अधिगमकर्त्ता-केन्द्रित पाठ्यक्रम (Learner Centred Curriculum)
यह पाठ्यक्रम अधिगम करने वाले अर्थात् बालक से सम्बन्धित है। अधिगमकर्त्ता केन्द्रित पाठ्यक्रम का अभिप्राय उस पाठ्यक्रम से है, जिसका संगठन बालक की प्रवृत्ति, रुचि, रुझान, अवश्यकता आदि को ध्यान में रखकर किया जाता है अर्थात् इस पाठ्यक्रम में विषयों की अपेक्षा बालकों को मुख्य स्थान दिया जाता है। इस पाठ्यक्रम को हम मनोवैज्ञानिक पाठ्यक्रम भी कह सकते हैं, क्योंकि यह बालक की मनोवैज्ञानिक विशेषताओं पर आधारित होता है। इस पाठ्यक्रम में जो भी विषय रखे जाते हैं वे बालकों के विकास के स्तर, उनकी रुचियों, रुझानों एवं आवश्यकताओं के अनुकूल होते हैं। वर्तमान समय की सभी शिक्षण विधियों, जैसे- मॉण्टेसरी, किंडरगार्टन, डाल्टन आदि में अधिगमकर्त्ता केन्द्रित पाठ्यक्रम पर ही जोर दिया जाता है। यह प्रयोगवादी विचारधारा पर आधारित है।
शिक्षक-केन्द्रित पाठ्यक्रम (Teacher Centred Curriculum)
शिक्षक-केन्द्रित पाठ्यक्रम अत्यन्त व्यापक है। यह पाठ्यक्रम का प्राचीन प्रचलित रूप है जब शिक्षा गुरुकुलों में प्रदान की जाती थी तथा केवल गुरु ही छात्रों को पढ़ाये जाने वाले विषयों का चयन करते थे। यह पाठ्यक्रम शिक्षा के प्रति परम्परागत दृष्टिकोण रखता है। इसमें आध्यात्मिक व नैतिक जीवन के विकास पर बल दिया जाता है। प्राचीन यूनान के स्कूलों तथा भारतीय गुरुकुलों में इसी प्रकार के पाठ्यक्रम का प्रचलन था। इसके अन्तर्गत शास्त्रीय भाषाओं, दर्शन, ज्योतिष, गणित, व्याकरण, अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि विषयों पर अधिक बल दिया जाता है। वर्तमान समय में भी इस पाठ्यक्रम को कुछ विशिष्ट विद्यालयों (गुरुकुलों, संस्कृत पाठशालाओं, अरबी मदरसों आदि) में चलाया जा रहा है, परन्तु वर्तमान समय में इसका प्रचलन धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।
विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम (Subject Centred Curriculum)
विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम विषय पर आधारित है इसमें विषय को आधार मानकर पाठ्यक्रम को नियोजित एवं संगठित किया जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम का उद्देश्य विभिन्न विषयों के ज्ञान को पृथक्-पृथक् रूप में प्रदान करना होता है। इस पाठ्यक्रम का सूत्रपात प्राचीन ग्रीक तथा रोम के विद्यालयों में हुआ। इसमें सभी विषयों के ज्ञान को अलग-अलग निश्चित कर लिया जाता है तथा उसी के अनुसार पुस्तकें तैयार कर ली जाती हैं। इन्हीं पुस्तकों से बालक विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस पाठ्यक्रम में पुस्तकों पर अधिक बल दिये जाने के कारण इसे ‘पुस्तक- केन्द्रित पाठ्यक्रम’ भी कहा जाता है। इसमें बालकों की अपेक्षा विषय-ज्ञान को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में पाठ्यवस्तु पहले से निश्चित होने के कारण शिक्षक को यह मालूम होता है कि क्या-क्या पढ़ाना है तथा विद्यार्थी भी यह जानते हैं या जान सकते हैं कि उन्हें क्या-क्या पढ़ना है। इसमें निश्चित पाठ्यवस्तु में से ही विद्यार्थियों की परीक्षा ली जाती है तथा इस मूल्यांकन से यह ज्ञात किया जाता है कि बालक ने कितना सीखा है अर्थात् उसकी उपलब्धि क्या रही है। हमारे देश में प्रायः विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम का ही प्रचलन है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम की अपनी अनेक विशेषताएँ हैं, किन्तु यह कई तरह की कमियों से भी युक्त है।
विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम के गुण (Characteristics of Subject-centred Curriculum)
इसके प्रमुख गुण निम्न हैं-
(1) इस प्रकार के संगठन से पाठ्यक्रम से सम्बन्धित सभी पक्ष (शिक्षक, छात्र, विषय विशेषज्ञ, अभिभावक, सामान्य नागरिक, सामाजिक एवं राजनैतिक कार्यकर्त्ता आदि) भली-भाँति परिचित होते हैं। अतः वे सभी पाठ्यक्रम नियोजन, संवर्धन एवं संशोधन आदि हेतु उचित सहयोग प्रदान कर सकते हैं।
(2) यह परम्परागत ज्ञान को आगे बढ़ाने का सुविधाजनक एवं सबसे अच्छा साधन है।
(3) इससे विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ उसे सुदृढ़ करने तथा जीवन की विभिन्न स्थितियों में प्रभावी रूप से प्रयुक्त कर सकने में सुविधा होती है।
(4) इस पाठ्यक्रम में अध्ययन-अध्यापन में सुनिश्चितता होती है।
(5) इसमें नवीन ज्ञान की खोज करने तथा तथ्यों को उपयोगी क्रम में व्यवस्थित करने में भी सुविधा होती है।
(6) इस प्रकार के पाठ्यक्रम को शिक्षक एवं छात्र दोनों पसन्द करते हैं।
(7) इसमें पाठ्यक्रम आयोजन, शिक्षण तथा मूल्यांकन में सुविधा रहती है, जबकि विषयविहीन संरचना को समझ पाना कठिन होता है।
(8) इसमें कार्य करने, परिवर्तन करने, संशोधन करने की पर्याप्त सुविधा तथा क्षमता होती है।
विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम की सीमाएँ (Limitations of Subject-centred Curriculum)
इस पाठ्यक्रम की प्रमुख कमियाँ अथवा दोष निम्नवत् हैं-
(1) यह छात्रों को विशेष रूप से अपरिपक्व तथा मन्द गति से सीखने वालों को सार्थक एवं महत्त्वपूर्ण अधिगम अनुभव उपलब्ध नहीं करा पाता है।
(2) इसमें अधिगम अनुभवों का विस्तार क्षेत्र सीमित हो जाता है।
(3) इसमें ज्ञान के छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट जाने से उसका समुचित उपयोग कर पाना कठिन होता है।
(4) यह अपेक्षित व्यवहारगत उद्देश्यों को सीमित कर देता है।
(5) इस प्रकार के पाठ्यक्रम में अमूर्तीकरण एवं तार्किक विवेचन पर अधिक बल दिया जाता है जो अनुकूलन में बाधक भी सिद्ध होते हैं।
(6) इसमें किसी नवीन अन्तर्वस्तु को समाविष्ट करना कठिन होता है।
(7) इससे अधिगम का स्थानान्तरण सरलता से तथा प्रभावी रूप से सम्भव नहीं हो पाता है।
(8) इसमें प्रत्येक विषय के लिए समय सीमा का निर्धारित होना अधिगम के बाधक होता है।
(9) इसमें विद्यार्थियों से अध्ययन विषयों के प्रति बहुत अधिक निष्ठावान होने की अपेक्षा की जाती हैं।
(10) मानव ज्ञान के बढ़ते हुए विशाल भण्डार के परिणामस्वरूप विषय आधारित पाठ्यक्रमों का संगठन बहुत जटिल होता जा रहा है।
(11) इसमें लचीला एवं कल्पनापूर्ण शिक्षण असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य होता है।
(12) चूँकि प्राथमिक शिक्षक सामान्य शिक्षकों के रूप में तैयार किये जाते हैं, विषय-विशेषज्ञों के रूप में नहीं। अतः प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में इस उपागम में विशेष कठिनाई होती है।
उपर्युक्त कारणों से विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम का कार्यात्मक (Functional) न हो पाना अर्थात् दैनिक जीवन में उपयोगी न हो पाना इसकी एक अन्तर्निहित कमी है। अनेक अध्ययनों से अब यह तथ्य स्पष्ट हो गया है। सारांश में जेम्स एम. ली का कथन बहुत ही उपयुक्त है कि, “विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम निश्चित बौद्धिक विशिष्टताओं की एक सूची है जिसका योग यथार्थता का समग्र चित्र प्रस्तुत करने का दावा करता है। इसमें छात्रों के लिए क्या अर्थपूर्ण है तथा वे क्या सीखना चाहते हैं ?
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