भारतीय संविधान में समाज (Society in the Indian Constitution)
भारतीय संविधान में समाजवादी समाज की कल्पना की गई है। इसके अन्तर्गत भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग युवा, कृषक, अल्पसंख्यक, उच्च, निम्न, मध्यम, स्त्री एवं पुरूष इत्यादि सभी को एक साथ सहयोग करते हुए समन्वय पूर्वक आगे बढ़ने की अपेक्षा की गई है। इस सहयोग एवं समन्वय से ही देश का समग्र विकास किया जा सकता है।
सामाजिकता प्रत्येक समाज की विशिष्ट पहचान होती है । सभ्यता के आरम्भ से ही समाज हमारी व्यापक अवधारणा और व्यवस्था का अंग रहा है। यह व्यवस्था हमारे जीवन को एक प्रारूप तो देती ही है साथ ही हमारी आकांक्षाओं, अभिव्यक्तियों और आवश्यकताओं की पूर्ति कर हमें हमारी सम्पूर्ण संवेदनाओं के साथ गढ़ती भी है। जीवन को सुन्दर बनाने की मानवीय पहल किसी न किसी रूप में सभ्यता के प्रारम्भ से ही जारी है। जीवन को सुन्दर बनाने का उपक्रम मानवीय प्रवृत्ति है।
भारत में लोकतन्त्र की स्थापना एक महान क्रान्तिकारी परिवर्तन था और ऐसी न्यायिक व्यवस्था की आवश्यकता थी जिसमें न्याय प्राप्ति तो हो ही, इस महान क्रान्ति की रक्षा भी हो सके। लम्बे संघर्ष और बलिदान के बाद प्राप्त स्वतन्त्रता को बड़ा अर्थ देना महान नेताओं का सपना था। पं. जवाहर लाल नेहरू ने संविधान समिति के सामने प्रस्ताव रखा कि इस सभा का सर्वप्रमुख कार्य स्वतन्त्र भारत के लिए ऐसी संवैधानिक व्यवस्था का निर्माण होना चाहिए जिससे वंचितों को सम्पूर्ण भोजन और वस्त्र तो मिले ही साथ ही सभी भारतीयों को उन्नति के उत्कृष्ट अवसर भी प्राप्त हों….।
इस तरह सामाजिक न्याय भारतीय संविधान की आधारशिला है । यद्यपि सामाजिक न्याय को संविधान में कहीं परिभाषित नहीं किया गया है। फिर भी भारतीय संविधान का प्रमुख स्वर और अनुभूति सामाजिक न्याय ही है। यहाँ समाज और न्याय के प्रति लचीला रूख अपनाते हुए न्यायिक व्यवस्था को मुक्त रखा गया है ताकि सामाजिक परिस्थितियों, आयोजनों, संस्कृति समय तथा लक्ष्य के अनुरूप इसमें आवश्यक परिवर्तन किए जा सकें। बाबा साहेब डा. भीम राव अम्बेडकर ने अन्याय और शोषण के खिलाफ एक नैतिक सामाजिक व्यवस्था की मुहिम चलाई। उनका कहना था, “लोकतन्त्र को बनाए रखने के लिए संवैधानिक मूल्यों-अधिकारों का पालन करना होगा।”
भारतीय संविधान अपनी विधि और सम्प्रभुता का प्रतीक है। संविधान के मूलाधिकार, नीति-निर्देशक तत्व और अन्य सन्दर्भों में भारतीय लोकतन्त्र को मजबूती प्रदान करने का प्रयास किया गया है। संवैधानिक मूल्यों में जनहित का भी हित निहित है। वंचित सपनों के महामनीषी डॉ. भीमराव अम्बेडकर सामाजिक न्याय के इतिहास-पुरूष हैं, प्रेरणा पुंज हैं। विविध वर्णों वर्गों में बँटी भारतीय मानवता को कानून की मदद से संविधान के दायरे में लाने और सामाजिक न्याय की स्थापना का उनका प्रयास अतुलनीय है। ‘समाजवादी, ‘धर्मनिरपेक्ष’, ‘लोकतान्त्रिक’ और ‘गणतन्त्र’ जैसे शब्द इसी प्रयास के उदाहरण हैं
भारतीय संविधान अपनी संरचना-सुदृढ़ता और लोकतान्त्रिक मूल्यों के कारण निश्चित ही सर्वोत्कृष्ट है। सामाजिक एकता और न्याय से ओत-प्रोत संविधान के निर्माणकर्ताओं ने ‘सोशल वेलफेयर स्टेट’ (सामाजिक कल्याणकारी राज्य) की स्थापना को बल दिया, जिसकी मूल धारणा आय, पद और प्रतिष्ठा में असमानता को समाप्त करना है अर्थात् गैर बराबरी का निषेध इसके लिए आर्थिक समानता और आय के समान वितरण को प्रभावी प्रारूप दिया गया। अब जाति, रंग, समूह, धर्म, लिंग आदि के स्तरों पर हमें समान अधिकार प्राप्त हैं। संविधान में ‘न्याय’ शब्द का अर्थ सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक सुरक्षा से है। इसके अन्तर्गत समान अधिकारों की बात तो की ही गई है निम्न श्रेणी वाले वर्गों के उत्थान पर भी बल दिया गया है ताकि निम्न वर्ग एक समान स्तर की प्राप्ति तो कर ही ले। ‘समानता’ शब्द से तात्पर्य समान भावना से ही है जिसमें किसी खास वर्ग को उत्कृष्ट ठहराना गलत है तथा बिना किसी भेदभाव के समान अवसरों को प्रदान करना है। इस प्रकार सामाजिक न्याय के अन्तर्गत हमें निम्न अधिकारों की प्राप्ति होती है-
(1) कानून के समक्ष समानता ( अनुच्छेद-14)
(2) धर्म, जाति, वर्ग और लिंग जन्म-स्थान के आधार पर भेदभाव का बहिष्कार (अनुच्छेद-15)
(3) सार्वजनिक आयोजनों और रोजगारों में समानता का अवसर ( अनुच्छेद-16)
(4) अस्पृश्यता का अन्त ( अनुच्छेद-17)
(5) जाति-सूचक उपनाम का अन्त (अनुच्छेद-18)
मार्क्सवाद और गाँधी के विचारों का समग्र भारतीय संविधान सामाजिक न्याय की व्यवस्था, हक-हकूक तथा बराबरी को महत्व तो देता ही है एवं सभी तरह के शोषण के विरूद्ध भी न्याय प्राप्ति की व्यवस्था करता है। आधुनिक भारत के निर्माता पं. जवाहर लाल नेहरू के शब्दों में “हम संकीर्णता को बढ़ावा नहीं दे सकते क्योंकि वह देश महान नहीं बन सकता जिसके लोगों के विचार संकीर्ण हो।” इस तरह हमारी भी स्वतन्त्र होती जाती हैं और पूरा देश हमारा अपना घर बन जाता है। इस घर का कोना-कोना, कतरा-कतरा हमारा है। हम कहीं भी आ जा सकते हैं और अपनी हर बात रख सकते हैं। भारतीयता हमारी पहचान है। भारत हमारा समाज है और स्वतन्त्र अभिव्यक्तियाँ संविधान में हमारे लिए सामाजिक न्याय है। सामाजिक न्याय की यह प्रक्रिया हमें आपस में जोड़ती है। हम सभी मुख्यधारा का अंग बन जाते हैं। विभिन्न जातियों-जनजातियों का उत्थान सभी को एक प्लेटफार्म पर लाकर खड़ा कर देता है। हमारी गुणवत्ता, आदान-प्रदान, आवश्यकताएँ और चुनाव सामाजिकता के मददगार हाथ बन जाते हैं। विविधता में भी हमारी एकता सुदृढ़ होती जाती है।
सामाजिक न्याय के संवैधानिक प्रयास यहीं खत्म नहीं हो जाते। हमारी जरूरतों के हिसाब से सामाजिक लाभों के वितरण के लिए ढेरों योजनाएँ हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि के समान अवसर समाज निर्माण के आधार स्तम्भ हैं।
इस प्रकार भारतीय संविधान ने सामाजिक न्याय के माध्यम से एक स्वस्थ एवं समावेशी समाज के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत का प्रत्येक व्यक्ति संविधान की दृष्टि में समान है तथा देश एवं समाज के निर्माण में सभी का योगदान महत्वपूर्ण होता है। सभी के सहयोग एवं समन्वय से ही संविधान में परिकल्पित समाजवादी समाज के निर्माण के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
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