निदेशात्मक परामर्श का अर्थ (Meaning of Directive Counselling)
निदेशात्मक परामर्श को कुछ अन्य नामों से भी सम्बोधित किया जाता है, वे नाम हैं-
(1) परामर्शदाता केन्द्रित परामर्श (Counsellor-centred Counselling),
(2) नियोजन परामर्श (Prescriptive Counselling) एवं
(3) निर्देशीय परामर्श (Directive Counselling)।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है यह परामर्श परामर्शदाता केन्द्रित होता है अर्थात् इस परामर्श में परामर्शदाता को अधिक महत्त्व दिया जाता है एवं परामर्श प्राप्तकर्ता / प्रार्थी का स्थान गौण होता है। इसमें परामर्शदाता अपना ध्यान समस्या पर अधिक रखता है व्यक्ति पर नहीं। इस प्रक्रिया में पहले से निर्धारित की गई योजना के अनुसार समस्या की व्याख्या विभिन्न पक्षों को ध्यान में रख कर की जाती है। निदेशात्मक परामर्श के मुख्य प्रवर्तक मिनिसाहा विश्वविद्यालय के ई.जी. विलियमसन को माना जाता हैं। इस परामर्श के अन्तर्गत परामर्श का मुख्य उत्तरदायित्व विशेष रूप से प्रशिक्षित परामर्शदाता पर होता है। परामर्श देने से पूर्व वह परामर्श प्राप्तकर्ता / प्रार्थी के साथ मैत्रीपूर्ण मधुर सम्बन्ध स्थापित करता है। इस परामर्श में परामर्शदाता सक्रिय भूमिका में रहता है एवं प्रायः वह स्वयं की भावनाओं एवं दृष्टिकोण को स्वतन्त्र रूप से अभिव्यक्त करता है। इसमें परामर्शदाता द्वारा प्रमापीकृत प्रश्नों की एक श्रृंखला पूछी जाती है जिनके उत्तर संक्षिप्त होते हैं। परामर्श प्राप्तकर्त्ता / प्रार्थी को अपनी भावनाएँ व्यक्त करने की अनुमति नहीं होती है। उदासीन रूप से सेवार्थी अपनी भूमिका का निर्वहन करता है। एक विशेषज्ञ के तौर पर परामर्शदाता नेतृत्व करता है एवं मूल्यांकन कर स्वयं ही सुझाव देता है। परामर्श की इस समस्त प्रक्रिया के अन्तर्गत वह एक धुरी के रूप में क्रियाशील रहता है। वह स्वयं ही सेवार्थी की समस्या विचार-विमर्श द्वारा ज्ञात करता है एवं पूर्णरूप से स्वयं ही दिशा-निर्देशन प्रदान करता है।
निदेशात्मक परामर्श की विशेषताएँ (Characteristics of Directive Counselling)
निदेशात्मक परामर्श की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) इस परामर्श की प्रक्रिया में परामर्शदाता मुख्य होता है एवं वह सक्रिय भूमिका निभाता है।
(2) इस परामर्श की प्रक्रिया में प्रार्थी / परामर्श प्राप्तकर्ता / व्यक्ति की समस्या केन्द्र बिन्दु होती है न कि प्रार्थी / परामर्श प्राप्तकर्ता / व्यक्ति।
(3) प्रार्थी/परामर्श प्राप्तकर्ता को परामर्शदाता द्वारा आवश्यक सूचनाएँ प्रदान की जाती हैं। परामर्शदाता प्रार्थी/परामर्श प्राप्तकर्ता की परिस्थिति का वस्तुनिष्ठ वर्णन एवं व्याख्या करता है तथा उसे विवेकपूर्ण उचित परामर्श प्रदान करता है।
(4) परामर्श की इस प्रक्रिया में परामर्श प्राप्तकर्ता / प्रार्थी / सेवार्थी के बौद्धिक पक्ष की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है तथा उसके भावात्मक एवं संवेगात्मक पक्ष की ओर कम।
(5) इस परामर्श के अन्तर्गत परामर्श प्राप्तकर्ता / सेवार्थी / प्रार्थी को परामर्शदाता के निर्देशों के अनुसार ही कार्य करना होता है। उसका कार्य केवल परामर्शदाता के कार्य में मात्र सहयोग देना है।
(6) चूँकि परामर्शदाता योग्य अनुभवी एवं प्रशिक्षित व्यक्ति होता है इसलिए समस्या समाधान के सम्बन्ध में वह उपयुक्त सुझाव दे सकता है।
निदेशात्मक परामर्श के उद्देश्य (Objectives of Directive Counselling)
निदेशात्मक परामर्श के उददेश्य निम्नलिखित हैं-
(1) व्यक्तिगत रूप से समस्याएँ हल करना।
(2) मित्रवत व्यवहार के द्वारा प्रार्थी की समस्याओं को हल करना।
(3) समस्या समाधान के सम्बन्ध में उचित सुझाव देना।
(4) छात्रों को परामर्श एवं उपचार प्रदान करना।
(5) समस्या का पूर्वानुमान लगाना।
निदेशात्मक परामर्श प्रक्रिया के सोपान / चरण (Steps of Directive Counselling Process)
निदेशात्मक परामर्श की प्रक्रिया में परामर्शदाता की केन्द्रीय भूमिका होती है। विलियमसन एवं डार्ले (Williamson and Darley) ने अपनी पुस्तक ‘Student Personal Work’ में निदेशात्मक परामर्श की प्रक्रिया के निम्नलिखित पाँच सोपानों/ चरणों का उल्लेख किया है-
(1) विभिन्न विधियों एवं उपकरणों के द्वारा सूचनाएँ / आँकड़े इकट्ठा कर उनका विश्लेषण करना ( Analysis)|
(2) आँकड़ों / सूचनाओं का यान्त्रिक (Mechanical) एवं आकृतीय (Graphical) संगठन कर उसका संश्लेषण करना (Synthesis)|
(3) छात्र की समस्या के कारणों को ज्ञात कर उनका समाधान जानना।
(4) परामर्श अथवा उपचार।
(5) मूल्यांकन अथवा अनुगमन (Follow-up)
इसके आधार पर निदेशात्मक परामर्श के निम्नलिखित पाँच सोपान हैं-
(1) विश्लेषण (Analysis) – निदेशात्मक परामर्श प्रक्रिया का यह पहला सोपान है। इसके अन्तर्गत परामर्श प्राप्तकर्ता/ प्रार्थी / सेवार्थी के विषय में संचित अभिलेख, साक्षात्कार, आत्मकथा, मनोवैज्ञानिक परीक्षण, प्रश्नावली, समय विभाजन फार्म आदि के द्वारा सही सूचनाएँ एवं आँकड़े एकत्रित किए जाते हैं। इन्हीं एकत्रित सूचनाओं एवं आँकड़ों को एक सत्य एवं विश्वसनीय आधार के रूप में परामर्श प्रक्रिया में प्रयुक्त किया जाता है।
(2) संश्लेषण (Synthesis) – निदेशात्मक परामर्श का दूसरा सोपान संश्लेषण है। संश्लेषण के अन्तर्गत विश्लेषण से प्राप्त आँकड़ों का इस प्रकार से संक्षिप्तीकरण एवं संगठन किया जाता है जिससे परामर्श प्राप्तकर्ता / विद्यार्थी / सेवार्थी/प्रार्थी के गुणों, न्यूनताओं, समायोजन और कुसमायोजन की स्थितियों के विषय में जानकारी प्राप्त हो सके।
(3) निदान (Diagnosis) – निदेशात्मक परामर्श का यह तीसरा सोपान है। निदान के अन्तर्गत प्रार्थी / सेवार्थी / परामर्श प्राप्तकर्ता द्वारा अभिव्यक्त समस्या के रूप में दिए गए आँकड़ों की व्याख्या करना शामिल है जो कि उसकी विशेषताओं, शक्तियों, दायित्वों, दुर्बलताओं आदि को दर्शाता है। इस सोपान के अन्तर्गत मुख्य रूप से तीन कार्य होते हैं-
(i) समस्या की पहचान करना।
(ii) समस्या के कारणों को जानना
(iii) पूर्व अनुमान
इसके अन्तर्गत समस्या के सम्बन्ध में भविष्यवाणी की जाती है। यह उपलब्धि विशिष्ट सूचनाओं पर निर्भर करता है। कभी-कभी इसे अलग सोपान के रूप में भी दर्शाया जाता है।
(4) परामर्श या उपचार (Counselling or Treatment) – निदेशात्मक परामर्श का यह चौथा और अति महत्त्वपूर्ण चरण है। इस सोपान के अन्तर्गत सेवार्थी/ प्रार्थी / परामर्श प्राप्तकर्ता को परामर्शदाता द्वारा समस्या के हल सम्बन्धी सुझाव दिए जाते हैं। समस्या का उपयुक्त समाधान प्राप्त करने में सुझावों के माध्यम से प्रार्थी में सक्षमता विकसित की जाती है। परामर्शदाता केवल सुझाव या सलाह देता है। परामर्श प्राप्तकर्ता / प्राथी अपने विवेक से उन्हें स्वीकार या अस्वीकार करता है। परामर्शदाता प्रार्थी के समायोजन हेतु एवं पुनः सामंजस्य के विषय में वां छनीय कदम उठाता है। इसमें अनेक प्रश्नों के उत्तर दिए जाते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर प्रार्थी अपने लिए स्वयं देता है।
(5) मूल्यांकन या अनुगमन (Evaluation or Follow-up) – यह सोपान निदेशात्मक परामर्श की प्रक्रिया का अन्तिम सोपान है। इस सोपान के अन्तर्गत परामर्श प्रक्रिया की प्रभावशीलता एवं सफलता का मूल्यांकन किया जाता है और यह देखा जाता है कि परामर्श के द्वारा प्रार्थी / सेवार्थी / परामर्श प्राप्तकर्ता की क्या-क्या उपलब्धियाँ रहीं।
निदेशात्मक परामर्श की मूलभूत अवधारणाएँ (Basic Assumptions of Directive Counselling)
विली एवं एन्ड्रयू (Willy and Andrew) महोदय ने अपनी पुस्तक ‘Modern Methods and Techniques in Guidance’ में निदेशात्मक परामर्श के लिए निम्न चार अवधारणाओं का उल्लेख किया है-
(1) परामर्श एक बौद्धिक प्रक्रिया है- परामर्श की प्रक्रिया एक बौद्धिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति/ प्रार्थी के भावात्मक एवं संवेगात्मक पक्ष के स्थान पर उसके बौद्धिक पक्ष पर अधिक बल दिया जाता है।
(2) परामर्शदाता सुझाव देने में सक्षम- परामर्शदाता विशिष्ट रूप से प्रशिक्षण प्राप्त, अनुभवी, योग्य एवं ज्ञानी व्यक्ति होता है और उसके पास प्रार्थी / सेवार्थी / परामर्श प्राप्तकर्ता के विषय में सम्पूर्ण सूचनाएँ होती हैं। वह प्रार्थी की समस्या के सन्दर्भ में उसे उपयुक्त समाधान या सुझाव देने में अधिक सक्षम होता है।
(3) प्रार्थी की समस्या समाधान में अक्षमता – सामान्यतः परामर्श प्रक्रिया का यह मानना है कि प्रार्थी सदैव अपनी प्रत्येक समस्या के समाधान की योग्यता नहीं रखता। इस प्रकार के परामर्श में प्रार्थी की समस्या पर अधिक ध्यान दिया जाता है। परामर्शदाता के कार्य में सहयोग देना मात्र ही प्रार्थी का कार्य है।
(4) परामर्श के उद्देश्य समस्या समाधान की अवस्था द्वारा निर्धारित परामर्श के उद्देश्य समस्या समाधान की अवस्था द्वारा निर्धारित किए जाते हैं।
विलियमसन महोदय ने भी परामर्श की कुछ मूलभूत धारणाओं का उल्लेख किया है जो निम्नलिखित हैं-
(1) परामर्श सेवा व्यक्ति की विशेषता को स्वीकार करती है।
(2) परामर्श सेवा में आपसी सम्बन्ध निष्पक्ष होते हैं।
(3) परामर्श सेवा सेवार्थी की गरिमा / मर्यादा का सम्मान करती है।
(4) परामर्श सेवा की प्रक्रिया उपचारात्मक होती है।
(5) परामर्श सेवा तभी प्रदान की जानी चाहिए जब व्यक्ति / सेवार्थी समस्याग्रस्त हो और वह स्वयं अपनी समस्या का समाधान प्राप्त करने में सक्षम न हो।
(6) परामर्श सेवा सेवार्थी की वांछनीयता पर आधारित है। यह सेवार्थी पर थोपी नहीं जा सकती है।
निदेशात्मक परामर्श में परामर्शदाता की भूमिका (Role of Counsellor in Directive Counselling)
परामर्शदाता परामर्श प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परामर्शदाता इस प्रक्रिया की धुरी तथा स्थिति का लीडर होता है। परामर्शदाता अधिकतर समस्याओं के बारे में बात करते हैं तथा व्यक्ति को वरीयता नहीं देते हैं। वास्तव में, प्रार्थी, परामर्शदाता के अनुसार काम करता है न की उसके साथ परामर्शदाता प्रार्थी की सोच को सूचना, व्याख्या, सुझाव तथा अनुवाद के द्वारा निर्देशित करता है।
परामर्शदाता प्रार्थी के बारे में सभी सम्भावित सूचनाएं एकत्र करता है तथा पर्याप्त समझ के लिए उनको विश्लेषित करता है। वह आँकड़ों को ऐसे संक्षिप्त तथा संयोजित करता है जिससे प्रार्थी की सीमाओं, क्षमताओं, समायोजन तथा कुसमायोजन को समझ सके। परामर्शदाता समस्या की प्रकृति तथा कारणों के बारे में निष्कर्ष बनाता है। वह प्रार्थी की समस्या के विकास के परिणाम घोषित करता है। परामर्शदाता प्रार्थी को उसकी समस्या के समाधान के सुझाव देता है तथा उसके सुझावों के परिणाम का पालन को कहता है। अतः निर्देशक परामर्श को आदेशात्मक परामर्श (Prescriptive Counselling) भी कहते हैं क्योंकि इसमें परामर्शदाता समस्या के समाधान हेतु आज्ञा या सुझाव देता है।
निदेशात्मक परामर्श के शैक्षिक निहितार्थ (Educational Implication of Directive Counselling)
निदेशात्मक परामर्श के शैक्षिक निहितार्थ निम्नलिखित हैं-
(1) परामर्शदाता के मृदु व्यवहार से प्रार्थी अपनी समस्त समस्याओं को स्पष्ट रूप से बताने में समर्थ होता है।
(2) परामर्शदाता छात्र के व्यक्तिगत, शैक्षिक एवं सामाजिक समस्याओं का विश्लेषण कर उचित सलाह प्रदान करता है।
(3) यह छात्रों को उनके अधिगम परिणामों में वृद्धि करने में सहायता प्रदान करता है।
(4) छात्रों को अध्ययन में संलग्न रहने के लिए प्रेरित करता है।
(5) इसके द्वारा छात्रों को गलत कार्य, असामाजिक तत्त्वों में संलिप्तता से बचाया जा सकता है।
निदेशात्मक परामर्श के लाभ (Advantages of Directive Counselling)
निदेशात्मक परामर्श के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) निदेशात्मक परामर्श में व्यक्ति / सेवार्थी की समस्या पर अधिक ध्यान दिया जाता है। व्यक्ति/ सेवार्थी की समस्या ही परामर्श का केन्द्र बिन्दु होती है न कि व्यक्ति / सेवार्थी
(2) परामर्शदाता व्यक्ति / सेवार्थी को आमने-सामने प्रत्यक्ष रूप से देख सकता है।
(3) क्योंकि इसमें सूचनाएँ / आँकड़ों को एकत्रित करने के लिए प्रमापीकृत प्रविधियों को उपयोग में लाया जाता है इसलिए इससे प्राप्त सूचनाएँ / आँकड़े अधिक विश्वसनीय एवं वैध होते हैं।
(4) प्राप्त आँकड़ों / सूचनाओं में वस्तुनिष्ठता होती है।
(5) इसमें परामर्शदाता सेवार्थी की सहायता हेतु आवश्यकतानुसार तुरन्त उपलब्ध होता है।
(6) समय की दृष्टि से परामर्श की यह प्रक्रिया उपयोगी है।
(7) इसमें परामर्शदाता सदैव सक्रिय रहता है।
निदेशात्मक परामर्श की सीमाएँ (Limitations of Directive Counselling)
निदेशात्मक परामर्श की निम्नलिखित सीमाएँ या कमियाँ हैं-
(1) इस परामर्श की प्रक्रिया के अन्तर्गत सेवार्थी का स्थान गौण है और उदासीन रूप से वह अपनी भूमिका का निर्वहन करता है।
(2) निदेशात्मक परामर्श के अन्तर्गत सेवार्थी स्वतन्त्र रूप से कभी भी कार्य नहीं कर सकता इस परिस्थिति में दिया गया परामर्श कभी उत्तम एवं प्रभावशाली नहीं हो सकता है।
(3) चूँकि सेवार्थी इस परामर्श प्रक्रिया में परामर्शदाता पर अधिक निर्भर होता है इसलिए वह कुसमायोजन की नई समस्याओं का समाधान करने में सक्षम नहीं हो पाता है।
(4) निदेशात्मक परामर्श में सब कुछ परामर्शदाता ही करता है इसलिए सेवार्थी में अन्तर्दृष्टि/सूझ (Insight) का विकास नहीं हो पाता है। वह सदैव अपनी समस्या के समाधान हेतु परामर्शदाता की ओर देखता है।
(5) समस्यात्मक व्यक्ति / सेवार्थी बिना सहायता के अपनी समस्या का समाधान नहीं कर सकता। इसलिए उसे अधिक योग्य, प्रशिक्षित एवं अनुभवी परामर्शदाता की आवश्कता होती है।
(6) चूँकि सेवार्थी को इसमें स्वयं को अभिव्यक्त करने का अवसर नहीं मिलता इसलिए उसके मन में संदेह एवं हिचकिचाहट बना रहता है।
(7) स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के अवसर न होने के कारण इस परामर्श प्रक्रिया में सेवार्थी कभी-कभी विश्वास नहीं करता और सही व्यक्तिगत सूचनाएँ नहीं देता जिससे गलत परामर्श सम्भव है।
(8) चूँकि इसमें सेवार्थी परामर्शदाता पर ही निर्भर करता है इसलिए परामर्शदाता उसे भविष्य में गलतियाँ करने से बचाने में असमर्थ रहता है।
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