बाल्यावस्था में शारीरिक विकास (Physical Development During Childhood)
बाल्यावस्था के अन्तर्गत शारीरिक विकास-क्रम दो चक्रों में दिखलाई देता है। पहले विकास-क्रम का चक्र 6 वर्ष से 9 वर्ष की अवस्था तक पाया जाता है। यह तीव्र विकास गति का सूचक है जिसे “संरक्षण काल” (Conservation Period) के नाम से जाना जाता है। दूसरा विकास-चक्र 10 वर्ष से 12-13 वर्ष की आयु तक रहता है। यह अपेक्षाकृत मन्द गति का सूचक है और इसमें बालक का विकास धीमी गति से होता है तथा इसे “परिपाक काल”” (Consolidation Period) के नाम से जाना जाता है। वास्तव में इस अवस्था में पूर्व बाल्यावस्था के विकासों को स्थायित्व प्राप्त होता है।
1. लम्बाई में वृद्धि- प्रायः 6 वर्ष की अवस्था तक बालक-बालिकाओं की लम्बाई में वृद्धि एक समान होती है। उत्तर बाल्यावस्था (Late-Childhood) में बालकों की लम्बाई में वृद्धि अपेक्षाकृत कम हो जाती है। यह वृद्धि 5-7 सेमी. प्रति वर्ष की दर से होती है, परन्तु 11 वर्ष की आयु में बालिकाएँ बालकों की अपेक्षा अधिक लम्बाई प्राप्त कर लेती हैं। इस आयु वर्ग के बालक-बालिकाओं की औसत लम्बाई लगभग 144 सेमी. होती है जो 13 वर्ष की अवस्था में 157.5 सेमी. के लगभग हो जाती है।
2. भार-वृद्धि- उत्तर-बाल्यावस्था में बालकों की भार वृद्धि अपेक्षाकृत कम हो जाती है। इस अवस्था में भार-वृद्धि बालक की शारीरिक रचना पर निर्भर करता है। 7 वर्ष की अवस्था में बालक-बालिकाओं का औसत भार 45 पौण्ड होता है जो कि 9 वर्ष की अवस्था में 65 पौण्ड, 11 वर्ष की अवस्था में 86 पौण्ड और 13 वर्ष की अवस्था में 65 पौण्ड हो जाता है।
3. अस्थियों का विकास- आसिफिकेशन (Ossification) की सतत् प्रक्रिया के फलस्वरूप बालकों की अस्थियाँ काफी मजबूत हो जाती हैं। 13-14 वर्ष की अवस्था में अस्थियों की संख्या बढ़कर 350 हो जाती हैं।
4. मांसपेशियों और वसा में वृद्धि – 6 वर्ष की अवस्था में मांसपेशियों का विकास अत्यन्त तीव्र गति से होता है। मांसपेशियों की मोटाई बालकों की शक्ति का परिचायक होती है। 8 वर्ष की अवस्था तक बालक की मांसपेशियों का भार कुल शरीर के भार का 27 प्रतिशत जाता है।
“वसीय ऊतकों” (Fatty Tissues) का विकास भी समानान्तर रूप में चलता रहता है।
5. शारीरिक अनुपात में परिवर्तन- 10 वर्ष की अवस्था तक बालक के शरीर का अनुपात वयस्क व्यक्ति के शरीर की तुलना में 95 प्रतिशत होता है।
बाल्यावस्था में नाक का विकास तीव्र गति से होता है और 10 वर्ष की अवस्था में नाक स्थायी आकार ले लेती है किन्तु चेहरे के अन्य अंग अविकसित रहते हैं। बाल्यावस्था “अस्थायी दाँतों” (Temporary Teeth) के निकलने से चेहरे के अनुपात में परिवर्तन हो जाता है।
बालक के धड़ का अनुपात 6 वर्ष की आयु में, जन्म के समय के अनुपात का दो गुना हो जाता है। उत्तर बाल्यावस्था में पेट चपटा होना प्रारम्भ होता है। हरलॉक का कथन “प्रारम्भिक अवस्था में बालकों के कन्थे और धड़ में पर्याप्त परिवर्तन होने लगता है। उत्तर बाल्यावस्था में धड़ लम्बा और चपटा हो जाता है। छाती चौड़ी होने लगती है और गर्दन लम्बी हो जाती है।
बाल्यावस्था में हाथ पतले होते हैं परन्तु उत्तर बाल्यावस्था तक वे पर्याप्त शक्ति ग्रहण कर लेते हैं। 8 वर्ष की आयु में पैरों का विकास 50 प्रतिशत पूरा हो जाता है।
6. दाँतों की संख्या- 6 वर्ष की अवस्था से अस्थायी दाँतों के गिरने के साथ-साथ “स्थायी दाँत” निकलने लगते हैं। स्थायी दाँतों का एक सामान्य क्रम निम्न प्रकार होता है-
आयु | दाँतों की संख्या |
06 वर्ष | 1 या 2 |
08 वर्ष | 10-12 |
10 वर्ष | 14-16 |
10 वर्ष | 24-26 |
12 वर्ष | 27-28 |
7. आन्तरिक अंगों का विकास- 10 वर्ष की आयु तक मस्तिष्क का भार शारीरिक भार का 1/18 भाग तक हो जाता है जबकि जन्म के समय मस्तिष्क का भार शारीरिक भार का केवल 1/8 भाग होता है। 6 वर्ष की अवस्था में हृदय का भार जन्म के भार की अपेक्षा *4/5 गुना बढ़ जाता है और 12 वर्ष की अवस्था में यह भार बढ़कर 12 गुना हो जाता है। 8 वर्ष की अवस्था में नाड़ी गति (Pulse Rate) 80 स्पन्दन प्रति मिनट होती है जबकि 13 वर्ष की अवस्था में यह कम होकर 73 स्पन्दन मात्र रह जाती है। पाचन तन्त्र के अन्तर्गत कोई व्यापक परिवर्तन नहीं होता। फेफड़ों के आकार में वृद्धि होती है जिसके फलस्वरूप बालक शारीरिक श्रम, भाग-दौड़ तथा खेलों में अधिक ऊर्जा व्यय करने लगता है।
शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Physical Development)
बालक शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख कर देना भी आवश्यक है। इनकी चर्चा यहाँ की जा रही है-
(1) वंशानुक्रम- बालक के विकास पर वंशानुक्रम का व्यापक प्रभाव पड़ता है। माता-पिता का स्वास्थ्य, शारीरिक रचना एवं पूर्वजों के गुणों से बालक प्रभावित होता है।
(2) वातावरण- बालक के स्वस्थ और स्वाभाविक विकास में वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। जब वातावरण अच्छा होता है तो उसका शारीरिक विकास तेजी से होता है। अच्छे वातावरण के तत्त्व हैं- शुद्ध वायु, पर्याप्त धूप, प्रकाश और स्वच्छता ।
(3) पौष्टिक भोजन- बालक का स्वास्थ्य और उसका विकास पौष्टिक एवं संतुलित भोजन पर निर्भर करता है। इस सम्बन्ध में सोरेन्सन ने लिखा है- “पौष्टिक भोजन थकान का प्रबल शत्रु और शारीरिक विकास का परम मित्र है।”
(4) विश्राम एवं निद्रा- शारीरिक विकास पर विश्राम और निद्रा का भी प्रभाव पड़ता है। थकान दूर करने हेतु विश्राम और निद्रा अत्यन्त आवश्यक है। शैशवावस्था में निद्रा की अत्यधिक आवश्यकता होती है, परन्तु बाल्यावस्था में लगभग 10 घंटे सोना ही पर्याप्त है। बालक के हेतु उचित मात्रा में विश्राम करना भी आवश्यक होता है।
(5) खेल एवं व्यायाम- बालक-बालिकाओं को खेलने और व्यायाम की पूर्ण सुविधाएँ मिलनी चाहिए। शारीरिक विकास पर खेल एवं व्यायाम का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।
(6) नियमित दिनचर्या – बालक में आरम्भ से ही नियमित जीवन बिताने की आदत डाली जानी चाहिए। उसके नहाने-धोने, खाने-पीने और सोने का समय निश्चित होना चाहिए। नियमित दिनचर्या का बालक के विकास पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।
(7) स्नेह और सहिष्णुतापूर्ण व्यवहार- बालक के शारीरिक विकास पर माता-पिता का स्नेहपूर्ण एवं सहिष्णुतापूर्ण व्यवहार का भी प्रभाव पड़ता है। उसके स्वरूप विकास के लिए उससे स्नेहपूर्ण व्यवहार करना अत्यन्त आवश्यक है।
(8) परिवार की स्थिति- परिवार की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्थिति भी बालक के शारीरिक विकास पर प्रभाव डालती है। इस अवस्था में यदि बालक के विकास का समुचित ध्यान रखा जाय तो भविष्य में वह एक स्वस्थ नागरिक बनता है और उत्तम स्वास्थ्य को प्राप्त कर वह जीवन के कठिन से कठिन मार्ग भी सुगमता से पार करने में समर्थ होता है।
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