हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है।
हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में विवाह को एक मुख्य व महत्वपूर्ण धार्मिक संस्कार माना गया है। अन्य संस्कारों की भाँति विवाह का भी उद्देश्य अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ति है। धर्मशास्त्रों में गर्भादान से लेकर मृत्यु तक अनेक संस्कारों की व्यवस्था की गई है, जिनकी संख्या व स्वरूप के सम्बन्ध में स्मृतिकार एकमत नहीं हैं। किन्तु विवाह को सभी ने एक आवश्यक संस्कार माना है जिसके बिना मनुष्य का धार्मिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष सम्भव नहीं है।
हिन्दू विवाह को संस्कार मानने के अनेक आधार हैं। इनमें दो प्रमुख हैं: 1. स्थूल अर्थ में विवाह को संस्कार इसलिए माना जाता है, क्योंकि वह कर्मकाण्डीय कृत्य हैं। 2. सूक्ष्म अर्थ में विवाह को चरित्र व व्यक्तित्व का परिष्कार करने के कारण संस्कार कहा गया है। इनमें दूसरा आधार अधिक महत्व का है।
1. संस्कार से तात्पर्य ऐसे कृत्य से है जो जीवन को ऊँचा उठाये शुद्ध करें, कलुष धोकर उसे उज्जवल बनाये। डॉ० रामनारायण सक्सेना ने भी लिखा है, ‘हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार संस्कार शब्द का तात्पर्य ऐसे धार्मिक अनुष्ठान से है जिसके द्वारा मानव जीवन की क्षमता का उद्घाटन होता है। जो मानव को सामाजिक जीवन के योग्य बनाने व आन्तरिक परिवर्तनों का प्रतीक होता है और जिसके द्वारा संस्कार दीक्षित व्यक्ति को स्तर विशेष प्राप्त होता है। हिन्दू विवाह को संस्कार मानने में प्रो. वी. एन. शुक्ल ने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न पूछते हुए लिखा है कि ‘विवाह ने जीवन को परिमार्जित करके उत्कर्ष में कैसे सहायक है ? विवाह भोग का अवसर प्रदान करता है तो फिर क्या वह हमें त्याग से दूर नहीं ले जाता फिर काम तो कलुष है। कामतृप्ति का अवसर देकर विवाह हमें कामरिपु के समीप ले जाकर कलुषित करता है या परिमार्जित” इन प्रश्नों के उत्तर से विवाह का संस्कारक रूप स्पष्ट होता है। प्रो. शुक्ल कुछ उदाहरणों से यह सिद्ध किया है कि विवाह प्रगट में विकारक लगने पर भी संस्कारक है। इनके अनुसार ‘कपड़े धोने की क्रिया में जब धोबी कपड़ों को रेह या मेंगनी में सानता है तो ऐसा लगता है कि वह तो कपड़ों को मैला कर रहा है। महरी बर्तन मांजने में राख या मिट्टी लगाती है तो बर्तन पहले से भी अधिक मैले दिखते हैं। अल्पदृष्टि से विकार उत्पन्न करने वाली होने पर भी यथार्थ में यह परिष्कार करने वाली है। विवाह भी प्रकट में काम आदि कलुष से सम्बन्ध जोड़ने वाला दिखाई पड़ने पर जीवन को कलुषित करने वाला न होकर परिष्कृत करने वाला होता है। काम और अर्थ की लालसा मनुष्य के स्वभाव में आवश्यक रूप से होती है यदि इन जन्मजात वृत्तियों को मर्यादित भी विकास और नियमबद्ध तुष्टि का अवसर दे दिया जाये तो सम्भावना है कि कामनाओं की लालसा हमें जीवन के अन्यतम लक्ष्य मोक्ष की ओर अग्रसर होने में न रोके । विवाह द्वारा मर्यादित काम भोग का अवसर मिल जाने से यदि काम वृत्ति निःशोष हो जाये तो विवाह बर्तन में लगे माजन की भाँति अल्प दृष्टि से ही कलुष कारक है, परन्तु यथार्थ में संस्कारक है।
2. हिन्दू विवाह पुरुषों के लिए तो संस्कार है ही किन्तु स्त्रियों के लिए भी विवाह संस्कार है। उचित तो यह होगा कि हम इसे हिन्दू स्त्रियों के लिए एकमात्र संस्कार कहे क्योंकि पुरुषों के लिए जन्म से मृत्यु तक अनेक संस्कारों का विधान है किन्तु स्त्रियों के लिए केवल विवाह संस्कार का। इससे वे गृहस्थाश्रम में प्रवेश करती हैं और धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से स्त्री को यही संस्कार पूर्णतः प्रदान करता है। अतः इस रूप में भी हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है।
3. हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार इस अर्थ में भी है कि विवाह की क्रिया धार्मिक विधि विधानों तथा अनेक अनुष्ठानों के सम्पादन से पूरी होती है। इस प्रकार के कृत्य है – कन्यादान, होम, पाणिग्रहण, लाजा होम और सप्तपदी आदि। कन्यादान में पिता वर को आमंत्रित करके कन्या का दान करके वर से यह आश्वासन लेता है कि धर्म, अर्थ और काम की पूर्ति में अपनी पत्नी का परित्याग कभी नहीं करेगा। होम में वर वधू के स्थायी बन्धन के साक्षी के रूप में अग्नि प्रज्वलित की जाती है। वर-वधू दोनों अग्नि में आहुति डालते हैं और सुख तथा शान्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। पाणिग्रहण में वर-वधू का हाथ पकड़कर मन्त्रों द्वारा यह कहता है कि मैं तेरा हाथ ग्रहण कर सुख की कामना करता हूँ। तू वृद्धावस्था तक मेरे साथ रहना। मेरा धर्म तो पोषण करना है। मेरे द्वारा सन्तान को जन्म देते हुए तू सौ वर्ष तक जीवित रहे। लाजा होम में वधू अपने भाई से खीलें लेकर अग्नि कुण्ड में डालते हुए स्वयं को पति के कुल से जोड़ने के लिए देवताओं से प्रार्थना करती है। सप्तपदी के लिए वर और वधू उत्तर दिशा की ओर सात पग आगे बढ़ते हैं व हर पग पर भिन्न-भिन्न कामनाएं करते हैं। इस अनुष्ठान के बाद विवाह कार्य सम्पन्न हो जाता है। ये सभी कृत्य हिन्दू विवाह की पूर्णता के लिए आवश्यक हैं क्योंकि इनमें से कोई भी यदि उचित रूप से सम्पादित न हो तो कानूनी दृष्टि से ऐसे विवाह के विरुद्ध आपत्ति उठाई जा सकती है। हिन्दू विवाह एक संस्कार है, क्योंकि वह तभी पूर्ण होता है जबकि यह पवित्र कृत्यों मन्त्रों के साथ किया जाये।
4. हिन्दू विवाह जन्म-जन्मान्तर के अटूट बन्धन के रूप में भी एक संस्कार है। हिन्दू विवाह अन्य समाजों की तरह एक संविदा (Contrect) नहीं है जिसकी स्वेच्छा से जब चाहे तब जोड़ें और स्वेच्छा से ही उसे तोड़ दें अथवा कुछ शर्ते न पूरी करने से वह स्वयं ही टूट जायें। हिन्दू विवाह तो ईश्वर द्वारा निर्धारित पवित्र बन्धन माना जाता है। इसलिए यह अविच्छेद्य संस्कार (Sacrament) है।
5. हिन्दू विवाह के उद्देश्य भी इस संस्कार ही सिद्ध करते हैं। जैसा पहले ही लिखा जा चुका है कि हिन्दू विवाह के तीन प्रमुख उद्देश्य व आदर्श हैं। वे हैं धर्म, प्रजा व रति। इनमें धर्म को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है। धर्मशास्त्रों में यह कहा गया है कि विवाह आत्म-त्याग के द्वारा आध्यात्मिक व धार्मिक विकास का साधन है। इसी तरह महाभारत में विवाह को गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर देवताओं के लिए यज्ञ कर सन्तानोपत्ति करने का निर्देश है। विवाह द्वारा धर्म पालन के लिए सहयोग प्राप्त होता है। इससे पत्नी के साथ पंचयज्ञ की सुविधा मिलती है। यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि प्रजा और यौन सन्तुष्टि को हिन्दू विवाह में उद्देश्य के रूप में स्वीकार तो किया गया है किन्तु उसे गौण स्थान दिया गया है। सर्वोपरि स्थान धार्मिक क्रियाकलापों, यज्ञ, अनुष्ठानों को देने से हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार सिद्ध होता है।
6. संस्कारों के प्रमुख उद्देश्य प्रतीकात्मक, सामाजिक स्थिति प्रदान करना, समाजीकरण, सांसारिक सुख समृद्धि, आध्यात्मिक उन्नति, विपत्ति से रक्षा आदि है। हिन्दू विवाह इन सभी उद्देश्यों की पूर्ति करता है। उदाहरण के लिए विवाह से पति-पत्नी की स्थिति ही प्राप्त नहीं होती वरन गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने, यौन सम्बन्ध स्थापित करने व सन्तान को जन्म देने का अधिकार प्राप्त होता है। विवाह दायित्वों व कर्तव्यों का बोध कराके हमारा समाजीकरण करता है तथा अनुशासित एवं मर्यादित जीवन व्यतीत करने का सफल और सशक्त माध्यम है। विवाह से दो प्राणियों में सहयोग का क्षेत्र प्रशस्त होता है, अग्नि, जल, मन्त्र से अशुभ प्रभावों का विनाश किया जाता है। हिन्दू विवाह सांसारिक सुख, सफलता और समृद्धि को दिलाने वाला माना जाता है। इससे आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ मोक्ष भी प्राप्त हो सकता है। इस तरह विवाह से अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों की ही प्राप्ति होती है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है। अनेक विधानों के पारित होने से हिन्दू विवाह का यह स्वरूप परिवर्तित हुआ है। मुख्यतया धार्मिक उद्देश्यों का महत्व कम हुआ है। न्यायिक पृथक्करण और विवाह-विच्छेद से अब हिन्दू विवाह जन्म-जन्मान्तर का अविच्छेद्य बन्धन नहीं रह गया है। न ही हिन्दू विवाह के लिए धार्मिक क्रियाकलाप और अनुष्ठान अनिवार्य रह गये हैं, क्योंकि अब न्यायालय के द्वारा भी विवाह हो सकते हैं। संक्षेप में विवाह सम्बन्धी विधानों ने हिन्दू विवाह की अनेक परम्परागत विशेषताओं को समाप्त कर दिया है।
- विवाह का अर्थ | विवाह की परिभाषा | विवाह की प्रमुख विशेषताएँ
- हिन्दू विवाह के उद्देश्य | हिन्दू विवाह के प्रकार
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