B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

शिक्षण की अवस्थाएँ | Phases of Teaching in Hindi

शिक्षण की अवस्थाएँ
शिक्षण की अवस्थाएँ

शिक्षण की अवस्थाएँ (Phases of Teaching)

शिक्षण की अवस्थाएँ- शिक्षण में क्रियाओं का विशेष महत्व है क्योंकि शिक्षण क्रियाएँ ही छात्रों को सीखने में सहायता प्रदान करती हैं। शिक्षण की क्रियाओं का क्रमबद्ध विश्लेषण निम्नलिखित तीन सोपानों में किया जा सकता हैं-

(1) प्रथम सोपान – शिक्षण की पूर्व तत्परता अवस्था (Pre-active Phase)

(2) द्वितीय सोपान – शिक्षण की अन्तः प्रक्रिया अवस्था (Interactive Phase)

(3) तृतीय सोपान – शिक्षण की अन्तिम अवस्था (Post-active Phase)

शिक्षण की क्रियाओं का क्रमबद्ध विश्लेषण तीन सोपानों में विस्तार पूर्वक दिया जा रहा है।

प्रथम सोपान – शिक्षण की पूर्व तत्परता अवस्था (Pre-Active Phase of Teaching)

प्रथम सोपान में शिक्षण के लिए योजना तैयार की जाती है। कक्षा शिक्षण से पूर्व शिक्षक जो भी कार्य करता है वे सभी इसी सोपान के अन्तर्गत आते हैं। शिक्षण की पूर्व-तत्परता अवस्था में निम्नलिखित क्रियाएँ सम्मिलित की जाती हैं-

(1) शिक्षण के उद्देश्यों को निर्धारित करना।

(2) पाठ्यवस्तु के सम्बन्ध में निर्णय लेना।

(3) प्रस्तुतीकरण के लिए पाठ्यवस्तु के अवयवों की क्रमबद्ध व्यवस्था करना।

(4) शिक्षण की युक्तियों एवं प्रविधियों के सम्बन्ध में निर्णय लेना।

(5) विशिष्ट पाठ्यवस्तु के लिए युक्तियों का विकास करना।

उपरोक्त क्रियाओं का विस्तृत वर्णन निम्नलिखित हैं-

(1) शिक्षण के उद्देश्यों का निर्धारण (Determining the Teaching Objectives)- शिक्षक का कार्य सर्वप्रथम शिक्षण उद्देश्यों को निर्धारित करना तथा व्यवहार परिवर्तन के रूप में उनको परिभाषित करना है। इस कार्य में वह ब्लूम की टेक्सोनॉमी का प्रयोग करता है। ये उद्देश्य दो प्रकार के होते हैं-

(i) छात्रों के पूर्व व्यवहार के रूप में (Entering Behaviours) एवं

(ii) छात्रों के अन्तिम व्यवहार के रूप में (Terminal Behaviours)।

यह उद्देश्य छात्रों के मनोविज्ञान एवं समाज तथा राष्ट्र की आवश्यकताओं के आधार पर निर्धारित होते हैं। इनकी व्याख्या करते समय निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

(i) शिक्षण की उन सभी व्यावहारिक क्रियाओं की पहचान की जाती है।

(ii) उन परिस्थितियों को परिभाषित किया जाता है जिनके अन्तर्गत अपेक्षित व्यवहार में परिवर्तन होते हैं।

(iii) उन मानदण्ड – व्यवहारों (Criterion Behaviours) को भी परिभाषित किया जाता है जो उद्देश्यों की प्राप्ति को निश्चित करते हैं। योजना स्तर पर ही मूल्यांकन के मानदण्ड व्यवहार का विश्लेषण एवं व्याख्या की जाती है।

(2) पाठ्यवस्तु के सम्बन्ध में निर्णय लेना (To Make Decision in Respect of Content)- शिक्षक छात्रों को पढ़ाये जाने वाले पाठ्य-वस्तु के सम्बन्ध में निर्णय लेता है। पाठ्यवस्तु के स्वरूप का विश्लेषण करता है और उसके संकेत चिन्हों, भाषा, पक्ष तथा तर्क के सम्बन्ध में निर्णय लेता है। यहाँ पर शिक्षक निदानात्मक पक्ष पर अधिक बल देता है और यह ज्ञात करता है कि पाठ्य-वस्तु के लिये छात्रों का पूर्व व्यवहार क्या और कैसा हो तथा पाठ्य वस्तु को किस स्तर पर प्रस्तुत किया जाए?

पाठ्य-वस्तु के सम्बन्ध में निर्णय लेते समय शिक्षक को निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

(i) छात्रों के लिए प्रस्तावित पाठ्यक्रम की क्या आवश्यकता है?

(ii) छात्रों का पूर्व व्यवहार क्या हैं?

(iii) छात्रों की उनके स्तर के अनुसार क्या आवश्यकता है?

(iv) छात्रों के लिये किस स्तर की अभिप्रेरणा प्रभावशाली होगी?

(v) पाठ्यवस्तु सम्बन्धी ज्ञान के मूल्यांकन के लिए शिक्षक किन-किन विधियों का प्रयोग करें?

(3) प्रस्तुतीकरण के लिए पाठ्यवस्तु के अवयवों की (Sequencing Arrangement of Elements of क्रमबद्ध Content Presentation)- शिक्षण में पाठ्यवस्तु का विश्लेषण करके तत्वों को तर्कपूर्ण ढंग से क्रमबद्ध रूप में व्यवस्थित किया जाता है। तार्किक रूप से पाठ्य-वस्तु के तत्वों की व्याख्या करते समय यह भी ध्यान रखा जाता है कि पाठ्य-वस्तु का यह क्रम मनोवैज्ञानिक ढंग से भी उपयोगी होना चाहिए अर्थात् पाठ्य वस्तु की व्यवस्था सीखने के स्थानान्तरण में सहायक होना चाहिए। व्यवस्था for

(4) शिक्षण की युक्तियों एवं प्रविधियों के सम्बन्ध में निर्णय लेना (To Make Decisions regarding Teaching Techniques and Methodologies)- पाठ्य वस्तु को क्रमबद्ध रूप में व्यवस्थित करने के पश्चात् शिक्षक पाठ्यवस्तु तथा विद्यार्थियों के स्तर, आयु, परिपक्वता तथा योग्यता आदि को दृष्टिगत रखते हुए उपयुक्त विधियों तथा प्रविधियों के सम्बन्ध में निर्णय लेता है, जिनकी सहायता से पाठ्य-वस्तु को विद्यार्थियों के मस्तिष्क में सरलतापूर्वक अंकित किया जा सके अथवा पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित ज्ञान प्रदान किया जा सके। इसलिए शिक्षक प्रशिक्षण के समय छात्राध्यापकों में इस कौशल के विकास पर अधिक बल दिया जाता है। जिससे प्रशिक्षित होने के पश्चात् वे उपयुक्त विधियों एवं प्राविधियों के सम्बन्ध में उचित निर्णय लेकर शिक्षण के उद्देश्यों को प्राप्त कर सकें।

(5) शिक्षण आव्यूहों का विस्तार (Expansion of Teaching Strategies) – शिक्षण की अवस्था में शिक्षण व्यूह रचना का चयन करना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु शिक्षक को यह भी निश्चित करना होता है कि शिक्षण की विभिन्न अवस्थाओं में किन युक्तियों तथा प्रविधियों को कब और कैसे प्रयोग करना है? जैसे- कब प्रश्न पूछना है, कब व्याख्या देनी है, कहाँ पर चार्ट तथा मानचित्र का प्रयोग करना है, कहाँ पर उदाहरण देना है, कहाँ पर श्यामपट का प्रयोग करना है तथा कहाँ पर मूल्यांकन प्रश्न पूछे जाने हैं ? शिक्षण की इन सभी क्रियाओं को स्पष्ट रूप में शिक्षक पूर्व तत्परता स्तर पर ही निर्धारित कर लेता है।

द्वितीय सोपान शिक्षण की अन्तःप्रक्रिया अवस्था (Interactive Phase of Teaching)

द्वितीय सोपान शिक्षण की अन्तः प्रक्रिया स्तर के अन्तर्गत वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित की जाती हैं जिन क्रियाओं को शिक्षक कक्षा में प्रवेश करने पर करता है। इस अवस्था में पाठ्यवस्तु के प्रस्तुतीकरण की सभी क्रियाएँ सम्मिलित की जाती हैं।

पी.डब्ल्यू. जैक्सन ने शिक्षण प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में अपने मौलिक विचार प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने शिक्षण की अन्तः प्रक्रिया पक्ष की व्याख्या इस प्रकार की है- “शिक्षण अन्तः प्रक्रिया स्तर पर शिक्षक छात्रों को अनेक प्रकार की शाब्दिक अभिप्रेरणा प्रदान करता है जैसे- प्रश्न पूछना, सुनना, अनुक्रिया करना, व्याख्या करना तथा निर्देशन देना, आदि।”

“The teacher provides pupil’s verbal stimulation of various kinds, makes explanations, ask questions, listens to student’s responses and provides guidance.”

शिक्षण की अन्तः प्रक्रिया अवस्था में निम्नलिखित क्रियाएँ प्रमुख रूप से होती हैं-

(1) कक्षा के आकार की अनुभूति,

(2) छात्रों का निदान एवं

(3) क्रिया तथा प्रतिक्रिया। इसमें निम्न बिन्दु आते हैं-

(i) उद्दीपनों का चयन,

(ii) उद्दीपनों का प्रस्तुतीकरण,

(iii) युक्तियों का उपयोग तथा

(iv) युक्तियों का विस्तार।

शिक्षण की अन्तः प्रक्रिया की क्रियाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन निम्नलिखित बिंदुओं के अन्तर्गत किया गया है-

(1) कक्षा के आकार की अनुभूति (Sizing up the Class)- शिक्षक जैसे ही कक्षा में प्रवेश करता है वैसे ही वह कक्षा के आकार का प्रत्यक्षीकरण करता है। उसकी दृष्टि कक्षा में उपस्थित सभी छात्रों पर घूम जाती है। शिक्षक कक्षा के छात्रों के प्रत्यक्षीकरण के साथ ही यह पता लगा लेता है कि कौन-कौन से छात्र समस्या उत्पन्न कर सकते हैं तथा कौन से छात्र उसे शिक्षण में सहायता दे सकते हैं। वह उत्साहित एवं हतोत्साहित करने वाले चेहरों की पहचान करता है। इस तरह से शिक्षक कक्षा के आकार की अनुभूति करता है। इसी प्रकार छात्र भी शिक्षक के व्यक्तित्व के स्वरूप की अनुभूति करते हैं। यह अनुभूति आरम्भ के कुछ सेकेण्ड में ही हो जाती है। इस स्तर पर यह आवश्यक है कि शिक्षक की वेशभूषा एवं व्यवहार आदि प्रभावशाली होने चाहिए।

(2) छात्रों का निदान (Solutions for the Learners) – कक्षा के आकार की अनुभूति के उपरान्त शिक्षक यह ज्ञात करता है कि छात्रों का स्तर क्या है? छात्रों को विषय के सम्बन्ध में पूर्व ज्ञान कितना है? इस प्रकार शिक्षक मुख्य रूप से तीन पक्षों में निदान करने का प्रयास करता है-

(i) छात्रों की क्षमताएँ तथा योग्यताएँ।

(ii) छात्रों की अभिवृत्ति एवं अभिरुचियाँ

(iii) छात्रों की शैक्षिक पृष्ठभूमि।

सामान्यतः शिक्षक प्रश्नों की सहायता से ही इन सभी पक्षों की जानकारी करता है। शिक्षक निदान के समय सर्वप्रथम प्रत्यक्षीकरण फिर निदान एवं तदोपरान्त अनुक्रिया करता है। शिक्षक अपने प्रत्यक्षीकरण से छात्रों की योग्यताओं एवं अभिरूचियों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करता है और उसको ध्यान में रखते हुए अपने शिक्षण की अनुक्रियाओं को आरम्भ करता है।

(3) स्वोपक्रम तथा अनुक्रियाएँ (Initiations and Responses)– शिक्षण के अन्तर्गत जो क्रियाएँ होती हैं उनको प्रमुख रूप से दो भागों में विभाजित कर सकते है-

(i) स्वोपक्रम (Initiation)

(ii) अनुक्रिया (Response)।

ये दोनों क्रियाएँ छात्र एवं शिक्षक के मध्य सम्पादित होती हैं जिसे शाब्दिक अन्तः प्रक्रिया (Verbal interaction) कहा जाता है। शिक्षक कुछ क्रियाएँ प्रारम्भ करता है उनके प्रति छात्र अनुक्रिया करता है। इस प्रकार शिक्षण की अन्तः प्रक्रिया चलती रहती है। शिक्षक की समस्त क्रियाओं का शाब्दिक तथा अशाब्दिक अन्तःप्रक्रिया के रूप में विश्लेषण किया जा सकता है। इसके लिए शिक्षक को निम्नलिखित क्रियाएँ करनी पड़ती हैं-

(i) उद्दीपकों (प्रेरकों) का चयन (Selection of Stimuli) – प्रेरणा देना शिक्षण की प्रक्रिया मानी जाती है जो शाब्दिक तथा अशाब्दिक दोनों ही प्रकार की हो सकती है। एक प्रभावशाली शिक्षक यह भली प्रकार समझता है कि विशेष प्रकार की शिक्षण परिस्थिति में कौन-कौन से प्रेरक अधिक प्रभावशाली रूप से कार्य कर सकते हैं और कौन-कौन से नहीं कर सकते हैं? कक्षा में परिस्थिति उत्पन्न होने के तत्काल बाद ही उसके अनुसार उपयुक्त प्रेरक का चयन करना पड़ता है।

जिससे शिक्षण की अपेक्षित क्रियाओं को नियन्त्रित किया जा सके और जिससे शिक्षण प्रक्रिया अच्छी तरह से पूर्ण हो सके।

(ii) उद्दीपकों का प्रस्तुतीकरण (Presentation of Stimuli) – प्रेरकों के प्रस्तुतीकरण के समय तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए- (a) स्वरूप (b) सन्दर्भ, तथा (c) क्रम।

एक उद्दीपक या प्रेरक को अनेक स्वरूपों में प्रस्तुत किया जा सकता है। अतः उद्दीपकों के प्रस्तुतीकरण में उसके स्वरूप को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। उद्दीपक के उसी स्वरूप का प्रस्तुतीकरण करना चाहिए जो छात्रों को सीखने के लिए अभिप्रेरणा दे सके। ऐसे उद्दीपक को प्रस्तुत करना चाहिए जो पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित हो। उद्दीपकों को उसी कम में प्रस्तुत करना चाहिए जिस क्रम में छात्रों को पाठ्यवस्तु का अधिगम कराना है।

तृतीय सोपान शिक्षण की अन्तिम अवस्था (Post-Active Phase of Teaching)

इसे शिक्षण की उत्तर क्रिया अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में शिक्षण कार्य समाप्त हो जाने के बाद शिक्षक सीखे गए कार्य का मूल्यांकन करता है। मूल्यांकन का कार्य निर्धारित उद्देश्यों के आधार पर किया जाता है। इसके लिए शिक्षक विभिन्न प्रकार की मूल्यांकन प्रविधियों का प्रयोग करता है। मूल्यांकन के द्वारा शिक्षक यह जानने का प्रयास करता है कि उसके द्वारा कक्षा में कराए गए शिक्षण का प्रभाव छात्रों पर कैसा हुआ है, उनके व्यवहार में किस सीमा तक परिवर्तन आया है? यदि वांछित व्यवहार परिवर्तन नहीं आया है तब भविष्य में वांछित व्यवहार परिवर्तन के लिए किस प्रकार के परिवर्तन शिक्षण विधि- प्रविधि में किए जाने चाहिए? इसके लिए शिक्षक द्वारा निम्नलिखित क्रियाएँ की जाती हैं-

(1) शिक्षक द्वारा व्यवहार परिवर्तन के वास्तविक रूप को परिभाषित किया जाना (Defining the Actual Form of Behavioural Change by the Teacher) – शिक्षण कार्य समाप्त हो जाने के उपरान्त शिक्षक व्यवहार परिवर्तन के वास्तविक रूप को परिभाषित करता है, जिसे मानदण्ड व्यवहार (Criterion Behaviour) कहते हैं। इसके लिए शिक्षक छात्रों में आये वास्तविक व्यवहार परिवर्तन की तुलना अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन से करता है तथा देखता है कि यदि अधिकतर छात्रों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन आ गया है तो शिक्षण कार्य सफल हुआ और शिक्षण उद्देश्य प्राप्त हो गए। यदि अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन बहुत कम छात्रों में हुआ हो तब शिक्षण कार्य को असफल माना जाता है।

(2) उपयुक्त मूल्यांकन प्रविधियों का चयन किया जाना (Appropriate Evaluation Methodologies to be Selected)- छात्र के व्यवहार परिवर्तन के मूल्यांकन हेतु उपयुक्त मूल्यांकन प्रविधियों का चयन किया जाना बहुत महत्वपूर्ण होता है। इसके लिए वस्तुनिष्ठ, विश्वसनीय तथा वैध प्रविधियों का ही चयन किया जाना चाहिए। प्रविधियां ऐसी होनी चाहिए जो छात्र के ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा गत्यात्मक पक्षों का सही मूल्यांकन करने में समर्थ हो सके। इसके लिए निष्पत्ति परीक्षा की अपेक्षा मानदण्ड परीक्षा को अधिक महत्व दिया जाता है।

(3) मूल्यांकन से प्राप्त परिणामों से शिक्षण नीतियों में परिवर्तन (Changes in the Teaching Policies by the Results Obtained from Evaluation) – मूल्यांकन करने के पश्चात् शिक्षक को अपने शिक्षण की कमियों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, जिसके आधार पर शिक्षक अपने शिक्षण की नीतियों, व्यूह रचनाओं तथा प्रविधियों आदि में सुधार लाकर अपने शिक्षण को और अधिक प्रभावशाली बनाता है।

शिक्षण की ये तीनों क्रियाएँ एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। इन तीनों के समन्वित प्रयोग के द्वारा ही शिक्षक प्रभावशाली शिक्षण कर छात्रों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाने में सफल हो सकता है।

Important Links

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment