गाँधी जी के स्वराज और सर्वोदय सम्बन्धी विचार
राज्य सम्बन्धी धारणा : राज्य-विहीन समाज- गांधी जी राज्य विरोधी थे। मार्क्सवादियों तथा अराजकतावादियों के समान वे एक राज्यविहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। वे दार्शनिक, नैतिक, ऐतिहासिक और आर्थिक कारणों के आधार पर राज्य का विरोध करते थे, अतः उनके सिद्धान्त को दार्शनिक अराजकतावाद (Philosophical Anarchism) कहा जाता है।
दार्शनिक आधार पर राज्य का विरोध करते हुए गांधीजी का विचार है कि राज्य व्यक्ति के नैतिक विकास का मार्ग प्रशस्त नहीं करता। व्यक्ति का नैतिक विकास उसकी आन्तरिक इच्छाओं और कामनाओं पर निर्भर है, लेकिन राज्य संगठन शक्ति पर आधारित होने के कारण व्यक्ति के केवल बाहरी कार्यों को ही प्रभावित कर सकता है। राज्य अनैतिक इसलिए है कि वह हमें सब कार्य अपनी इच्छा से नहीं वरन् दण्ड के भय और कानून की शक्ति से बाधित कर कराना चाहता है।
राज्य के विरोध का एक कारण यह भी हैं कि वह हिंसा और पाशविक शक्ति पर आधारित है। राज्य कितना ही अधिक लोकतन्त्रात्मक क्यों न हो, उसका आधार सेना और पुलिस का पाशविक बल है। गांधीजी अहिंसा के पुजारी हैं, वे राज्य का विरोध इसलिये करते हैं कि यह हिंसामूलक है।
राज्य के विरोध का तीसरा कारण इसके अधिकारों में निरन्तर वृद्धि होना है। इससे व्यक्ति के विकास में बड़ी बाधा पहुंच रही है। गांधीजी ने एक बार यह कहा था- “मैं राज्य की सता में वृद्धि को बहुत ही भय की दृष्टि से देखता हूं, क्योंकि जाहिर तौर से तो वह शोषण को कम से कम करके लाभ पहुंचाती है, परन्तु मनुष्यों के उस व्यक्तित्व को नष्ट करके वह मानव जाति को अधिकतम हानि पहुंचाती है जो सब प्रकार की उन्नति की जड़ है।”
गांधीजी में रस्किन की पुस्तक “अन्टू दिस लास्ट” (Unto this Last) को पढ़कर सर्वोदय की भावना जागी थी। गाँधीजी का आर्थिक सिद्धान्त जॉन रस्किन (1819-1900) के विचार से प्रभावित था। गाँधीजी ने इस पुस्तक को दक्षिणी अफ्रीका के एक ट्रेन यात्रा में पढ़ा था, जब वे जान्सवर्ग से डरबन जा रहे थे। गाँधी जी ने इस पुस्तक से तीन सिद्धान्त सीखे थे-
1. सबके भले से अपना भला।
2. आजीविका की आवश्यकता सबकी होती है। वकील के काम का और नाई के काम का मूल्य एक समान है, क्योंकि दोनों को आजीविका कमाने का अधिकार है।
3. श्रमिकों का, मजदूरों का किसानों का जीवन सच्चा है।
गांधी जी के दर्शन में हम बराबर समन्वय पाते हैं वेदान्तवाद, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म रस्किन ब्यूरो के विचारों का समन्वय है।
सर्वोदय का आदर्श “सबका उदय” है यह हम इस श्लोक में व्यक्त कर सकते हैं-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत् ।।”
सर्वोदय का मूलाधार अहिंसा, आर्थिक और राजनीतिक विकेन्द्रीकरण तथा ग्राम स्वावलम्बन है।
1. सर्वोदय की भावना मालकियत का विरोध करती है, ये मालकियत जमींदारों के हाथों में न होनी चाहिए। सभी भूमि गोपाल की है, अतः उस पर सबका समान अधिकार है।
2. सर्वोदय में उत्पादकों की मालकियत दी जायेगी।
3. सर्वोदय समाज में मजदूर और किसानों का राज्य होगा। भू-दान, ग्रामदान, सम्पत्ति दान सर्वोदय आन्दोलन के अंग हैं।
गाँधीजी के शब्दों में सर्वोदय का अर्थ
सर्वोदय के सम्बन्ध में स्वयं गाँधी जी लिखते हैं, “विद्यार्थी जीवन में पाठ्य-पुस्तक के अलावा मेरा वाचन नहीं के बराबर है और कर्मभूमि में प्रवेश करने के बाद तो समय ही बहुत कम रहता है। जिस कारण आज तक भी मेरा पुस्तक ज्ञान बहुत थोड़ा है। मानता हूँ कि जिस अनायास के या जबरदस्ती के समय से मुझे कुछ भी नुकसान नहीं पहुँचा है। पर हाँ यह कह सकता हूँ कि जो भी थोड़ी पुस्तकें मैंने पढ़ी हैं उन्हें ठीक तौर पर समझने की और हज करने की कोशिश अलबत्ता मैंने की है और मेरे जीवन में यदि किसी पुस्तक ने तत्काल महत्त्वपूर्ण रचनात्मक परिवर्तन कर डाला है, तो यह रस्किन की ‘अन्टू दिस लास्ट'(Unto this Last) पुस्तक ही है। या बाद में मैंने इसका गुजराती में अनुवाद किया था और वह सर्वोदय के नाम से प्रकाशित हुआ था। मेरा यह विश्वास है कि जो चीजें मेरे अन्तरतम में बसी हुई थीं, उसका स्पष्ट प्रतिबिम्ब मैंने रस्किन के इस ग्रन्थरत्न में देखा और इस कारण उसने मुझ पर अपना साम्राज्य जमा लिया और अपने विचार के अनुसार मुझसे आचरण करवाया। हमारी सुप्त भावनाओं जाग्रत करने की सामर्थ्य जिसमें होती है वही कवि है। सब कवियों का प्रभाव एक-सा नहीं होता क्योंकि सब लोगों में सभी अच्छी भावनाएँ समान मात्रा में नहीं होतीं।
सर्वोदय के सिद्धान्त को मैं इस प्रकार समझता हूँ-
1. सबके भला अपना भला है।
2. वकील और नाई दोनों के काम की कीमत एक-सी होनी चाहिए क्योंकि जीविका पाने का हक दोनों को एक-सा है।
3. सादा मजदूर और किसान का जीवन ही सच्चा जीवन है। पहली बात तो मैं जानता था दूसरी का मुझे आभास हुआ करता था, यह तीसरी तो मेरे विचार क्षेत्र में आयी तक नहीं। पहली बात में पिछली बातें समाविष्ट हैं, यह बात “सर्वोदय” से मुझे सूर्य प्रकाश की तरह स्पष्ट दिखायी देने लगी। सुबह होते ही मैं उसके अनुसार अपने जीवन को बनाने की चिन्ता में लग गया। अहिंसावादी “सर्वोदय” का आधार “सर्व भूतहिताय” व्यक्तियों का अधिकतम सुख का सिद्धान्त (Greatest Good of the greatest number) प्रतिपादित किया था। किन्तु गाँधी के अनुसार और उपयोगितावादियों का मार्ग पृथक्-पृथक् है। अहिंसावादी हमेशा मिट जाने को तैयार रहेगा, उपयोगितावादी तर्क संगत बने रहने के लिए कभी अपने को बलि नहीं कर सकता।”
गाँधी जी की परिकल्पना में सर्वोदय की रूपरेखा— गाँधी जी स्वयं लिखते हैं, “यदि हम चाहते हैं कि हमारे सर्वोदय अर्थात् सच्चे लोकतन्त्र का सपना साबित हो तो हम छोटे-छोटे भारतवासी को भारत का उतना ही शासक समझेंगे जितना देश के बड़े-बड़े आदमी को कोई किसी को अछूत नहीं समझेगा। हम मेहनत करने वाले मजदूरों और धनी पूँजीपतियों को समान समझेंगे। सबको अपने पसीने की कमाई से ईमानदारी की रोटी कमाना आता होगा। वे मानसिक और शारीरिक श्रम से कोई फर्क नहीं करेंगे।
…..प्रत्येक व्यक्ति जब जरूरत पड़ेगी, वह अपने प्राण देने को तैयार होगा, मगर दूसरे की जान लेने की इच्छा कभी नहीं करेगा।”
सर्वोदयी राज्य में राजनीतिक व्यवस्था
गाँधीजी मानव आत्मा में विश्वास रखते थे। वे राज्य रूपी मशीन के बड़े विरोधी थे। राज्य आत्मविहीन मशीन है। वह राज्य का विरोध करते थे और उसकी बढ़ती हुई शक्ति से भयभीत थे। राज्य की बढ़ती हुई सत्ता के विषय में लिखते हैं, “मैं राज्य की वृद्धि को बहुत ही भय की दृष्टि से देखता हूँ क्योंकि जाहिर तौर पर वह शोषण को कम से-कम करके लाभ पहुँचाती है परन्तु व्यक्तिवादी व्यक्तित्व को नष्ट करके वह मानव जाति को बड़ी से बड़ी हानि पहुँचाती है जो सब प्रकार की उन्नति की जड़ है। राज्य केन्द्रित और संगठित रूप से हिंसा का प्रतीक है। व्यक्ति की आत्मा होती है। परन्तु चूँकि राज्य एक आत्महीन मशीन होती है, इसलिए उससे हिंसा नहीं छुड़ायी जा सकती। उसका अस्तित्व ही हिंसा पर निर्भर है। मेरा यह पक्का विश्वास है अगर राज्य हिंसा से पूँजीवाद को दबा देगा, तो वह स्वयं हिंसा की लपेट में फँस जायेगा और किसी भी समय अहिंसा का विकास नहीं कर सकेगा। मैं तो यह अधिक पसन्द करता हूँ कि राज्य के हाथों में सत्ता केन्द्रित न करके ट्रस्टीशिप की भावना का विस्तार किया जाय। क्योंकि मेरी राय में व्यक्तिगत स्वामित्व की हिंसा राज्य की हिंसा से कम हानिकारक है, किन्तु यह अगर अनिवार्य है तो कम-से-कम राजकीय स्वामित्व का समर्थन करूंगा। मुझे जो बात नापसन्द है और वह बल के आधार पर बना हुआ संगठन और राज्य ही ऐसा संगठन है। स्वेच्छापूर्वक संगठन जरूर होना चाहिए।
गाँधी जी.के उपर्युक्त कथन से दो बातें ध्वनित होती हैं-
1. राज्य बल प्रयोग का प्रतीक है। जहाँ राज्य बल प्रयोग करता है वहाँ व्यक्ति की नैतिकता नष्ट हो जाती है।
2. गाँधी जी राज्य का आधार हिंसा मानते हैं।
गाँधी जी राज्य को आत्मविहीन मशीन मानते हैं। उनकी दृष्टि में राज्य शोषण करता है, अतः राज्य के कार्यों का विस्तार अत्यधिक नहीं होना चाहिए। गाँधीजी को कुछ आलोचक अराजकतावादी विचारक मानते हैं, क्योंकि वे राज्य के अस्तित्व को हमारे सामने रखते हैं। गाँधी “स्वराज्य” में विश्वास करते थे, “स्वराज” यानि अपने ऊपर राज्य गाँधीजी स्वयं लिखते हैं “स्वराज्य” से मेरा मतलब भारत में लोगों की स्वीकृति में होने वाले शासन से है। वह स्वीकृति बालिग आबादी की बड़ी से बड़ी संख्या द्वारा निश्चित होनी चाहिए और उस देश में पैदा बाहर से आकर बसे हुए वे सभी स्त्री-पुरुष शामिल हैं जिन्होंने शरीर श्रम द्वारा राज्य की सेवा में भाग लिया हो और अपना नाम मतदाताओं की सूची में लिखवाने का कष्ट उठाया हो। दूसरे शब्दों में, स्वराज्य जनसाधारण की सत्ता का नियम और नियन्त्रण करने की उनकी शक्ति का ज्ञान कराने में प्राप्त हो। “स्वराज्य के जरिये हम सारे विश्व की सेवा करेंगे।” हुए या
सर्वोदयी लोकतन्त्र
गाँधी के अनुसार, “सर्वोदय लोकतन्त्र का समाज अनगिनत गाँवों का बना होगा।” यहाँ जीवन समुद्र की लहरों की तरह एक के बाद एक घेरे की शक्ल में होगा जिसका केन्द्र व्यक्ति होगा, व्यक्ति गाँव के लिए और गाँव ग्राम समूह के लिए मर-मिटने को हमेशा तैयार रहेगा। “सच्चे लोकतन्त्र का संचालन केन्द्र में बँटे हुए बीस आदमियों से नहीं हो सकता, उनका संचालन नीचे से प्रत्येक गाँव के लोगों द्वारा करना होगा।”
1. सर्वोदय का प्रतिनिधि मूलक लोकतन्त्र का विरोधी है। प्रतिनिधि मूलक लोकतन्त्र में पार्टी का अधिनायकवाद या कैबिनेट का अधिनायक रहता है। अतः सर्वोदय राज्य में पार्टीविहीन लोकतन्त्र की कल्पना गाँधी जी ने की थी। के लिए चार साधन हैं
2. पार्टी रहित लोकतन्त्र की प्राप्ति (क) ग्राम पंचायतों की स्थापना ।
(ख) कोई व्यक्ति पद के लिए नहीं खड़ा होगा, सर्वोदय आन्दोलन का अन्तिम चरण पार्टी रहित लोकतन्त्र है। (ग) संसद या धारा सभाओं में पार्टी का प्रतिनिधित्व त्याग कर राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करना होगा।
सर्वोदयी कार्यक्रम
गाँधी जी ने सर्वोदयी कार्यक्रम का विशेष रूप से उल्लेख किया है। यह कार्यक्रम रचनात्मक है जिसका उल्लेख गाँधी जी ने अपनी पुस्तक “रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहस्य और स्थान” में किया है। यह कार्यक्रम यद्यपि सर्वांगीण नहीं है फिर भी उदाहरण के तौर पर स्थानीय परिस्थितियाँ देखकर किये गये हैं। उपयुक्त पुस्तक में दिए गये कार्यों की सूची निम्न प्रकार है– (1) साम्प्रदायिक एकता, (2) अस्पृश्यता निवारण, (3) मद्य-निषेध, (4) खादी, (5) दूसरे ग्रामोद्योग, (6) गाँवों की सफाई, (7) बुनियादी तालमी, (8) बड़ों की प्रान्तीय भाषायें, (9) स्त्रियों, (10) अयोग्यता के नियमों की शिक्षा, (11) राष्ट्रीयता और प्रान्तीय भाषायें, (12) आर्थिक समानता, (13) किसान, मजदूर आदिवासी, (14) कुष्ठ रोगी, विद्यार्थी और पशु सुधार।
उपसंहार – सर्वोदय का आधार आध्यात्मिक होने के कारण उसकी सिद्धि के साधन भी आध्यात्मिक हैं। सामाजिक तत्व ज्ञान के सर्वोदय को भारत की विशेष देन माना जा सकता है। जिसकी जड़े तो लगभग तीन हजार पहले पड़ चुकी थीं, जब बुद्ध और महावीर ने प्रेम और अहिंसा का उपदेश देने के लिए भ्रमण किया था।
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