लोकतंत्र पर नेहरू जी के विचार (Nehru’s View on Democracy)
नेहरू और लोकतन्त्र– नेहरू का चिन्तन और उनके कार्यकलाप इस बात के प्रतीक हैं कि वे महान लोकतान्त्रिक थे। नेहरू ने लोकतन्त्र को केवल राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखा अपितु आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र को भी लोकतन्त्र की परिधि में लिया। उनका कहना था कि नागरिकों को केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता देना ही पर्याप्त नहीं है, उन्हें अवसरों की समानता दी जानी चाहिए। सामाजिक अस्पृश्यताओं और घोर आर्थिक असमानताओं से पूर्ण समाज कभी लोकतान्त्रिक नहीं हो सकता।
महात्मा गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी होने के कारण नेहरू साध्य की ही सात्विकता में विश्वास नहीं करते थे, वरन् साथ-साथ साधन की पवित्रता पर भी बल देते थे। साधन के रूप में उन्होंने लोकतन्त्र का ही प्रयोग किया। उन्हें सत्तावाद तथा हिंसा से घृणा थी। वे चाहते थे कि भारत पश्चिम के उन्नत औद्योगिक राष्ट्रों के समकक्ष स्थान प्राप्त कर लें, किन्तु इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए उन्होंने अधिनायकतन्त्रीय यन्त्रीकृत हिंसा के मार्ग का परित्याग कर दिया था। नेहरू ने अपने अगणित भाषणों तथा अविराम यात्राओं के द्वारा जनता से सम्पर्क स्थापित करने की प्रणाली विकसित कर ली थी। इससे नेता का जनता के साथ एकात्म्य स्थापित होता है। यह बात लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के लिए बड़ी लाभकारी सिद्ध होती है। नेहरू ने जनता को निरन्तर अनुशासन तथा भाईचारे की प्रेरणा दी। इसमें उनका उद्देश्य उस सामुदायिक भावना को दृढ़ करना था जिसे मैकाइवर ने लोकतान्त्रिक व्यवस्था का आधार बतलाया है।
नेहरू अपने विरोधियों के विचारों के प्रति सहनशीलता और सम्मान की भावना रखते थे। उनकी दृष्टि में हठवादिता और रूढ़िवादिता की प्रवृत्ति लोकतन्त्र के लिए घातक थी । लोकतान्त्रिक भावना की मांग है कि हम अपनी समस्याओं का निराकरण आपसी विचार-विमर्श, तर्क-वितर्क और शान्तिपूर्ण उपायों से करें, नेहरू संसदीय सरकार को अधिक अच्छा इसलिए समझते थे कि यह समस्याओं को हल करने का एक शान्तिपूर्ण उपाय है। उन्हीं के शब्दों में, “इस प्रकार की सरकार में वाद-विवाद, विचार-विमर्श और निर्णय करने की और उस निर्णय को तब भी स्वीकार करने की पद्धति अपनायी जाती है, जब कि कुछ लोग असहमत होते हैं। फिर भी संसदीय सरकार में अल्पसंख्यकों का बहुत महत्त्वपूर्ण भाग रहता है। यह स्वाभाविक है कि बहुसंख्यकों को केवल इस कारण कि वे बहुसंख्यक हैं, अपने मार्ग पर चलने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए, किन्तु अल्पसंख्यकों की उपेक्षा करने वाला बहुसंख्यक दल अपना काम संसदीय गणतन्त्र की सही भावना से नहीं कर रहा होता।” नेहरू हर काम को लोकतान्त्रिक ढंग से करने से आदी थे। वे समुचित वैज्ञानिक साधनों द्वारा अपनी मांगें मनवाने और निर्णयों में परिवर्तन कराने के पक्ष में थे, लेकिन प्रत्यक्ष कार्यवाही जैसी कोई भी आन्दोलनात्मक तकनीक उनकी दृष्टि में अलोकतान्त्रिक थी। सर्वाधिकारवाद और हिंसात्मक साधनों के प्रति उनका विरोध इतना उग्र था कि उन्होंने एक ऐसे समय मुसोलिनी और हिटलर से मिलने तक से इन्कार कर दिया जब विश्व के बड़े से बड़े राजनीतिज्ञ इन तानाशाहों से मिलने में अपना गौरव समझते थे।
यद्यपि भारतीय संविधान के 19वें अनुच्छेद के संशोधन की तथा निवारक नजरबन्दी अधिनियम की पर्याप्त आलोचना हुई है, किन्तु नेहरू ने उसे परिस्थितियों की आवश्यकता के नाम पर उचित ठहराया। उन्होंने कहा कि, राजनीतिक तथा नागरिक स्वतन्त्रता की व्याख्या भी राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों तथा संकटों को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए।
नेहरू का दृढ़ विश्वास था कि लोकतन्त्र की बुराइयां ऐसी नहीं हैं कि उन्हें दूर नहीं किया जा सकता। यदि उत्कृष्ट नैतिक चरित्र का पालन किया जाय तो लोकतन्त्र के सफल संचालन में कोई सन्देह नहीं।
नेहरू ने संसदीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए वयस्क मताधिकार के महत्व को स्वीकार किया। नेहरू के अनुसार वर्तमान युग की सबसे बड़ी समस्या है केन्द्रीकरण तथा राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की समस्या को सुलझाना। उनके अनुसार इस समस्या का समाधान संसदीय लोकतन्त्र में ही निहित है। नेहरू ने समाजवाद से प्रेरणा प्राप्त कर लोकतन्त्र को समाजवादी लोकतन्त्र रूप में परिष्कृत करने का सुझाव दिया। नेहरू ने लोकतन्त्र के विकास के लिए सैद्धान्तिक समाजवाद को अपनाने का आग्रह किया।
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