डिक्री के अन्तरण पर संक्षिप्त लेख –सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 38 इस बात का प्रावधान करती है कि डिक्री या तो उस न्यायालय द्वारा निष्पादित की जायेगी जिसने डिक्री पारित किया है या उस न्यायालय द्वारा जिसे डिक्री निष्पादन के लिये भेजी जायेगी, परन्तु ऐसा न्यायालय सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय होना चाहिये। धारा 39 इस बात को उपबन्धित करती है कि जिन परिस्थितियों में डिक्री दूसरे न्यायालय में निष्पादन के लिये भेजी जायेगी।
सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय कौन है ?
इसके लिये धारा 39 (3) के प्रावधान देखें। परन्तु उत्तर प्रदेश ने धारा 39 (3) में परिवर्तन किया है। परिवर्तित उपबन्धों के अनुसार इस धारा के प्रयोजन के लिये एक न्यायालय को सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय माना जायेगा यदि वाद जिसमें डिक्री पारित की गई है में का धन या विषय-वस्तु का मूल्य (मालियत) डिक्री के अन्तरण के लिये आवेदन दिये जाने के समय इसकी सामान्य अधिकारिता की धन सम्बन्धी सीमा यदि कोई हो, से अधिक न हो, इस बात के होते हुये भी कि अन्यथा इसे वाद के विचारण की अधिकारिता नहीं है।
हम उन परिस्थितियों का विवेचन करें जिसमें डिक्री दूसरे न्यायालय को निष्पादन के लिये भेजी जायेगी इससे पहले यह जान लेना आवश्यक होगा कि डिक्री-
(1) उसी अवस्था में अन्तरण की जा सकती है जब डिक्रीदार को ऐसे अन्तरण के लिए विधिक अधिकार प्राप्त होन कि साम्यिक, और
(2) धारा के प्रावधान आदेशात्मक (mandatory) नहीं है। डिक्री का अन्तरण न्यायालय के स्वविवेक पर आधारित है। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि इस धारा के अन्तर्गत किसी लम्बित निष्पादन की कार्यवाही का अन्तरण नहीं किया जा सकता है। डिक्री स्वयं का अन्तरण दूसरे न्यायालय को किया जाना चाहिये।
निष्पादन के लिए डिक्री का अन्य न्यायालय को भेजा जाना
डिक्री पारित. करने वाला न्यायालय डिक्रीदार के आवेदन पर डिक्री को अन्य सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय को भेज सकेगा (1) यदि वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध डिक्री पारित की गई है, ऐसे न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर-
(क) वास्तव में और स्वेच्छा से निवास करता है, या
(ख) कारबार करता है या
(ग) अभिलाभ के लिये स्वयं काम करता है अथवा
(2) यदि ऐसे व्यक्ति की सम्पत्ति जो ऐसी डिक्री की तुष्टि के लिये पर्यापत हो, डिक्री पारित करने वाले न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर नहीं है, और ऐसे अन्य न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर है; अथवा
(3) जहाँ डिक्री ऐसी किसी अचल सम्पत्ति के विक्रय अथवा परिदान का निर्देश देती है जो डिक्री पारित करने वाले न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं के बाहर स्थित है; अथवा
(4) जहाँ डिक्री पारित करने वाला न्यायालय किसी अन्य कारण से जिसे वह लेखबद्ध करेगा, यह विचार करता है कि डिक्री का निष्पादन ऐसे अन्य न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिये।
डिक्री बिना डिक्रीदार के आवेदन के भी अन्य न्यायालय निष्पादन के लिये भेजी जा सकती है। डिक्री पारित करने वाला न्यायालय उसे स्वप्रेरणा से सक्षम अधिकारिता वाले किसी भी अधीनस्थ न्यायालय को निष्पादन के लिये भेज सकता है। यहाँ स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय किसे माना जायेगा।
इस बारा के प्रयोजन के लिये उस न्यायालय को सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय समझा जायेगा, जो डिक्री के अन्तरण के लिए आवेदन करने के समय उस वाद के विचारण करने की अधिकारिता रखता हो जिसमें ऐसी डिक्री पारित की गई थी।
एक साथ निष्पादन (Simultaneous execution) –
संहिता में कोई ऐसा प्रावधान नहीं है कि एक डिक्री का एक साथ एक से अधिक न्यायालयों में निष्पादन नहीं किया जा सकता है। किन्तु ऐसे अधिकार का प्रयोग बहुत ही कम परिस्थितियों में किया जाना चाहिये और वह भी डिक्रीदार पर ऐसी शर्त लगाकर कि सभी कुर्कियों में सम्पत्ति की बिक्री एक साथ न करें। एक डिक्री का निष्पादन उसी सम्पत्ति के विरुद्ध एक से अधिक न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
अन्तरण का आवेदन एक डिक्री के निष्पादन हेतु अन्तरण के लिए आवेदन को निष्पादन का आवेदन (धारा 51 आदेश 21, नियम 2, दीवानी प्रक्रिया संहिता के अधीन) नहीं माना जायेगा। ऐसे आवेदन के लिए कोई निश्चित प्रारूप नहीं है। आवेदन से स्पष्ट रूप से यह विदित हो चाहिये कि आवेदन डिक्री का अन्तरण निष्पादन हेतु चाहता है।
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