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पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त | पाठ्यक्रम के दोष

पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त
पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त

पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त (Principles of Curriculum formation )

पाठ्यक्रम निर्माण करते समय निम्नांकित सिद्धान्तों को ध्यान में रखना चाहिए-

(1) प्रेरणा का सिद्धान्त (Principle of Motivation)

पाठ्यक्रम प्रेरणात्मक होना चाहिए यदि पाठ्यक्रम स्वयं छात्रों को कुछ सीखने के लिए प्रेरित नहीं करता है तो वह कभी भी अपने वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर सकता है। पाठ्यक्रम उस समय तक छात्रों को प्रेरणा प्रदान नहीं कर सकता है, जब तक कि वह छात्रों की रुचि, इच्छा, योग्यता एवं , क्षमताओं पर आधारित न हो। इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम को मनोवैज्ञानिक होना अत्यन्त आवश्यक है। ऐसे पाठ्यक्रम की रचना केवल बाल-मनोवैज्ञानिक ही कर सकता है। यदि पाठ्यक्रम इन सिद्धान्तों की अवहेलना करता है तो छात्र पाठ में कोई रुचि नहीं लेंगे। कक्षा में छात्र शिक्षक के भय से शान्त बैठा रहेगा, पर वह कभी भी कक्षा शिक्षण में सक्रिय भाग नहीं लेगा। वह कक्षा में एक श्रोता मात्र ही रह जाएगा। वह कक्षा में ऊब का अनुभव करेगा। इस प्रकार छात्र तथा विद्यालय के मध्य एक ऐसी गहरी दरार पड़ जाएगी जो कभी भी पूरी नहीं हो सकती।

(2) व्यापकता का सिद्धान्त (Principle of Broadness)

पाठ्यक्रम व्यापक होना चाहिए। पाठ्यक्रम को पुस्तकों, कक्षाओं तथा पुस्तकालयों तक ही सीमित नहीं रहना अर्जित चाहिए। गणित विषय के ज्ञान का अर्जन करने के साधन केवल पुस्तकों तथा कक्षा-शिक्षण तक ही सीमित नहीं रहने चाहिए। गणित का ज्ञान सम्पूर्ण शैक्षणिक वातावरण से कराने की व्यवस्था होनी चाहिए।

व्यापकता को हम यहाँ दूसरे दृष्टिकोण से भी नियोजित कर सकते हैं। पाठ्यक्रम इस प्रकार निर्मित करना चाहिए कि उससे किसी की भावनाओं तथा धर्म पर आघात न लगे एवं उनके द्वारा किसी पर कटाक्ष न हो।

(3) क्रिया का सिद्धान्त (Principle of Activity)

पाठ्यक्रम क्रिया प्रधान होना ‘बच्चे करके सीखते हैं’, करके सीखना’ स्वयं अपनी श्रेष्ठता प्राप्त कर चुका है। जिस ज्ञान को छात्र हाथ द्वारा सम्पादित करके सीखता है, वह ज्ञान अधिक स्थायी तथा प्रभावशाली होता है इसके अलावा मनोविज्ञान हमें बतलाता है कि बच्चे स्वभावतः क्रियाशील होते हैं। यदि बालकों की इस क्रियाशील को सामाजिक दृष्टिकोण से उपयोगी कार्यों में प्रयोग न किया गया तो अबोध बालक हो सकता है अपनी क्रियाशीलता के कारण असामाजिक कार्य कर बैठे। यदि पाठ्यक्रम बालकों की सक्रिय को उचित कार्यों में व्यय कराने में सफल हो जाता है। तो पाठ्यक्रम सार्थक समझा जाएगा। इस दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि पाठ्यक्रम क्रियाशीलता को पूरा-पूरा स्थान मिलना चाहिए।

(4) जीवन से सम्बन्धित सिद्धान्त (Principle of Linking with Life)

छात्रों में किसी विषय के प्रति रुचि उत्पन्न करने तथा किसी विषय को अधिक आकर्षक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि पाठ्यक्रम उनके जीवन से सम्बन्धित कर दिया जाए, क्योंकि यह एक प्रामाणिक सत्य है कि जो वस्तु हमारे जीवन से सम्बन्धित होती है उसके बारे में हम अधिक-से-अधिक जानने की चेष्टा करें जिसमें हमारी अधिक रुचि हो जाती है। इस दृष्टिकोण से यदि हम पाठ्यक्रम में ऐसे तथ्य सम्मिलित करते हैं, जो छात्रों के जीवन से हैं तो अच्छा रहेगा। गणित के पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय इस सिद्धान्त को सदैव ध्यान में रखना चाहिए।

(5) उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility)

ऐसा ज्ञान जो हमारे जीवन के लिए उपयोगी नहीं है, व्यर्थ होता है । ठीक इसी प्रकार वह अध्ययन सामग्री जिससे हम कोई लाभ न उठा सकें, व्यर्थ होती है और व्यर्थ चीज के लिए परिश्रम करना भी बेकार होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर हम कह सकते हैं कि पाठ्यक्रम ऐसा बनाया जाए जो छात्रों को जीवनोपयोगी ज्ञान प्रदान करे। छात्रों को ऐसा ज्ञान प्राप्त होना चाहिए जिससे वे अपने व्यावहारिक जीवन में लाभकारी रूप से प्रयोग कर सकें। जब छात्र किसी विषय की उपयोगिता जान लेते हैं तो उसके प्रति उनकी रुचि एवं प्रेरणा स्वतः ही जागृत हो जाती है, अतः पाठ्यक्रम बनाते समय सदैव ध्यान रखना चाहिए कि पाठ्यक्रम उपयोगी हो।

(6) प्रजातान्त्रिक सम्बन्धों का सिद्धान्त (Principle of Democratic Concepts)

पाठ्यक्रम प्रजातन्त्र के सिद्धान्त पर आधारित होना चाहिए, क्योंकि वर्तमान युग प्रजातन्त्र का युग है। प्रजातन्त्र की सफलता देश के सुनागरिकों पर ही निर्भर है। छात्र ही भावी नागरिक है, अतः पाठ्यक्रम ऐसा बनाना चाहिए जो छात्रों को प्रजातन्त्र देश के सुनागरिकों के लिए आवश्यक गुणों से अवगत कराए। पाठ्यक्रम ऐसा बनाया जाए जो छात्रों में कुछ आवश्यक सद्गुण; जैसे– सहयोग, सहानुभूति, सहिष्णुता, ईमानदारी, समानता और भ्रातृत्व भावना का विकास करें।

(7) संरक्षणता व हस्तान्तरण का सिद्धान्त (Principle of Preservation and Transmission)

प्रत्येक समाज की अपनी स्वयं की एक संस्कृति और अपनी-अपनी परम्पराएँ, रीति-रिवाज, चाल-चलन तथा मान्यताएँ होती हैं इन्हीं के कारण समाज का अपना पृथक् अस्तित्व होता है। यदि समाज से समाज की परम्पराएँ आदि समाप्त हो जाएँ तो समाज भी समाप्त हो जाता । इसलिए समाज को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपनी संस्कृति, परम्पराओं तथा मान्यताओं को बनाए रखे। इसके लिए समाज शिक्षा की व्यवस्था कर उसे यह कार्य सौंप देता है। समाज, शिक्षा से यह आशा करता है कि वह समाज की संस्कृति व सभ्यता बनाए रखेगी। यदि शिक्षा ऐसा नहीं कर पाती है तो समाज उस असफल शिक्षा को सहन नहीं कर सकेगा, अतः यह आवश्यक हो जाता है कि शिक्षा स्वयं अपने अस्तित्व के लिए छात्रों को समाज की प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और गौरव का पाठ पढ़ाए। पाठ्यक्रम निर्माण करते समय हमें ध्यान रखना चाहिए कि पाठ्यक्रम में सभ्यता व संस्कृति के पाठ की पूरी-पूरी व्यवस्था हो।

(8) समन्वय का सिद्धान्त (Principle of Correlation)

हम अपने इस छोटे से जीवन में अनेकों प्रकार के ज्ञान प्राप्त करते हैं और ये ज्ञान एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। यह सब शारीरिक व मानसिक रचना के कारण होता है। पाठ्यक्रम इस प्रकार बनाना चाहिए कि वह विधि ज्ञानों को सम्बन्धित करने में सहायक हो। इससे ज्ञान, सरल, सुगम तथा स्पष्ट हो जाएगा। एक विषय का सीधा सम्पर्क, दूसरे विषय से स्थापित करने की चेष्टा पाठ्यक्रम में होनी चाहिए।

इन सिद्धान्तों के अतिरिक्त भी अनेक विद्वानों ने पाठ्यक्रम निर्माण के विभिन्न सिद्धान्तों की विवेचना करते हुए अपने अलग से कुछ सिद्धान्तों का उल्लेख किया है, पर वास्तविक रूप से देखा जाए तो इस प्रकार के सिद्धान्तों में कोई नवीनता नहीं होती है, केवल सिद्धान्तों के नामों की संख्या ही बढ़ाई गई है। इन सिद्धान्तों में चयन का सिद्धान्त, आधुनिकता का सिद्धान्त, विवेचना-शक्ति, अवकाश के समय का सदुपयोग सिद्धान्त आदि प्रमुख है।

पाठ्यक्रम के दोष (Defects of the Curriculum)

विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम को वैसे तो अत्यन्त सावधानी से निर्मित किया जाता है एवं इनके निर्माण में विभिन्न सिद्धान्तों को ध्यान में रखा जाता है लेकिन पाठ्यक्रम निर्माताओं द्वारा वर्तमान में तेजी से होने वाले परिवर्तनों के कारण कुछ कमियाँ या दोष रह जाते हैं। कुछ प्रमुख दोष निम्न हैं-

(1) विद्यार्थियों के सम्मुख विपुल मात्रा में विषय-वस्तु प्रस्तुत कर दी जाती है, चाहे विद्यार्थियों में उसे ग्रहण करने की क्षमता हो या न हो।

(2) पाठ्यक्रम विद्यार्थियों को वास्तविक तथा सामाजिक जीवन से पृथक् कर देते हैं क्योंकि उनमें जीवन के साथ सम्बन्धों का अभाव होता है।

(3) पाठ्यक्रम बालकों की आवश्यकताओं का ध्यान नहीं रखता तथा उन्हें अपनी प्राकृतिक शक्तियों के विकास का पूर्ण अवसर नहीं देता।

(4) पाठ्यक्रम में क्रिया प्रधानता की पर्याप्त मात्रा का अभाव होता है।

(5) पाठ्यक्रम जनतान्त्रिक सिद्धान्तों के अनुरूप नहीं बनाया जाता।

(6) व्यक्तिगत विभिन्नता व पूर्व निर्धारित उद्देश्यों का ध्यान नहीं रखा जाता है।

(7) पाठ्यक्रम में परीक्षाओं को अधिक महत्त्व दिया गया है।

(8) पाठ्यक्रम को अत्यन्त सैद्धान्तिक व पुस्तकीय बनाया जाता है, इसमें वास्तविकता तथा व्यावहारिकता का पूर्ण अभाव होता है।

(9) गणित शिक्षण के उद्देश्यों एवं सीखने के अनुभवों का विस्तृत वर्णन नहीं किया गया है।

(10) सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों की प्राप्ति में सहायक नहीं है।

(11) व्यावसायिक तथा तकनीकी प्रशिक्षण नहीं मिलता है।

(12) प्रायोगिक कार्यों व दैनिक जीवन से सम्बन्ध का अभाव है।

(13) अमनोवैज्ञानिक परीक्षाओं पर अधिक बल दिया गया है व सृजनात्मक कार्यों का अभाव।

(14) पाठ्यक्रम अमनोवैज्ञानिक, व्यावसायिक व तकनीकी प्रशिक्षण के अभावों से युक्त होते हैं।

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