समुदाय के परिभाषित करते हुए विशिष्ट शिक्षा के सन्दर्भ में इसके योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
समुदाय की परिभाषा – सभ्यता की प्रगति और इसके फलस्वरूप संसार के लोगों की एक-दूसरे पर अधिक निर्भरता हो जाने के कारण समुदाय की धारणा विस्तृत हो गयी है। धीरे-धीरे अतीत के छोटे और आत्म-निर्भर ग्रामीण समुदाय का स्थान विश्व-समुदाय लेता जा रहा है। इस बड़े समुदाय के लोग समान आदर्शों, रुचियों और आवागमन तथा सन्देश के तेज साधनों के कारण अधिक पास आते जा रहे हैं।
अब भी हम अपने नगर या कस्बे को अपना स्थानीय समुदाय कहते हैं पर हमारे सम्बन्ध अपने देश और विदेश के लोगों से भी होते हैं। फलस्वरूप हम राज्य समुदाय, राष्ट्रीय समुदाय और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के भी सदस्य होते हैं। इस प्रकार समुदाय में एक वर्ग मील से कम का क्षेत्र भी हो सकता है या उसका घेरा विश्व भी हो सकता है। यह क्षेत्र या घेरा इस बात पर निर्भर करता है है कि इसके सदस्यों में आर्थिक और राजनीतिक समानतायें हों।
समुदाय की परिभाषा (Difinition of Community) –
हम समुदाय के अर्थ को और भी अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ नीचे दे रहे हैं-
गिसबर्ग- “समुदाय सामान्य जीवन व्यतीत करने वाले सामाजिक प्राणियों का एक समूह समझा जाता है, जिसमें सब प्रकार असीमित, विविध और जटिल सम्बन्ध होते हैं जो सामान्य जीवन के फलस्वरूप होते हैं या जो उसको निर्माण करते हैं।”
मैकाइवर- “जब कभी एक छोटे या बड़े समूह के सदस्य इस प्रकार रहते हैं कि वे इस इस अथवा उस विशिष्ट उद्देश्य में भाग नहीं लेते हैं, वरन् जीवन की समस्त, भौतिक दशाओं में भाग लेते हैं, तब हम ऐसे समूह को समुदाय कहते हैं।”
बालकों के विशेष शिक्षा के सन्दर्भ में समुदाय की भूमिका-
विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों की आवश्यकता के लिये समुदाय निम्न प्रकार से भूमिका निभाते हैं-
1. शारीरिक विकास (Physical Development) –
बच्चे परिवार तथा समुदाय के सदस्यों का अनुकरण कर रहन-सहन के तरीके सीखते हैं। स्वस्थ रहने के लिये आदतों का निर्माण परिवार और समुदाय के सदस्यों का अनुकरण करने से ही होता है। समुदाय के सदस्य स्थान-स्थान पर व्यायाम शाखाएँ, अखाड़े, खेल के मैदान और पार्क आदि की व्यवस्था करते हैं। इससे बच्चों के शारीरिक विकास में बड़ी सहायता मिलती है। समुदाय स्थानीय निकायों का संगठन करते हैं। जो सफाई की व्यवस्था करते हैं या जनसाधरण को स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारी प्राप्त कराते हैं और लोगों के रोगग्रस्त होने पर चिकित्सा की व्यवस्था करते हैं। जो समुदाय ये सब कार्य नहीं करते, उनसे बच्चों के शारीरिक विकास की आशा नहीं की जा सकती।
समुदाय विद्यालयों का निर्माण करके भी बच्चों के शारीरिक विकास की व्यवस्था करते हैं। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये वे विद्यालयों का सहयोग भी करते हैं। बिना समुदाय सहयोग के विद्यालय अपना कार्य पूरा नहीं कर सकते। जो समुदाय विद्यालयों को इस क्षेत्र में सहयोग नहीं देते वे अपने एक बड़े शैक्षिक उत्तरदायित्व का निर्वाह नहीं करते।
2. मानसिक विकास (Mental Development) –
समुदाय में बच्चे अपनी मूल शक्तियों के विकास के लिये पूरा-पूरा अवसर प्राप्त करते हैं, विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से मिलते हैं, विभिन्न परिस्थितियों में से होकर गुजरते हैं, विभिन्न विषयों पर तर्क-वितर्क करते हैं परिणामस्वरूप उनका मानसिक एवं बौद्धिक विकास होता है। समुदाय सार्वजनिक पुस्तकालयों तथा वाचनालयों की व्यस्था करते हैं। जिनका लाभ उठाकर बच्चे अपना मानसिक विकास करते हैं। समुदाय द्वारा आयोजित विभिन्न समारोह, नाटक सिनेमा आदि की सहायता से भी बच्चों का मानसिक विकास होता है।
3.चारित्रिक एवं नैतिक विकास (Character and Moral Development)-
बच्चे के चारित्रिक एवं नैतिक विकास में परिवार के बाद समुदाय का ही प्रभाव पड़ता है। जो बच्चे ऐसे समुदाय में रहते हैं और अनुशान का आदर करते हैं तो ऐसे समुदायों में रहने वाले बच्चे अनुशासित होते हैं। उदार विचारों वाले समुदायों के बच्चों में उदारता की भावना का विकास होता है। वे नम्रता तथा सहयोग के साथ कार्य करना सीखते हैं। समुदाय का उच्च धार्मिक पर्यावरण सहिष्णुता को जन्म देता है और उससे बच्चों में अनेक चारित्रिक एवं नैतिक गुणों का विकास होता है। धार्मिक व्यक्ति प्रेम, सहानुभूति और सहयोग में विश्वास रखते हैं और विश्व बन्धुता की भावना से प्रेरित होते हैं। वे सत्य के पुजारी होते हैं और प्राणीमात्र की सेवा के लिये तत्पर रहते हैं। इस प्रकार समुदाय का शुद्ध धार्मिक पर्यावरण बच्चों में चारित्रिक एवं नैतिक दृष्टि से प्रभाव डालता है। पतित समुदाय में रहकर बच्चे अनैतिक हो जाते हैं।
समुदाय ही विद्यालयों का निर्माण कर उनमें समाज के उच्च, नैतिक पर्यावरण प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं और इस प्रकार समाज को सुधार की ओर ले जाते हैं। जो समुदाय जिस ओर जितने अधिक सचेत हैं, उनके द्वारा बच्चों का उतना ही अधिक चारित्रिक एवं नैतिक विकास होता है।
4. सामाजिक विकास (Social Development) –
समुदाय एक ऐसा सामाजिक समूह होता है जिसके सदस्यों के बीच ‘हम’ की भावना होती है और इसके सदस्य आपस में मिल-जुलकर रहते हैं और अपनी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति एक-दूसरे के सहयोग से करते हैं। ऐसे समूहों के बीच बच्चों में प्रेम, सहानुभूति और प्रेम की भावना बढ़ती है। उनमें दया, क्षमा, त्याग और परोपकार आदि परोपकार आदि गुणों का विकास होता है और वे समाज में समायोजन करना सीखते हैं। इस प्रकार उनका सामाजिक विकास होता है।
समुदाय में समय-समय पर साहित्यक, सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक आयोजन होते रहते हैं। बच्चे भी उनमें भाग लेते हैं। समुदाय प्रौढ़ शिक्षा, जन शिक्षा और स्त्री ने शिक्षा की व्यवस्था कर इस ओर बहुत अधिक सहायक हात है।
5. सांस्कृतिक विकास (Cultural Development) –
बच्चे जिस समुदाय में रहते हैं उसी के तौर-तरीके सीखते हैं। रीति-रिवाज, मूल्यों और मान्यताओं की शिक्षा भी बच्चे समुदाय से ही प्राप्त करते हैं। उन सबके प्रति उनमें एक भावात्मक संगठन होता है और वह उनकी संस्कृति कहलाती है। समुदाय विभिन्न औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा संस्थाओं का निर्माण कर संस्कृति का संरक्षण करते हैं। उनमें वांछित विकास करने का प्रयत्न करते हैं, इन कार्यों को विद्यालय के माध्यम से पूरा किया जाता है।
6. व्यावसायिक एवं औद्योगिक शिक्षा (Vocational and Industrial Education) –
जिस समुदाय में जो व्यवसाय व उद्योग होते हैं, बच्चे प्रायः उन्हीं से सीखते हैं। कृषक के बच्चे को खेती करने की शिक्षा उसके अपने परिवार और गाँव के अन्य लोगों से मिल जाती है। शेष शिक्षा भी बच्चे अपने परिवार से ही ग्रहण करते हैं, हाँ भारी उद्योगों की शिक्षा के लिए उन्हें विद्यालयों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसके लिये समुदाय विद्यालयों और महाविद्यालयों का निर्माण करते हैं। आज तो कृषि और कुटीर उद्योग धन्धों की शिक्षा की व्यवस्था भी विद्यालयों में होने लगी है परन्तु बिना समुदाय के सहयोग के ये भी अपना कार्य करने में सफल नहीं हो सकते।
7.आध्यात्मिक विकास (Spiritual Development) –
बच्चे के आध्यात्मिक विकास में भी समुदाय का हाथ रहता है। यदि समुदाय धर्मप्रधान होता है तो बच्चों में धार्मिक भावना का विकास होता है। वे आत्मा और परमात्मा के बारे में सोचते हैं। यदि समुदाय में धर्म का स्थान नहीं होता तो परिवार में पड़े धार्मिक संस्कार भी धुंधले पड़ने लगते हैं। हमारा देश धर्म प्रधान देश है कोई भी समुदाय धर्म विहीन नहीं है। हमारे यहाँ तो समुदायों में बड़े-बड़े धार्मिक संगठन हैं। वे अनेक संस्थाओं का निर्माण करते हैं और धर्म का प्रचार करते हैं। धर्म प्रचार और आध्यात्मिकता के विकास में भारतीय समुदाय विशेष रूप से प्रयत्नशील हैं। आज के युग की भौतिक दौड़ में हमें सचेत होना होगा। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हममें धर्म संकीर्णता आ जानी चाहिये। हम धार्मिक उदारता के समर्थक हैं।
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