फ्रोबेल की खेल विधि और किण्डरगार्टन पद्धति पर प्रकाश डालिए। अथवा किंडर गार्टन पद्धति के सिद्धान्त लिखिए।
फ्रोबेल की खेल विधि और किन्डरगार्टन पद्धति
फ्रोबेल अपनी विश्व प्रसिद्ध “किण्डरगार्टन शिक्षा पद्धति” के संस्थापक के रूप में विख्यात हैं। इस अभिनव शिक्षा योजना में उन्होंने बालकों की शिक्षा के लिए खेल-विधि का प्रयोग बड़े व्यापक रूप से किया है। वस्तुतः यह पद्धति पूर्णतः मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है और इसमें बालकों की क्रियाशील प्रवृत्तियों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
किन्डरगार्टन पद्धति की प्रेरणा फ्रोबेल को प्रकृति का निरीक्षण करते हुये मिली, जब सन् 1840 में वह पर्वतों में घूमते हुये सुन्दरता को निहार रहा था। वहाँ प्राकृतिक रूप में फल-फूल रहे सुन्दर बगीचे को देखकर वह मन्त्रमुग्ध हो गया और सोचने लगा कि क्या बच्चे रूपी फूलों के लिए भी कोई ऐसा बगीचा बनाया जा सकता है, जहाँ वे स्वाभाविक रूप में स्वतंत्र रहकर अपना विकास कर सकें? तभी उसके मस्तिष्क में किण्डरगार्टन शब्द सूझ गया जिसका अर्थ होता है बच्चों का बगीचा। इसके बाद वह अपनी कल्पना को साकार करने में जुट गया और किण्डरगार्टन विद्यालय का श्री गणेश कर दिया। बीज और पेड़ से प्रेरित होकर उसने कहा था-“पेड़ का बीज सम्पूर्ण पेड़ की प्रकृति को अपने अन्दर धारण किये रहता है। प्रत्येक वस्तु का भावी विकास और रूप उत्पत्ति के समय ही उसमें निहित रहता है। “
किण्डरगार्टन के मूल सिद्धान्त-
किण्डरगार्टन शिक्षा पद्धति निम्नलिखित मूल सिद्धान्तों पर आधारित थी –
1. खेल विधि द्वारा शिक्षा प्रदान करना।
2. आत्माभिव्यक्ति का सिद्धान्त
3. स्व-क्रियाओं का सिद्धान्त
4. अनेकता में एकता का सिद्धान्त
5. समाज और व्यक्ति की एकता का सिद्धान्त ।
6. प्राकृतिक विकास का सिद्धान्त ।
शिक्षण विधि-किण्डरगार्टन पद्धति लगभग पूरी तरह खेलों पर आधारित थी। इसमें विभिन्न प्रकार के शैक्षिक खेलों को इस प्रकार संगठित किया गया था, जिसमें बालक मनोरंजन प्राप्त करते हुये अपनी आन्तरिक ऊर्जा को बाहर लाने के लिए सतत् प्रेरित होते रहें। खेलों के महत्त्व का वर्णन करते हुये फ्रोबेल ने लिखा था- “खेल के द्वारा ही बालक सर्वप्रथम संसार को अपने सम्मुख रखता है अतः निश्चित रूप से खेल द्वारा प्राप्त शिक्षा से ही वह जीवन में प्राप्त अनुभवों की व्याख्या करता है।”
किण्डरगार्टन शिक्षा योजना में खेलों का नियोजन करने के लिए उसने निम्नलिखित निर्देश दिया है-“किण्डरगार्टन पद्धति में खेलों का नियोजन इस प्रकार से किया जाय, जिससे बच्चे वास्तविक रूप में प्रकृति द्वारा वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति कर सकें अर्थात् खेलों द्वारा उनका प्राकृतिक विकास किया जा सके।”
किण्डरगार्टन में निम्नलिखित खेलों का चयन किया जाता था-
1. रचनात्मक एवं मनोरंजक खेल-इसके अन्तर्गत झूले, दौड़ना-भागना, भ्रमण आदि रखे गये थे। ये खेल शारीरिक विकास के साथ रचनात्मक कौशल भी प्रदान करते हैं।
2. कल्पना शक्ति का विकास करने वाले खेल-बालकों की कल्पना शक्ति का विकास करने के लिए इन्हें विभिन्न आकारों के खिलौनों और आकृतियों का निर्माण करने के लिए प्रेरित किया जाता है। इन खिलौनों का उपहार के रूप में आदान-प्रदान करना भी इस खेल में सम्मिलित है।
3. चरित्र निर्माण करने वाले खेल-अनेक प्रकार के अक्षरों, अंकों और चित्रों को बनाकर शिक्षा प्रद कथानक के रूप में प्रस्तुत करने वाले खेल इसमें शामिल किये गये हैं। ये खेल बालक की भाषा और साहित्य के प्रति रुचि का भी विकास करते हैं।”
4. सामाजिक सहयोग की भावना जगाने वाले खेल-इन खेलों में सामूहिक, संगीत, नृत्य, गायन, नाटक, पर्यटन, भ्रमण आदि का समावेश किया गया है।
शिक्षण सामग्री –
खेल विधि में शिक्षण सामग्री का बहुत अधिक महत्त्व होता है। अतः फ्रोबेल ने निम्नलिखित खेल सामग्री का प्रावधान किया है-
1. उपहार
2. मातृ खेल और बच्चों के गीत
3. व्यापारिक और यांत्रिक कार्यों की खेल सामग्री
4. कविताओं और कहानियों की पुस्तकें
5. चित्रकला, बागवानी और सामाजिक कार्यों से सम्बन्धित खेल सामग्री
उपहार के लिए लकड़ी, लोहे या अन्य किसी वस्तु के बने हुये लगभग 20 गोलाकार, बेलनाकार, आयताकार, वर्गाकार और घनाकार खिलौने होते हैं, जिन्हें शिक्षक छात्रों को उपहार स्वरूप देता है। इन विविध प्रकार की वस्तुओं के माध्यम से बालक रंग, स्पर्श, दिशा, गति-गणित और विज्ञान के नियमों का ज्ञान खेल-खेल में ही कर लेते हैं।
मातृ खेल के अन्तर्गत लगभग 50 बच्चों के गीत एक पुस्तक में संकलित होते हैं। शिक्षिकाएं छोटे-छोटे बच्चों को इन्हें प्रसंगानुसार भाव-भंगिमाएं बनाते हुए गा-गा कर सुनाती है। बच्चे भी अनुकरण करके इन्हें सस्वर गाते हैं। इन गीतों में होने वाली शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से बच्चे इन्द्रियों का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और अनुभव द्वारा सीखते हैं।
व्यावसायिक एवं यांत्रिक कार्यों के प्रशिक्षण के लिए छात्रों को अनेक प्रकार के कार्य करने को दिये जाते हैं। फ्रोबेल ने इन कार्यों में लकड़ी की वस्तुएं बनाना, चटाई बुनना, चित्रकारी, मिट्टी के खिलौने बनाना, कागज काटना, बुनाई, सिलाई, कढ़ाई, नृत्य, आटा गूंथना, टोकरी बनाना आदि को सम्मिलित किया था। इन कार्यों को करने से बालकों में व्यावसायिक ज्ञान के साथ-साथ सहयोग, प्रेम, आत्म-नियन्त्रण, सामाजिकता और निरीक्षण आदि गुणों का विकास होता है।
बालकों की रुचि, आयु और बौद्धिक क्षमता के अनुसार कहानियों और कविताओं की पुस्तकें भी छात्रों के लिए बहुत उपयोगी होती हैं। इन्हें पढ़कर उनका बहुमुखी विकास किया जा सकता है।
सामाजिक कार्यों के रूप में फ्रोबेल ने बागवानी, सामूहिक खेल, नाटक, प्रहसन, अभिनय, चित्रकला और सामाजिक जीवन से जुड़े अन्य क्रिया-कलापों को आवश्यक माना है।
प्रार्थना, भजन, गीत आदि गाकर भी बच्चे सामाजिकता का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं।
बच्चे को सुधारने के लिए समझाइए। अगर आप सही तरीके से अपने बच्चे को उसकी गलती के बारे में बताएंगे, तो वह हिम्मत नहीं हारेगा। इसके अलावा अगर आप समय समय पर सही वजह से उसकी तारीफ करते रहें, तो मुमकिन है कि वह आपकी बात मानेगा और खुद में सुधार लाएगा। फिर जब वह अच्छा करेगा, तो सब खुश होंगे।
किण्डरगार्टन पद्धति का मूल्यांकन
किण्डरगार्टन शिक्षण पद्धति बालकों के लिए बहुत उपयोगी है। इस विधि में बच्चों के कोमल तन-मन पर कोई बोझ नहीं पड़ता और वे प्रसन्नतापूर्वक खेलते हुए श्रेष्ठ मानवीय गुणों का प्रशिक्षण बड़े ही सहज रूप में प्राप्त कर लेते हैं। यह पद्धति रूसो के प्रकृतिवादी सिद्धान्तों के अनुसरण का एक सुन्दर उदाहरण हैं। भारत में प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री गिज्जू भाई ने बच्चों के लिए जो शिक्षा पद्धति विकसित की थी, उस पर सम्भवत: किण्डरगार्टन पद्धति का पर्याप्त प्रभाव पड़ा होगा।
यह पद्धति बच्चों को क्रिया-प्रधान शिक्षा प्रदान करती है। इसमें बाल मनोविज्ञान, रोचकता और लचीलेपन के सिद्धान्त का पूरा ध्यान रखा जाता है। बच्चों को इन्द्रियों का प्रशिक्षण, आचार-विचार का ज्ञान, प्रकृति प्रेम, सौन्दर्य-प्रेम, नैतिकता, सामाजिकता और. सृजनात्मकता आदि गुण इस विधि में सहज स्वाभाविक एवं प्राकृतिक रूप में मिल जाते हैं।
इस विधि में प्रत्यक्षतः तो कोई दोष दिखाई नहीं पड़ता है, किन्तु इसमें प्रयुक्त होने वाली शिक्षण सामग्री में सतत् नवीनता बनाये रखना एक दुष्कर कार्य है। बच्चों का यह स्वभाव होता है कि वे किसी एक खिलौने या वस्तु से बहुत जल्दी ऊब जाते हैं। अत्यधिक क्रियाशील और विकास की गति तेज होने के कारण उन्हें जल्दी-जल्दी नयी वस्तुएं देखने और जानने की तीव्र इच्छा होती है। सामान्य रूप से शिक्षा की जो व्यवस्था की जाती है, उसे देखते हुये यह विधि अधिक खर्चीली कही जा सकती है। इसके अतिरिक्त इस विधि में शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिये। उसे बच्चों की शिक्षा के प्रति समर्पित, बाल मनोवैज्ञानिक, योग्य, सहनशील और उदार होना चाहिये। इतने योग्य शिक्षक प्राय: भारत जैसे देश में आसानी से सुलभ नहीं हो पाते हैं। यदि धन की पर्याप्त व्यवस्था हो जाये और समर्पित योग्य शिक्षक उपलब्ध हो सकें तो यह विधि बालकों की शिक्षा की सर्वोत्तम विधि कही जा सकती है।
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