परिचर्चा विधि (Discussion Method)
यह विधि अर्थशास्त्र शिक्षण की एक महत्वपूर्ण विधि मानी जाती है। यह विधि छात्रों को स्वतन्त्र स्वाभाविक और सक्रिय रूप से कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। इस विधि के द्वारा विचारों का आदान-प्रदान होता है। इस विधि के द्वारा बालक में सामाजीकरण का गुण विकसित होता है। इसमें शिक्षक दिशा-निर्देश देने वाला तथा छात्र क्रिया करने वाला होता है। तर्क-वितर्क किसी भी दशा में हो सकते हैं। जैसे- परिचर्चा, गोष्ठी, सम्मेलन। इसी से शिक्षण विधि के रूप में तर्क-वितर्क का महत्व स्पष्ट होता है।
उच्च अधिगम की जितनी भी विधियाँ हैं, जैसे- सम्मेलन, विचार गोष्ठी, विचार समिति तथा कार्यशाला आदि इन सभी का सम्पादन परिचर्चा विधि की सहायता से ही किया जा सकता है क्योंकि इस प्रकार के आयोजन में सभी विद्यार्थियों को समान अवसर दिए जाते हैं।
परिचर्चा विधि आधुनिक व्यवस्था सिद्धान्त पर आधारित है। इसकी यह धारणा है कि व्यवस्था के सदस्यों की अपनी अभिवृत्तियाँ, अभिरुचियाँ मूल्य तथा अपने-अपने लक्ष्य होते. हैं। इसके अतिरिक्त उनमें निर्णय लेने और समस्या का समाधान खोजने की क्षमता होती. है। अतः इस दृष्टि से प्रजातन्त्र शासन तथा जीवन ढंग के लिए परिचर्चा विधि को प्रोत्साहन मिलना चाहिए।
सर्वप्रथम सन् 1929 में हेरी ए. ऑवर स्ट्रीट ने सामूहिक परिचर्चा विधि पर प्रयोग किया था। इन्होंने एक छोटे समूह के रूप में एक निश्चित समय के लिए श्रोताओं के समक्ष परिचर्चा विधि का आयोजन किया था। अन्त में, इस परिचर्चा विधि में श्रोताओं ने भी भाग लिया। उस प्रकरण पर महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे गए, जिनका उत्तर विशेषज्ञों ने दिया था जिससे प्रकरण के सम्बन्ध में श्रोताओं को अधिक जानकारी प्राप्त हुई थी। श्रोतागणों ने उन बिन्दुओं का स्पष्टीकरण माँगा था जिनको परिचर्चा विधि में सम्मिलित नहीं किया गया था। हेरी के अतिरिक्त अनेक व्यक्तियों ने सन् 1929 में वाद-विवाद के रूप में एक नवीन खोज की।
आज इस प्रकार के आयोजन काफी संख्या में सार्वजनिक रूप में टेलीविजन तथा रेडियो पर भी किए जा रहे हैं। कुछ तात्कालिक समस्या पर इस प्रकार के सामूहिक परिचर्चा विधि की व्यवस्था भी की जाती है। परिचर्चा विधि में शिक्षक चयनित विषय या प्रकरण पर छात्रों को परस्पर वार्तालाप या परिचर्चा के लिए प्रेरित करता है। इस विधि में छात्रों को ही अधिक क्रियाशील रहना होता है। शिक्षक एक निरीक्षक एवं निर्देशक के रूप में कार्य करता है यह विधि छात्र केन्द्रित होती है व पूर्ण रूप से प्रजातान्त्रिक नियमों का पालन करती है।
थॉमस एम. रिस्क के अनुसार, परिचर्चा का अर्थ है अध्ययन की जाने वाली समस्या / प्रकरण में निहित सम्बन्धों का विचारशील विवेचन।”
According to Thomos M. Risk, “Discussion means thoughtful consideration of the relationships involved in problem/topic under study.”
जेम्स एम. ली. के अनुसार, “वार्तालाप शैक्षिक समूह क्रिया है जिसमें शिक्षक तथा छात्र किसी समस्या या प्रकरण पर बातचीत करते हैं।”
According to James M. Lee, “Discussion is an educational group activity in which teacher with students talk over some problem or topic.”
परिचर्चा विधि की विशेषताएँ (Characteristics of Discussion Method)
इस विधि द्वारा ज्ञानात्मक व भावात्मक पक्ष के उच्च उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है इस विधि की अन्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) प्रजातान्त्रिक विधि होने के कारण छात्रों को विकास के अधिकाधिक अवसर प्रदान करती है।
(2) छात्रों के विकास हेतु स्वतन्त्र वातावरण प्रस्तुत करती है।
(3) छात्र व शिक्षक दोनों ही सक्रिय रहते हैं।
(4) छात्रों की तार्किक क्षमता व मानसिक शक्ति का विकास होता है।
(5) इस विधि से छात्रों में परस्पर सहयोग की भावना विकसित होती है।
(6) छात्रों में सामाजिक दृष्टिकोण विकसित होता है।
(7) विरोधी विचारों को सुनने से छात्रों में धैर्य व सहनशक्ति का विकास होता है।
(8) छात्रों को सोचने एवं बोलने के अधिक अवसर मिलते हैं।
(9) इस विधि का प्रयोग प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च कक्षाओं में सुगमता से किया जा सकता है।
10) इस विधि से तथ्यों व प्रत्ययों का स्पष्टीकरण भली-भाँति किया जा सकता है। 11) इतिहास, सामाजिक विज्ञान, विज्ञान इत्यादि विषयों के शिक्षण के लिए अधिक उपयुक्त है।
परिचर्चा विधि के उद्देश्य (Objectives of Discussion Method)
परिचर्चा का आयोजन निम्नलिखित उददेश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है-
(1) किसी तत्कालीन समस्या के विभिन्न पक्षों की जानकारी तथा उन्हें पहचानने की क्षमताओं का विकास करना।
(2) किसी प्रकरण के विभिन्न पहलुओं को पहचानना और उन्हें बोधगम्य बनाना।
(3) प्रकरण एवं समस्या सम्बन्धी निर्णय लेने की क्षमताओं का विकास करना।
(4) विद्यार्थियों एवं भागीदारों में व्यापक दृष्टिकोण का विकास करना।
(5) प्रकरण एवं समस्या सम्बन्धी शंकाओं एवं कठिनाइयों के समाधान एवं स्पष्टीकरण का अवसर देना।
(6) परिचर्चा का प्रमुख उद्देश्य ज्ञानात्मक पक्ष के उच्च पक्षों का विकास करना है।
परिचर्चा विधि के प्रकार (Types of Discussion Method)
परिचर्चा विधि के निम्नलिखित दो प्रकार हैं-
(1) औपचारिक परिचर्चा विधि (Formal Discussion Method)- औपचारिक परिचर्चा विधि के अन्तर्गत नियमों का पालन किया जाता है। इसका संचालन एवं नियन्त्रण चयनित अध्यक्ष के द्वारा किया जाता है। इसकी कार्यता ही चयनित सचिव द्वारा की जाती है। इसका चयन छात्रों से ही किया जाता है। औपचारिक परिचर्चा पैनल के रूप में की जाती है।
(2) अनौपचारिक परिचर्चा विधि (Informal Discussion Method)- अनौपचारिक परिचर्चा विधि में नियमों का बन्धन नहीं होता। शिक्षक एवं छात्र स्वतन्त्रतापूर्वक किसी समस्या पर विचार-विमर्श करते हैं। इसका उद्देश्य छात्रों को स्वतन्त्रतापूर्वक अपने विचारों को व्यक्त करने में प्रशिक्षित करना होता है। इस विधि में शिक्षक नेतृत्व करता है तथा छात्रों को सीखने के लिए तैयार करता है।
परिचर्चा विधि के गुण (Merits of Discussion Method)
परिचर्चा विधि के गुण निम्नलिखित है-
(1) इस विधि से छात्र विषय-वस्तु के चयन, संगठन तथा प्रस्तुतीकरण की कला में निपुण हो जाता है।
(2) छात्र निश्चित उद्देश्य से दूर नहीं होते।
(3) छात्र नियन्त्रित होकर स्वानुशासन सीखते हैं।
(4) यह विधि छोटी कक्षाओं और बड़ी कक्षाओं दोनों के बच्चों के लिए उपयोगी है।
(5) इस विधि के द्वारा समस्या के स्पष्टीकरण से नवीन ज्ञान प्राप्त होता है। इससे उनके ज्ञान में वृद्धि होती है।
परिचर्चा विधि के दोष (Demerits of Discussion Method)
परिचर्चा विधि में निम्नलिखित दोष होते हैं-
(1) समूह के कुछ सदस्य ही अधिक बोलते हैं कुछ शान्त रहते हैं जिससे वाद-विवाद प्रभावपूर्ण ढंग से नहीं हो पाता है।
(2) समूह के सदस्य रुचि नहीं लेते हैं और वे वाद-विवाद में पूर्ण तैयारी के साथ नहीं आते हैं।
(3) सदस्यगण विषय से अलग हटकर बातें अधिक करते हैं जिससे छात्रों में भ्रम पैदा हो जाता है।
(4) समय का पूर्णरूपेण सदुपयोग नहीं हो पाता है।
(5) यह विधि छोटी कक्षाओं के लिए अधिक उपयोगी नहीं है।
(6) मन्द बुद्धि बालकों को अधिक लाभ नहीं होता है।
परिचर्चा आयोजन हेतु सुझाव (Suggestions for Organising Discussion)
परिचर्चा सम्पादन में निम्नलिखित सावधानियाँ बरतनी चाहिए-
(1) अनुदेशक को समूह के सदस्यों का चयन करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उनमें आपस में किसी प्रकार का टकराव न हो।
(2) अध्यक्ष की प्रमुख भूमिका तथा उत्तरदायित्व यह होता है कि सभी सदस्यों को परिचर्चा में भाग लेने का अवसर दे। यह उसके संचालन की क्षमता पर भी निर्भर करता है। अध्यक्ष का समूह पर नियन्त्रण होना आवश्यक है। विषय में पारंगत तथा वरिष्ठ व्यक्ति को ही अध्यक्ष चुना जाना चाहिए।
(3) सदस्यों के बैठने की व्यवस्था इस प्रकार की हो कि वे एक-दूसरे के सम्मुख हो, अध्यक्ष से समान दूरी रहे और श्रोतागण भी सभी को देख सकें।
(4) अध्यक्ष को उन्हीं बिन्दुओं पर आलोचना के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए जिन पर रचनात्मक सुझाव तथा आलोचना की जा सके। सदस्यों के सार्थक तथा रचनात्मक सुझावों को बढ़ावा देना चाहिए।
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