापारी संस्था की थी। औपचारिक रूप से भारत 1858 में यानि आजादी के 89 वर्ष पहले ही ब्रिटिश राज्य का हिस्सा बना, परंतु सांस्कृतिक प्रभाव खासतौर पर शिक्षा के क्षेत्र में उनके प्रभाव को 19वीं सदी की शुरूआत से देखा जा सकता है।
1947 में जब देश आजाद हुआ तो साक्षरता की दर 12% थी यानि कि 88% लोग अंग्रेजी तो क्या भारतीय भाषायें भी लिख-पढ़ नहीं सकते थे। गाँधीजी ने भी लंदन की 1931 की गोलमेज कॉन्फ्रेंस में यह दावा किया कि ब्रिटिश राज के पहले भारत में साक्षरता की दर बेहतर थी और ब्रिटिश राज की शिक्षा से जुड़ी प्रशासनिक नीतियों से निरक्षरता बढ़ ही गयी।
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