महात्मा गाँधी के राजनीतिक विचार
गाँधी जी के राजनीतिक विचार- गाँधी जी मूलतः एक राजनीतिज्ञ कम और आध्यात्मिक सन्त अधिक थे। उन्होंने राजनीति में सत्य, अहिंसा, नैतिकता और धर्म जैसे तत्वों को समाहित करने का जो प्रयास किया वह कोई सन्त ही कर सकता है, राजनीतिज्ञ नहीं। गाँधी जी के सिद्धान्तों और व्यवहार में कोई अन्तर नहीं थे। ईश्वर, आत्मा, परमात्मा, नैतिकता, धर्मादि में उनकी गहरी आस्था थी। उनके लिए राजनीति धर्म तथा नैतिकता की एक शाखा थी। स्वाभाविक था कि उन्होंने राजनीति का आध्यात्मीकरण करने का समर्थन किया। यद्यपि वह समाजवाद में विश्वास करते थे, किन्तु माकर्क्सवादी वर्ग-संघर्ष तथा हिन्सक उपायों का विरोध करते थे। गाँधी जी अराजकतावादी विचारों से सहमत थे, लेकिन राज्य को नष्ट करने के स्थान पर वह एक अहिंसात्मक राज्य की स्थापना की वकालत करते थे।
महात्मा गाँधी एक पैगम्बर भी थे और राजनीतिज्ञ भी। उनके लिए यह स्थिति बड़ी कष्टकारी थी कि राजनीति में मैकियावलीय प्रवृत्ति की ही प्रधानता हो अर्थात् धर्मरहित राजनीति का साम्राज्य हो तथा छल-छद्मयुक्त राजनीति की प्रमुखता हो। उन्होंने यह अनुभव किया कि इस प्रकार कि कुटिल राजनीति, जो नैतिकताविहीन हो, किसी भी दशा में उचित नहीं है। अतः गाँधी ने सत्य, अहिंसा और धर्म पर आधारित अपने राजनीतिक दर्शन का महत्व खड़ा किया। हम उनके राजनीतिक चिन्तन के महत्वपूर्ण पक्षों को अलग-अलग शीर्षकों में समझेगें।
राजनीति का आध्यात्मीकरण ( Spiritualisationof Politics )
महात्मा गाँधी के विचारों की यह सबसे महत्वपूर्ण देन है कि उन्होंने राजनीति और धर्म के बीच अटूट सम्बन्ध की स्थापना की। उन्होंने राजनीति को ऊपर उठाकर निःस्वार्थ लोकसेवा तथा नैतिकता के स्तर पर रखा। उनकी मान्यता थी कि धर्म मानव जीवन की धुरी है। ऐसे ही विचार उन्होंने राजनीति के सम्बन्ध में प्रकट करते हुए माना कि राजनीति तमाम बुराइयों के बावजूद मनुष्य के लिए अनिवार्य है। उन्होंने कहा कि, ‘यदि आज मैं राजनीति में हिस्सा लेता दिखाई पड़ता हूँ, तो उसका एक मात्र यही कारण है कि राजनीति समय में हमें साँप की तरह चारों ओर लपेटे हुए हैं, जिसके चंगुल से हम कितनी ही कोशिश क्यों न करें, नहीं निकल सकते।’
महात्मा गाँधी एक महान कर्मयोगी थे, जो राजनीति में धर्म का समावेश करके नैतिकता के उस दोहरे मानदण्ड को मिटाना थे, जो ऐसे शब्दों से व्यक्त होता है कि राजनीति राजनीति है और व्यापार-व्यापार है। अतः राजनीति को धर्म से पृथक नहीं किया जा सकता अथवा धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। उन्होंने घोषणा की मेरे लिए धर्मविहीन राजनीति कोई चीज नहीं। नीतिशून्य राजनीति सर्वथा त्याज्य है। उन्होंने यहाँ तक कह डाला कि राजनीति धर्म की अनुगामिनी है। धर्म से शून्य राजनीति मृत्यु का एक जाल है क्योंकि, उससे आत्मा का हनन होता है।
गाँधी की जी दृष्टि में राजनीति, धर्म और नैतिकता की एक शाखा है, अतः उन्होंने राजनीति को शक्ति और सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए संघर्ष नहीं माना। गाँधी जी की दृष्टि में राजनीति में प्रवेश का अर्थ है- सत्य और न्याय प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होना। उग्रवादी तिलक ने एक बार कहा था कि राजनीति साधुओं का खेल नहीं है। इस पर गाँधी जी का उत्तर था— “राजनीति साधुओं का और केवल साधुओं का है।” साधुओं से उनका आशय अच्छे व्यक्तियों से था। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी उनके मत से असहमत होते हुए कहा था- ‘धर्म की इस महान निधि की इस कमजोर नौका में जो दलबन्दी की कुद्ध लहरों से टकराती रहती है मत रखो। गाँधी जी का उत्तर था कि बिना धर्म के राजनीति मुर्दा है, जिसके सिवा जला देने के और कोई उपयोग नहीं हो सकता। गाँधी जी के विचारों के समर्थन में डॉ. राधाकृष्णन का यह मत ग्राह्य है कि राजनीतिक क्षेत्र में विश्व को अधिक सफलता मुख्यतः इसीलिए प्राप्त इसीलिए प्राप्त नहीं हुई कि उसने राजनीति से धर्म को तटस्थ रखा है।
संक्षेप में महात्मा गाँधी ने राजनीति के आध्यात्मीकरण का केवल विचार नहीं किया अपितु व्यवहार में भी उसे कार्यान्वित करके दिखाया। उन्होंने सत्य, अहिंसा आदि धार्मिक नैतिक सिद्धान्तों का राजनीति एवं सामाजिक क्षेत्र में जो सफलतापूर्वक प्रयोग किया, उसे विश्व भर के राजनीतिज्ञों ने आश्चर्य और श्रद्धा के साथ स्वीकार किया। एक सन्त राजनीतिज्ञ के रूप में महात्मा गाँधी ने सदैव यही चाहा कि राजनीति से विग्रह, विघटन और विनाश की प्रवृत्तियों का उन्मूलन हो जाये तथा सद्भावना सहयोग समन्वय और संगठन तत्वों का अधिकाधिक समावेश हो।
सत्याग्रह की अवधारणा एवं तकनीक
गाँधी जी का सत्याग्रह दर्शन के सर्वोच्च आदर्श से उत्पन्न हुआ है। सत्य के पुजारी का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि सत्य की कसौटी तथा उसके आधारों की रक्षा करे। प्रचलित भाषा में सत्याग्रह का अर्थ अहिंसात्मक प्रतिरोध से लिया जाता है लेकिन सत्याग्रह केवल अहिंसक प्रतिरोध के विभिन्न रूपों असहयोग, सविनय अवज्ञा, धरना, आदि तक ही सीमित नहीं है। सत्याग्रह अहिंसात्मक प्रतिरोध से कहीं अधिक व्यापक है। इस अर्थ में सत्याग्रह संवैधानिक पद्धतियों का भी निराकरण नहीं करता। वास्तव में गाँधी जी की दृष्टि में अहिंसक प्रतिरोध नागरिक का संवैधानिक अधिकार है।
गाँधी जी का सत्याग्रह एक आदर्श है, कर्मयोग के व्यावहारिक दर्शन कुछ क्षेत्रों में किए जा चुके है और जो सफल सिद्ध हुए है। सब प्रकार के अन्याय, उत्पीड़न और शोषण के विरुद्ध आत्मबल का प्रयोग ही संत्याग्रह है।
राज्यरहित जनतन्त्र
राज्य के बारे में गाँधी जी के विचार दार्शनिक अराजकतावादी जैसे थे। उनका मत था कि राज्य एक दुर्गुण या बुराई है, जो मानव जीवन के नैतिक मूल्यों पर आघात करता है। गाँधी जी ने जिस जनतन्त्रवादी समाज की कल्पना की उसमें तो वे किसी रूप में राज्य के राज्य के अस्तित्व के विरोधी थे। उन्होंने नैतिक, ऐतिहासिक और आर्थिक आधारों पर राज्य का विरोध किया।
राज्य के विरोध में गाँधी जी का दूसरा सशक्त तर्क यह था कि राज्य एक बाध्यकारी शक्ति है जो मानव व्यक्ति के विकास को कुन्ठित करती है। उन्होंने एक अवसर पर कहा था कि मैं राज्य की शक्ति में किसी भी प्रकार की वृद्धि को अधिकतम भय की दृष्टि से देखता हूँ। राज्य के विरोध में गाँधी जी का तीसरा मुख्य तर्क यह था कि अहिंसा पर आधारित किसी भी आदर्श समाज में राज्य सर्वथा अनावश्यक है। गाँधी जी का कहना था कि आदर्श समाज शुद्ध अराजकता की वह दशा है, जिसमें सामाजिक जीवन ऐसी पूर्णता को पहुँच गया हो कि वह स्वयं संचालित बन जाय। इस दशा में प्रत्येक मनुष्य अपना शासक स्वयं होता है कि अपने ऊपर इस तरह शासन करता है कि अपने पड़ोसी के रास्ते में कमी रुकावट नही डाला। आदर्श समाज में कोई राजनीतिक सत्ता नहीं होती, क्योंकि उसमें कोई राज्य नहीं होता।
राज्यरहित समाज की सम्भावना
गाँधी जी कोरे स्वप्रिय कल्पनावादी नहीं थे। वह आमूल-चूल एक व्यावहारिक विचारक सन्त और राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने एक आदर्श की कल्पना की लेकिन व्यवहार में यही आशा प्रकट की कि हम उस आदर्श की ओर पहुँचने का प्रयत्न करें. ताकि एक ऐसी स्थिति पर आ जा सकें, जो हमारे लिए कल्याणकारी हो। गाँधी जी इस बात को समझते थे कि उनका अहिंसक समाज एक ऐसा प्रेरणा देने वाला आदर्श है, जिसको जीवन में उतारना निकट भविष्य की बात नहीं है। समाज राज्य रहित तभी बन सकता है, जब मनुष्य पूरी तरह आत्मसंयमी बन जाय। वास्तव में गाँधी जी का मत था कि राज्य रहित समाज के आदर्श का मनुष्य अपने जीवन में कभी भी पूरी तरह कार्यान्वित नहीं कर सकेगा। 1940 में एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि, ‘सरकार पूरी तरह अहिंसक होने में कभी सफल नहीं हो सकती, क्योंकि वह राज्य के सब मनुष्यों का प्रतिनिधित्व करती है। मैं समाज में ऐसे स्वर्णकाल की बात नहीं सोचता। मै ऐसे समाज के अस्तित्व की सम्भावना में विश्वास करता हूँ जो प्रमुख रीति से अहिंसक हो और मैं उसके लिए ही कार्य कर रहा हूँ।
संसदीय लोकतंत्र
गाँधी जी ने प्रचलित संसदीय लोकतंत्र में अविश्वास व्यक्त किया था। लोकतंत्र जिस रूप में पश्चिम में स्वीकृत है और जिसमें संसदीय प्रतिनिधित्व के लिए सार्वभौमिक वयस्क मतदान होता है, उससे गाँधी जी सहमत न थे। गाँधी जी ने सांसदों की जननी कटु ब्रिटिश संसद की आलोचना करते हुए उसे बाँझ की संज्ञा दी, क्योंकि उसने कभी कोई अच्छा काम अपने आप नहीं किया। गाँदी जी का कहना था कि यदि मतदान समझदार है और अच्छे से अच्छे सदस्य चुनकर संसद में भेजते हैं, तो ऐसी संसद को प्रार्थना पत्रों अथवा दबाव की जरूरत नहीं होनी चाहिए। ऐसी संसद का काम तो ऐसा होना चाहिए कि दिनों-दिन उसका काम तेज बढ़ता नजर आये और लोगों पर उसका असर पड़ता जाय, लेकिन आज इसके उल्टा ही है। सदस्य अपनी खींचातानी में लगे हैं। यही नहीं संसद के सदस्य महत्वपूर्ण और बड़े मामलों पर विवाद के समय बैठे-बैठे ठगा करते हैं। कभी संसद में इतना शोर मचाते हैं कि सुनने वालों की हिम्मत टूट जाती है।
निर्वाचन
महात्मा गाँधी निर्वाचन और प्रतिनिधित्व के विरोधी नहीं थे, लेकिन उसके प्रचलित स्वरूप से उन्हें कोई आकर्षण नहीं था। उन्होंने कहा कि निर्वाचन के सम्बन्ध में लोग प्रसन्नतापूर्वक विश्वास करते हैं कि ऐसा ही करके वे अपने शासन की स्थापना करते करते है। जिसके द्वारा राज्य का नैतिक पतन कर दिया जाता है। अपने स्वराज का अर्थ बताते हुए गाँधी ने लिखा—’स्वराज्य से मेरा अर्थ है, उन वयस्क स्त्री-पुरुषों की अधिकतम संख्या, जो निश्चित द्वारा भारत का शासन जो भारत में या तो उत्पन्न हुए हों या बस गये हों, जिन्होंने शरीर श्रम द्वारा राज्य की सेवा की हो और जिन्होंने मतदाताओं की सूची में अपना नाम दर्ज करवाने को कष्ट उठाया हो।’ गाँधी जी की भावना का अनुमान इन शब्दों से लगाया जा सकता है कि यदि व्यक्ति अपने साधारण जीवन में 25 रुपये प्रतिमाह से संतुष्ट रहता है, तो उसे एक मंत्री बन जाने पर या शासन में और कोई पद मिल जाने पर 250 रु०, प्रतिमाह पाने का कोई अधिकार नहीं है।
अपराध दण्ड तथा जेल
गाँधी जी चाहते थे कि राज्य के कार्य कम से कम हों और लोग अधिकाधिक आत्मनिर्भर बनें। लेकिन वे मानव कमजोर से भी अवगत थे, अतः अपराध का उपचार चाहते थे। उन्होंने कहा था मै बहुत सोचने समझने के बाद भी दण्ड व्यवस्था या दण्ड तथात्मक नियंत्रण को पूर्णतः समाप्त नहीं कर सकता। पर दण्ड भी अहिंसक होना चाहिए। एक अहिंसक राज्य में अपराधी को बदले की भावना से दण्ड नहीं देना चाहिए। दूसरों को डराने धमकाने से भी दण्ड देना उचित नहीं है। दण्ड का उद्देश्य होना चाहिए। वे मृत्यु-दण्ड के विपक्ष में न थे। उनका कहना था कि अहिंसा के सिद्धान्तों द्वारा अनुशासित राज्य में खूनी को जेल भेजा जाना चाहिए। जहाँ पर उसे सुधारा जा सके।
गाँधी जी जेलों को भी अहिंसक बनाना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि जेलों को सुधारात्मक संस्थाओं में बदल दिया जाय, जिसमें लोगों को नये-नये काम सिखाये जा सके और नये-नये कार्यों का प्रशिक्षण दिया जा सके, ताकि जेलों से बाहर जाने पर वे आत्मनिर्भर बन सके।
राष्ट्रवाद तथा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की धारणा एवं राष्ट्र निर्माण सम्बन्धी विचार
महात्मा गाँधी भारत के व्यापक क्षेत्र में राजनीति को लेकर आये, देश के राष्ट्रीय आन्दोलन में एक अभूतपूर्व सेनानी के रूप में उनकी भूमिका रही। अतः भारतीय जनता ने अधिकांशतः उन्हें राजनीतिक नेता और देशभक्त राष्ट्रवादी के रूप में ही अधिक जाना-माना गाँधी जी राजनीति की अपेक्षा नैतिक अधिक थे और इसलिए उनका राष्ट्रवाद, नैतिक साम्राज्य जीवन की सहिष्णुता तथा आध्यात्मिक सिद्धान्तों पर आधारित था। उनका राष्ट्रवाद वस्तुतः उनके विश्व प्रेम का एक अंग था। गाँधी जी ने राष्ट्रवाद को बहुत ही शुद्ध रूप में हमारे सामने रखा। उन्होंने कहा ‘मेरा लक्ष्य विश्वमैत्री है।’ हम विश्व बन्धुत्व के लिए जीना और मरना चाहते हैं। एक अन्य स्थल पर गाँधी जी ने कहा था, मानवता के लिए मरने की आकांक्षा के पूर्व भारत को जीना सीखना होगा। ऐसा था गाँधी का राष्ट्रवाद जिसमें देश प्रेम के साथ ही विश्व सेना का भाव मुसरित है।
- गाँधी जी के स्वराज और सर्वोदय सम्बन्धी विचार
- गांधी जी के अहिंसक राज्य के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
- महात्मा गांधी के आर्थिक विचार | Gandhi Ke Aarthik Vichar
- गांधी जी के संरक्षकता सिद्धान्त | वर्तमान समय में संरक्षकता सिद्धान्त का महत्त्व
- वर्तमान समय में गांधीवाद की प्रासंगिकता | Relevance of Gandhism in Present Day in Hindi
- महात्मा गांधी के सामाजिक विचार | Gandhi Ke Samajik Vichar
- महात्मा गांधी का सत्याग्रह सिद्धांत | सत्याग्रह की अवधारणा
इसे भी पढ़े…
- महादेव गोविन्द रानाडे के धार्मिक विचार | Religious Thoughts of Mahadev Govind Ranade in Hindi
- महादेव गोविंद रानाडे के समाज सुधार सम्बन्धी विचार | Political Ideas of Ranade in Hindi
- महादेव गोविन्द रानाडे के आर्थिक विचार | Economic Ideas of Ranade in Hindi
- स्वामी दयानन्द सरस्वती के सामाजिक विचार | Swami Dayanand Sarswati Ke Samajik Vichar
- स्वामी दयानन्द सरस्वती के राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार | दयानन्द सरस्वती के राष्ट्रवादी विचार
- भारतीय पुनर्जागरण से आप क्या समझते हैं? आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है?
- राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचार | आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन को राजाराम मोहन राय की देन
- राजा राममोहन राय के सामाजिक विचार | Raja Rammohan Raay Ke Samajik Vichar
- मैकियावेली अपने युग का शिशु | Maikiyaveli Apne Yug Ka Shishu
- धर्म और नैतिकता के सम्बन्ध में मैकियावेली के विचार तथा आलोचना
- मैकियावेली के राजा सम्बन्धी विचार | मैकियावेली के अनुसार शासक के गुण
- मैकियावेली के राजनीतिक विचार | मैकियावेली के राजनीतिक विचारों की मुख्य विशेषताएँ
- अरस्तू के परिवार सम्बन्धी विचार | Aristotle’s family thoughts in Hindi
- अरस्तू के सम्पत्ति सम्बन्धी विचार | Aristotle’s property ideas in Hindi
- प्लेटो प्रथम साम्यवादी के रूप में (Plato As the First Communist ),
- प्लेटो की शिक्षा प्रणाली की विशेषताएँ (Features of Plato’s Education System)