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पर्यावरणीय शिक्षा में भारतीय मूल्यों की विवेचना कीजिए।

पर्यावरणीय शिक्षा में भारतीय मूल्य
पर्यावरणीय शिक्षा में भारतीय मूल्य

पर्यावरणीय शिक्षा में भारतीय मूल्यों की विवेचना कीजिए।

व्यक्ति अपने जीवन में जो भी निर्णय लेता है वे उसके विश्वास, मान्यताओं, धारणाओं तथा मूल्यों पर आधारित होते हैं। मूल्य व्यक्ति के व्यवहार पक्ष को निर्धारित, निर्देशित एवं प्रभावित करते हैं। डॉ० राधाकमल मुकर्जी ने मूल्यों को परिभाषित करते हुए लिखा है कि “मूल्य समाज द्वारा मान्यता प्राप्त इच्छाएँ एवं लक्ष्य हैं जिनका आन्तरीकरण अनुबन्धन अधिगम या समाजीकरण के द्वारा हैं होता है तथा वे व्यक्ति द्वारा वरीयता प्रदान करने के मानक एवं अभिलाषाएँ बन जाती हैं।” दूसरे शब्दों में मूल्यों का सम्बन्ध हमारी प्राथमिकताओं तथा विभेदीकरण से है जो अनेक सम्भावनाओं में से एक के पक्ष में प्रकट की जाती हैं। जे० काने के अनुसार, “मूल्य वे आदर्श, विश्वास एवं मानक हैं जिन्हें कोई समाज अपनाता है।” उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम निम्नलिखित विचार बिन्दुओं को विकसित कर सकते हैं-

1. मूल्य व्यक्ति की चयन सम्बन्धी प्राथमिकताओं के सूचक हैं।

2. मूल्य का सृजन विभिन्न विकल्पों के कारण होता है।

3. मूल्य व्यक्ति की आकांक्षाओं की पूर्ति करते हैं।

4. मूल्यों का सम्बन्ध व्यक्ति की रुचियों से है।

5. मूल्य व्यक्ति की पसन्द के परिचायक हैं।

6. कुछ मूल्य सार्वभौमिक होते हैं तथा कुछ सार्वभौमिक नहीं होते। सार्वभौमिक मूल्यों को  शाश्वत मूल्य कहते हैं तथा जो सार्वभौमिक नहीं होते, उन्हें आशा मूल्य कहते हैं।

मूल्यों का वर्गीकरण भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक, सौन्दर्यात्मक, राजनैतिक, व्यावसायिक एवं शैक्षिक मूल्यों के रूप में किया जाता है।

रथ, हर्मिन तथा साइमन के अनुसार कोई मूल्य तभी मूल्य कहा जा सकता है जबकि वह निम्नांकित सात कसौटियों पर खरा उतरे-

चयन करना – (1) स्वतन्त्रतापूर्वक, (2) विकल्पों से, (3) प्रत्येक विकल्प के परिणामों के बारे में विचारपूर्वक मनन करने के बाद।

महत्त्व देना – (4) चयन को महत्त्व देना, (5) सार्वजनिक रूप से चयन को दृढ़तापूर्वक स्वीकृति प्रदान करने की इच्छा।

क्रिया करना- (6) चयन के अनुरूप व्यवहार करना, (7) चयन के एक प्रतिमान के रूप में बार-बार क्रिया करना ।

(i) मूल्य सूचक – लक्ष्य, आकांक्षाओं, विश्वासों, रुचियों, अभिवृत्तियों, क्रियाओं, चिन्ताओं, समस्याओं, बाधाओं में उपयुक्त सात मापदण्डों में से सीमित होते हैं। परन्तु इन सबसे मूल्यों का जन्म अवश्य होता है। ये सब मूल्यों की मौजूदगी के सूचक तो हो सकते हैं परन्तु मूल्य नहीं हो सकते। मूल्य स्तरीय शिक्षण के सम्बन्ध में कुछ बातें नीति-निदेशन का कार्य करती हैं। इनका आवश्यक रूप से ध्यान रखना चाहिए-

1. कोई मूल्य किसी पर थोपा नहीं जा सकता।

2. मूल्य कार्यात्मक होना चाहिए।

3. मूल्य छात्रों की आयु वर्ग के अनुसार होना चाहिए।

4. मूल्य संविधान के अनुकूल होना चाहिए।

5. मूल्य शिक्षा धार्मिक शिक्षा नहीं है।

6. मूल्य विकास सम्बन्धित अनुदेशन, समस्या आधारित होना चाहिए।

7. मूल्य शिक्षण से सामाजिक दायित्व का बोध होना चाहिए।

8. अध्यापक का दायित्व, छात्रों को स्वयं के मूल्य निर्धारण में सहायता करना है, थोपना नहीं है।

9. मूल्य शिक्षा यथापरक परिस्थितियों पर आधारित होना चाहिए।

(ii) मूल्य स्पष्टीकरण विधि- मूल्य स्पष्टीकरण विधि, प्रगतिवाद (प्रोग्रेसिविज्म) की शिक्षण विधि है। इस विधि का प्रारम्भ सिडनी साइमण्ड ने किया था। ‘मूल्य स्पष्टीकरण’ नामकरण लुइस रथ ने किया। मूल्य स्पष्टीकरण ऐसी प्रविधियों का समुच्चय है जो छात्रों तथा अध्यापकों को स्वयं के मूल्यों को स्पष्ट करने में सहायता करती है। साइमन तथा शेरविनन के अनुसार इस विधि के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

1. उद्देश्यपूर्ण करने में सहायता करना।

2. अधिक उत्पादक होने में सहायता करना।

3. आलोचनात्मक चिन्तन विकसित करने में सहायक।

4. पारस्परिक अच्छे सम्बन्धों के स्थापन में सहयोग देना।

पर्यावरण शिक्षा सम्बन्धी कुछ मूल्य जिन्हें स्पष्टीकरण की आवश्यकता है, निम्नलिखित हो सकते हैं-

1. किसानों को कीटनाशी पदार्थों का उपयोग नहीं करना चाहिए।

2. किसानों को उर्वरकों का उपयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए।

3. वनों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए।

4. ग्लोबल वार्मिंग के लिए विकासशील देश जिम्मेदार हैं।

5. अम्ल वर्षा के लिए विकसित देश जिम्मेदार हैं।

6. प्रदूषण रोकने के लिए प्रौद्योगिकी विकसित हो चुकी है।

7. ईंटों का विकल्प बड़े उद्योगों की राख है।

8. ऊसर मृदा को उपजाऊ बनाने के लिए प्रौद्योगिकी विकसित हो चुकी है।

9. शाकाहार पर्यावरण उन्नयन का अच्छा साधन है।

10. चिपको आन्दोलन से सभी वृक्षों की रक्षा की जाए।

11. ओजोन परत के अपक्षय से जीवों को हानि होती है अतः इसके अपक्षय को रोका जाना चाहिए।

12. खनन पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाना चाहिए।

13. ऊर्जा के स्रोत के रूप में सूर्यातप का प्रयोग विकसित किया जाना चाहिए।

14. प्रदूषण का कारण मानव का लालच है।

15. मानव को प्रकृति के साथ अधिक छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए।

16. सभ्यता वनों से प्रारम्भ होकर मरुस्थलों में समाप्त होती है।

17. पर्यावरण संरक्षण के लिए परिवार नियोजन आवश्यक है।

18. पर्यावरण विकास के लिए मानव की भोगवृत्ति जिम्मेदार है।

19 वर्षा का वनों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है।

20. ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव धीरे-धीरे होता है।

21. प्रदूषित जल से रोग होते हैं।

(iii) न्यायिक शिक्षण प्रतिमान– समकालिक समस्याओं के बारे में विधिपूर्वक चिन्तन करने का यह प्रतिमान ऑलिवर तथा शेवर ने 1966 में प्रस्तुत किया। इस प्रतिमान की उन्होंने छह प्रावस्थाएँ निर्धारित कीं। ये प्रावस्थाएँ हैं-

1. समस्या स्थापना।

2. विवादित प्रश्नों की पहचान।

3. निर्णय लेना।

4. निर्णय की छानबीन।

5. पूर्व निर्णय का संशोधन या नये वर्णित का औचित्य स्थापन |

6. नये निर्णय की आधारभूत मान्यताओं का परीक्षण।

प्रथमावस्था में अध्यापक समूह के सम्मुख विवादित समस्या जिसे सभी कहते हैं, का मौखिक, लिखित या चित्रित रूप में प्रस्तुतीकरण करता है। केस में अन्तर्निहित विवाद का ओर अध्याय समूह का ध्यान केन्द्रित करते हुए विवाद उत्पत्ति का स्रोत भी बताता है।

द्वितीयावस्था में विद्यार्थी तथ्यों का विश्लेषण करके समस्या में निहित मूल्यों का निर्धारण करते हैं तथा द्वन्द्व उत्पन्न करने वाले विरोधी मूल्यों की पहचान करते हैं। शिक्षण की सहायता से पुस्तकों का अवलोकन करते हैं। यदि समूह के प्रतिभागी समस्या पर एक मत नहीं हो पाते तो बहुमत के आधार पर उन मापदण्डों को सूचीबद्ध करते हैं जिससे अधिकांश सहभागी (जूरी) सहमत होते हैं।

तृतीय अवस्था में जूरी के सदस्य समस्या के बारे में एक निर्णय लेने के लिए तथा उनके आधारित कारण बताते हैं तथा उन्हें सूचीबद्ध करते हैं।

चतुर्थावस्था में निर्णय की पुनः छानबीन की जाती है। अध्यापक सुकराती विधि से प्रश्न पूछता है तथा मूल्य द्वन्द्व स्पष्ट करने में छात्रों को सहयोग प्रदान करता है।

पंचमावस्था में मूल्य द्वन्द्व निश्चित हो जाने पर, अध्यापक संशोधित निर्णय को लेखबद्ध करता है।

षष्ठावस्था में पुनः संशोधित निर्णय की प्रासंगिकता की जाँच की जाती है और अन्तिम निर्णय  प्रस्तुत किया जाता है।

इस विधि में भी अध्यापक को दायित्व मूल्य स्पष्टीकरण विधि की तरह से ही होता है।

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