पर्यावरण एवं इसकी सुरक्षा के लिए किए जाने वाले संवैधानिक प्रावधान
(1) हमारे देश भारत में प्रथम वन सम्मेलन नवम्बर, 2011 में आयोजित किया गया था जिसकी विषय वस्तु थी ‘बदलती दुनिया में वन’। हमारे देश के पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय द्वारा इसका आयोजन किया गया था।
(2) वर्ष 2011 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा ‘अंतर्राष्ट्रीय वन वर्ष’ घोषित किया गया था जिससे कि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोगों में वनों के प्रति जागरूकता का विकास हो ।
(3) 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के द्वारा इस संरक्षण के लिए कुछ रणनीतियाँ निम्नलिखित हैं—
(i) वन संरक्षण एवं हरित पट्टी का विकास।
(ii) वनाधारित जीविका।
(iii) वन्य जीवन प्रबन्धन एवं जैव विविधता संरक्षण।
(iv) स्वच्छ पर्यावरण एवं अपशिष्ट निवारण |
कुछ प्रस्तावित योजनाएँ निम्नलिखित हैं—
1. राष्ट्रीय वनारोपण कार्यक्रम योजना- इसके अन्तर्गत पारिस्थितिकीय तन्त्र की पुनः स्थापना, पर्यावरण संरक्षण एवं पर्यावरण का पुनर्जनन करना। ग्रामीण स्तर पर महिला सहित जनसंगठनों एवं स्थानीय संस्थाओं का वन संरक्षण एवं वन विस्तार सम्बन्धी योजनाओं में शामिल करना।
2. वन प्रबन्धन योजना का विस्तार- इससे जहाँ वन सम्बन्धी समस्या का समाधान हो सके वहीं किसी क्षेत्र विशेष का निजी प्रबन्धकीय हस्तक्षेप सम्बन्धी माँगों को पूरा किया जा सके।
3. गैर लकड़ी वनोत्पाद प्रबन्धन- इसके माध्यम से सतत् आजीविका की प्राप्ति का प्रयास सफल हो सकता है। गैर लकड़ी वनोत्पाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
4. ग्राम सभा समेत संयुक्त वन प्रबन्धन समितियों तथा अन्य हितधारकों का विकास।
5. हरित भारत अभियान योजना- हमारे देश भारत सरकार के द्वारा हरित भारत अभियान का सूत्रपात करने हेतु पहल की गई है जो जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय योजना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है जिसके लिए फुल 46,000 करोड़ रुपयों के बजट का प्रावधान किया गया है। जिसे 10 वर्ष की अवधि में उपयोग में लेना है। स्वायत्तता तथा विकेन्द्रीकरण को ध्यान में रखते हुए वनारोपण एवं कार्बन अधिग्रहण के साथ-साथ हरियाली हेतु समय दृष्टिकोण की योजना की मुख्य विशेषता है। स्थानीय स्तर पर, स्थानीय समुदायों की सहायता लेते हुए ग्राम सभा के नियन्त्रण में इस योजना का संचालन किया जाना प्रस्तावित है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य है – वनारोपण के लिए चयनित क्षेत्र को दोगुना किया जाना, कार्बन अधिग्रहण की प्रक्रिया में वृद्धि करना और वनों के लचीलेपन में वृद्धि करना। 18 अक्टूबर, 2010 को राष्ट्रीय हरियाली अधिकरण की स्थापना की गई थी जिसका मुख्य उद्देश्य एवं कार्य है- पर्यावरण संरक्षण, वन संरक्षण एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा, संरक्षण एवं पुनर्जनन ।
1. चरागाह भूमि एवं वन कृषि भूमि विकास योजना- इसके माध्यम से असंख्य गरीब एवं संसाधन विहीन परिवारों को चरागाह की उपलब्धता कराई जा सकेगी।
2. संस्थागत वानिकी विकास एवं सहयोग-इस योजना के माध्यम से वानिकी संस्थाओं की स्थापना और वानिकी के क्षेत्रों में वृद्धि की जायेगी जिससे आर्थिक विकास के साथ-साथ पर्यावरण की गुणवत्ता में भी वृद्धि होगी। इस प्रकार से वनों के विकास के लिए हमारी सरकार प्रयासरत है जो भविष्य में बहुत सारी समस्याओं के समाधान के लिए एक मील का पत्थर साबित होगा।
3. सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस. एच. कपाड़िया की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खण्डपीठ द्वारा 21 फरवरी, 2012 को एक जनहित याचिका पर किये गये निर्णय में केन्द्र एवं राज्य सरकारों को भारत की नदियों को आपस में जोड़े जाने की महत्त्वपूर्ण योजना को लागू किये जाने के आदेश से सन् 1880 में ब्रिटेन के सिंचाई अभियन्ता सर आर्थर थॉमस कॉटन द्वारा प्रस्तावित योजना फलीभूत होती नजर आ रही है। यह केन्द्र सरकार की महत्त्वाकांक्षी परियोजना है। जिसके माध्यम से सूखे क्षेत्रों में जल बहुल नदियों का पानी पहुँचाया जाना है। इस परियोजना पर 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में तत्कालीन एन.डी.ए. सरकार द्वारा कार्य शुरू किया गया था।
4. नमामि गंगे – 13 मई, 2015 को इस समेकित गंगा संरक्षण मिशन / कार्यक्रम को मंजूरी प्रदान की गई जिसके तहत गंगा नदी को समग्र तौर पर संरक्षित और स्वच्छ किया जायेगा। इसमें पाँच वर्ष में 20 हजार करोड़ रुपये खर्च किये जाने का प्रावधान है।
5. प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 18 मई, 2016 को राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन योजना जारी किया गया जिसमें 2015-2030 की अवधि में आपदा जोखिम में कमी लाने हेतु सेण्डई फ्रेमवर्क’ में इंगित उपागम को अपनाया गया है। हमारे देश भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर बने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। इसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आपदा प्रबन्धन हेतु निम्न तीन बड़ी बहुपक्षीय पहलुओं को सम्मिलित की गयी है-
(1) आपदा जोखिम प्रबन्धन हेतु सेन्डई फ्रेमवर्क मार्च, 2015.
(2) सम्पोषणीय विकास लक्ष्य 2015-30 सितम्बर, 2015.
(3) जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता, दिसम्बर, 2015.
सेण्डई फ्रेमवर्क के अंतर्गत चार बातों को प्राथमिकता प्रदान की गई है-
(i) आपदा जोखिम को समझना।
(ii) इसके प्रबन्धन के लिए आपदा जोखिम प्रशासन को दृढ़ करना।
(iii) आपदा जोखिम को कम करने के लिए निवेश करना।
(iv) पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण में Build Back Belter की स्थिति बहाल करना।
आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 के अन्तर्गत राष्ट्रीय, प्रान्तीय, जनपदीय एवं स्थानीय स्तर पर प्रभावी आपदा प्रबन्धन की व्यवस्था के लिए एक समन्वयनकारी तन्त्र की व्यवस्था की गई है जिसमें निम्नलिखित व्यक्ति अध्यक्षता करते हैं-
राष्ट्रीय स्तर पर- प्रधानमन्त्री
प्रान्तीय स्तर पर- मुख्यमन्त्री
जनपद स्तर पर- जिलाधिकारी एवं अध्यक्ष जिला पंचायत की सह अध्यक्षता वाला प्राधिकरण होता है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन कार्ययोजना का कार्यक्षेत्र बहुत विस्तृत है जिसके अन्तर्गत निम्न कार्य क्षेत्रों का समावेश किया गया है-
1. भू-भौतिकीय- इसके अन्तर्गत घटने वाली मुख्य घटनायें एवं आपदायें निम्नलिखित हैं-
(i) भूकम्प – भूकम्प आने के बाद इससे सम्बन्धित कुछ अन्य घटनाएँ या द्वितीयक आपदाएँ जो घटित हो सकती हैं वो हैं— भूस्खलन, आग लगना, ठोस भूमि का कीचड़ या दलदली भूमि में बदल जाना इत्यादि।
(iii) ज्वालामुखी फटना- इससे आसपास के क्षेत्रों में लावा, राख, गर्म वाष्प, गर्म गैसें इत्यादि बिखर जाती हैं जिससे अधिक मात्रा में नुकसान पहुँचाता है। पायरोप्लास्टिक प्रवाह जिसमें अत्यधिक गर्म गैसें एवं राख (100°C से अधिक तापमान वाली) 700 किमी/घण्टा की गति से आसपास के क्षेत्रों में बिखर जाती है।
(ii) सुनामी– समुद्र/ सागरों के जल के नीचे भूकम्प / ज्वालामुखी विस्फोट या भू-स्खलन से भी समुद्र के लहरों में उछाल आता है जो तीव्र गति से समुद्र तटों की ओर बढ़कर तबाही का कारण बनता है।
(2) हाइड्रोलॉजिकल – इसके अन्तर्गत निम्नलिखित घटनायें आती हैं—
(i) बाढ़ (Flood)- | |
(ii) भूस्खलन | गुरुत्वाकर्षण बल के कारण हिमस्खलन एवं मिट्टी का नीचे की ओर गिरना फलतः पानी बह जाने से बाढ़ आती है। तरंग अभिक्रिया भी बाढ़ का कारण बनती है। |
(iii) तरंग अभिक्रिया |
2. मौसम सम्बन्धी- इसके अन्तर्गत चक्रवात, आँधी, तूफान, शीत लहर, कोहरा, ओलावृष्टि, बर्फबारी, बिजली गिरना, भारी वर्षा, लू, धूलभरी आँधी एवं बर्फानी तूफान इत्यादि आता है।
3. जलवायु सम्बन्धी- इसमें सूखा, भीषण सर्दी अथवा गर्मी, जंगल में आग, हिमानी झीलों का फटना, कटाव इत्यादि शामिल है।
4. जैविक- महामारी, कीटों का प्रकोप, पशुओं का प्रकोप इत्यादि।
5. मानव जनित — विभिन्न प्रकार की दुर्घटना में बम विस्फोट, आतंकवादी घटनाएँ इत्यादि। प्रशासन की विफलता की वजह से आन्दोलन, हड़ताल, तोड़-फोड़, आगजनी, बलवा, आतंकवादी गतिविधियाँ, सत्ता के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह एवं युद्ध इत्यादि।
6. संयुक्त राष्ट्र परिषद् समझौते 1540 में आतंकी गुटों की परमाणु सामग्री और परमाणु तकनीकी की पहुँच को रोकने की व्यवस्था की गई है। पहला नाभिकीय सुरक्षा सम्मेलन वाशिंगटन डी.सी. में अप्रैल 2010 को आयोजित किया गया था। दूसरा शिखर सम्मेलन मार्च, 2012 में सियोल में और तीसरा शिखर सम्मेलन हेग में मार्च, 2014 को आयोजित किया गया था जिसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि परमाणु सुरक्षा कानूनों का कड़ाई से अनुपालन हो तथा परमाणु सुरक्षा की जिम्मेदारी उचित तरीके से की जाय। साथ ही मौजूदा परमाणु जखीरे से 4 वर्ष के भीतर छुटकारा पाने का भी उल्लेख किया गया था। बराक ओबामा के 2009 में प्राग में दिये गये भाषण के आश्वासन की पूर्ति के सिलसिले में हेग में मार्च, 2014 को तीसरा शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया था। अमेरिका में चौथे नाभिकीय सुरक्षा आन्दोलन में (31 मार्च से 1 अप्रैल, 2016) हमारे देश के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भी सहभागिता की इस सम्मेलन में 50 देशों के प्रमुख एवं पाँच अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के प्रतिनिधि ने भाग लिया। मोदी जी ने परमाणु सुरक्षा को प्रत्येक देश के लिए राष्ट्रीय प्राथमिकता करार देते हुए उसका और मेरा आतंकी’ जैसी धारणा से निजात पाने के लिए भी वैश्विक नेताओं को प्रोत्साहित किया। उन्होंने आह्वान किया कि आतंकवाद के खिलाफ सभी देश विश्व पटल पर एक हो जायें।
7. हमारे देश भारत में 2005 में जनसंहारक हथियारों और उनकी सुपुर्दगी सिस्टम अधिनियम 2005 का विधान किया है जिसमें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् संकल्प 1540 के अन्तर्गत हमारे देश के संकल्प एवं दायित्व को निर्धारित किया गया है। भारतीय परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1962 में उन सभी पक्षों के सम्बन्ध में कानूनी ढाँचों की व्यवस्था की गयी है जो विकास एवं सुरक्षा से सम्बन्धित है। 2008 में सेन्ट्रल जाँच एजेन्सी की स्थापना की गई है जो केन्द्रीय आतंकवाद रोधी कानूनी प्रवर्तन एजेंसी के बतौर कार्य करती है। 2013 में परमाणु ऊर्जा विभाग में परमाणु नियन्त्रण और नियोजन विंग की स्थापना की गयी है जिसने परमाणु सुरक्षा के उपयोग निर्यात एवं नियन्त्रण से सम्बन्धित कार्यों को पूर्ण रूप प्रदान किया है। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कॉन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज जलवायु परिवर्तन विश्व की सबसे बड़ी चुनौती है जिसके लिए विश्व समुदाय बेहद चिंतित है। इस चुनौती से निपटने के लिए विश्व स्तर पर प्रयास किया जा रहा है। किन्तु अभी तक सफलता नहीं मिल पाई है। इस समस्या के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में सदस्य देशों के मध्य बातचीत का सिलसिला 1992 से चल रहा है। वार्ताओं के सिद्धान्तों तथा लक्ष्य का उल्लेख संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा पारित (1992) यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कॉन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज में किया गया है। यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्मित आधारभूत एवं बाध्यकारी कानून है जिसमें कुल 26 अनुच्छेद हैं जिनकी मुख्य बातें निम्नलिखित हैं—
(1) औद्योगिक युग की शुरुआत 1850 से मानी जाती है। वार्ताओं के माध्यम से इस बात का , प्रयास किया जा रहा है कि 1850 के स्तर की तुलना में 2 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक तापमान नहीं बढ़ पाये। 2015 में इस लक्ष्य को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड कर दिया गया।
(2) विकासशील देशों की तुलना में विकसित देशों का जलवायु परिवर्तन रोकने का दायित्व अधिक होगा।
(3) जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रोकने में वार्ताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। दिसम्बर तक 21 चक्रों की वार्ताएँ सम्पन्न की जा चुकी हैं।
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