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विद्यार्थी के सामाजिक, सांस्कृतिक के संदर्भ में पाठ्यक्रमों का वर्णन करें।

विद्यार्थी के सामाजिक, सांस्कृतिक के संदर्भ में पाठ्यक्रमों का वर्णन करें।
विद्यार्थी के सामाजिक, सांस्कृतिक के संदर्भ में पाठ्यक्रमों का वर्णन करें।

विद्यार्थी के सामाजिक, सांस्कृतिक के संदर्भ में पाठ्यक्रमों का वर्णन करें। (Discuss curriculum in the context of Socio-culture Relation of students)

भारतीय समाज में एक ऐसी अनोखी संस्कृति का विकास हुआ है जिसमें विविधता में एकता का अनुपम उदाहरण देखने को मिलता है। भारतीय संस्कृति की विविधता इस प्रकार सुन्दरता बिखेर रही है मानो एक माला में विविध प्रकार के फूल गुथे हुए। भारतीय संस्कृति की यह सुन्दरता अनूठी है। हमारे देश की विविधता में एकता समरस हो गई है। उसे अलग-अलग पहचानना अत्यन्त कठिन है हमारे देश में निम्नलिखित बातों में विविधता देखने को मिलती है-

1. संस्कृति (Culture)— भारतीय संस्कृति हजारों वर्षों के विकास का फल है। यह सदैव विकासशील रही है। विश्व के विभिन्न भागों से अनेक जनसमूह भारत में आकर बसे और अपने साथ अपनी सांस्कृतिक परम्पराएँ भी लाए। भारतीय संस्कृति के विकास में विदेशी आक्रमणकारियों का भी योगदान रहा है। भारत में एक ऐसी मिली-जुली संस्कृति का विकास हुआ जिसमें अनेक संस्कृतियों का वैभव, श्रेष्ठता तथा विविधता साकार हो गई इसलिए हम भारतीय संस्कृति को सामाजिक संस्कृति कहते हैं। वास्तव में संस्कृति के अमूर्त संकल्पना है जिसका मूर्त रूप मनुष्य के आचार-विचार, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, वेशभूषा एवं रहन-सहन में मूर्तमान होता है।

भौगोलिक परिस्थितियों में अंतर होने के कारण विभिन्न भू-भागों के निवासियों के रहन-सहन में भी अन्तर आ जाता है। उनकी जीवन-शैली अलग हो जाती है इसलिए उनमें सांस्कृतिक विविधता प्रकट होती है। हमें अपनी संस्कृति से अपना सम्बन्ध-विच्छेद नहीं करना चाहिए, हम उसे पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रखना चाहते हैं। शिक्षण के क्रम में सामाजिक सांस्कृतिक तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है।

2. धार्मिक वैविध्य (Religious Diversity) – भारतीय संस्कृति की एक और विशेषता है अन्य धर्मों का सम्मान करना और उनके प्रति सहिष्णु भाव रखना । हमारे देश में हिन्दू, मुसलमान, जैन, बौद्ध, पारसी, ईसाई अनेक धर्मावलम्बी साथ-साथ रहते आ रहे हैं। हमारे धर्मों के विभिन्न सम्प्रदाय या पंथ भी यहाँ फूले फले हैं, जैसे वैष्णव, शैव, नाथपंथी, हीनयान, वज्रयान, लिंगायत, मुसलमानों में शिया-सुन्नी, जैनियों में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर, ईसाइयों में कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट आदि। स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार किया गया है जिसका अर्थ है सभी धर्मों के प्रति समान भाव या सर्वधर्मसम्भाव धर्मनिरपेक्षता में सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता एवं आदर का भाव रखा जाता है। आज भारत के प्रत्येक नागरिक को अपने विश्वास तथा आस्था के अनुसार अपना धर्म शांति तथा सामंजस्य से रहें, एक दूसरे के प्रति द्वेष तथा कटुता न रखें क्योंकि सभी धर्मों पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। सभी धर्माबलम्बी आपने धर्म का पालन करते हुए सुख, का मूल एक है।

भारतीय संविधान में हर व्यक्ति को धर्म पालन करने की स्वतंत्रता प्रदान की है जिससे व्यक्ति अपना आध्यात्मिक विकास कर सके। यदि हम धर्म के सच्चे अर्थ को समझ लें तो हम दूसरे धर्मों के प्रति कभी द्वेष-भाव नहीं रखेंगे। अज्ञानता के कारण ही धार्मिक संघर्ष होते हैं। कुछ स्वार्थी तथा धूर्त व्यक्ति अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए धर्म का प्रयोग एक अस्त्र की तरह करते हैं।

3. राजनैतिक विविधता (Political Diversity)— स्वतंत्रता के बाद हमारे देश में अनेक राजनैतिक दलों का जन्म हुआ जो अपनी-अपनी विचारधारा को लेकर जनता के सामने आए। हमारे देश में इस समय अनेक राजनैतिक दल हैं। स्वतंत्रता के बाद हमने लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया। लोकतंत्र में सम्पूर्ण सत्ता जनता में निहित होती है। लोकतंत्र में हर व्यक्ति को मतदान देने तथा चुनाव लड़ने का अधिकार होता है। लोकतंत्र में हर व्यक्ति की सामाजिक स्थिति समान होती है । नागरिकों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है। प्रजातंत्र केवल राजनैतिक राज्य व्यवस्था नहीं है अपितु वह एक सामाजिक व्यवस्था है। इसमें समता, बन्धता तथा स्वतंत्रता नामक मूल्यों की प्रतिष्ठा होती है। इसमें वर्ण, जाति, धर्म, पंथ, अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष, मालिक नौकर, बुद्धिजीवी श्रमजीवी का भेदभाव नहीं किया जाता है। प्रजातंत्र में कोई छोटा या बड़ा नहीं माना जाता बल्कि सभी मनुष्यों को समान माना जाता है। प्रत्येक नागरिक को सम्मान तथा प्रतिष्ठा दी जाती है। प्रजातंत्र में यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति प्रजातांत्रिक मूल्यों को आत्मसात करें।

4. सामाजिक वैविध्य (Social Deversity)- हमारे समाज में विभिन्न धर्मावलम्बी, अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, श्रेष्ठ- निकृष्ट, शिक्षित-अशिक्षित, विभिन्न भाषा-भाषी लोग निवास करते हैं । जब हम आदिम समाज पर दृष्टि डालते हैं तब पता चलता है कि प्राचीन काल में लोग सामूहिक श्रम करते थे। आज भी हमारे देश में जनजातीय, सामन्ती व्यवस्था तथा दास प्रथा के कुछ अवशेष उपलब्ध हैं, जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी बँधुआ मजदूर हैं और कर्नाटक तथा महाराष्ट्र के मन्दिरों में देवदासी प्रथा है हम समाज से अनेक क्रूरतापूर्ण तथा मानवद्रोही प्रथाओं को मिटा नहीं सके। सामन्तवाद आज भी भूस्वामियों तथा कृषि उत्पादकों के रूप में जीवित है पूँजीवाद से प्रभावित समाज भी भारत में फल-फूल रहा है। निजी क्षेत्र के बड़े-बड़े कारखाने तथा उद्योग-धंधे इसके उदाहरण हैं। गाँव के सेठ, साहूकार, जमींदार छोटे-छोटे पूँजीपतियों के रूप में आज भी अस्तित्व में हैं। हमारे देश के समाज में प्राचीन काल से विविधता रहती है परन्तु इस समाज व्यवस्था के कुछ नकारात्मक पक्ष भी रहे हैं। भारतीय समाज पर दीर्घकाल से सामन्तवाद का प्रभाव रहा है। सामन्तवाद छोटे और बड़े की संकल्पना पर खड़ा है, उसमें बराबर की संकल्पना ही नहीं हैं । इस व्यवस्था में हर कोई छोटा-बड़ा है। सामन्तवाद ने भारतीय समाज के एक बड़े भाग को अशिक्षित तथा गरीब बनाए रखा और उनके साथ पशुवत व्यवहार किया तथा इन्हें अमानवीय जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य किया। सामन्तवाद से दबा हुआ समाज अन्धविश्वास और भाग्यवाद का सहारा लेकर करता रहा। सामन्तवाद ने जनता को यह बताया कि अमीरी-गरीबी, ऊँच-नीच भाग्य का परिणाम है। इससे भाग्यवाद का पोषण हुआ और कर्म की अस्मिता निष्प्रभ हो गई। भाग्यवाद के कारण समाज अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति सुधारने का हौसला तथा ललक खो बैठा। ब्रिटिश शासन में परिवहन तथा संचार का प्रचार-प्रसार हुआ, नए उद्योग-धंधे खुले किन्तु भारतीय समाज अपनी यथास्थिति में ही रहा। परम्परागत समाज जाति प्रथा से पीड़ित रहा। पारम्परिक जाति प्रथा अत्यन्त कठोर, कष्टदायक तथा मानवद्रोही थी।

स्वतंत्रता के बाद इन दोषों को दूर करने के लिए उपाय किए गए। जातिगत भेद-भावों को दूर करने का प्रयास किया गया। अस्पृश्यता को कानूनन अपराध घोषित कर दिया गया । भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में कहा गया है “राज्य की नौकरियों या पदों पर नियुक्त के सम्बन्ध में सब नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी। केवल धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्म, जन्म स्थान, निवास आदि के आधार पर किसी नागरिक को सरकारी नौकरी के लिए अपात्र नहीं माना जाएगा और न किसी प्रकार का भेदभाव किया जाएगा।”

अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों को भारतीय समाज के अन्य वर्गों के समकक्ष लाने के लिए उन्हें व्यावसायिक तथा शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश पाने के लिए आरक्षण प्रदान किया गया है। इसी प्रकार सरकारी नौकरियों में भी आरक्षण का प्रावधान रखा गया है। इसके अलावा उन्हें निःशुल्क शिक्षा, छात्रवृत्तियाँ देने की भी व्यवस्था की गई है ताकि उन्हें कोई आर्थिक अड़चन न आए और वे अपनी शिक्षा पूरी कर सकें।

5. भाषायी विविधता (Linguistic Deversity)— हमारा देश बहुभाषा-भाषी देश है। भारत सरकार द्वारा यहाँ 18 भाषाओं को मान्यता दी गई है। सन् 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1651 मातृभाषाएँ हैं। भाषा की विविधता को ध्यान में रखते हुए कहा गया है.

” चार कोस पर पानी बदले आठ कोस पर बानी।

बीस कोस पर पगड़ी बदले, तीस कोस पर छानी॥ “

हिन्दी प्रदेशों में व्रज, अवधी, भोजपुरी, कन्नौजी, राजस्थानी, मारवाड़ी, बुन्देलखण्डी, मानवी, मैथिली, छत्तीसगढ़ी, बघेली आदि बोलियाँ बोली जाती हैं। महाराष्ट्र में पुणेरी, वरहाडी, खानदेशी, कोल्हापुरी, कोकणी आदि जन भाषाएँ हैं। इन बोलियों का उच्चारण, वाक्य-संरचना, व्याकरण, शब्द-भण्डार तथा भाषा-सौन्दर्य अलग-अलग है। हिन्दी प्रदेश की ब्रज भाषा अपने माधुर्य के लिए सर्वविदित। हर भाषा का साहित्य, लोकोक्तियाँ, कहावतों तथा लोकसाहित्य होता है जिसमें वहाँ का जनजीवन प्रतिबिम्बित होता है । हर भाषा की अपनी अभिव्यक्ति शक्ति तथा व्यंजना होती है। इस प्रकार हर भाषा-भाषी अपनी विशेष भाषिक वातावरण में बड़ा होता है और उसका सम्पूर्ण व्यवहार उससे ही संचालित होता है । हमारे देश का भाषा-वैविध्य अपना एक अनोखा सौन्दर्य रखता है। हमारे देश के भाषायी इतिहास पर दृष्टि डालने से स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में संस्कृत का प्रचलन था । संस्कृत भाषा में दर्शन, धर्म तथा अध्यात्म का समृद्ध साहित्य है। संस्कृत के बाद प्राकृत, पाली, मागधी भाषाएँ जनसामान्य की भाषाएँ बनीं। जिन प्रदेशों में बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ, वहाँ पाली भाषा लोकप्रिय हुई। तदन्तर अपभ्रंश भाषाओं का जन्म हुआ जिनसे हमारी आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म हुआ; जैसे हिन्दी, मराठी, बंगाली, गुजराती, सिंधी, पंजाबी, उड़िया, असमिया आदि। हमारे देश में तीन भाषा परिवार की भाषाएँ बोली जाती हैं।

6. प्राकृतिक प्रादेशिक विविधता- भारत एक विशाल देश है। उत्तर में वह हिमालय की उत्तंग शिखरों से घिरा हुआ है तो तीन ओर समुद्र से घिरा हुआ है। देश की प्राकृतिक बनावट समान नहीं है। कहीं ऊँचे-ऊँचे पर्वत हैं तो कहीं समतल मैदान तथा पठार।

हिमालय, विन्ध्याचल, सतपुड़ा, सह्याद्रि आदि पर्वतमालाएँ हैं। ये पर्वतमालाएँ विश्व की सबसे ऊँची पर्वतमालाएँ हैं यहाँ के लोगों का जीवन वहाँ के प्राकृतिक वातावरण से प्रभावित है. जैसे कश्मीर के लोगों का रहन-सहन दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश से अलग है। गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, घाघरा, गंडक, राबी, झेलम, चिनाब, व्यास, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी आदि प्रसिद्ध नदियाँ हैं जो यहाँ के जनजीवन को प्रभावित करती हैं। समुद्री किनारे के निवासियों का रहन-सहन तथा भोजन अलग हैं। जंगली जातियाँ बनोपजों से अपना भरण-पोषण करती हैं। दंडकारण्य जैसे यहाँ विशाल जंगल हैं। भारत के कुछ प्रदेश बहुत उपजाऊ भूमि है जैसे पंजाब तथा गंगा-यमुना का मैदान। यह भूमि संसार की सबसे अधिक उपजाऊ भूमि हैं इसलिए यहाँ के निवासी सम्पन्न हैं। इसके विपरीत राजस्थान में थार के रेगिस्तान है जो उजाड़ है। दक्कन का पठार पथरीला प्रदेश है। बंगाल तथा केरल की भूमि शस्यश्यामला है। इस प्रकार भारत की प्राकृतिक बनावट में एक वैविध्य है।

7. जातीय विविधता (Castes Diversity) – हमारे देश में अनेक जातियों के लोग रहते हैं। यही कारण है कि उनमें जातीय विविधता पाई जाती है। भारत में जातियों के सम्बन्ध उनके एक विशेष व्यवसाय से होते हैं। हमारे देश में कुछ जातियाँ कुछ ही क्षेत्रों में पायी जाती हैं जैसे मराठा महर भंग जो कि महाराष्ट्र में पाई जाती हैं। कुनवी, पाटीदार गुजरात में तथा आन्ध्र में रेड्डी, कामा, केरल में इजावाद आदि पाई जाती हैं। इन सभी जातियों के मध्य ऊँच-नीच का भेदभाव अधिक पाया जाता है। इसलिए इनमें छुआ-छूत की भावना को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता है।

8. जनजातीय विविधता (Tribes Diversity) — जनजातीय विविधता से हमारा तात्पर्य एक ऐसे परिवार के संकलन से है, जिसका कि सामान्य नाम होता है।

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