द्वितीय विश्व युद्ध 1939-1945
प्रथम विश्वयुद्ध के केवल 21 वर्षों बाद ही संसार को द्वितीय विश्व युद्ध देखना पड़ा। दूसरा विश्वयुद्ध पहले महायुद्ध से कहीं अधिक भीषण और विनाशकारी था। फॉश ने द्वितीय विश्वयुद्ध को जर्मनी द्वारा सम्पादित ‘बदले का युद्ध’ बताया, जो कि वर्साय सन्धि की कटुता, राष्ट्रों की स्वार्थप्रियता और गुटबन्दियों के परिणामस्वरूप 1939 ई० में आरम्भ हुआ। इस युद्ध में लड़ने वाले पक्ष वही थे, जो पहले महायुद्ध में थे। एक पक्ष धुरी राष्ट्रों का था, जिसमें जर्मनी, इटली तथा जापान थे। दूसरा पक्ष मित्र-राष्ट्रों का था, जिसमें इंग्लैण्ड, फ्रांस और अमेरिका थे। टर्की और रूस ने भी मित्र-राष्ट्रों की ओर से इस युद्ध में लिया।
अन्तत: यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध से भी अधिक विनाशकारी और व्यापक दूसरे महायुद्ध का आरम्भ हुआ। यह महायुद्ध यूरोप तक सीमित न रहकर शीघ्र ही विश्वव्यापी बन गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण
द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए निम्नलिखित कारणों को उत्तरदायी माना जाता है-
(1) वर्साय की सन्धि में जर्मनी का अपमान – वर्साय की सन्धि वास्तविक अर्थों में शान्ति सन्धि नहीं थी, वरन् इसमें दूसरे विश्वयुद्ध के बीज छिपे हुए थे। वर्साय सन्धि में जर्मनी का बड़ा ही अपमान किया गया। जर्मन प्रतिनिधियों को बलपूर्वक सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया गया था। उसके सारे साम्राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया गया था। जर्मनी की सैनिक तथा सामुद्रिक शक्ति को नष्ट कर दिया गया था। उसकी राष्ट्रीय भावनाओं को इतना कुचल दिया गया था कि जर्मन जनता अपने अपमान का बदला लेने के लिए बेचैन हो उठी थी। ऐसी स्थिति में वर्साय सन्धि का उल्लंघन होना स्वाभाविक ही था।
उधर इटली भी इस सन्धि से असन्तुष्ट था, वह भी फ्रांस और इंग्लैण्ड से बदला लेने के इन्तजार में था। ऑस्ट्रिया और टर्की भी इस सन्धि से रुष्ट थे। इस प्रकार वर्साय की सन्धि द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बन गयी।
(2) नवीन विचारधाराओं का उदय – प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पेरिस के शान्ति सम्मेलन ने अनेक राज्यों में लोकतन्त्र शासन की स्थापना कर दी थी, किन्तु कुछ समय के बाद ही रूस में बोल्शेविक, जर्मनी में नाजी और इटली में फासीवादी क्रान्तियाँ आरम्भ हो गयीं। इन क्रान्तियों को सफलता भी मिली। साम्यवादी, नाजीवादी तथा फासीवादी विचारधाराओं ने यूरोप के देशों में एक खलबली मचा दी। इन विचारधाराओं के संघर्ष के कारण अनेक देशों में राष्ट्रीयता की प्रबल भावनाएँ उत्पन्न हो गयीं, जिनके फलस्वरूप यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी।
(3) आर्थिक संकट – प्रथम विश्वयुद्ध के भयंकर विनाश ने यूरोप के राष्ट्रों की आर्थिक दशा शोचनीय बना दी थी। 1930 ई० को विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी ने तो यूरोप में भीषण आर्थिक संकट उत्पन्न कर दिया। इससे बचने के लिए यूरोप जर्मनी ने युद्ध के हर्जाने की धनराशि देने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। जर्मनी की घोषणा को सुनकर यूरोप के राष्ट्रों में हलचल मच गयी। यही हलचल आगे चलकर एक विनाशकारी युद्ध का कारण बनी।
(4) सन्धियों का अस्वीकरण ( उल्लंघन) – पेरिस के शान्ति सम्मेलन में मित्र राष्ट्रों ने विश्व में शान्ति व व्यवस्था से रोक दिया था। किन्तु जर्मनी में नाजी दल के उत्थान ने पेरिस सम्मेलन की शान्ति व्यवस्थाओं को भंग कर दिया। हिटलरन बनाये रखने के लिए जर्मनी, ऑस्ट्रिया तथा बल्गेरिया की सैनिक शक्ति में भारी कमी कर दी थी और उन्हें शस्त्रीकरण करमा मानने के लिए बाध्य नहीं है। जर्मनी की देखादेखी इटली, स्पेन, टर्की, जापान आदि सभी देश पेरिस सम्मेलन की व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाकर अपनी मनमानी करने लगे। सन्धियों का यह अस्वीकरण भावी तूफान के आने का संकेत था।
(5) साम्राज्यवादी भावना का विकास – साम्राज्यवादी भावना का विकास भी द्वितीय महायुद्ध का एक मुख्य कारण था। यूरोप के बहुत से राष्ट्र सैनिक दृष्टि से सबल होते हुए भी साम्राज्य की दृष्टि से अपने को हीन समझते थे। जर्मनी, इटला नहीं थे, किन्तु उनके पास इंग्लैण्ड व फ्रांस के समान विशाल साम्राज्य नहीं थे। अत: साम्राज्य-विस्तार की भावना और जापान का स्थान ऐसे ही राष्ट्रों में था। ये राष्ट्र सैन्य-शक्ति की दृष्टि से ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस आदि देशों से किसी भी उनके हृदय में निरन्तर बढ़ती जा रही थी। साम्राज्यवादी भूख को शान्त करने के लिए ही जापान ने मंचूरिया (1931 ई०) और इटली ने अबीसीनिया (1936 ई०) पर अधिकार कर लिया था।
(6) राष्ट्र संघ की दुर्बलता – द्वितीय विश्वयुद्ध का एक महत्त्वपूर्ण कारण राष्ट्र संघ की असफलता थी। जर्मनी, जापान तथा इटली ने अपनी इच्छानुसार ऑस्ट्रिया, मंचूरिया और अबीसीनिया पर विजय प्राप्त की। निर्बल राष्ट्रों ने राष्ट्र संघ से अपनी सुरक्षा की प्रार्थना की, किन्तु राष्ट्र संघ आँख बन्द किये सभी कुछ देखता रहा। उसकी उदासीनता तथा दुर्बलता को देखकर विश्व के राष्ट्रों के सम्मुख आत्म-रक्षा की समस्या उत्पन्न हो गयी और वे अपने-अपने बचाव के लिए सैनिक तैयारियाँ करने लगे।
द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम
1. अपार जन-धन का विनाश – द्वितीय विश्व युद्ध व्यापक रूप से विनाशकारी सिद्ध हुआ । इस युद्ध में लगभग पाँच करोड़ व्यक्ति मारे गये, लाखों व्यक्ति घायल हुए तथा खरबों रुपये की सम्पत्ति नष्ट हो गई । बाल्टिक सागर से काले सागर तक का पूरा क्षेत्र पूर्ण रूप से नष्ट-भ्रष्ट हो गया । चेकोस्लोवाकिया तथा पोलैण्ड में एक भी ऐसा गाँव नहीं बचा,जो युद्ध में तहस-नहस न हुआ हो । हॉलैण्ड, बेल्जियम तथा फ्रांस में हजारों लोग भूख से तड़प-तड़पकर मर गए । वस्तुतः यह युद्ध इतना विनाशकारी था कि इस युद्ध से हुई क्षति का अनुमान लगाना आकाश के तारे गिनना है ।
2. साम्राज्यवाद का अन्त – द्वितीय विश्व युद्ध ने पुराने साम्राज्यवाद को पूर्णतः नष्ट कर दिया । यूरोप के ब्रिटेन, फ्रांस, हॉलैण्ड, बेल्जियम, पुर्तगाल तथा इटली आदि देशों ने एशिया और अफ्रीका के देशों में अपने उपनिवेश स्थापित कर लिये थे । द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप पराधीन देशों में राष्ट्रीयता तथा देशभक्ति की भावना को प्रोत्साहन मिला और वहाँ स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष होने लगे । इन संघर्षों को दबाने के लिए साम्राज्यवादी देशों ने अनेक प्रयत्न किये, किन्तु वे असफल रहे । स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किये जा रहे इस प्रकार के संघर्षों के पश्चात् 15 अगस्त, 1947 ई. को भारत स्वतन्त्र हुआ । इसके अतिरिक्त श्रीलंका, बर्मा, हिन्दचीन, इण्डोनेशिया आदि देशों ने भी स्वतन्त्रता प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली । आज अफ्रीका में लगभग सभी राष्ट्र स्वतन्त्रता प्राप्त कर चुके हैं ।
3. साम्यवाद का प्रसार – द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साम्यवाद का प्रसार बहुत तेजी से हुआ । रूस के प्रभाव तथा द्वितीय विश्व युद्ध की परिस्थितियों के कारण यूरोप में रूमानिया, हंगरी, बुल्गारिया, यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, पोलैण्ड और पूर्वी जर्मनी में साम्यवादी सरकारों की स्थापना हुई । इससे स्पष्ट होता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप विश्व का एक बड़ा भाग साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में आ गया ।
4. सैनिक गुटबन्दियाँ – द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण विश्व दो गुटों –
- पूँजीवादी गुट तथा
- साम्यवादी गुट में बँट गया ।
पूँजीवादी देशों का नेतृत्व अमेरिका ने तथा साम्यवादी देशों का नेतृत्व रूस ने किया । यद्यपि द्वितीय विश्व युद्ध में रूस तथा अमेरिका दोनों ने मिलकर जर्मनी के विरुद्ध युद्ध किया था, परन्तु युद्ध के तुरन्त बाद पूँजीवादी देशों ने यह अनुभव किया कि विश्व के अनेक देशों में साम्यवादी शासन की स्थापना हो गई है और इसका प्रभाव बढ़ता जा रहा है । परिणामस्वरूप अमेरिका तथा रूस के बीच गम्भीर मतभेद उत्पन्न हो गए तथा ये मतभेद बढ़ते ही चले गए । अमेरिका आदि पूँजीवादी देशों ने साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए अनेक सैनिक गुटबन्दियों की स्थापना की ।
5. आर्थिक प्रभाव क्षेत्रों का निर्माण – द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त रूस तथा अमेरिका दोनों ही देशों ने अपने-अपने आर्थिक प्रभाव क्षेत्रों में वृद्धि करना प्रारम्भ कर दिया । युद्धोपरान्त विश्व में बेरोजगारी तथा भुखमरी फैली । इसके निवारण के लिए रूस तथा अमेरिका दोनों ही देशों ने अन्य देशों को आर्थिक सहायता देना प्रारम्भ कर दिया, जिससे विश्व में दोनों ही देशों के प्रभाव-क्षेत्र विस्तृत हो गए । आज भी पूँजीवादी तथा साम्यवादी दोनों ही गुटों के देश, विश्व के विभिन्न देशों को अपने आर्थिक प्रभाव क्षेत्रों में रखने का सतत् प्रयत्न कर रहे हैं।
6. अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण की होड़ – द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप विभिन्न देशों में अस्त्र-शस्त्र के निर्माण की प्रतिस्पर्धा होने लगी पूँजीवादी तथा साम्यवादी दोनों ही गुट अपनी सुरक्षा को मजबूत करने के लिए विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण करने में लग गए । यद्यपि सोवियत संघ के विघटन के उपरान्त दोनों गुटों का संघर्ष शिथिल हुआ है तथा तृतीय विश्व युद्ध का खतरा कुछ समय के लिए टल गया लगता है, लेकिन अस्त्र-शस्त्रों की होड़ के चलते आज भी विश्व तीसरे विश्व युद्ध के कगार पर ही खड़ा प्रतीत हो रहा है।
7. संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना – द्वितीय विश्व युद्ध की विनाशलीला को देखकर विश्व के राजनीतिज्ञ यह सोचने लगे कि मानवता तथा मानव-जाति की रक्षा के लिए भविष्य में सम्भावित किसी भी युद्ध को रोकना आवश्यक है । अतः विजयी राष्ट्रों ने विश्व-शान्ति के उद्देश्य से 24 अक्टूबर, 1945 ई. को अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की स्थापना की, जो संयुक्त राष्ट्र संघ के नाम से जानी जाती है।
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