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अध्यापन शिक्षा में गुणात्मक (क्वालिटेटिव) सुधार

अध्यापन शिक्षा में गुणात्मक (क्वालिटेटिव) सुधार
अध्यापन शिक्षा में गुणात्मक (क्वालिटेटिव) सुधार

अध्यापन शिक्षा में गुणात्मक (क्वालिटेटिव) सुधार

(1) विषय ज्ञान

जो विद्यार्थी स्नातक या स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद प्रशिक्षण महाविद्यालयों में आते है उनका उन विषयों में भी विषय ज्ञान प्राय: अनेक दृष्टियो से उपयुक्त स्तर का नही होता है। जिनमें उन्होंने उपाधि प्राप्त की है उस समय बहुत दुःख होता है, जब हिन्दी/संस्कृत/अंग्रेजी किसी भाषा में एम.ए. करने वाला विद्यार्थी न शुद्ध उच्चारण कर पाता है और न शुद्ध वर्तनी लिख पाता है, न शुद्ध वाक्य बना पाता है, न उसे व्याकरण का ज्ञान होता है, न साहित्य का इतिहास में एम.ए. करने वाला विद्यार्थी नही जानता है कि शाहजहाँ पहले हुआ या हुमायुँ। जब स्नातकों का और अधि-स्नातकों का यह हाल है तो माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करके अध्यापक बनने वालो का क्या हाल होता होगा इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। एक अध्ययन द्वारा पता चला कि प्राथमिक विद्यालय में शिक्षण कार्य करने वाले अनेक अध्यापक वर्णमाला भी शुद्ध नही लिख पाते है और ऋ, ष, ब, भ, ध, ड, ढ, छ, द्य, द्ध, आदी कई वर्ण तो एक भी अध्यापक शुद्ध नही लिख पाता। दुष्परिणाम यह होता है कि एक और अध्यापक का शिक्षा का स्तर गिरता है और दूसरी और प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा का स्तर और भी गिरता है। अध्यापकों के विषय-ज्ञान की ये कमजोरियाँ उस समय विशेष बाधक सिद्ध होती है जब प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा का स्तर ऊँचा करने का निश्चय किया जाता है।

जब तक सामान्य शिक्षा के स्नातक स्तर (अथार्थ सी.ए., बी.एस. आदि) (i) पाठ्यक्रम, (ii) शिक्षण, (iii) परीक्षण में सुधार नही किया जाता है तब तक अध्यापक शिक्षा में कभी गुणात्मक सुधार संम्भव नही है। 15 वर्ष की शिक्षा में जो गलत अभ्यास ड़ाले गये है, जिन अशुद्धियों की उपेक्षा ही नही की गयी है, बल्कि उनका पोषण किया गया है, उनका निराकार आठ-नौ महीने के परीक्षण काल में नही हो सकता पर हमारी कठिनाइयाँ यह है कि स्नातक स्तर शिक्षा हमारे नियंत्रण में नहीं है। इस दृष्टि से सामान्य शिक्षा और अध्यापक शिक्षा का चार वर्षीय संयुक्त पाठ्यक्रम ही वर्तमान स्थितियों में एक मात्र कारगर उपाय समझ में आता है। निम्नलिखित तात्कालीन समाधान भी अपनाएं जा सकते है पर वे इस समस्या को थोड़ा कम भी कर सकते है, एकदम दूर नही।

(i) अच्छे अंको से उत्तीर्ण होने वाले स्नातकों को पर्याप्त संख्या में अध्यापन व्यवसाय की और आकृष्ट करने के लिए उन्हें प्रशिक्षण के कुल खर्च के बराबर छात्रवृत्तियाँ दी जाए। (ii) स्कूली विषयों में स्नातकोत्तर परीक्षा पास व्यक्तियों की संख्या बढ़ाने का प्रयास किया जाएं। (iii) प्रशिक्षण विद्यालयों में भी छात्राध्यापको के विषय-ज्ञान को उचित स्तर का बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए जिसका एक उपाय यह भी है कि अति आवश्यक विषय-ज्ञान को, प्रशिक्षण कार्यक्रम का अंग बनाया जाए।

(2) योग्य अध्यापक

प्रशिक्षण शायद यह जानते ही नही की उनके दायित्व क्या है सामान्यतया उनकी योग्यता का हाल यह होता है कि जिन विधियों की शिक्षा वे देते है उन्हें क्रियात्मक रूप देने का जब अवसर आता है तब उनके दिल की धड़कन बढ़ जाती है, पसीना छुटने लगता है, हाथ-पाँव फुलने लगते है, दिन में तारे नजर आने लगते है, दम खुश्क हो जाता है। इस दृष्टि से यह अत्यन्त आवश्यक है कि केवल योग्य व्यक्तियों को ही प्रशिक्षण केन्द्रो में नियुक्त किये जाए। माध्यमिक कक्षाओं में पढ़ाने का व्यावहारिक अनुभव की भी एक कसौटी अवश्य होनी चाहिए, पर केवल मात्र एक कसौटी नही। वरिष्ठता के आधार पर प्रशिक्षण केन्द्रो में नियुक्ति इस संदर्भ में बेमानी है क्योंकि योग्यता और वरिष्ठता एक दूसरे के प्रयाय नही है । योग्य व्यक्ति भी समय आने पर वरिष्ठ तो हो ही जाएगा। हमें अपने दृष्टिकोण में उदारता लानी होगी। योग्यता को प्रधानता देनी होगी। हमारा दुर्भाग्य यह है कि प्रशिक्षण महाविद्यालय में प्राय: वे लोग आते है जो एकेडेमिक कॉलेज में खप नही सकें, जबकि यहाँ वस्तुतः ऐसे विद्यार्थी चाहिए जिन्हें विषय वस्तु का तो उतना अच्छा ज्ञान हो ही जितना एकेडेमिक कॉलेज वे अध्यापक को होता है, इसके साथ ही जो शिक्षण विधियों के ज्ञाता हो, उनके कुशल प्रयोक्ता हो जो निष्ठावान हो, अपने विषय से जिन्हें प्रेम हो, और जो इस निष्ठा और प्रेम को अपने छात्रों में संक्रमित कर सकें।

(3) शिक्षणाभ्यास का कार्यक्रम

अध्यापक शिक्षा का कार्यक्रम कुछ इस प्रकार नियोजित किया जाता रहा है कि कुल मिलाकर इस शिक्षा का गुणात्मक हास ही होता ज रहा है। अध्यापक शिक्षा के कार्यक्रम का अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग है शिक्षणाभ्यास, पर हमारे प्रशिक्षण विद्यालयों/महाविद्यालयों में इस कार्यक्रम की जो दुर्दशा की जाती है उसे देखकर इस व्यवसाय से घृणा होने लगती है।

कृत्रिमता से ओत-प्रोत इस कार्यक्रम की विडम्बना यह है कि न छात्राध्यापक की इसमें निष्ठा होती है और न प्रशिक्षक की। अध्यापक शिक्षा के इस अंग को स्वाभाविक बनाने की और उसमें निष्ठा उत्पन्न करने की आवश्यकता है। शिक्षणाभ्यास के दौरान विभिन्न विधियों के प्रयोग (इक्सपेरीमेंट) और अभ्यास करने का पूरा अवसर है प्रदर्शन पाठों का ‘सेण्डविच’ कार्यक्रम आयोजित किया जाए। इस समय प्रचलित सामान्य परम्परा यह है कि शिक्षणाभ्यास प्रारम्भ होने से पूर्व कुछ प्रदर्शन पाठ (डिमॉस्ट्रेशन लेसन) का आयोजन किया जाना चाहिए। इस प्रकार के ‘सेण्डविच’ कार्यक्रमों से छात्राध्यापको के शिक्षणाभ्यास में आशातीत सुधार होता है।

आरक्षण विधियो की उपयोगिता प्रायः लोग आरोप लगाते है कि प्रशिक्षण विद्यालय की विधियों से विद्यालय का पाठ्यक्रम नियत समय में पूरा नहीं किया जा सकता। क्षैत्रिय शिक्षा महाविद्यालय, अजमेर में 8 नवम्बर से 10 नवम्बर 1968 तक अध्यापक शिक्षा की समस्याओं पर आयोजित गोष्ठी में भी इस आरोप पर विचार किया गया। विचार-विमर्श के बाद यह तक पाया गया कि यदि अध्यापक सतर्क रहे और शिक्षण विधियों का प्रयोग उचित ढंग से और उचित समय से करे, उसके औपचारिक रूप को नही उसके तत्व को पकड़ने की कोशिश करे तो पाठ्यक्रम अवश्य पूरा होगा। शिक्षा महाविद्यालय, वनस्थली विद्यापीठ ने इस चुनौती को स्वीकार किया। भूतपूर्व आचार्य डॉ. इकबाल बहादुर वर्मा ने स्वयं भी छः मास तक हायर सैकेण्डरी कक्षा के एक वर्ग को अंग्रेजी पढ़ाई। मासिक परिक्षाओं का तथा बोर्ड की परीक्षाओं का परिणाम भी दूसरे वर्ग की तुलना में बहुत अच्छा रहा। आचार्य डॉ. लक्ष्मी लाल, के. ओड. ने भी एक कक्षा को एक सप्ताह तक स्वयं ने पढ़ाया। जितनी विषय समग्री पढ़ाने की योजना उस कक्षा के अध्यापक की थी उससे कही अधिक पढ़ाया और अच्छी तरह पढ़ाया। वनस्थली विद्यापीठ के उच्च माध्यमिक विद्यालय के स्वायत्तशासी बनने के बाद वहाँ के अध्यापक इन्ही विधियों का अपने अध्यापन के सफल प्रयोग कर रहे है। वस्तुतः आवश्यकता इस बात की है कि प्रशिक्षण संस्थाओं के विद्यार्थियों में उचित दृष्टिकोण का विकास किया जाए, अध्यापन के प्रति निष्ठा उत्पन्न की जाए, वे शिक्षण विधियों को ठीक से समझें, उनका उचित उपयोग भी करें। भूतपूर्व शिक्षा मन्त्री डॉ. श्रीमाली के अनुसार प्रशिक्षण महाविद्यालयों का उद्धेश्य युवा होनहार अध्यापक को दिशा देना है, मार्ग पर अग्रसर कर देना है ताकि वह सीखता रहे और सीखता रहें।

प्रशिक्षण संस्थाओं की पाठ योजना भी चर्चा का विषय बनी है। कहा जाता है कि ये योजनाएँ इतनी लम्बी होती है और औपचारिकता का उनमें इतना निर्वाह किया जाता है कि दैनिक शिक्षण के लिए वे सदा अव्यावहारिक है। प्रशिक्षण महाविद्यालयों की और से उत्तर देने वाले प्राय: यह उत्तर भी दे देते है कि पाठ-योजना का उद्धेश्य पाठ को वैज्ञानिक और विधिवित बनाना होता है। अतः जब पाठ योजना के आधारभूत सिद्धान्तों का ज्ञान व अभ्यास हो जाए तो पाठ योजना छोटी बनाई जा सकती है, बनानी चाहिये। पर हमें स्वीकार करना होगा कि कोई प्रयास और अभ्यास यहाँ नही होता। पाठ योजना के कलैण्डर को यथासम्भव छोटा करना आवश्यक है।

वनस्थली विद्यापीठ के शिक्षा महाविद्यालय में तथा बांगड़ के शिक्षा महाविद्यालय में इस दिशा में जो कुछ किया गया है वह ध्यान देने योग्य अवश्य है। एक बात और आजकल अनौपचारिक शिक्षा की चर्चा बड़ी जोर शोर से की जा रही है। शिक्षा आयोग (1966) ने तो इसी की चर्चा की थी। पाँचवी पंचवर्षीय योजना में शिक्षा प्रसार के कार्यक्रम का एक प्रमुख साधन था। अनौपचारिक शिक्षा।

राजस्थान की उच्च स्तरीय शिक्षा समिति (1975) ने अपने प्रतिवेदन में एक पूरा अध्याय अनौपचारिक शिक्षा पर रखा अनौपचारिक शिक्षा के लिए इस दिशा में कुछ भी नही किया है। अत्यन्त आवश्यकता है कि छात्राध्यापको को इन विभिन्न शिक्षण विधियों का ज्ञान दिया जाए प्रयोग (एक्सपेरिमेंट) करने का अवसर दिया जाए जिनके द्वारा अनौपचारिक शिक्षा का कार्यक्रम पूरा हो सकेगा।

(4) अध्यापन और योग्यतांकन की पद्धतियों में सुधार

प्रशिक्षण शालाओं में प्रयुक्त अध्यापन और योग्यताकंन की विधियों का भी अत्यधिक महत्व है क्योंकि यह अध्यापकों के दृष्टिकोण पर औपचारिक रूप से पढ़ाई विद्यालयी शिक्षण विधियों की अपेक्षा उन पद्धतियों का अधिक प्रभाव पड़ेगा जिनका प्रयोग स्वयं उनको पढ़ाते समय किया जाता है। खेद है इस बात का बिल्कुल ध्यान नहीं रखा जाता और प्रशिक्षण शालाओं में प्रयुक्त अध्यापक और योग्यताकंन की विधियाँ आज भी परम्परागत ही है। कोठारी कमीशन ने भी इस समस्या पर विचार करते हुए सुझाव दिया है

(क) सम्पर्क, अनुभव, अध्ययन और विवेचन-चर्चा के माध्यम से छात्र अध्यापकों में प्रौढ़ता विकसित करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। इसके लिए ऐसी विधियाँ आवश्यक है जिनमें छात्रों को भाग लेना पड़े और स्वतन्त्र अध्ययन भी करना पड़े। प्रशिक्षण शाला में काम व्यक्तिगत काम, समीक्षाओं और रिपोर्ट की तैयारी, प्रसंग अध्ययन, प्रयोजना कार्य, चर्चा, विवेचन, सेमिनार आदि का प्रमुख स्थान होना चाहिए।

(ख) छात्रों ने जो व्यवसाय चुना है उसकी महत्ता और सम्भावनाओं के प्रति छात्रों के दृष्टिकोणो को अनुपस्थित करने, इस काम में निहित मानवीय तत्व का अनुभव कराने और शैक्षिणिक विकास के सामाजिक महत्व पर जोर देने के लिए भी यथेष्ट समय निकाला जाना चाहिए।

(ग) उन्नत देशों में अनेक तकनीकों और पद्धतियों का बहुत तेजी से विकास किया जा रहा है। उनमें से कुछ है, कक्षाओं के अध्यापन में रेडियों, टेलिविजन और फिल्मों का प्रयोग, अभिन्नमित अध्ययन और भाषा की प्रयोगशालाएँ आदि भारत में स्कूलों में रेडियों का प्रयोग थोड़ा बहुत होने लगा है, और आगामी वर्षो में अन्य सामग्रीयों का भी अधिकाधिक प्रयोग होने लगेगा। (टेलि-शिक्षा का कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया था)

अतः यह वांछनीय होगा कि प्रशिक्षणार्थी अध्यापको का भी उनसे परिचय करवाया जाए- पहले उनके अध्ययन कार्यक्रमों में और फिर अध्यापन के अभ्यास में।

अध्यापक शिक्षा में गुणात्मक सुधार

(1) राष्ट्रीय स्तर पर ‘नेशनल काउन्सिल फॉर टीचर एजुकेशन’ तथा राज्य के स्तर पर कुछ राज्यों में स्थापित किये गये स्टेट बोर्डस ऑफ टीचर्स एजुकेशन अध्यापक शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने के अच्छे प्रयास है। इनका मुख्य कार्य अपने से सम्बद्ध सरकारों को अध्यापक शिक्षा के स्तर को ऊँचा करने के बारे में सलाह देना है ताकि वे सरकारें अपने कार्यक्रम उसी के अनुरूप कर सकें।

(2) अध्यापक शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए प्रयास करने वाली दूसरी संस्था है- राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् नई दिल्ली (एन.सी.ई.आर.टी.)। चौथी पंचवर्षीय योजना के दौरान इस परिषद् ने शिक्षकों तथा अध्यापको को शिक्षा देने वाले शिक्षकों के लिए सेवा-पूर्व तथा सेवाकालीन दोनों प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए।

नई शिक्षा योजना के लिए परिषद् ने प्राथमिक और माध्यमिक दोनों ही प्रकार कि अध्यापक शिक्षा के लिए नये आधुनिक पाठ्यक्रम भी तैयार किए। आध्यापक शिक्षा में प्रवेश की विधियों पर छात्रों को शिक्षण की विधियों पर तथा मूल्यांकन विधियों पर कार्यशालाएँ और सेमिनार आयोजित की। विज्ञान एंव गणित के शिक्षको के लिए यह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तथा अन्य संस्थाओं के भी सहयोग से ग्रीष्म पाठ्यक्रम भी आयोजित करती रही है। देश के क्षेत्रिय शिक्षा महाविद्यालयों में ग्रीष्म एवं पत्राचार पाठ्यक्रम भी आयोजित किए जाते है।

(3) देश के 116 शिक्षा महाविद्यालयों के तथा 45 ट्रेनिंग स्कूलों के प्रसार सेवा विभागों ने भी पंचवर्षीय योजना के दौरान शिक्षकों के लिए सेवाकालीन कार्यक्रम आयोजित किए। सन् 1971-72 तक ये विभाग एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा चलाए जाते थे। अब 1972-73 से ये सम्बद्ध राज्यों के विश्वविद्यालयों/ शिक्षा विभागों को सौंप दिये गए है।

(4) देश के बीस राज्यों में राज्य शिक्षा संस्थान राज्य के स्तर पर (अध्यापक शिक्षा सहित) स्कूल शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए सेवाकालीन कोर्स आयोजित करते हैं।. इनमें से कुछ ने अपने राज्यों के अनुरूप पत्राचार पाठयक्रम भी प्रारम्भ कर दिये है। राज्य विज्ञान संस्थान भी इसी प्रकार का कार्य कर रहे है। राजस्थान में राज्य शैक्षिक अनुसंधान एंव प्रशिक्षण परिषद् की स्थापना भी इसी उद्धेश्य से की गयी है।

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