स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रसार
देश की आजादी के पहले ही आजाद देश की शिक्षा व्यवस्था का स्पष्ट, व्यावहारिक और सर्वथा उपयोगी खाका खींचने का कार्य महात्मा गाँधी ने किया। उन्होंने हिन्द स्वराज्य में लिखा कि अंग्रेजी बिल्कुल ही न पढ़ने से हमारा काम चले, ऐसा समय नहीं रहा । अतः जो लोग अंग्रेजी पढ़ चुके हैं वे उस शिक्षा का सदुपयाग करें। जहाँ आवश्यक हो वहाँ अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करें। वे लोग अपने बच्चों को पहले सदाचार और अपनी भाषा सिखायें, फिर जब वे वयस्क हों तब उन्हें अंग्रेजी भाषा सिखाई जाये। अनेक विविधताओं से भरे भारत देश को इस प्रकार एक राष्ट्र की भावना में बाँधने के लिए महात्मा गाँधी ने भाषायी समन्वय और राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के व्यवहार की पुरजोर वकालत की।
आजाद भारत में भी शिक्षा-व्यवस्था भारतीय संविधान के नीति-निदेशक तत्त्वों, सामाजिक न्याय, समता व समानता के अवसर जैसे शब्दों के आचरण से सिमटकर चलती रही। इस सन्दर्भ में तत्कालीन भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद के व्यक्तिगत प्रयासों का भी योगदान रहा है। भारत के पहले शिक्षा मंत्री के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने गाँधीवादी विचारों के अनुरूप भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में भारतीय संस्कृति की उपस्थिति को, शिक्षा की समतापूर्ण सर्वसुलभता को और शिक्षा के जनतंत्रीकरण को बढ़ावा दिया। इस प्रकार आजाद भारत की शिक्षा व्यवस्था के दिशा-निर्धारण में मौलाना आजाद की भूमिका अविस्मरणीय रही। शिक्षा पर राजनीतिक नियंत्रण ने गाँधीजी और मौलाना आजाद के विचारों के प्रयासों को ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रहने दिया। बाद में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, डॉ. सम्पूर्णानन्द, डॉ. दौलतसिंह कोठारी, डॉ. लक्ष्मण स्वामी मुदालियर, आचार्य राममूर्ति आदि शिक्षाविदों के संयोजन में नेतृत्व में, अनेक समितियों और आयोगों ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था के सन्दर्भ में अनेक सुझाव दिये, सुधार भी हुए।
आजाद भारत की शिक्षा व्यवस्था के लिए इन मनीषियों के सुझाव सार्थक हुए, उपयोगी भी हुए, किन्तु शिक्षा के विरुद्ध स्वरूप का शेष रख पाने की दिशा में अपेक्षित परिणाम नहीं ला सके। फलतः शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य भौतिक संसाधनों को उपलब्ध कर पाने और व्यक्तिगत स्वार्थी को पूर्ण कर पाने की चेष्टाओं में निहित हो गया। लिंग आधारित, अवसर आधारित और जाति-धर्म-पंथ आधारित असमानताएँ अलोकतांत्रिक अवधारणा के प्रतीकों के रूप में आजाद भारत की शिक्षा व्यवस्था पर हावी रही। नब्बे के दशक में आये आर्थिक उदारीकरण विनिवेश, विश्वव्यापीकरण और बहुराष्ट्रीयकरण के कारण भारतीय समाज में और साथ ही भारतीय शिक्षा व्यवस्था में बदलाव आने लगा ।
इक्कीसवीं सदी की भारतीय शिक्षा का स्वरूप इन्हीं सब बदलावों को साथ लेकर बना। इक्कीसवीं सदी की शुरूआत की बहुराष्ट्रीयकरण, आर्थिक उदारीकरण और इनके कारण आई सूचना संचार क्रांति के व्यापक प्रभावों को लेकर हुई। मैकाले मिनहस के साथ बदली परम्परागत भारतीय शिक्षा व्यवस्था को एक बार फिर बदलने का कार्य विश्वग्राम संस्कृति ने किया।
स्वतंत्रता के बाद भारतीय शिक्षा व्यवस्था के प्रसार में राधाकृष्णन् आयोग (1948 49), माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर कमीशन) 1953, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (1953), कोठारी शिक्षा आयोग (1964), राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968) एवं नवीन शिक्षा नीति (1986) आदि के द्वारा भी भारतीय शिक्षा व्यवस्था को समय-समय पर सही दिशा देने की गम्भीर कोशिश की गयी।
1948-49 में विश्वविद्यालयों के सुधार के लिए भारतीय विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति हुई। आयोग की सिफारिशों की बड़ी तत्परता से कार्यान्वित किया गया। उच्च शिक्षा में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई। पंजाब, गोहाटी, पूना, रुड़की, कश्मीर, बड़ौदा, कर्नाटक, गुजरात, महिला विश्वविद्यालय, विश्वभारती, बिहार, श्री वेंकटेश्वर, यादवपुर, बल्लभभाई, कुरुक्षेत्र, गोरखपुर, विक्रम, संस्कृत विश्वविद्यालय आदि अनेक नये विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् शिक्षा में प्रगति होने लगी। विश्वभारती, गुरुकुल, अरविन्द आश्रम, जामिया मिलिया इस्लामिया, विद्याभवन, महिला विश्वक्षेत्र के प्रशासकीय वनस्थली विद्यापीठ, आधुनिक भारतीय शिक्षा के विद्यालय व प्रयोग हैं।
1952-53 में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की उन्नति के लिए अनेक सुझाव दिये। माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन से शिक्षा में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई। 1956 में केन्द्रीय सरकार के एक उपक्रम के रूप में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना हुई जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों को अनुदान प्रदान करता है। यही आयोग विश्वविद्यालय को मान्यता भी देता है। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है और छः क्षेत्रीय कार्यालय पुणे, भोपाल, कोलकाता, हैद्राबाद, गुवाहाटी एवं बंगलुरु में हैं। इस आयोग की स्थापना की नींव 28 दिसम्बर, 1953 को तत्कालीन शिक्षा मन्त्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने एक विशेष विधेयक को सरकार के अधीन लाकर रखी थी। भारत भर के क्षेत्रीय स्तर पर अपने कार्यों को सुचारू रूप से आरम्भ करने के लिए यू. जी. सी. ने कई स्थानों पर अपने कार्यालय भी खोले ।
सन् 1964 में भारत की केन्द्रीय सरकार ने डॉ. दौलतसिंह कोठारी की अध्यक्षता में स्कूली शिक्षा प्रणाली को नया आकार व नई दिशा देने के उद्देश्य से एक आयोग का गठन किया । इसे कोठारी कमीशन कहते हैं। यह आयोग भारत का एकमात्र पहला शिक्षा आयोग था जिसने अपनी रिपोर्ट में सामाजिक बदलावों को ध्यान में रखते हुए कुछ ठोस सुझाव दिये।
आयोग द्वारा बालकों के समान ही बालिकाओं को भी विज्ञान व गणित की शिक्षा देने की अनुशंसा सामान्य पाठ्यक्रम की अनुशंसा द्वारा की गयी। आयोग ने 25% माध्यमिक स्कूलों को व्यावसायिक स्कूल में परिवर्तित करने की अनुशंसा की तथा सभी बच्चों को प्राइमरी कक्षाओं में मातृभाषा में ही शिक्षा देने का माध्यमिक स्तार पर स्थानीय भाषाओं में शिक्षण को प्रोत्साहित करने की अनुशंसा भी की गयी। यही नहीं 25 जुलाई, 1968 को भारत की प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा भी पूर्ण रूप से कोठारी आयोग के प्रतिवेदन पर आधारित थी, जिसमें सामाजिक दक्षता, राष्ट्रीय एकता तथा समाजवादी समाज की स्थापना करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया, जिसमें शिक्षा प्रणाली का रूपान्तरण कर 10+2+ 3 शिक्षा पद्धति का विकास, हिन्दी का सम्पर्क भाषा के रूप में विकास, शिक्षा के अवसरों की समानता का प्रयास, विज्ञान व तकनीकी शिक्षा पर बल तथा नैतिक व सामाजिक मूल्यों के विकास पर जोर देने की बात भी कही गयी ।
सन् 1968 में कोठारी आयोग द्वारा दी गयी संस्तुतियों के आधार पर ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति की रूप रेखा तैयार करने का कार्य एक संसदीय समिति को सौंप दिया गया, जिसके प्रतिवेदन के आधार पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 की घोषणा की गयी, जिसके मूल तत्त्व निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा, शैक्षिक अवसरों की समानता, कार्यानुभव व समाज सेवा, विज्ञान की शिक्षा व अनुसन्धान व भाषाओं का विकास करने के साथ ही माध्यमिक व विश्वविद्यालय की शिक्षा में गुणात्मक उन्नति करना, अंशकालीन शिक्षा व पत्राचार पाठ्यक्रम, साक्षरता व प्रौढ़ शिक्षा के विस्तार के साथ ही अल्पसंख्यकों की शिक्षा का प्रावधान आदि रखे गये ।
24 जुलाई, 1968 को इस नीति की घोषणा किये जाने के कुछ दिन बाद ही प्रान्तीय सरकारों ने अगले सत्र में अपने प्रान्तों में 10 + 2 + 3 की शिक्षा संरचना तो लागू कर दी परन्तु यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 की मूल भावना के अनुकूल नहीं थी । तत्पश्चात् मार्च 1977 में जनता पार्टी की सरकार के सत्ता में आने के बाद अप्रैल 1979 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1979 का प्रारूप संसद में प्रस्तुत किया गया, परन्तु यह शिक्षा नीति कागजों तक ही सीमित रही तथा बाद में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के नाम से शिक्षा की चुनौती नीति सम्बन्धी परिप्रेक्ष्य (Challenges of Education: A Policy Perspective) प्रकाशित किया गया केन्द्रीय सरकार ने इसके सुझावों के अनुसार एक नई शिक्षा नीति तैयार की व 1986 में इसे पास कराया गया। इस शिक्षा नीति का दस्तावेज 12 भागों में विभाजित था, जिसमें प्राथमिक, माध्यमिक, पूर्व-प्राथमिक, उच्च शिक्षा, दूरस्थ शिक्षा आदि सभी पहलुओं से सम्बन्धित सुझाव दिये गये तथा 5 वर्ष बाद इस नीति के कार्यान्वयन व उसके परिणामों की समीक्षा के बाद संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 भी 1992 के दस्तावेज के रूप में अस्तित्व में आयी ।
कार्य योजना, 1992 [ Plan of Work, 1992]
लागू राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रकाशन, संसद द्वारा पारित हो जाने के बाद, मई 1996 में किया गया था तथा इसके लगभग 6 महीने बाद नवम्बर 1986 में इस शिक्षा योजना को लागु करने के लिए कार्य योजना (Plan of Action) के दस्तावेज का प्रकाशन किया गया।
इस शिक्षा नीति को लागू करने के लिए मानव संसाधन मंत्रालय ने 23 कार्यदलों का गठन किया था, जिनमें ख्याति प्राप्त शिक्षाविद्, विषय विशेषज्ञ तथा वरिष्ठ सरकारी अधिकारी शामिल थे। इन्होंने शिक्षा नीति के प्रमुख प्रावधानों को क्रियान्वित किये जाने की विधि पर विचार करके अपनी संस्तुति जुलाई 1986 में प्रस्तुत की। इन सुझावों पर 21 जुलाई, 1986 को राज्य व केन्द्र के सक्षम शैक्षिक एवं प्रशासनिक अधिकारियों की बैठक में विचार करके एक कार्य-योजना (POA) तैयार की गयी, जिसे केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद् द्वारा पुनः विचार करके अपनी स्वीकृति दे दी गयी । यह अन्तिम प्रारूप भारतीय संसद् द्वारा अगस्त 1986 में स्वीकृत किया गया, जिसे बाद में सभी राज्यों में लागू कर दिया गया ।
नई शिक्षा नीति में प्रारम्भिक शिक्षा हेतु कार्य योजना (Plan of Action for Elementary Education in New Education Policy)
इस शिक्षा नीति में प्रारम्भिक शिक्षा हेतु निम्न सुझाव दिये गये-
1. 14 वर्ष तक के बालकों की शिक्षा के लिए पूरे देश में समान प्रवेश प्रणाली तथा समान अवधि की शिक्षा होनी चाहिए ।
2. प्राथमिक शिक्षा में सुधार वांछित दिशा में तथा मूर्त रूप में होनी चाहिए ।
3. बालकों के संज्ञानात्मक अधिगम में वृद्धि होनी चाहिए ।
4. अभ्यास द्वारा बालकों को कौशलों का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
5. विद्यालयों में शारीरिक दण्ड की प्रथा को बिल्कुल समाप्त कर देना चाहिए।
6. छात्रों को व्यावसायिक ज्ञान उनकी सुविधानुसार दिया जाना चाहिए।
7. ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड के माध्यम से छात्रों को खेल का सामान, नक्शे, चार्ट, चॉक, श्यामपट्ट तथा डस्टर आदि प्रदान किये जाने चाहिए।
8. अपव्यय तथा अवरोधन को रोकने के लिए बड़े पैमाने पर निरौपचारिक शिक्षा के कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिए।
नई शिक्षा नीति में माध्यमिक शिक्षा हेतु कार्य योजना (Plan of Action for Secondary Education in New Education Policy)
नई शिक्षा नीति में माध्यमिक शिक्षा के महत्त्व को भली प्रकार समझा गया था। अतः इसमें इस स्तर की शिक्षा के सम्बन्ध में निम्नांकित सुझाव दिये गये थे-
1. आर्थिक स्थिति कमजोर होने पर भी प्रतिभावान बालकों की शैक्षिक प्रगति में तेजी लाने का प्रयास करना ।
2. इस नीति में माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा का एक ऐसा व्यवस्थित व सुनियोजित कार्यक्रम बनाने की संस्तुति की गई है, जो छात्रों को उनके शिक्षा पूरी करने के बाद उन्हें आत्म-निर्भर बनाने में सहायता करें।
3. व्यावसायिक शिक्षा संस्थाओं के निर्माण का उत्तरदायित्व सरकार तथा निजी सेवायोजकों पर सहभागिता के आधार पर सौंपा गया है।
4. माध्यमिक स्तर पर कक्षा 10 के लिए एक सामान्य आधारभूत पाठ्यक्रम बनाया गया है।
5. ग्रामीण क्षेत्रों में तथा महिलाओं के लिए सरकारी एवं व्यक्तिगत दोनों प्रकार की संस्थाओं में व्यावसायिक शिक्षा बढ़ाने के लिए विशेष कदम उठाये जाने चाहिए।
6. माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा हो कि छात्र विज्ञान, सामाजिक विज्ञान तथा मानविकी के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का पूर्ण विकास कर सकें ।
उच्च शिक्षा हेतु कार्य योजना (Plan of Action for Higher Education)
उच्च शिक्षा की समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने के बाद, नई शिक्षा नीति में निम्नलिखित संस्तुतियाँ दी गई हैं—
1. भारत में स्थित 150 विश्वविद्यालय व 5000 महाविद्यालयों की संख्या बढ़ाने के स्थान पर इनके स्तर में सुधार किया जाय।
2. शिक्षा में आधुनिक चुनौतियों का सामना करने के नवाचारों को लागू करना व अधिक सुविधायें प्रदान करना।
3. सम्बद्ध कॉलेजों के स्थान पर कुछ प्रमुख स्वायत्त कॉलेज खोले जायें।
4. भाषागत योग्यता के आधार पर पर्याप्त ध्यान देना व पाठ्यक्रमों में लचीलापन होना।
5. उच्च शिक्षा के स्तर पर व उसकी गुणवत्ता पर यू. जी. सी. द्वारा निरन्तर निगरानी रखना।
6. शिक्षक शिक्षा की दृष्टि से ओरिएन्टेशन प्रोग्राम तथा पुनश्चर्या पाठ्यक्रम संचालित करने हेतु ऐकेडेमिक स्टाफ कॉलेजों की स्थापना करना ।
इसके साथ ही इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में उभरे सूचना-तकनीकी- चिकित्सा-संचार और प्रबन्धन के अध्ययन को व्यवस्थित करने का कार्य प्रमुख रूप से राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने किया । इक्कीसवीं शताब्दी के बल के रूप में ज्ञान को स्वीकार करते हुए वैश्विक स्तर पर एक प्रतियोगी खिलाड़ी के रूप प्रमुख प्रेरक में उभरने की भारत की क्षमता की ज्ञान संसाधनों पर निर्भरता को स्वीकार करते हुए 25 वर्ष में कम आयु के 55 करोड़ युवकों सहित भारत की मानवीय पूँजी को सामर्थ्यवान बनाने की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए 13 जून सन् 2005 को श्री सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का गठन किया गया । सन् 2006 में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने सिफारिशें दीं कि पुस्तकालय, अनुवाद अंग्रेजी भाषा अध्यापन, राष्ट्रीय ज्ञान तन्त्र (नेटवर्क) – शिक्षा का अधिकार, व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण उच्चतर शिक्षा राष्ट्रीय विज्ञान और समाज विज्ञान प्रतिष्ठान तथा ई-अधिकारिता के क्षेत्रों में त्वरित विकास किया जाये । सन् 2007, 2008, 2009 में क्रमशः मुक्त शैक्षिक पाठ्य विवरण प्रबन्ध शिक्षा, बौद्धिक सम्पदा अधिकार, नवाचार, स्कूल शिक्षा, उत्तम पी. एच. डी., उद्यमशीलता, कृषि, जीवन स्तर में सुधार लाना आदि प्रमुख सिफारिशें की गयीं । प्रधानमन्त्री के सलाहाकार के रूप में कार्य करने वाले राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफारिशों के आधार पर प्रत्येक राज्य को एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, एक चिकित्सा संस्थान, एक प्रबन्धन संस्थान और एक प्रौद्योगिकी संस्थान खोलने की दिशा में प्रयास किये गये और इनमें अपेक्षित सफलता भी मिली ।
शिक्षा व्यवस्था के निजीकरण की अवधारणा के विकसित होने के साथ ही निजी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, इण्टर कॉलेजों और पब्लिक स्कूलों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है । शिक्षा के निजीकरण ने जहाँ एक ओर ज्ञान की सुलभता के अवसरों में वृद्धि की, वहीं दूसरी ओर शिक्षण-प्रशिक्षण प्रविधियों, शिक्षा के क्षेत्र में तकनीक के अनुप्रयोगों, कक्षाओं के स्वरूप, बदलावों, सूचनाओं की असीमित उपलब्धताओं और व्यावहारिकताओं को खुलेपन से बढ़ावा दिया है। यही कारण है कि आज जाति, धर्म, लिंग और आर्थिक असमानता आदि का विभेद उतनी शिद्दत के साथ दिखाई नहीं पड़ता है जितना कि देश की आजादी के तीस-चालीस वर्ष बाद हुआ करता था।
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि इक्कीसवीं सदी की भारतीय शिक्षा व्यवस्था में अनेक चुनौतियों के बावजूद सकारात्मक दिशा में असीमित सम्भावनाएँ भी दीख रही है हम आशा करते हैं कि राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफारिशों व भारतीय संविधान में दिये गए शैक्षिक प्रावधानों में शिक्षा व्यवस्थित रूप में सकारात्मक दिशा की ओर जायेगी।
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