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पुनर्विलोकन का अर्थ, पुनर्विलोकन का आवेदन, आधार, प्रक्रिया | Meaning of Review in Hindi

पुनर्विलोकन का अर्थ
पुनर्विलोकन का अर्थ

पुनर्विलोकन का अर्थ (Meaning of Review) 

पुनर्विलोकन का अभिप्राय किसी ऐसे न्यायालय द्वारा जिसने कोई निर्णय, डिक्री या आदेश पारित किया है एवं ऐसे निर्णय डिक्री एवं आदेश में विधि या तथ्य या प्रक्रिया सम्बन्धी कोई त्रुटि रह गयी है उस पर पुनः विचार करके उस त्रुटि को दूर करता है। अतः पुनर्विलोकन वही न्यायालय करता है जिसने निर्णय, डिक्री या आदेश पारित किया है।

संहिता की धारा 114 में पुनर्विलोकन के सारभूत अधिकार और आदेश 47 में तत्सम्बन्धी प्रक्रिया का उपबन्ध किया गया है। पुनर्विलोकन के अन्तर्गत वही न्यायालय जिसने निर्णय दिया अपने निर्णय पर पुनः विचार करता है।

इस तरह यह धारा उन सामान्य नियम (आदेश 20 नियम 3) का अपवाद है जो यह प्रावधानित करती है कि निर्णय हस्ताक्षरित और सुनाए जाने के पश्चात न्यायालय धारा 152 में उपबन्धित प्रावधानों के सिवाय इस निर्णय में न तो कोई परिवर्तन करेगी और न कोई परिवर्तन करेगी।

उच्च न्यायालय पुनर्विलोकन की याचिका को इस आधार पर नहीं खारिज कर सकता कि वह पोषणीय नहीं है क्योंकि उसके निर्णय के विरुद्ध अपोल के लिए विशेष अनुमति याचिका उच्चतम न्यायालय में दाखिल की गई है और लम्बित है। विधि का ऐसा सिद्धान्त एस०सी० ने कूपरचन्द बनाम गनेश चन्द्र नामक बाद में प्रतिपादित किया।

पुनर्विलोकन का आवेदन (Application of Review)

पुनर्विलोकन का उपाय विशेष परिस्थितियों में मांगा जाना चाहिए और इसके लिए आवेदन किया जाना चाहिये। वह व्यक्ति किसी डिक्री या आदेश –

(1) जिसकी अपील अनुज्ञात की गयी है परन्तु जिसकी अपील नहीं की गयी है।.

(2) जिसकी अपील अनुज्ञात नहीं की गयी है अथवा

(3) लघुवाद न्यायालय द्वारा किये गये निर्देश पर विनिश्चय से

अपने को व्यथित (दु:खी) समझता है वह पुनर्विलोकन का आवेदन कर सकता है। एक व्यथित व्यक्ति से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जिसको विधिक क्षति पहुँची है या जिसके विरुद्ध एक ऐसा निर्णय दिया गया है जिससे वह कुछ चीजों से गलत रूप से वंचित किया गया है या कुछ चीजें उसको देने से अस्वीकार कर दिया गया है या गलत रूप से उसके कुछ चीजों के स्वत्व या हक को प्रभावित करता है।

वह व्यक्ति जो डिक्री या आदेश का पक्षकार नहीं है, वह पुनर्विलोकन के लिए आवेदन नहीं कर सकता क्योंकि वह व्यथित व्यक्ति की श्रेणी में नहीं आता है। पुनर्विलोकन का आवेदन दिये जाने की एक पूर्व शर्त है कि वही अनुतोष प्राप्त करने के लिए आवेदन से पहले किसी वरिष्ठ न्यायालय में समावेदन नहीं दिया गया है या वरिष्ठ न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटाया गया है।

पुनर्विलोकन का आधार (Basis of Review)

 पुनर्विलोकन का आवेदन उन्हीं आधारों पर दिया जा सकता है जिन्हें बारा 114, आदेश 47 नियम (1) में उपबन्धित किया गया है। वे आधार निम्न हैं और उसमें मे किसी एक के आधार पर आवेदन किया जा सकता है। वे आधार है :

1. किसी नये और महत्वपूर्ण विषय या साक्ष्य का प्रकटीकरण- किसी नये महत्वपूर्ण विषय या साक्ष्य का प्रकटीकरण, पुनर्विलोकन का प्रथम आधार है। पनतु ऐसा विषय या साक्ष्य तमाम सम्यक तत्परता के पश्चात् भी, जिस समय डिक्री पारित की गयी थी या आदेश दिया गया था. आवेदन की जानकारी में नहीं था या उसके द्वारा पेश नहीं किया जा सकता था। साथ मार्ग ऐसा महत्वपूर्ण विषय या साक्ष्य-

(अ) सुसंगत होना चाहिये, एवं

(ब) उस प्रकृति का होना चाहिये कि यदि वह वाद में पेश किया गया होता तो इस बात की सम्भावना थी कि निर्णय परिवर्तित हो गया होता।

ध्यान रहे यह केवल किसी नये और महत्वपूर्ण साक्ष्य का प्रकटीकरण नहीं हैं, जो किसी पक्षकार पुनर्विलोकन का अधिकार प्रदान करता है, बल्कि एक ऐसे नये और महत्वपूर्ण साक्ष्य की खोज हैं, जो उस समय (जिस समय डिक्री पारित की गयी थी या आदेश दिया गया था) आवेदक की जानकारी में नहीं था और उसे उपरोक्त दोनों शर्तों को भी पूरा करना चाहिये।

अनवधानता के कारण (through inadvertence) दिया गया निर्णय पुनर्विलोकन का आधार नहीं हो सकता। निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये तथ्य सम्बन्धी प्रश्न पर नये साक्ष्य का प्रकटीकरण यद्यपि प्रथम अपीलीय न्यायालय की डिक्री के पुनर्विलोकन के लिये अच्छा आधार है परन्तु द्वितीय अपीलीय न्यायालय के डिक्री के पुनर्विलोकन के लिये कोई आधार नहीं है।

सामान्यतया जब एक बार निर्णय कर दिया गया तो डिक्रीदार को या उस व्यक्ति को जिसके पक्ष में ऐसा निर्णय किया गया है उस निर्णय के लाभ से बिना किसी ठोस आधार से वचित नहीं किया जाना चाहिये। अतः जहाँ नये और महत्वपूर्ण विषय या साक्ष्य के प्रकटीकरण के आधार पर पुनर्विलोकन की माँग की गयी है, वहाँ न्यायालय को पुनर्विलोकन की अनुमति प्रदान करने में पूरी सावधानी बरतनी चाहिये।

उदाहरण- (i) जहाँ दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन (restitution of conjugal nigh) की डिकी पारित की गयी है और बाद में यह पता चला कि पक्षकार चचर भाई बहन थे. अतः डिक्री अकृत और शून्य (null and void) है, वहाँ पुनर्विलोकन का आवेदन स्वीकार किया गया।

(ii) जहाँ न्यायालय ने एक गवाह के बयान के लिये (जो पाकिस्तान में रहता था) एक कमीशन जारी किया और बाद में उसे (न्यायालय को) यह बताया गया कि ऐसा करने के लिये पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में कोई पारस्परिक प्रावधान नहीं है, वहाँ न्यायालय ने अपने पूर्व निर्णय का पुनर्विलोकन किया। पुनर्विलोकन करते समय न्यायालय पश्चातूवर्ती घटनाओं पर विचार कर सकता है।

2. ऐसी भूल या त्रुटि जो अभिलेख के सकृत दर्शने (देखने से ही) प्रकट है- अभिलेख के देखने से ही प्रकट होने वाली विधि, तथ्य तथा प्रक्रिया सम्बन्धी कोई भूल या त्रुटि पुनर्विलोकन का दूसरा आधार है। भूल ऐसी होनी चाहिये जो किसी दूसरे मामले का हवाला दिये बिना अभिलेख का मात्र पढ़ने से ही देखी जा सकती है।

यथा जहाँ किसी कानूनी स्थिति को सुप्रसिद्ध प्रमाण द्वारा स्थापित कर दिया गया है, लेकिन न्यायाधीश उसे देखने में भूल से विफल हो गया है, ऐसी भूल होगी जो अभिलेख के सकृत दर्शने स्पष्ट है। भूल या त्रुटि ऐसी अभिलेख के देखने मात्र से ही प्रकट है नहीं माना जा सकता, जहाँ यह निर्धारित करने के लिये निर्णय सही है या नहीं अभिलेख से परे छानबीन करना पड़े।

“भूल या गलती जो अभिलेख के देखने से ही प्रकट होती है” से तात्पर्य ऐसी गलती से है जिस पर अभिलेख देखने से ही ध्यान आकर्षित होता है और जहाँ किसी बिन्दु पर दो विचार हो सकते हैं, तर्कों के किसी लम्बी खिंची प्रक्रिया (long drawn process) की अवधारणा नहीं होती, या जिसका पता लगाने के लिये तर्कणा की प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं पड़ती।

उदाहरण- निम्न परिस्थितियों में पुनर्विलोकन स्वीकार किया गया |

1. वाद के तथ्यों पर परिसीमा अधिनियम लागू करने में न्यायालय द्वारा असफलता।

2. किसी निर्णय का सुनाना बिना इस तथ्य पर विचार किये कि विधि को भूतलक्षी प्रभाव से संशोधित कर दिया गया है।

3. किसी अधिनियम की किसी धारा या उसके एक भाग पर विचार करने में न्यायालय की असफलता।

4. न्यायालय द्वारा किसी सारवान् विवाद्यक पर विचारण की भूल के आधार पर ।

5. जहाँ पक्षकारों को सूचना के अभाव में निर्णय किया गया है।

6. जहाँ अधिकारिता का अभाव अभिलेख से प्रकट है।

7. उच्चतम न्यायालय के द्वारा प्रतिपादित विधि के विपरीत मत प्रकट करना।

8. न्यायालय या वकील द्वारा विधि या तथ्य की गलत धारणा।

9. सुसंगत दस्तावेजों पर विचार न करना।

3. कोई अन्य पर्यापत कारण – कोई अन्य पर्याप्त कारण, पुनर्विलोकन का तृतीय और अन्तिम आधार हैं। किसी अन्य कारण पद से तात्पर्य किसी ऐसे कारण से हैं जो नियम में विनिर्दिष्ट कारण के कम से कम समकक्ष हों। दूसरे शब्दों में जो उन कारणों के समान हैं जो विषय-विन्दु (point) (1) एवं (2) में उल्लिखित है यथा नये और महत्वपूर्ण विषय या साक्ष्य का पता चलना या जो अभिलेख के सकृत दर्शने (देखने से ही) स्पष्ट है।

उच्चतम न्यायालय ने फेडरल कोर्ट एवं प्रीवी कौन्सिल के निर्णयों को ध्यान में रखते हुये एम० कैथोलिक्स बनाम एम० पी० अवनासियस नामक बाद में अभिनिर्धारित किया है कि ‘अन्य पर्याप्त कारण’ पद से तात्पर्य पर्याप्त आधारों पर एक तर्क (या कारण) जो कम से कम उनके सदृश हो जो नियम में विनिर्दिष्ट है, से है।

उदाहरण- निम्नलिखित को पुनर्विलोकन के लिये पर्याप्त कारण माना गया है-

1. जहाँ निर्णय (judgement) में कथन (statement) सत्य नहीं है।

2. जहाँ पक्षकार को मामले की पर्यापत सूचना नहीं थी या उसे साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिये पर्यापत अवसर नहीं प्राप्त हुआ।

पुनर्विलोकन की प्रक्रिया (procedure of review)

जब पुनर्विलोकन का आवेदन स्वीकार लिया जाता है तो उसकी सूचना विरोधी पक्षकार का दिया जायेगा और ऐसे आवेदन पर मर ाई होगी। जहाँ न्यायालय को ऐसा प्रतीत होता है कि पुनर्विलोकन के लिये पर्याप्त आधार नहीं है. वहाँ वह आवेदन को नामंजूर कर देगा. अन्यथा आवेदन को मंजूर कर देगा। जहाँ आवेदन को दूर कर दिया गया है वहाँ न्यायालय मामले की पुनः सुनवाई तुरन्त करेगा या ऐसा करने के लिये दिन निश्चित कर देगा। सुनवाई के पश्चात् न्यायालय जैसा उचित समझेगा, डिक्री पारित कर सकेगा।

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