मीराबाई का जीवन परिचय: मीराबाई का विवाह, मीराबाई की भक्ति, साहित्यिक परिचय तथा रचनाएँ-
मीराबाई का जीवन परिचय देते हुए उनकी रचनाओं के बारे में बताइए।
मीराबाई कृष्णाश्रयी शाखा की हिंदी की महान कवयित्री हैं। श्रीकृष्ण की उपासिका मीरा ने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को पाने के लिए अपना राजसी वैभव त्याग दिया था। भरे-पूरे परिवार में जन्म लेकर भी अपने गिरधर नागर के चरणों में सजाने के लिए मीरा सदा आँसुओं की लड़ियाँ ही पिरोती रहीं।
जन्म परिचय-
श्रीकृष्ण की अनन्य उपासिका मीराबाई का जन्म सन् 1498 ई. (संवत् 1555 विक्रमी) के लगभग राजस्थान में मेड़ता के पास चौकड़ी ग्राम में हुआ था। इनके पिता जोधपुर के राजा रत्नसिंह थे। बचपन में ही इनकी माता का निधन हो गया था। मीराबाई राव जोधाजी की प्रपौत्री एवं राव दूदाजी की पौत्री थी। अत: इनके दादा जी राव दूदाजी ने ही इनका पालन-पोषण किया था। दादाजी की धार्मिक प्रवृत्ति का प्रभाव इन पर पूरा पड़ा। तभी से मीराबाई के हृदय में कृष्ण-प्रेम उत्पन्न हो गया। आठ वर्ष की मीरा ने कब श्रीकृष्ण को पति के रूप में स्वीकार लिया, यह बात कोई न जान सका।
मीराबाई का विवाह-
मीराबाई का विवाह चित्तौड़ के महाराणा राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। इनका वैवाहिक जीवन सुखमय नहीं रहा। विवाह के कुछ समय बाद मीराबाई विधवा हो गई। इसके बाद इनके ससुर भी पंचतत्वों में विलीन हो गए। पति की मृत्यु के बाद उन्हें पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया। किंतु मीरा इसके लिए तैयार नहीं हुई। वे संसार की ओर से विरक्त हो गईं।
पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्ण जी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घरवालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वे द्वारका और वृंदावन गईं। वे जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उनको देवियों जैसा प्यार और सम्मान देते थे।
मीराबाई की भक्ति-
मीरा की भक्ति में माधुर्य-भाव काफी हद तक पाया जाता है। वे अपने इष्टदेव कृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रूप में करती थीं। उनका मानना था कि इस संसार में कृष्ण के अलावा कोई पुरुष है ही नहीं। वे कृष्ण की अनन्य दीवानी थी।
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनी मूरति साँवरि सुरति, नैना बने बिसाल।।
अधर-सुधा-रस मुरली राजत, उर बैजंती-माल।
छुद्र घंटिका कटि-तट सोभित , नूपुर सबद रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भगत बछल गोपाल।।
मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं-
गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।
भक्ति में मीराबाई को लोक-लाज का भी ध्यान नहीं रहता था- वे तन्मय होकर नाचती थीं। कृष्ण के विषय में उन्होंने कहा हैं-
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बन्धु, आपनो न कोई।।
छाँड़ि दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई।
संतन ढिंग बैठि-बैठि, लोक लाज खोई।।
कृष्ण भक्ति के पद गाते हुए सन् 1546 ई. में मीराबाई प्रभु के श्री चरणों में विलीन हो गई।
साहित्यिक परिचय
मीरा बचपन से ही कृष्ण की भक्त थीं। गोपियों की भाँति मीरा माधुर्य भाव से कृष्ण की उपासना करती थीं। वे कृष्ण को ही अपना पति कहती थीं और लोक-लाज खोकर कृष्ण के प्रेम में लीन रहती थीं। बचपन से ही अपना अधिक समय संत-महात्माओं के सत्संग में व्यतीत करती थीं। मन्दिर में जाकर अपने आराध्य की प्रतिमा के समक्ष मीराबाई आनन्द विहल होकर नृत्य करती थीं। उनका इस प्रकार का व्यवहार उदयपुर की राजमर्यादा के प्रतिकूल था; अत: परिवार के लोग उनसे रुष्ट रहते थे।
रचनाएँ एंव कृतियाँ –
मीराबाई ने गीतिकाव्य की रचना की है। उनकी प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं-
(अ) गीत गोविंद की टीका
(ब) राग सोरठा के पद
(स) राग गोविंद
(द) नरसी जी का मायरा
(य) राग विहाग एवं फुटकर पद
(र) गरबा गीत
(ला) मीराबाई की मल्हार
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