भारतीय संविधान की प्रस्तावना (Preamble of Indian Constitution)
प्रस्तावना किसी भी संविधान की आत्मा, कुंजी तथा मानदण्ड होती है जिसके आधार पर सम्पूर्ण संविधान का मूल्यांकन किया जाता है जो हमारे भारतीय संविधान की प्रस्तावना संविधान से जुड़ा हुआ एक श्रेष्ठ आभूषण है। यह भारत के सम्पूर्ण प्रजातान्त्रिक राज्य का संक्षिप्त रूप, किन्तु सारपूर्ण घोषणा पत्र है। वर्तमान में इसकी प्रस्तावना निम्न प्रकार है-
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है-
“हम भारत के वासी, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक न्याय दिलाने के लिए तथा विचार अभिव्यक्ति, धर्म एवं उपासना की स्वतंत्रता, विश्वास, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने हेतु दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनाँक 26 नवम्बर, 1949 (नीति) मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी सम्वत् 2006 विक्रमी) को एतद् द्वारा संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित तथा आत्मार्पित करते है।”
“We the people of India – having solemnly resolved to constitute India into a Sovereign, Democratic, Republic and to secure to all its citizens justice, social, economic and political, liberty of thought, expression, belief, faith and worship – equality of status and of opportunity, and to promote among them all fraternity assuring the dignity of the individual and the unity of Nation, in our constituent assembly, this 26 1949 to hereby adopt, enact and give to ourselves this constitution.”
संविधान की प्रस्तावना से यह स्पष्ट होता है कि वह भारतीयों में प्रेम, विश्वास, भाईचारा और समानता आदि की भावना विकसित करना चाहता है जो व्यक्ति के सम्मान तथा राष्ट्र की एकता व अखंडता की रक्षा के प्रति आश्वस्त करे। संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों का वर्णन अनुच्छेद 12 से 35 तक में किया गया है। 42वें संविधान के अन्तर्गत इसमें समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को जोड़ा गया है। ‘धर्मनिरपेक्ष’ से तात्पर्य यह है कि कोई राज्य किसी भी धर्म को प्राथमिकता नहीं प्रदान करेगा। समाजवादी से तात्पर्य यह है कि शासन सभी भारतीय नागरिकों के उत्तम जीवन के लिए समाजवादी नीति को आत्मसात् करे।
संविधान ने भारत को प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी व धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक गणराज्य घोषित किया है। प्रजातांत्रिक का अर्थ है, जनता द्वारा शासन अर्थात् शासन व्यवस्था जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाएगा। गणराज्य से तात्पर्य है, सर्वोच्च सत्ता उस व्यक्ति में सन्निहित होगी जो जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुना गया हो।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि हमारा संविधान ही मूल्यों का सबसे बड़ा स्रोत है। हमारे भारतीय संविधान में इन मूल्यों का मौलिक अधिकारों, मूल कर्तव्यों व नीति निदेशक सिद्धान्तों के रूप में भी वर्णन किया गया।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-
(1) हम भारत के लोग (We People of India) – प्रस्तावना के प्रारम्भिक शब्द हैं, ‘हम भारत के लोग। इन शब्दों का अर्थ है कि यह संविधान हम भारत के लोगों ने बनाया है। यह किसी बाहरी शक्ति के द्वारा हम पर लादा नहीं गया है। हमारा संविधान स्वयं हमारी ही कृति है।
(2) सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य (Total Sovereign Democratic Republic) – सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न’ का अर्थ है कि हमारा देश आन्तरिक एवं बाह्य नीति दोनों में पूर्णतया स्वतन्त्र है। किसी दूसरे राज्य को यह अधिकार नहीं है कि हमारे घरेलू अथवा वैदेशिक मामलों में कोई हस्तक्षेप करे। लोकतन्त्रात्मक शब्द का अर्थ है कि शासन की सर्वोच्च शक्ति लोक या जनता में निहित है, जनता ही सम्प्रभु है। गणराज्य शब्द से अभिप्राय यह है कि भारत का सर्वोच्च अधिकारी ‘राष्ट्रपति’ जनता द्वारा निर्वाचित है, वंश-परम्परा से आने वाला राजा या सम्राट नहीं है।
(3) सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय (Social, Economic and Political Justice)- भारतीय संविधान में न्याय के लिए मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत् स्पष्ट घोषणा की गयी है कि धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के साथ भेद नहीं किया जाएगा। आर्थिक न्याय के लिए भारत का प्रत्येक नागरिक अपने गुण व योग्यता के अनुसार काम पाने का अधिकारी होगा। राजनीतिक न्याय के लिए सभी लोगों को वोट देने का अधिकार होगा और कानून की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान माने जाएंगे।
(4) धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता (Freedom of Religion and Worship)- भारतीय संविधान के द्वारा प्रत्येक नागरिक को किसी भी धर्म अथवा पूजा पद्धति को अपनाने की स्वतन्त्रता होगी। हमारा संविधान सहिष्णुता के सिद्धान्त पर आधारित है। धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा।
(5) बन्धुत्व की भावना (Spirit of Brotherhood) – भारतीय संविधान सभी भारतवासियों में बन्धुत्व के भाव पैदा करने पर बल देता है जिससे राष्ट्र की एकता और अखण्डता अक्षुण्य रहे । देशद्रोह, पारस्परिक वैमनस्य जिन विचारों से फैलता हो, ऐसे विचारों के अतिरिक्त विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता भारतीय संविधान देता है।
(6) धर्मनिरपेक्षता (Secularism) – भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है जिसका अर्थ यह है कि भारत का कोई राजधर्म नहीं है। कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म को माने, राज्य को कोई आपत्ति नहीं होगी। राज्य न धार्मिक होगा, न अधार्मिक होगा और न धर्म विरोधी होगा बल्कि धार्मिक सिद्धान्तों और कार्यवाहियों से सर्वथा पृथक रहेगा और इस प्रकार धार्मिक मामलों में तटस्थ रहेगा।
(7) समाजवादी राज्य (Socialistic State) – भारतीय संविधान में समाजवादी राज्य की स्थापना की बात कही है जिसका अर्थ यह है कि समाजवाद के बिना राजनीतिक लोकतन्त्र का कोई अर्थ नहीं होता, इसलिए संविधान देशवासियों को समान आर्थिक अवसर प्रदान करेगा। भूमि, श्रम, पूँजी और संगठन जैसे उत्पादन के सभी साधनों पर राज्य का स्थायित्व होगा और इन कारकों के उपयोग से किसी व्यक्ति को निजी लाभ अर्जित करने का अवसर नहीं मिलेगा।
(8) अंगीकृत और अधिनियमित (Adopted and Enacted) – भारतीय संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत के नागरिक संविधान को अंगीकृत करते हैं। अतः भारत का कोई भी राज्य न तो संविधान को समाप्त कर सकता है. और न कोई उससे पृथक हो सकता है। संविधान की प्रस्तावना यह भी स्पष्ट कर देती है कि भारतीय संविधान अधिनियमित और लिखित है।
इस प्रकार संविधान की प्रस्तावना भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण अंग है। यह भारत में रहने वाले लोगों के विचारों और आदर्शों की रूपरेखा अंकित करती है, देश के सामाजिक दर्शन को प्रस्तुत करती है, संविधान के उद्देश्यों का बोध कराती है और संविधान का आधार दर्शाती है। यह संविधान की कुंजी है, संविधान की आत्मा है। एम. आर. पोलैण्ड ने ठीक ही कहा है, “यह (प्रस्तावना) संविधान का अंग नहीं है, परन्तु फिर भी संविधान के स्रोतों, आदर्शों, लक्ष्यों और राजनीतिक ढाँचे आदि की घोषणा करती हैं।”
शिक्षा पर प्रस्तावना का प्रभाव (Influence of Preamble on Education )
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सबसे महत्वपूर्ण कार्य हमारे सामने था एक ऐसे संविधान की रचना करना जिसके माध्यम से हम उन उद्देश्यों को प्राप्त कर सके जिसके लिए हमनें स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ी थी। यह एक कठिन कार्य था, संविधान बनाने के लिए जब संविधान सभा की बैठक 9 दिसम्बर सन् 1946 को हुई तो उसके सामने कई चुनौतियाँ थी। इन सबसे विचलित हुए बिना हमारे संविधान निर्माता अपने कर्तव्य पथ पर टिके रहे तथा 3 जून सन् 1947 के अधिनियम के पारित होने पर संविधान सभा एक सम्प्रभु निकाय बन गयी। अब यह भारत के लिए जैसे चाहे संविधान बना सकती थी। इस अनिश्चितता के बाद डॉ. अम्बेडकर की अध्यक्षता में गठित प्रारूप समिति के संविधान सभा में संविधान का प्रारूप प्रस्तुत किया गया। इस प्रारूप पर 8 महीने बहस हुई तथा इस दौरान इसमें अनेक संशोधन किए गए। संविधान सभा के 11 अधिवेशन हुए इस प्रकार संविधान सभा ने कुल मिलाकर 2 वर्ष 11 महीने, 18 दिन के अथक व निरन्तर परिश्रम के पश्चात् 26 नवम्बर सन् 1949 तक संविधान के निर्माण का कार्य पूरा किया तथा संविधान के कुछ उपबन्ध तो उसी दिन अर्थात् 26 नवम्बर 1949 को प्रवृत्त हो गए तथा शेष उपबन्ध 26 जनवरी 1950 को प्रवृत्त हुए जिसे संविधान के प्रवर्तन की तारीख माना जाता है।
कुछ संवैधानिक उपबन्धों का यहाँ हम वर्णन करेंगे जिनमें शिक्षा सम्बन्धी अधिकार दिए गए हैं जो निम्नलिखित हैं-
(1) बालकों के लिए निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा (अनुच्छेद (A)) (Free and Compulsory Education for Children) – पहले अनुच्छेद 45 में यह निर्देश था कि राज्य संविधान के प्रारम्भ से दस वर्ष की कालावधि के भीतर सब बालको को 14 वर्ष की अवस्था तक निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा देने का प्रयास करेगा लेकिन 86वाँ संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा अनुच्छेद 45 के स्थान पर एक नया अनुच्छेद रखा गया। यह अनुच्छेद यह उपबन्धित करता है, “कि राज्य 6 वर्ष की आयु के सभी बालको के पूर्व बाल्यकाल की देखरेख व शिक्षा के लिए अवसर प्रदान करने के लिए उपबन्ध करेगा” अनुच्छेद 45 में संशोधन की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि नए अनुच्छेद 21 (क) द्वारा 6 वर्ष से 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा को एक मूल अधिकार बना दिया गया क्योंकि 14 वर्ष तक के बच्चों को शिक्षा देने का अधिकार संवैधानिक अधिकार है लेकिन उच्च शिक्षा के मामले में यह अधिकार राज्य की आर्थिक क्षमता पर निर्भर करेगा।
(2) भाषा, लिपि और संस्कृति बनाए रखने का अधिकार (अनुच्छेद 29 (1)) (Right to Conserve Language, Script or Culture) अनुच्छेद 29 (1) भारत क्षेत्र में रहने वाले नागरिको के किसी भी वर्ग को जिनकी अपनी विशेष लिपि या संस्कृति है। उसे बनाए रखने का अधिकार प्रदान करता है। इस का उद्देश्य अल्पसंख्यकों के हितो की रक्षा करना है। अनुच्छेद 29 का शीर्षक “अल्पसंख्यको के हितो का संरक्षण है। इससे यह पता चलता है कि इसका संरक्षण केवल अल्पसंख्यकों के लिए हैं परन्तु उच्चतम न्यायालय गुजरात ने एक कार्यवाही के दौरान निर्णय लिया कि नागरिकों के किसी भी विभाग में अल्संख्यक व बहुसंख्यक दोनों ही आ जाते है। पहले संविधान में अल्पसंख्यक शब्द प्रयोग किया गया लेकिन बाद में अल्पसंख्यक की जगह नागरिकों के किसी विभाग” शब्द प्रयोग किए गए थे। डॉ. अम्बेडकर के अनुसार ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि अनुच्छेद केवल संकीर्ण अर्थ में ही अल्पसंख्यको को ही संरक्षण नहीं प्रदान करता बल्कि व्यापक अर्थ में इसका उद्देश्य “अल्पसंख्यकों को संरक्षण देना है, उदाहरण के लिए – जब एक राज्य का व्यक्ति दूसरे राज्य में जाता है तो अल्पसंख्यक न होते हुए भी वह उस राज्य में अल्पसंख्यक होगा।
(3) अल्पसंख्यकों की शिक्षा (अनुच्छेद (30) ) (Education for Minorities) – अनुच्छेद 30 में शिक्षण संस्थाओं की स्थापना तथा प्रशासन का अल्पसंख्यको के अधिकार की चर्चा की गई। अनुच्छेद 30 (1) में यह बताया कि धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा। शिक्षा संस्थाओं के अन्तर्गत विश्वविद्यालय भी आ जाते है। इसमें स्थापना व प्रशासन दो शब्दों का प्रयोग किया गया है। स्थापना शब्द से अभिप्राय है संस्था के क्रियाकलापों का प्रभावी रूप से प्रबन्ध व संचालन करना। अनुच्छेद 30 (1) के अधीन अल्पसंख्यको को अपनी रुचि की शिक्षण संस्था का प्रशासन का अधिकार तभी प्राप्त होगा जब यह साबित हो कि उस संस्था की स्थापना उसके द्वारा की गयी है। प्रशासन से संस्था के क्रियाकलापों के प्रबन्ध का बोध होता है तथा प्रबन्ध पर किसी तरह का नियन्त्रण नहीं होना चाहिए जिससे कि संस्थापक जो उचित समझे अपनाओ भावों के अनुरूप संस्था को ढाल सके जिससे कि सामान्य रूप से अल्पसंख्यक समुदाय के हित तथा विशेष रूप से संस्था के हित की सर्वोत्तम रूप से पूर्ति हो सके। अपनी रुचि के शब्द शिक्षा संस्थाओं को विशेषित करते है व वे दर्शाते है कि अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा स्थापित तथा प्रशासित शिक्षा संस्थाओं के लिए आवश्यक नहीं कि वे किसी विशेष वर्ग की हो। अल्पसंख्यक को ऐसी शिक्षा संस्थाओं की आवश्यकता होती है। जिसे स्थापित करने व प्रशासित करने का अधिकार और स्वतन्त्रता प्राप्त हो। इस प्रकार यह अनुच्छेद अल्पसंख्यक वर्गों को ऐसी शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करने का अधिकार प्रदान करता है जो दोनों उद्देश्यों को पूरा करती हो अर्थात् जिसके द्वारा वे अपने धर्म भाषा या संस्कृति को संरक्षित कर सके तथा बच्चे का सर्वांगीण विकास हो सके।
डॉ. अम्बेडकर ने इस सम्बन्ध में निम्नलिखित स्पष्टीकरण दिया- “संस्कृति, भाषा और लिपि के मामले में इस अनुच्छेद का आशय केवल तकनीकी अर्थ में अल्पसंख्यकों को संरक्षण देना नहीं है अपितु व्यापक अर्थ में अल्पसंख्यकों को संरक्षण देना। यही कारण है हम लोगों ने ‘अल्पसंख्यक’ शब्द नहीं रखा क्योंकि हमनें महसूस किया कि इस शब्द का संकुचित अर्थ लगाया जा सकता है जबकि सदन जिसने अनुच्छेद 18 (वर्तमान में 29) पास किया, का आशय अल्पसंख्यक शब्द को बहुत व्यापक अर्थ में प्रयोग करना था जिससे सांस्कृतिक संरक्षण उन लोगों को दिया जा सके जो तकनीकी अर्थ में ‘अल्पसंख्यक नहीं है फिर भी अल्पसंख्यक है। यह महसूस किया गया था कि यह संरक्षण इस कारण से आवश्यक है कि जो लोग एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में जाते है और बस जाते है परन्तु स्थायी रूप से नहीं बस पाते वे उस जगह (प्रान्त) से सम्बन्ध बनाए रखते है। वे अपने प्रान्त में विवाह के लिए जाते हैं, वे अपने प्रान्त में दूसरे बहुत से प्रयोजनों के लिए जाते है और यदि वह संरक्षण नहीं दिया जाता (जब वे स्थानीय विधान मण्डल के अधीन है और स्थानीय विधान मण्डल उनको अपनी संस्कृति को बचाने का अवसर नहीं देता) तो इन सांस्कृ तिक अल्पसंख्यकों के लिए अपने प्रान्त में वापस जाकर उस जनता से जिसका वे भाग है घुलमिल जाना कठिन होगा।”
संविधान के प्रारूप में “भाषा, लिपि और संस्कृति शब्द थे परन्तु बाद में संस्कृति और लिपि के बीच में और के स्थान पर या शब्द का प्रयोग किया गया। यह परिवर्तन इसलिए किया गया कि कुछ ऐसे लोग हो सकते जिनकी भाषा व लिपि भिन्न हो पर संस्कृति भिन्न न हो जैसे उड़ीसा में आन्ध्र ।
(4) सामाजिक / शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए प्रावधान (अनुच्छेद 15 (4)) (अनुच्छेद 46 (Provision for Socially / Educationally Weaker Sections) – अनुच्छेद 15(4), अनु. 15 (1) तथा (2) के सामान्य नियम का दूसरा अपवाद अनुच्छेद 15 (4) के अनुसार “राज्य किसी सामाजिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों या अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जन जातियों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है।”
खण्ड (4) संविधान में संविधान के प्रथम संशोधन (1951) द्वारा जोड़ा गया यह संशोधन मद्रास राज्य बनाम चम्पाकम दाराईराजन में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के कारण हुई। इस मामले में मद्रास सरकार ने एक साम्प्रदायिक राजाज्ञा जारी करके राज्य के मेडिकल तथा इन्जिनियरिंग कॉलेज में विभिन्न जातियों तथा समुदायों के विद्यार्थियों के लिए कुछ स्थानों का निश्चित अनुपात निर्धारित किया गया था। स्थानों का आरक्षण धर्म, वर्ग तथा जाति पर आधारित था क्योंकि ब्राह्मणों के लिए कुछ ही स्थान थे जिनके पूरे होने के कारण इस समुदाय के योग्यतम विद्यार्थियों को भी प्रवेश नहीं मिल सकता था। जबकि दूसरे समुदाय के अपेक्षाकृत कम योग्यता वाले विद्यार्थियों को स्वतः प्रवेश मिल जाता था सरकार ने उक्त कानून को इस आधार पर न्यायोचित बताया क्योंकि इसका उद्देश्य जनता के सभी वर्गों के लिए सामाजिक न्याय प्रदान करना था जैसा कि राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अनुच्छेद 45 में अपेक्षित है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राजाज्ञा असंवैधानिक है क्योंकि इसमें किया गया वर्गीकरण धर्म मूलवंश व जाति के आधार पर किया गया विद्यार्थियों की योग्यता पर नहीं।
ध्यान रहे कि खण्ड (4) केवल राज्य को उक्त वर्गों के लिए उपबन्ध करने के लिए सक्षम बनाता है न कि उस पर विशेष कार्यों को करने के लिए कोई दायित्व आरोपित करता है। यह राज्य को केवल विवेकीय शक्ति प्रदान करता है अर्थात् यदि राज्य उचित समझे तो पिछड़े वर्गों के नागरिकों के लिए विशेष प्रावधान बना सकता है बशर्ते कि वह विशेष वर्ग सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा हो। प्रश्न यह है कि समाज का कौन सा वर्ग उक्त श्रेणी के अन्तर्गत आता है। सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग कौन है इसका निर्धारण करने की शक्ति राज्य को है किन्तु इस मामले में राज्य का निर्णय अन्तिम नहीं है। उचित मामलों में न्यायालय को हस्तक्षेप करने व इसे प्रयोजन के लिए राज्य द्वारा निर्धारित मानदण्डों की जाँचने की पूर्ण शक्ति प्राप्त हैं।
अनुच्छेद 46 इस बात का आवाहन करता है कि राज्य जनता के दुर्बल वर्गों के विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों की शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा तथा सामाजिक अन्याय तथा सब प्रकार के शोषण से उनकी सुरक्षा करेगा।
(5) राज्यपोषित शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या उपासना का निषेध ( अनुच्छेद 28) (Prohibition of Religious Education in State-Aided Educational Institutions (Section 28) – अनुच्छेद 28 (1) यह उपबन्धित करता है कि राज्यनिधि से पूरी तरह पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। यह खण्ड अ शिक्षा संस्थाओं पर लागू नहीं करता है जिनका प्रशासन राज्य करता हो किन्तु जो किसी ऐसे धर्मस्व या न्यास के अधीन स्थापित हुई हैं जिनके अनुसार इस संस्था में धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है। खण्ड (3) के अनुसार राज्य से मान्यताप्राप्त या राज्यनिधि से पोषित होने वाली शिक्षा संस्था में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को धार्मिक शिक्षा या उपासना में भाग लेने के लिए बाध्य न किया जाएगा जब तक उस व्यक्ति ने उसके लिए सम्मति न दी हो। संक्षेप में अनुच्छेद 28 चार प्रकार की शैक्षिक संस्थाओं का उल्लेख करता है-
(i) राज्य द्वारा पूरी तरह से पोषित संस्थाएँ।
(ii) राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थाएँ।
(iii) राज्यनिधि से सहायता प्राप्त होने वाली संस्थाएँ।
(iv) राज्य प्रशासित किन्तु किसी धर्मस्व या न्यास के अधीन स्थापित संस्थाएँ।
न० 1 की श्रेणी में आने वाली संस्थाओं में किसी प्रकार के धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है। न0 2 3 की श्रेणी में आने वाली संस्थाओं में धार्मिक शिक्षाएँ दी जा सकती हैं बशर्ते कि इसके लिए लोगों ने अपनी सम्मति दे दी हो, नं0 4 की श्रेणी में आने वाली संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा देने के बारे में कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
(6) नागरिकों का शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश का अधिकार (Right of Citizen to get Admission in Educational Institutions) (अनुच्छेद 29 (2))– अनुच्छेद 29 के भाग (2) के अनुसार राज्य द्वारा पोषित अथवा राज्य निधि से सहायता प्राप्त करने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा अथवा इनमें से किसी आधार पर दण्डित नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार किसी विशेष राज्यक्षेत्र में निवास के आधार पर प्रवेश के आरक्षण से 29 (2) का अतिक्रमण नहीं होता।
अनुच्छेद 29 (2) राज्य द्वारा पोषित या राज्य से सहायता प्राप्त करने वाली शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश का समान अधिकार सभी नागरिकों को देता हैं। इस अनुच्छेद द्वारा शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश पाने का अधिकार व्यक्ति को एक नागरिक के रूप में प्राप्त है न कि समुदाय के सदस्य के रूप में। इस अनुच्छेद की पदावली बड़े विशद अर्थ वाली है तथा सभी नागरिकों पर लागू होती है चाहे वे अल्पसंख्यक वर्ग के हो या बहुसंख्यक वर्ग के। उदाहरण के लिए, कोई स्कूल यदि अल्पसंख्यको द्वारा संचालित हैं तथा राज्यनिधि से सहायता प्राप्त करता है तो उसमें अन्य समुदाय के बच्चों को प्रवेश देने से इंकार नहीं किया जा सकता हैं। न राज्य ऐसे स्कूलों को अपने ही समुदाय के लोगों के लिए प्रवेश को सीमित रखने का निर्देश दे सकता है क्योंकि ऐसा अनुच्छेद 29 (2) के विरुद्ध होगा।
इस प्रकार हम देखते हैं शिक्षा के क्षेत्र में कई संवैधानिक अनुच्छेदों की सहायता से इसका विकास करने में बहुत सहायता मिली है तथा समय-समय पर व्यक्ति को सही मार्ग की ओर अग्रसर होने में ये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति को सहायता पहुँचाते हैं।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना किसने लिखी थी?
भारतीय संविधान की प्रस्तावना पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा तैयार की गई थी। भारतीय संविधान की प्रस्तावना पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा तैयार किये गए उद्देश्य प्रस्ताव पर आधारित है।
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