स्वामी विवेकानन्द के सामाजिक विचार
स्वामी विवेकानन्द हमारे सामने एक आध्यात्मवादी व महान सृजनात्मक विभूति के रूम में है। उन्होंने भारत के नैतिक व सामाजिक पुनरोद्धार हेतु अपना समस्त जीवन लगा दिया। समाज सेवा को वे सबसे बड़ी सेवा मानते थे। समाज की विविध समस्याओं के प्रति उनके भिन्न-भिन्न विचार इस प्रकार थे-
(1) वर्ण व्यवस्था का विरोध
वे भारत की प्राचीन वर्ण व्यवस्था के विरोधी थे। उनके अनुसार आधुनिक युग में वर्ण व्यवस्था सामाजिक अत्याचारों को प्रोत्साहन देने वाली है। इस वर्ण व जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को खोखला कर दिया है।” वे एकाधिकारवाद के विरोधी थे। उन्होंने परम्परावादी ब्राह्मणों के पुरातन अधिकारवाद का खण्डन किया। यह अधिकार शूद्रों (देश की बहुसंख्यक जनता) को वैदिक ज्ञान से वंचित करना था। उनके अनुसार सभी मनुष्य बराबर हैं और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र का भेदभाव उचित नहीं।” सभी हर क्षेत्र में समान अधिकार होना चाहिए।
(2) अस्पृश्यता की निन्दा तथा गृहस्थ जीवन में आस्था
वे छूआछूत के विरोधी थे। ये सब व्यर्थ की बातें है। ईश्वर द्वारा निर्मित सभी जीव समान हैं फिर कोई अस्पृश्य क्यों माना जाए? संन्यासी होते हुए भी उनकी गृहस्थ जीवन में आस्था थी। गृहस्थ जो अपने समस्त उत्तरदायित्वों का अच्छी तरह से पालन करते हैं सबसे अधिक अच्छे हैं।
(3) भारत के यूरोपीकरण का विरोध
वे भारत के यूरोपीकरण के विरोधी थे। भारतीय संस्कृति पर उन्हें अत्यधिक गर्व था। एक स्थान पर उनके द्वारा लिखा गया है कि ‘हमें अपने प्रकृति स्वभाव द्वारा विकसित होना चाहिए। विदेशी समाजों की कार्य प्रणालियों को अपनाना व्यर्थ है। यह असंभव है।” वह उनके लिए कल्याणप्रद हैं, किन्तु भारत के लिए नहीं।
(4) भारतीय संस्कृति में महान आस्था
उनकी भारतीय संस्कृति में महान् आस्था व प्रबल विश्वास था। वे यह मानते थे कि भारतीय संस्कृति अक्षुण्य है और भारतीयों को अपनी संस्कृति को भूलना नहीं चाहिए।” प्राचीन काल में भारतीयों ने अपनी संस्कृति का समस्त संसार में प्रसार किया था व भारत विश्व का आध्यात्मिक गुरु था।” यदि भारतीय अपनी इस आध्यात्मिकता को ग्रहण कर लें तो वह आज भी संसार के अगुवा बन सकते हैं।
(5) सामाजिक उत्थान हेतु धार्मिकता आवश्यक
स्वामी जी सामाजिक उत्थान हेतु धार्मिकता को आवश्यक मानते थे। उनके अनुसार धर्म भारत के जातीय जीवन का मेरुदण्ड है। उनका कथन है कि भारत में समाज सुधार के प्रचार के लिए नवीन सामाजिक प्रथा के द्वारा आध्यात्मिक जीवन को प्राप्त करना होगा। भारत का प्रथम कर्तव्य धर्म प्रचार है व धार्मिकता को ग्रहण करके ही भारतीय समाज उन्नत हो सकता है।
(6) समाज में क्रमिक सुधार
वे समाज में क्रमिक सुधारों के पक्षपाती थे। समाज में धीरे-धीरे करके ही परिवर्तन व सुधार लाया जा सकता है एकदम से समाज में परिवर्तन करना असंभव है। आध्यात्मिकता व धार्मिकता की भावना को ग्रहण करके जब हम क्रमशः प्रयत्न करेंगे तभी हम उन्नति कर सकते हैं।
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