adhigam ko prabhavit karne wale karak-अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक
अधिगम और शिक्षण प्रक्रिया में बालक का अधिगम किसी एक कारक से नहीं बल्कि अनेक कारकों से प्रभावित होता है। कुछ कारक बालक के अधिगम पर धनात्मक प्रभाव डालत हैं और कुछ नकारात्मक। जिन कारकों के कारण बालक अधिगम करता है और उसके व्यवहार में अधिगमजनित परिवर्तन होता है, उन्हें अधिगम के धनात्मक कारक कहते हैं और जिन कारकों के कारण उसके अधिगम में बाधा पड़ती है उन्हें अधिगम के नकारात्मक कारक कहते है।
अधिगम और शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारक मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-
1. आन्तरिक कारक, 2. बाहा कारक ।
आन्तरिक कारकों का सम्बन्ध स्वयं अधिगमार्थी अर्थात विद्यार्थी से होता है और बाहा कारकों का सम्बन्ध बाहरी तत्वों जैसे- शिक्षक, माता- पिता, विषय वस्तु और वातावरण आदि से होता है। संक्षेप में अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं –
1. शिक्षार्थी से सम्बन्धित कारक (Factors related to the learner)
2. शिक्षक से सम्बन्धित कारक (Factors related to the teacher)
3. प्रक्रिया से सम्बन्धित कारक (Factors related to the process)
4. विषय वस्तु से सम्बन्धित कारक (Factors related to the content) –
5. वातावरण से सम्बन्धित कारक (Factors related to the environment)
शिक्षार्थी से सम्बन्धित कारक
अधिगम को प्रभावित करने वाले जो कारक अधिगमार्थी या विद्यार्थी से सम्बन्धित हैं, वे निम्नलिखित हैं-
1. शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य (Physical and mental health)- शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ बालक नवीन ज्ञान अथवा क्रिया को शीघ्र ही ग्रहण कर लेता है। बीमार, कमजोर बालक, सीखने, पढ़ने लिखने में रूचि नहीं लेता है।
2. परिपक्वता ( Maturation)- अधिगम की प्रक्रिया को बालक की शारीरिक व मानसिक परिपक्वता विशेष योग प्रदान करती है छोटी कक्षाओं में बालक की मांस पेशियों का प्रशिक्षण दिया जाता है ताकि वे कलम, किताब आदि को पकड़ सके।
3. सीखने की प्रक्रिया (Will to learn )- यदि बालक में सीखने की इच्छा है तो वह नवीन एवं कठिन ज्ञान को आसानी से सीख सकता है। नवीन ज्ञान को सीखने का इच्छुक विपरीत परिस्थितियों में सीख लेता है। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, विवेकानन्द आदि इसके उदाहरण हैं।
4. बुद्धि ( Intelligence)- तीव्र बुद्धि वाला बालक नवीन सामग्री को शीघ्रता से सीख लेता है। तीब्र बुद्धि के साथ अभिप्रेरणा भी अति आवश्यक है।
5. सीखने वलों की अभिवृत्ति (Attitude of the learner ) – यदि सीखने वाले की विषय के प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति है तो वह उस विषय वस्तु को सरलता से सीख लेता है। इसके विपरीत नकारात्मक अभिवृद्धि वाला बालक शिक्षक के काफी परिश्रम करने के उपरान्त भी नहीं सीख पाता है।
6. अभिप्रेरणा ( Motivation) – सीखने के प्रक्रिया में अभिप्रेरणा का महत्वपूर्ण योगदान है। यदि बालक को किसी नवीन ज्ञान अथवा कार्य को सीखने के लिए प्रेरित नहीं किया जाता है तो वह उस क्रिया में रूचि नहीं लेगा। अभिप्रेरणा से सीखने की इच्छा प्रबल हो जाती है।
7. कार्य का समय (Time of Learning)- यदि बालक लगातार अधिक समय तक कार्य करता है तो वह थकान का अनुभव करने लगता है, थकाने के समय अधिगम प्रक्रिया में अवरोध आ जाता है।
8. आकांक्षा का स्तर ( Level of aspiration)- यदि छात्र की आकांक्षा का स्तर उच्च कोटि का है तो वह उच्च स्तर के ज्ञान को सीखने में रूचि लेगा आकांक्षा का निम्न स्तर छात्र को निम्न स्तर का ज्ञान ही प्राप्त करने के लिए उत्साहित करता है।
शिक्षक से सम्बन्धित कारक
बालक के अधिगम पर शिक्षक का प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है क्यों कि शिक्षक ही वह व्यक्ति है जो बालक की अधिगम प्रक्रिया से सक्रिय रूप में सम्बन्धित है। अधिगम को प्रभावित करने वाले जो कारक अध्यापक से सम्बन्धित हैं वे निम्नलिखित हैं-
1. विषय ज्ञान ( Knowledge of subject)- यदि शिक्षक को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान है तो वह अपनी योग्यता एवं अनुभव से छात्रों के सीखने को प्रभावित कर सकता है। अपूर्ण ज्ञान से वह छात्रों को सीखने में प्रभावित नहीं कर सकता है। पूर्ण ज्ञान होने पर वह छात्रों को आत्मविश्वास के साथ पढ़ा सकता है।
2. शिक्षक के गुण ( Qualities of the teacher ) – प्रभावी अधिगम के लिए शिक्षक के गुण महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। उसके अन्दर सहानुभूति, प्रेम, सहयोग, समानता,शिक्षण कला तथा व्यवहार आदि का व्यवहार अच्छा होना चाहिए तभी छात्र भली प्रकार सीख सकेंगे।
3. शिक्षक को पढ़ाने की इच्छा ( Teacher’s will to teach ) – यदि शिक्षक को पढ़ने की इच्छा प्रबल है तो वह कक्षा में एक ऐसा वातावरण उत्पन्न कर सकता है कि सभी छात्र सीखने की अभिप्रेरित हो जायेंगे तथा पाठ को भलीभाँति सीख जायेंगे।
4. शिक्षण विधि (Method of teaching)- शिक्षण विधि भी सीखने में एक महत्वपूर्ण कारक है। प्रभावपूर्ण एवं उपर्युक्त शिक्षण विधि से पाठ्यवस्तु में छात्रों की रूचि उत्पन्न हो जाती है। बच्चों को खेल विधि द्वारा सिखाना करके सीखना, निरीक्षण द्वारा सीखना, योजना विधि द्वारा सीखना आदि का महत्व काफी होता है।
5. व्यक्तिगत भेदों पर बल (Emphasis on intividual differences ) – प्रत्येक छात्र की बुद्धि रूचि, योग्यता, क्षमता अलग अलग होती है।
शिक्षक के शिक्षण को कुछ छात्र सरलता से समझ लेते हैं तथा कुछ छात्र नहीं समझ पाते। व्यक्तिगत भेदों के कारण छात्रों को व्यक्तिगत शिक्षण की आवश्यकता होती है। इसलिए मनोविज्ञान में प्रतिभाशाली, मंद बुद्धि, विकलांग आदि प्रकार के बालकों को अलग अलग शिक्षा की आवश्यकता पर महत्व दिया जाता है।
6. बाल केन्द्रित शिक्षा ( Child centred education )- आज की शिक्षा बाल केन्द्रित शिक्षा मानी जाती है। शिक्षा बालक की रूचियों, अभिवृत्तियों, क्षमताओं आदि के अनुकूल होनी चाहिए। शिक्षक को यदि बालक की रूचियों व क्षमताओं का ज्ञान है तो अच्छी प्रकार से उनको शिक्षा दे सकता है और छात्र भी भली भाँति सीख सकेगा।
7. शिक्षक का व्यक्तिगत प्रभाव (Personal influence of the teacher)- शिक्षक का व्यक्तिगत प्रभाव छात्रों को सीखने को प्रभावित करता है। इसमें शिक्षक की योग्यता तथा व्यक्तित्व छात्रों के सीखने को विशेष रूप से प्रभावित करता है।
प्रक्रिया से सम्बन्धित कारक
अधिगम प्रक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि छात्र को किस विधि से सिखाया गया है। वास्तव में अधिगम की प्रक्रिया जितनी उपयुक्त होगी, विषय वस्तु की स्मृति उतनी ही अच्छी होगी। अधिगम व्यवस्था के अन्तर्गत अग्रलिखित विधियाँ आती हैं –
1. सम्पूर्ण बनाम खण्ड विधि- इस विधि में यह बात महत्वपूर्ण है कि सम्पूर्ण विधि अथवा खण्ड विधि से याद करके स्मृति शक्ति बनायी जा सकती है। सम्पूर्ण विधि का अर्थ है कि सीखने वाली समस्त वस्तु या पाठ्यसामग्री को एक साथ ही याद कर लिया जाय। खण्ड विधि का तात्पर्य है कि उस वस्तु के विभिन्न खण्ड या भाग कर लिए जायें, तब उन्हें एक- एक खण्ड करके याद किया जाये। साधारणतया सम्पूर्ण विधि उत्तम मानी जाती है।
“एवलिंग” ने 240 पंक्तियों की कविता को दोनों विधियों से याद करने में तुलना की है। उसमें सम्पूर्ण विधि को उत्तम पाया। खण्ड विधि कभी कभी उस समय अत्यन्त लाभदायक होती है जब याद करने वाला अनुभवहीन या आत्मविश्वासी न हो तथा याद किया जाने वाला विषय प्रतिकूल एवं जटिल हो ।
2. संकलित बनाम वितरित विधि- संकलित विधि में सम्पूर्ण अधिगम एक ही सन् में बिना किसी प्रकार के विश्राम के लगातार प्रयासों द्वारा सम्पन्न होता है जबकि वितरित विधि में विश्राम काल दिया जाता है तथा अधिगम वितरित प्रयासों से सम्पन्न होता है। अनेक विद्वानों के द्वारा किये गये प्रयोगों से यह परिणाम निकलता है कि वितरित विधि द्वारा सम्पन्न किया गया अधिगम अधिक प्रभावशाली होता है। परन्तु यदि किसी विषयवस्तु की ओर ध्यान दें तो यह मिलता है कि अधिगम के समय अधिक विश्राम देने पर अधिगम में अवरोध उत्पन्न हो जाता है।
3. सक्रिय बनाम निष्क्रिय विधि- सक्रिय विधि का अर्थ है विषयवस्तु को बोल बोल कर कंठस्थ किया जाय। निष्क्रिय विधि का अर्थ है विषय वस्तु को मन ही मन कंठस्थ किया जाय। गेट्स, एविंगहास एवं उनके साथियों ने सक्रिय विधि को उपयोगी बताया है। किसी नवीन पाठ्य वस्तु या विषय को सीखने में निष्क्रिय विधि उपयोगी सिद्ध होता है।
विषय वस्तु से सम्बन्धित कारक ( Fators related the content)
विषय वस्तु से सम्बन्धित जो कारक अधिगम को प्रभावित करते हैं निम्न हैं –
1. विषयवस्तु की प्रकृति- विषय वस्तु की प्रकृति मानवीय अधिगम पर प्रभाव डालती है। कठिन विषय वस्तु को सीखने के लिए सरल वस्तु की अपेक्षा अधिक समय लगता है तथा कठिन विषय वस्तु सीखने में छात्र रूचि भी नहीं लेता है तथा सीखने की गति मन्द होती है।
2. विषय वस्तु की लम्बाई विषय वस्तु की आकार, लम्बाई या मात्रा सीखने को प्रभावित करती है। लम्बे लम्बे पाठ या विषय वस्तु को सीखने में छात्र अरूचि प्रदर्शित करते हैं तथा छोटे- छोटे विषय सामग्री शीघ्र सीख लेते है।
3. विषयवस्तु का क्रम बच्चों को सीखने के विषय वस्तु का क्रम भी प्रभावित करता है। यदि पहले सरल विषय वस्तु छात्रों को सिखलाई जाती है तो कठिन विषयवस्तु में भी उन्हें सरलता होती है। सरल से कठिन की ओर शिक्षण सिद्धान्त इसका उदाहरण है। पाठ्य वस्तु बालकों के दैनिक जीवन से सम्बन्धित होनी चाहिए।
4. भाषा – विषयवस्तु को यदि सरल भाषा में बालकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तो वे सरलता से वे उसे सीख जाते हैं। कठिन भाषा उनके सीखने में अवरोध उत्पन्न करती है।
5. पाठ्यवस्तु का रूचिकर होना यदि पाठ्यवस्तु रूचिकर है तो छात्र उन्हें मन लगाकर पढ़ते हैं। पाठ्यवस्तु रूचिकर न होने पर छात्र सीखने में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
इसके अतिरिक्त यदि पाठ्यवस्तु उद्देश्यपूर्ण है और छात्रों की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करती है तो उसे सरलता से सीख लेते हैं साथ ही कठिन विषयवस्तु को श्रव्य दृश्य सामग्री से रूचिकर बनाय जा सकता है।
वातावरण से सम्बन्धित कारक
अधिगम की एक परिस्थिति या वातावरण होता है जिसमें अधिगम की प्रक्रिया घटित होती है। वातावरण का अनुकूल एवं प्रतिकूल प्रभाव अधिगम पर पड़ता है। वातावरण के जो कारक अधिगम को प्रभावित करते है वे निम्नलिखित हैं-
1. वंशानुक्रमण- वंशानुक्रमण का बालक के सीखने पर काफी प्रभाव पड़ता है। यदि वंशानुक्रमण दोष रहित होता है तो उन बालकों तथा व्यक्तियों में उत्तम गुण का विकास होता है। वास्तव में बालक की 80 प्रतिशत क्षमताएं एवं योग्यताएं उसके वंशानुक्रमण की ही देन होती हैं। रॉस के अनुसार – “बालक जो कुछ भी है और जिस रूप में विकसित होता है वह वंशानुक्रमण की ही देन है।”
2. सामाजिक वंशानुक्रमण का ज्ञान – बालक अपने पूर्वजों का ज्ञान प्राप्त करता है। वह अपने पूर्वजों के आर्दशों पर चलने का प्रयत्न करता है, उनके जीवन से बहुत कुछ सीखता है तथा उसके अनुसार महान बनने का प्रयास करता है।
3. वातावरण का प्रभाव – वंशानुक्रमण से प्राप्त गुणों का विकास वातावरण में होता है। यदि बालक को अच्छा वातावरण नहीं मिलता तो वंशानुक्रमण से प्राप्त अच्छे गुण का विकास नहीं हो पायेगा अर्थात उसका गलत दिशा में विकास होगा अतः वातावरण का उपयुक्त होना सीखने के लिए अति आवश्यक है।
4. सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण- छात्र का सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण भी उसके सीखने पर काफी प्रभाव डालता है। सामाजिक रीति रिवाज, चाल चलन प्रचलित भावनाएं आदि बालक के सीखने को निश्चित ही प्रभावित करती हैं।
5. कक्षा का भौतिक वातावरण- कक्षा का भौतिक वातावरण भी बालक के अधिगम पर प्रभाव डालता है। यदि कक्षा के कमरे में बैठने का पर्याप्त स्थान नहीं है, कमरे में वायु और प्रकाश की व्यवस्था ठीक नहीं है तो छात्रों को थकान होगी और उनका अधिगम बाधित होगा।
6. परिवारिक वातावरण- बालक के अधिगम पर उसके पारिवारिक वातावरण का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है। यदि परिवार में लड़ाई, झगड़े होते रहते हैं, बालक परिवार में स्वयं को उपेक्षित महसूस करता है। यदि उसके विपरीत परिवार का वातावरण स्वस्थ, शालीनतापूर्ण और संस्कारयुक्त है तो बालक का अधिगम पहली स्थिति में नकारात्मक रूप में और दूसरी स्थिति में सकारात्मक रूप में प्रभावित होता है।
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