स्वामी विवेकानन्द का राजनीतिक दर्शन अथवा स्वामी विवेकानन्द के समाजवादी विचार
स्वामी विवेकानन्द का राजनीतिक दर्शन- स्वामी विवेकानन्द पाश्चात्य विचारकों (हाब्स, लॉक हीगल इत्यादि) की भाँति कोई राजनीतिक विचारक नहीं थे और न ही उन्होंने सक्रिय राजनीति में भाग ही लिया । वस्तुतः राजनीति में उनका कोई विश्वास न था। उन्होंने स्वयं स्पष्ट करते हुए कहा कि, “मैन राजनीतिज्ञ हूँ न राजनीतिक आन्दोलन चलान वालों में से हैं। में केवल आत्म-तत्व की चिन्ता करता हूँ जब वह ठीक होगा तो सब काम अपने आप ही ठीक हो जाएंगे। किन्तु इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनके भाषण और विचारों में राजनीति का जो दर्शन मिलता है वह उन्हें बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों और राजनीतिक । चिन्तकों से भी आगे ले जाता है। उन्होंने प्रसंगवश राजनीतिक दर्शन से सम्बन्धित जो भी उल्लेख किया उससे यही आभास मिलता है कि वे महात्मा गाँधी की भाँति ही राजनीति का आध्यात्मीकरण करना चाहते थे। निम्न शीर्षकों के आधार पर किया जा सकता है
राष्ट्रवाद का आध्यात्मिक सिद्धान्त
स्वामी विवेकानन्द का हीगल के समान ही विश्वास था कि प्रत्येक राष्ट्र का जीवन किसी एक प्रमुख तत्व की अभिव्यक्ति है। उनकी दृष्टि में धर्म भारत के इतिहास में महत्त्वपूर्ण नियामक सिद्धान्त रहा है। वे कहते हैं कि, “प्रत्येक राष्ट्र का, जिस प्रकार संगीत में एक मुख्य स्वर होता है, एक केन्द्रीय विषय होता है, जिसके ऊपर शेष अन्य वस्तुएँ आधारित रहती हैं। प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक निश्चित लक्ष्य होता है, उसके अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु गौण है। भारत का विशिष्ट उद्देश्य धर्म है। सामाजिक सुधार तथा अन्य दूसरी वस्तुएँ गौण स्थान रखती है।” इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने राष्ट्रवाद के आध्यात्मिक विचार की नींव रखी जिस पर आगे चलकर अरविन्द घोष एवं गांधी जी ने भारतीय राष्ट्रवाद का निर्माण किया।
वास्तव में, विवेकानन्द ने भारतीयों को यह सोचने पर विवश कर दिया कि यदि भारत ने अपनी आध्यात्मिकता का परित्याग कर दिया तो उसका विनाश हो जाएगा। उन्होंने कहा “ध्यान रखो यदि तुम इस आध्यात्मिकता का त्याग कर दोगे और इसे एक और इसे एक रखकर पश्चिम की जड़तापूर्ण सभ्यता के पीछे दौड़ेगे, तो परिणाम यह होगा कि तीन पीढ़ियों में तुम एक मृत जाति बन जाओगे, क्योंकि इससे राष्ट्र की रीढ़ टूट जायेगी, राष्ट्र की वह नींव जिस पर इसका निर्माण हुआ है, नीचे धस जाएगी और इसका फल सर्वांगीण विनाश होगा।”
विवेकानन्द के स्वतंत्रता सम्बन्धी विचार
स्वामी विवेकानन्द की स्वतन्त्रता का अर्थ बहुत व्यापक था। उनका विचार था कि सम्पूर्ण विश्व का संचालन स्वतन्त्रता प्राप्ति की भावना से संचालित है। वे उत्थान की प्रथम शर्त स्वतन्त्रता मानते थे। विवेकानन्द का मानना था कि सम्पूर्ण विश्व अपनी अनवरत् गति द्वारा मुख्यतः स्वतन्त्रता की ही खोज कर रहा है। उन्हीं के शब्दों में, “शारीरिक मानसिक तथा अध्यात्मिक स्वतन्त्रता की ओर अग्रसर होना तथा दूसरों को उसकी ओर अग्रसर होने में सहायता देना मनुष्य का सबसे बड़ा तिरस्कार है। जो सामाजिक नियम इस स्वतन्त्रता के विकास में बाधा डालते हैं वे हानिकारक हैं और उन्हें शीघ्र नष्ट करने के लिये प्रयत्न करना चाहिए तथा उन संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए जिनके द्वारा मनुष्य स्वतन्त्रता के मार्ग पर आगे बढ़ता है।”
शक्ति और निर्भयता सम्बन्धी विचार
विवेकानन्द का राजनीतिक चिन्तन के क्षेत्र में एक अन्य बड़ा योगदान उनका शक्ति एवं निर्भीकता का सिद्धान्त था। राजनीतिक शब्दावली में इसे ‘प्रतिरोध का सिद्धान्त’ (Theroy of Resistance) भी कहा जा सकता है। विवेकानन्द ने भारतीयों को शक्ति और निर्भीकता का सन्देश दिया और उनके हृदय में यह भावना भरने की कोशिश की कि शक्ति और निडरता के अभाव में न तो व्यक्तिगत अस्तित्व की रक्षा हो सकती है और न अपने अधिकारों के लिये संघर्ष ही किया जा सकता है। इस तरह अपने प्रतिरोध सिद्धान्त के द्वारा विवेकानन्द ने अप्रत्यक्ष रूप से यह सन्देश दिया कि भारतवाशी शक्ति, निर्भीकता और आत्मबल के आधार पर ही विदेशी सत्ता से लोहा ले सकते हैं और अपनी राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त हो सकते हैं।
आदर्श राज्य की धारणा
स्वामी विवेकानन्द ने आदर्श राज्य की अपनी धारणा का प्रतिपादन करते हुए कहा कि, मानवीय समाज पर चार वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र (मजदूर) बारी-बारी राज्य करते हैं। ब्राह्मण पुरोहित ज्ञान के शासन और विज्ञानों की प्रगति के लिये हैं। क्षत्रिय राज्य क्रूर और अन्यायी होता है और इस काल में कला और सामाजिक सभ्यता उन्नति के शिखर पर पहुँच जाती है। उसके बाद वैश्य राज्य आता है उनमें कुचलने और खून चूसने की मौन शक्ति अत्यन्त भीषण होती है। अन्त में आयेगा मजदूरों का राज्य। उसका लाभ होगा भौतिक सुखों का समान वितरण और उससे हानि होगी सभ्यता का निम्न स्तर पर गिर जाना। साधारण शिक्षा का बहुत प्रचार होगा, परन्तु असामान्य प्रतिभाशाली शक्ति कम होते जायेंगें।
समाजवादी सम्बन्धी विचार
स्वामी विवेकानन्द एक समाजवादी विचारक थे, किन्तु उनका समाजवाद कार्ल मार्क्स या दूसरे समाजवादियों से भिन्न है। इसे ‘नव वेदान्ती समाजवाद’ कहा जा सकता है। इसने न तो वर्गविहीन समाज की कल्पना की गई और न इतिहास की आर्थिक व्याख्या को स्वीकार किया गया है। उन्होंने वर्ग संघर्ष को उचित नहीं माना बल्कि उसके स्थान पर विश्वबंधुत्व पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि, “मैं इसलिये समाजवादी नहीं हूँ कि वह पूर्ण व्यवस्था है, बल्कि इसीलिए कि रोटी के नितान्त अभाव से आधी रोटी बेहतर है।” उनके समाजवाद को ‘मानववादी समाजदर्शन’ भी कहा जा सकता है।
स्वामी विवेकानन्द उस अर्थ में समाजवादी नहीं थे जिस अर्थ में किसी आधुनिक राजनीतिक दार्शनिक को समाजवादी कहा जा सकता है। उनकी दृष्टि में समाजवाद कोई निर्दोष या आदर्श राजनीतिक व्यवस्था नहीं थी।
अन्तर्राष्ट्रीय एवं विश्वबंधुत्व
स्वामी विवेकानन्द अन्तर्राष्ट्रीयवादी एवं विश्वबंधुत्व के समर्थक थे। उनकी सार्वदेशिकता पर टिप्पणी करते हुए शिकागो में धर्म संसद के समाप्त होने के बाद कहा गया कि, “जहाँ अन्य प्रतिनिधि अपने-अपने धर्म के ईश्वर की चर्चा करते रहे, वहाँ केवल विवेकानन्द ने ही सभी के ईश्वर की बात कही।” विवेकानन्द को निःसन्देह भारत से असीम प्यार था और वे हिन्दू धर्म तथा समाज के उत्थान अभिलाषी थे, लेकिन संसार की अन्य किसी भी जाति से अथवा राष्ट्र से उन्हें घृणा नहीं थी। उन्होंने एक बार कहा था, “निःसन्देह मुझे भारत प्यार है, पर प्रत्येक दिन मेरी दृष्टि अधिक निर्मल होती जाती है। हमारे लिये भारत, इंग्लैण्ड या अमेरिका क्या है? हम तो उस ईश्वर के सेवक हैं जिसे अज्ञानी मनुष्य कहते हैं। जड़ में पानी देने वाला क्या सारे वृक्ष को नहीं सींचता है ?”
वास्तव में स्वामी विवेकानन्द भारत के राष्ट्रनायक एवं शक्ति दूत थे। उन्होंने अमेरिका एवं यूरोप के विभिन्न देशों में जाकर हिन्दू धर्म एवं हिन्दू दर्शन की श्रेष्ठता को सिद्ध कर दिखाया।
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