राजनीति विज्ञान / Political Science

गुटनिरपेक्षता की प्रमुख उपलब्धियाँ | Achievements of Non Alignment in Hindi

गुटनिरपेक्षता की प्रमुख उपलब्धियाँ
गुटनिरपेक्षता की प्रमुख उपलब्धियाँ

गुटनिरपेक्षता की प्रमुख उपलब्धियाँ

गुटनिरपेक्षता की प्रमुख उपलब्धियाँ निम्न हैं-

( 1 ) गुटनिरपेक्षता को दोनों गुटों द्वारा मान्यता

गुटनिरपेक्षता एक नयी संकल्पना  है। प्रारंभ में गुटनिरपेक्ष देशों को एक कठिनाई से जूझना पड़ा कि अन्य राष्ट्रों को कैसे प्रारम्भ समझाया जाए कि गुटनिरपेक्षता क्या है, कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के संदर्भ में इसे एक स्वतंत्र और नयी संकल्पना के रूप में मान्यता कैसे दिलायी जाए? शुरू में दोनों गुटों ने गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों पर अविश्वास किया- पश्चिमी गुट की अपेक्षा पूर्वी गुट ने अधिक। सच्ची बात यह है कि कुछ गुटनिरपेक्ष देश, जिनमें भारत भी सम्मिलित है, स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने के बाद वर्षों तक साम्यवादी राष्ट्रों से अपनी स्वतंत्रता की मान्यता प्राप्त नहीं कर सके। दोनों गुट यह मानते थे कि युद्धोत्तर विश्व में किसी राष्ट्र के सामने एक ही रास्ता रह गया है और यह कि वह उनमें से किसी एक के साथ गुटबद्ध हो जाए। उनका पक्का विश्वास था कि गुटनिरपेक्षता एक ढोग है, कोई ‘तीसरा रास्ता’ तो है ही नहीं। फलतः दोनों ही गुट यह समझते थे कि जो भी देश गुटनिरपेक्ष है। वह वस्तुतः गुप्त रूप से दूसरे गुट के साथ बंधा हुआ है।

दोनों गुटों के इन दृष्टिकोणों में धीरे-धीरे परिवर्तन आया साम्यवादी राष्ट्रों का दृष्टिकोण 1953 में जोसेफ स्टालिन की मृत्यु के बाद से ही बदलना शुरू हो गया। फरवरी, 1956 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस ने न केवल पहली बार यह बात स्वीकार की कि गुटनिरपेक्ष देश सचमुच स्वतंत्र हैं, बल्कि यह भी अनुभव किया कि विश्व की सभी मूलभूत समस्याओं के बारे में सोवियत संघ और गुटनिरपेक्ष देशों के ‘एक से विचार’ है। पश्चिमी गुट ने तो सातवें दशक में जाकर गुटनिरपेक्षता की नति को मान्यता दी। गुटनिरपेक्ष देशों को गुटबद्ध देशों के मन का संशय दूर करने तथा इस नीति के प्रति सद्भावना और सम्मान का वातावरण पैदा करने के प्रयास में जो सफलता मिली वह सचमुच सराहनीय है।

( 2 ) विश्व राजनीति में संघर्षों का टालना

गुटनिरपेक्षता की दूसरी सम्भव उपलब्धि यह रही कि इसके प्रभाव से विश्व के कुछ विकट संघर्ष टल गए या उनकी तीव्रता कम हुई या फिर उनका समाधान हो गया और विशेषतः तीसरा विश्व युद्ध भी नहीं छिड़ा जिसकी सम्भावना के बारे में 1950 से शुरू होने वाले दशक के मध्य में सरकारी और गैर-सरकारी स्तरों पर चिन्ता व्यक्त की जा रही थी। गुटनिरपेक्ष राष्ट्र यह दावा कर सकते हैं और उनका यह दावा गलत नहीं होगा कि उन्होंने न्यूक्लीयर अस्त्रों के सबसे खतरनाक दशक में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बनाए रखने और बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण योग दिया। दोनों गुटों की योजनाओं के विपरीत बहुत-से देशों ने राष्ट्र समाज को पूरी तरह से दो हिस्सों में बंटने से रोक दिया जिसे दोनों गुटों के बीच सीधी टक्कर रोकने में निश्चय ही सहायता मिली। गुटनिरपेक्ष देशों ने सर्वोच्च शक्तियों को उस रास्ते से हटा दिया जिस पर चलते-चलते उनके बीच प्रत्यक्ष संघर्ष की स्थिति आ सकती थी, और इसकी बजाय उन्हें अपने से कम विकसित देशों को विकसित करने की शान्तिपूर्ण प्रतिद्वन्द्विता के रास्ते पर चलने की प्रेरणा दी और इस तरह उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों को स्थिर रूप देने में योग दिया। यदि अनेक ऐसे राष्ट्र विद्यमान न होते जो दोनों गुटों में से किसी एक के साथ गुटबद्ध न थे और उन्होंने ‘बर्लिन एयरलिफ्ट’, कोरियाई युद्ध, इण्डोचीनी संघर्ष, चीनी तटवर्ती द्वीपसमूह से सम्बन्धित विवाद (1955) तथा स्वेज युद्ध (1956) जैसे संकटों के समय न्यायोचित और त्वरित समाधान का आग्रह और अनुरोध न करते, तो सम्भवतः और भी व्यापक और अनवरत संघर्ष होते जो पूरी दुनिया को अपनी लपेट में ले सकते थे। गतिरोध, घोर अन्धविश्वास और दोनों गुटों का सम्पर्क टूट जाने की स्थितियों में गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने न केवल संयम से काम लेने की सलाह दी बल्कि युद्ध विराम के अवसरों पर अपने संप्रयत्न मध्यस्थता और शान्ति सेनाएं भी प्रस्तुत कर दी, जैसे कि कोरिया, इण्डोचीन और स्वेज के संदर्भ में कांगो के गृहयुद्ध के समय गुटनिरपेक्ष देशों ने दोनों गुटों के सदस्य राष्ट्रों के सम्भावित सशस्त्र हस्तक्षेप को निष्फल कर देने के उद्देश्य से लड़ाकू सेनाएं भेजने तक की पेशकश कर दी।

( 3 ) शीत युद्ध को शस्त्र युद्ध में परिणत होने से रोकना

बहुत से गुटनिरपेक्ष देश दोनों गुटों और सर्वोच्च शक्तियों के बीच सद्भावना हेतु और सम्पर्क के माध्यम का काम करने को तैयार थे और दूसरे शीत युद्ध के दोनों पक्षों के बीच खामखयालियां और गलतफहमियां दूर करने में सहायता मिली। कभी-कभी उन्हें यह भी अनुभव हुआ कि विश्व न्यूक्लीयर विध्वंस के कगार पर है। गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने कम-से-कम शीत युद्ध को उस स्थिति में पहुँचने से रोक दिया जिसमें सर्वोच्च शक्तियों के जानबूझकर उस राह पर चलने से या खामखयाली की वजह से वह शस्त्र युद्ध में परिणत हो सकता था।

( 4 ) शीत युद्ध को दितान्त (detente) की स्थिति में लाना

शीत युद्ध को दितान्त अर्थात् तनाव- शैथिल्य की स्थिति में लाने का श्रेय गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को ही है।

( 5 ) निःशस्त्रीकरण और अस्त्र नियंत्रण की दिशा में प्रगति

निःशस्त्रीकरण और अस्त्र नियंत्रण के लिए बातचीत करने में गुटनिरेक्ष देशों ने जो भूमिका निभायी, उसमें उन्हें एकदम सफलता तो नहीं मिली, फिर भी उसने लोगों को यह नहीं भूलने दिया कि विश्व शान्ति को बढ़ावा देने की सारी चर्चा के सामने अस्त्र-शस्त्र बढ़ाने की बे-लगाम दौड़ कितनी खतरनाक है। गुटनिरपेक्ष भारत को यह देखकर संतोष हुआ कि उसने अप्रैल 1954 में न्यूक्लीयर शस्त्रों के परीक्षण पर प्रतिबन्ध लगाने के जो प्रस्ताव रखे थे वे 1963- आंशिक परीक्षण प्रतिबन्ध संधि के रूप में फलीभूत हुए। श्रीमती इन्दिरा गाँधी के शब्दों में “आन्दोलन से शान्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ है, मानव प्रतिष्ठा और समानता का निर्माण हुआ है।”

( 6 ) विश्व समाज के लिए उन्मुक्त वातावरण का निर्माण

नवोदित कमजोर राष्ट्रों को महाशक्तियों के चंगुल से निकालकर उन्हें स्वतंत्रता के वातावरण में अपना अस्तित्व बनाए रखने का अवसर गुटनिरपेक्षता ने प्रदान किया। गुटबन्दी की विश्व राजनीति के दामघोंटू राष्ट्र समाज में गुटनिरपेक्षता ताजी हवा का झोंका लेकर आयी। यह ताजी हवा थी खुले समाज के गुणों की, मुक्त और खुली चर्चा के वरदान की, तीव्र मतभेद और रोष के समय भी सम्पर्क के रास्ते खुले रखने के महत्त्व की । शीत युद्ध के कारण जो अनुदारताएं और विकृतियां पैदा हो गयी थीं, गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने उन्हें दूर करने के अथक प्रयास किए और इससे वर्तमान विश्व समाज कहीं अधिक खुला समाज बन गया।

( 7 ) अपनी राष्ट्रीय प्रकृति के अनुरूप विकास के प्रतिमान

गुटनिरपेक्ष देशों की बड़ी-बड़ी उपलब्धियों में से एक यह है कि उन्होंने अमरीकी और सोवियत आदर्श अपने ऊपर थोपे जाने का विरोध किया और अपनी राष्ट्रीय प्रकृति के अनुसार विकास के अपने राष्ट्रीय सांचों और पद्धतियों का आविष्कार किया। इस तरह भारत ने अपने लिए ‘लोकतान्त्रिक समाजवादी ढाँचे’ का आविष्कार किया और अरब राष्ट्रों ने ‘अरब समाजवाद’ का

( 8 ) संयुक्त राष्ट्र संघ के स्वरूप को रूपान्तरित करना

गुटनिरपेक्षता की नीति और गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्र संगठन को कुछ दृष्टियों से हमेशा-हमेशा के लिए रूपान्तरित करने में सहायता दी है। एक तो अपनी संख्या के कारण, दूसरे शीत युद्ध में अपनी अधिक तटस्थ दृष्टि और भूमिका के कारण गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्र संगठन को छोटे राज्यों के बीच शान्ति कायम रखने वाले संगठन से ऐसे संगठन में रूपान्तरित करने में सहायता दी जिसमें छोटे राष्ट्र बड़े पर कुछ नियंत्रण रख सकें। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा की भूमिका का महत्त्व बढ़ा दिया, जिसमें सभी सदस्यों का बराबर प्रतिनिधित्व होता है और सुरक्षा परिषद् की भूमिका का महत्त्व कम कर दिया (जिसकी सदस्यता सीमित और असमानता पर आधारित है), हालांकि उसकी मूल संकल्पना विश्व संगठन के सबसे महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में की गयी थी।

( 9 ) विकासशील राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सहयोग की बुनियाद

विकासशील राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सहयोग की बुनियाद रखने में गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों को सफलता मिली है। कोलम्बो शिखर सम्मेलन में तो एक आर्थिक घोषण-पत्र स्वीकार किया गया जिसका मुख्य आधार यह था कि गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के बीच अधिकाधिक आर्थिक सहयोग हो और सहयोग के लिए प्रत्येक सम्भव प्रयत्न किया जाए। गुटनिरपेक्षता आर्थिक सहयोग का एक ‘संयुक्त मोर्चा’ है। यह तीसरी दुनिया के विकासशील देशों में सहयोग का प्रतीक है। ‘साउथ-साउथ संवाद’ का आह्वान निर्गुट राष्ट्रों के मंच से ही हुआ है। इस आर्थिक

( 10 ) नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग

आजकल गुटनिरपेक्ष राष्ट्र नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग कर रहे हैं। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के काहिरा में जुलाई, 1962 में आयोजित ‘आर्थिक विकास की समस्याओं पर सम्मेलन’ में पहली बार आर्थिक विकास का उल्लेख हुआ था। काहिरा सम्मेलन में मुख्य बल ‘सहायता’ और ‘सुधरे व्यापार सम्बन्धों’ पर जोर दिया गया। लुसाका शिखर सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष देशों ने आर्थिक और विकास सम्बन्धी मामलों पर विकसित और औद्योगिक देशों के साथ ‘सामान्य पहल’ का संकल्प लिया। अल्जीयर्स गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में प्रस्ताव किया गया कि “संयुक्त राष्ट्र महासचिव से कहा जाए कि उच्च राजनीतिक स्तर पर महासभा का विशेष अधिवेशन बुलाया जाए जिसमें केवल विकास समस्याओं पर ही विचार-विनिमय किया जाए…।” अल्जीयर्स आह्वान अनसुना नहीं रहा। असल में तो गुटनिरपेक्ष देशों की इसी पहल के क्रियान्वयन के रूप में ही 1974 के आरम्भ में संयुक्त राष्ट्र महासभा का छठा विशेष अधिवेशन बुलाया गया था जिसने 1 मई, 1974 को ‘नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था स्थापित करने की घोषणा’ और ‘एक कार्यवाही योजना’ के ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किए।

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