बाल गंगाधर तिलक के धार्मिक विचारों का विवेचन कीजिए। आप उनसे कहाँ तक सहमत हैं?
बाल गंगाधर तिलक के धार्मिक विचार (Thought of Tilak on Religion) – धर्म को लेकर बाल गंगाधर तिलक हिन्दू धर्म से अत्यधिक प्रभावित रहे। वह अद्वैत दर्शन के प्रति अधिक रुचि रखते थे। उन्हें भगवान के अवतारों पर गहरी आस्था थी। इसीलिए वह कृष्ण जी को भगवान का एक अवतार मानकर उनकी उपासना करते थे। वह हिन्दू धर्म के आध्यात्मवाद के प्रति विशेष झुकाव रखते थे। तिलक परम ब्रह्म स्वरूप को वेदान्त दर्शन, उपनिषदों तथा गीता के समान समझते थे, क्योंकि इन ग्रन्थों में ईश्वर स्वयं विद्यमान है। उन्होंने गणपति उत्सव के माध्यम से धर्म को तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक स्थितियों से जोड़ा। तिलक का कथन था कि धार्मिक उत्सव प्रतीक का कार्य करते हैं, जिनसे राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन मिलता है। तिलक जी की विचारधारा धार्मिक दृष्टि से साम्प्रदायिक नहीं थी। वह दोनों समुदायों की एकता पर पर्याप्त बल देते थे। तिलक ने धर्म को राजनीति से पृथक नहीं किया। उनको प्राचीन साहित्य, संस्कृति व धर्म का उच्च ज्ञान प्राप्त था। भारतीय दर्शन में वह धर्म को प्रतिष्ठाति करना चाहते थे। वह एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था के पक्षपाती थे, जो धर्म का पोषण तथा रक्षण करे।
तिलक जी के धर्म सम्बन्धी विचारों का निम्नानुसार स्पष्ट किया जा सकता है-
1. हिन्दू धर्म की प्राचीनता
तिलक की धारणा थी कि हिन्दू धर्म अति प्राचीन है। वह इनके विस्तृत स्वरूप से भलीभांति परिचित थे। प्राचीन काल से ही वैदिक धर्म आर्यों का धर्म रहा है। तिलक धर्म को राष्ट्रीयता का आधार मानते थे। धर्म के द्वारा ही वे हिन्दू जाति का संगठन करना चाहते थे। वह कहा करते थे कि “धर्म राष्ट्रीयता का एक तत्व है।” उनके अनुसार, “हिन्दू धर्म एक सामाजिक व नैतिक बन्धन प्रदान करता है। वैदिक काल में भारत स्वयं में एक पूर्ण देश था। वह एक महान, राष्ट्र के रूप में संगठित हुआ था। अतः वह एकता समाप्त हो चुकी है तथा उसने हमको पतन के गर्त में ढकेल दिया है। यह नेताओं का कर्तव्य है कि वे उस एकता को पुनः संगठित करें। इस जगह का हिन्दू उस स्तर का ही हिन्दू है जितना कोई मद्रास या बम्बई प्रान्त का हिन्दू है। गीता, रामायण, महाभारत आदि महान ग्रन्थ सम्पूर्ण देश में इन्हीं विचारों को जन्म देते है। क्या वेदों के प्रति हमारी सामूहिक निष्ठा नहीं है? यदि हम विभिन्न धर्मों के मध्य स्थित छोटे-छोटे भेदभावों व अन्तरों को भूल जाने पर जोर देते हैं तो भगवान की दया से हम बहुत जल्दी ही विभिन्न धर्मों को एक शक्तिशाली हिन्दू राष्ट्र में समर्थ होंगे। रूप में संगठित करने
2. अद्वैतवाद में आस्था
तिलक अद्वैतवाद में विश्वास करते थे। वे आत्मा की पूर्णता को स्वीकार करते थे। आत्मा के इस रूप का उपनिषदों में विस्तृत वर्णन किया गया है। तिलक की इन ग्रन्थों में बहुत रुचि थी। वेदान्त सूत्र व श्रीमद्भगवद्गीता उनके प्रिय ग्रन्थ थे। उन्होंने कहा था, “सही अर्थों में धर्म, शब्द का मतलब ईश्वर व आत्मा की प्रकृति के ज्ञान उन उपायों से होता है जिनके द्वारा मनुष्य की आत्मा मुक्ति प्राप्त करती है।” आत्मा व परमात्मा जैसे विषयों पर वे गहन चिन्तन करते थे। तिलक एक ऐसे युग में उत्पन्न हुए थे, जबकि भारत में पश्चिम का घोर भौतिकवाद बाहें फैलाये आगे बढ़ रहा था।
3. कुप्रथाओं एवं रूढ़ियों का विरोध
तिलक ने सर्वदा रूढ़ियों व कुप्रथाओं का विरोध किया। वह हिन्दू धर्म की स्वस्थ परम्पराओं को बनाये रखने के पक्ष में थे। उनका विचार था कि हिन्दू संगठन के लिए इन परम्पराओं का पालन किया जाना अत्यावश्यक है। हिन्दू धर्म के साथ वे आत्मसात कर चुके थे। तिलक हिन्दू धर्म के प्रति रूढ़िवादी दृष्टिकोण नहीं रखते थे। उन्होंने भारत धर्म-मण्डल में भाषण में कहा था कि, “पश्चिमी देशों की ब्रह्म एवं आत्मा विषयक खोजे, जगदीशचन्द्र बसु की खोजें तथा ओलीवर लांज के विचार हिन्दू धर्म के मौलिक विचारों को सत्य करती है। उनका कथन है कि आधुनिक विज्ञान यदि अवतारवाद के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता है तो कर्म के सिद्धान्त को तो मानता है। आधुनिक विज्ञान वेदान्त तथा रोग का पूरी तरह समर्थन करता है और इनका उद्देश्य आपकों आध्यात्मिक एकता प्रदान करना है।”
4. धर्म के प्रतीकों की महत्ता में विश्वास
तिलक जनता की कठिनाइयों को समझते थे। वह जानते थे कि साधारण जनता वेदान्त के रहस्यय दर्शन को नहीं समझ सकती है। इसलिए उन्होंने धर्म के विभिन्न प्रतीकों के महत्व को स्वीकार किया था। धर्म में अपनी श्रद्धा को स्थापित रखने के लिए उन्होंने व्यक्तिगत ईश्वर के विचार को भी अपनाया था। वह ईश्वर के अवतारवाद के भी अटल विश्वासी थे। तिलक उच्चकोटि के योगी व दार्शनिक थे। योग के साथ वे भक्ति को भी महत्व देते थे। तिलक को अपने धर्म पर अभिमान था, वह बौद्धिक तर्कों पर धर्म के प्रति निष्ठावान थे। कर्मयोग में उन्होंने मोक्ष का उपाय ढूंढ़ा था।
5. तिलक मुसलमानों के विरोधी थे या नहीं, यह कहना कठिन है, किन्तु कट्टर हिन्दू होने के कारण उन्हें मुस्लिम विरोधी कहा जाता है। इसका उल्लेख वेलेण्टाइन सिरोल द्वारा भारतीय अशान्ति नामक पुस्तक में देखने को मिलता है। एक कट्टर हिन्दू होने पर भी उन्हें मुस्लिम विरोधी कहना उनके साथ अन्याय करना है। सरकार द्वारा मुसलमानों के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार अपनाने तथा हिन्दूओं के साथ विरोधी नीति अपनाने पर तिलक ने इसका विरोध किया। अंग्रेजी सरकार मुसलमानों का पक्ष लेकर हिन्दूओं के हितों पर आघात करती थी। अंग्रेज “फूट डालो और शासन करो” वाली नीति अपनाते थे। तिलक ने कभी भी हिन्दू-मुसलमानों के ” साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं किया। वह दोनों पक्षों की गलतियों को समझते थे। उन्होंने कभी यह प्रयत्न नहीं किया कि हिन्दू व मुसलमानों में आपस में लड़ाई हो। वह मुसलमानों के प्रति कोई द्वेष की भावना नहीं रखते थे। लखनऊ अधिवेशन में जिसमें उन्होंने काँग्रेस तथा मुस्लिम लोग में समझौता कराने का प्रयास किया, इस बात का प्रमाण है कि तिलक साम्प्रदायिकता के विरोधी थे। डॉ० अन्सारी तथा आसफ अली के विचारों में वे मुसलमानों के हितैषी व शुभचिन्तक थे। जाति के प्रति उनका दृष्टिकोण संकुचित न होकर व्यापक था, विस्तृत था।
तिलक ने भारत को असीम प्यार दिया। स्वराज्य के मन्त्र का जप जितना उन्होंने किया, उतना किसी दूसरे नेता ने नहीं। वह जनता के आराध्य देव थे। उनके वचन लाखों व्यक्तियों के लिए वेद वाक्य थे।
भारतीय आधुनिक राजदर्शन को तिलक ने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष संग्राम में लगाया था। उन्होंने जनता की भावनाओं को गहराई से देखा था। उनका कथन था कि जीवनोद्देश्य और सादा जीवन के लिए पश्चिमी सभ्यता का अन्धाधुंकरण नहीं करना चाहिए। वे ब्रिटिश नौकरशाही के तो आलोचक थे, किन्तु ब्रिटिश आदर्श, मूल्य और प्रगतिशीलता के प्रति सम्मान रखते थे। भारत का राजदर्शन भारत के लिए और विश्व दोनों के लिए महत्वाकांक्षा रखता है, क्योंकि इसका आधार भारतीय शाश्वत जीवनदर्शन है। स्वशासन का सारा संघर्ष इस पर दृढ़ था कि भारतीय जीवन का आदर्श ही स्वराज्य को प्राप्त करना है। भारत-संस्कृति का दर्शन इस तथ्य पर आधारित है कि वह संसार सत् है, चिट है और पूर्ण है। मानव या तो ब्रह्म रचना स्वीकार करे या अराजकता। समस्त जीवन का उद्देश्य हम इसी संसार में प्राप्त कर सकते हैं। सनातन धर्म ही हमारे जीवन का नैतिक प्राण है। स्वधर्म के द्वारा हम राजनीतिक जीवन के प्रति कर्त्तव्य निर्वाह करते हैं और सामाजिक व्यवस्था में सामंजस्य तथा शान्ति स्थापित करते हैं। राज्य व्यक्ति के नैतिक जीवन में सहायक होता है। इसी प्राचीन आदर्श को लेकर शास्त्रीय राजदर्शन भारत में प्रचलित था। राज्य का अस्तित्व धर्म के लिए था, अतः धर्म की रक्षा करना राज्य धर्म था। राजनीति सत्ता का केन्द्रीयकरण किसी विशिष्ट वर्ग में नहीं निहित था। धर्म का व्रत लेना राज्य का भी कार्य है।
राष्ट्र है कि बाल गंगाधर तिलक के धार्मिक विचार एवं उनका समग्र चिन्तन-मनन आध्यात्मिक प्रधान हिन्दू धर्म से अनुप्राणित, था, अतः वह अपनी अन्तिम सांस तक उसकी रक्षार्थ लड़ते रहे। उनके प्रत्येक कार्य में उनकी यह भावना सदैव विद्यमान रही। वह भारत की प्राचीन सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर को विच्छिन्न करने के पक्ष में नहीं थे।
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