विवेकानन्द के सामाजिक विचारों की व्याख्या
विवेकानन्द के सामाजिक विचार- स्वामी विवेकानन्द सुधारों के उत्पन्न हुए थे। उनकी सामाजिक विचारधारा भी वेदान्त पर आधारित थी। उन्होंने समय और युग देश की आवश्यकताओं की समझ कर वेदान्त की अपनी व्याख्या प्रस्तुत की। वास्तव में वह एक यथार्थवादी विचारक थे। उन्होंने समाज में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों का भी विरोध किया। वे मानवतावादी सन्त थे और उन्हें विश्व में मानवता और विश्व बन्धुत्व का सन्देश प्रसारित करना था। मानवता के वास्तविक रूप का ज्ञान उन्हें हो चुका था, इसीलिए वे मानवता को बन्धनों से मुक्त कराने के लिए जीवन भर प्रयत्नशील रहे। उनके सामाजिक विचारों की विवेचना निम्नलिखित है-
1. जाति व्यवस्था
जाति प्रथा भारत की एक महत्वपूर्ण एवं जटिल समस्या है। विभिन्न समयों पर विभिन्न सुधारकों ने इसे सुधारने तथा हल करने के अलग-अलग नाना प्रकार उपाय प्रस्तावित एवं प्रसारित किये परन्तु कालान्तर में उनके उपाय अस्थायी ही सिद्ध हुए।
कबीर, शंकर, रामानुज तथा चैतन्य, आदि समाज-सुधारकों ने जाति प्रथा की कटु आलोचना तो अवश्य की, किन्तु उसे समूल समाप्त करने के लिए कोई दृढ़ उपाय नहीं बताया। फलतः उनके विचारों का शिक्षित समाज पर केवल अस्थायी प्रभाव ही पड़ा और उनकी मृत्यु के पश्चात् यह समस्या पुनः उठ खड़ी हुई।
स्वामी विवेकानन्द भी एक समाज सुधारक थे, अतः उन्होंने भी अपना ध्यान जाति प्रथा पर केन्द्रित किया। उन्होंने यह अनुभव किया कि जाति प्रथा के भेदों का पूर्णतः उन्मूलन अथवा विनाश करना असम्भव है। परन्तु इसके कठोर बन्धनों को ढीला किया जा सके, तो समाज का पारी हित हो सकता है। उन्होंने कहा कि धार्मिक तथा आध्यात्मिक जीवन में जाति प्रथा कोई भेद उत्पन्न नहीं करती। सन्यासियों में कोई जातिगत भेद-भाव नहीं होता। एक ब्राह्मण और एक शूद्र सन्यासी को समान अधिकार प्राप्त होते हैं। समाज पहले व्यावसायिक वर्गों में विभक्त था। कालान्तर में इस प्रथा में जटिलता इतनी अधिक बढ़ गयी कि समाज में यह एक गम्भीर समस्या बन गई। स्वामी विवेकानन्द प्राचीन भारत की वर्ण व्यवस्था से अत्यधिक प्रभावित थे। उनका मत था कि उसी चतुवर्ण व्यवस्था को पुनः स्थापित किया जाना चाहिए। इसके साथ ही ऐसे प्रयास करने चाहिए जिनसे ऊँच-नीच का भेद-भाव मिटकर समाज में समानता स्थापित हो सके। इसके लिए वे शिक्षा प्रसार को अत्यन्त आवस्यक समझते थे उनका कहना था कि “जाति भेद का अन्त करने का एक मात्र उपाय संस्कृति तथा शिक्षा का प्रसार है जो कि उच्चतर जातियों का बल है। यदि ऐसा हो जाये तो आपका उद्देश्य पूरा हो सकता है।”
स्वामी विवेकान्द ब्राह्मणों के प्रभुत्व के विरोधी थे। उनकी धारणा थी कि यह प्रभुत्व शूद्रों को आध्यात्मिक ज्ञान से वंचित रखता है। उनका कथन था, कि “निम्न वर्ग के लोगों को शिक्षित एवं सुसंस्कृत करके तुम जन साधारण पर बड़ी अनुकम्पा करोगे, उनकी दासता की जंजीरों को खोल दोगे तथा सम्पूर्ण राष्ट्र का उत्थान करोगे।” स्वामी जी ने छुआ-छूत का भी विरोध किया। वे आत्मानुभूति एवं आत्मा-त्याग द्वारा समाज का हित करना चाहते थे।
2. मूर्ति पूजा सम्बन्धी विचार
स्वामी विवेकानन्द रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ‘काली माता’ के अनन्य भक्त थे। अतः स्वामी विवेकानन्द ने अन्य भारतीय समाज-सुधारकों की तरह मूर्ति पूजा का खण्डन अथवा विरोध नहीं किया। वह तो अन्धविश्वास तथा पाखण्ड के विरोधी थे और श्रद्धा एवं भक्ति को ईश्वर की प्राप्ति का साधन समझते थे। उनका मत था, “आजकल यह आम बात हो गयी है कि सभी लोग अनायास ही इस बात को स्वीकार करते हैं कि मूर्ति पूजा ठीक नहीं है। मैं भी ऐसा कहता था और सोंचता था। उसके दण्ड श्वरूप मुझे एक ऐसे महापुरूष के पैरों तले बैठकर शिक्षा ग्रहण करनी पड़ी, जिन्होंने पूर्ति पूजा से ही सब कुछ पाया था। मैं स्वामी रामकृष्ण परमहंस की बात कर रहा हूँ। अघर मूर्ति-पूजा द्वारा इस तरह रामकृष्ण परमहंस जैसे व्यक्ति बन सकते हैं, तो हजारों मूर्तियों की पूजा करो।”
3. सामाजिक परिवर्तन में संयम पर विश्वास
स्वामी विवेकानन्द की धारणा थी कि सामाजिक परम्परायें एवं रूढ़ियाँ समाज की आत्मरक्षा के सिद्धान्त पर आधारित होती है, किन्तु सामाजिक नियमों को यदि स्थिर रखा जाता है और उनमें परिवर्तन नहीं किया जाता तो समाज में बुराइयां उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए स्वामी विवेकानन्द उन सामाजिक नियमों को ध्वंसात्मक कार्यवाही द्वारा समाप्त करना चाहते थे, जिन्होंने उस परम्परा की संस्था को आवश्यक बना दिया है। वे सामाजिक रूढ़ियों को धीरे-धीरे दर्शन के माध्यम से समाप्त करना चाहते थे। उनकी प्रवृत्ति रचनात्मक थी। सुधारों द्वारा परम्पराओं में परिवर्तन करना वह असम्भव समझते थे। स्वामी विवेकानन्द का कथन था कि परम्पराओं एवं रीतियों की निन्दा करने से एक आवश्यक तनाव उत्पन्न होगा जिससे कोई लाभ नहीं होगा, हिन्दूवाद की शक्ति का प्रतीक उसकी आत्मासात करने की क्षमता है। अतः स्वामी जी ने ध्वंसात्मक सुधारों के स्थान पर सावयवी एवं सुधार की विकासवादी पद्धति का समर्थन किया।
4. यूरोपीयकरण के आलोचक
उस समय सम्पूर्ण भारत पर अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हो चुका था। अंग्रेज अपने साम्राज्य के स्थायित्व के लिए भारत का यूरोपीयकरण कर देना चाहते थे। लॉर्ड मैकाले के नेतृत्व में भारत में पाश्चात्य शिक्षा एवं सभ्यता का तेजी से प्रचार होने लगा था। स्वामी विवेकानन्द भारतीय आध्यात्मवाद और प्राचीन भारतीय संस्कृति के अनन्य भक्त थे। ये किसी भी मूल्य पर भारतीय संस्कृति के नैतिक आदर्शों का त्याग नहीं करना चाहते थे। अतः उन्होंने समाज के यूरोपीयकरण का तीव्र विरोध किया। उन्होंने कहा, “हमें अपनी प्रकृति एवं स्वभाव के अनुसार ही विकास करना चाहिए। विदेशी समाजों की कार्य प्रणालियों को अपनाने का प्रयत्न करना व्यर्थ है; यह असम्भव भी है। यह हमारे लिए गौरवपूर्ण है कि हमको दूसरे राष्ट्रों के अनुरूप नहीं ढाला जा सकता। मैं दूसरी जाति की संस्थाओं की आलोचना नहीं करता, वे उन लोगों के लिए ठीक है, परन्तु हमारे लिये नहीं है। उन लोगों ने दूसरे विज्ञानों, दूसरी संस्थाओं एवं दूसरी परम्पराओं की पृष्ठभूमि में अपनी वर्तमान अवस्था को प्राप्त कर लिया है। हम अपनी परम्पराओं तथा हजारों वर्ष से कर्म की पृष्ठभूमि में, स्वाभाविक रूप से अपनी मनोवृत्ति का अनुसरण कर सकते हैं और यह हमें करना पड़ेगा। हम पाश्चात्य लोगों की तरह नहीं हो सकते। अतः पाश्चात्य लोगों का अनुसरण करना व्यर्थ है।
5. सामाजिक जीवन का मूल आधार धर्म
स्वामी विवेकानन्द भारत को धर्ममय बनाना चाहते थे। वह इंग्लैण्ड के लिए तो राजनीति को सामाजिक जीवन का आधार मानने को तैयार थे, परन्तु वे भारतीय समाज को राजनीति से पृथक रखना चाहते थे। उनका कथन था, “भारत में सामाजिक सुधार करने के बजाय धार्मिक सुधार करने चाहिए।” वे आध्यात्मवाद को भारतीय सामाजिक जीवन की आधारशिला बनाना चाहते थे।
स्वामी विवेकानन्द एक कट्टर देश भक्त थे। उनका राष्ट्रवाद अति व्यापक था। वे देश के हित के लिए अपना सब कुछ अर्पण कर देने के लिए तत्पर थे। अपने विचारों को क्रियान्वित करने के उद्देश्य से ही उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी। स्वामी विवेकानन्द एक महान आध्यात्मिक समाज सुधारक थे।
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