स्किनर के सिद्धांत के शैक्षिक महत्व (Education Implications)
स्किनर का यह सिद्धांत रचनात्मक उपयोग की दृष्टि से शिक्षा के क्षेत्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखता है। शिक्षक एवं अभिभावक दोनों ही इस सिद्धांत का उपयोग कर बालकों के व्यवहार में वांछित विशेषताओं का विकास कर सकते हैं। शैक्षणिक महत्त्व की दृष्टि से इस सिद्धांत के बारे में निम्न बातें कही जा सकती हैं-
(1) इस सिद्धांत का उपयोग बालक के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाने में अच्छी तरह से किया जा सकता है। जैसे ही अपेक्षित व्यवहार की ओर बच्चे के कदम पड़ें, तुरंत ही उपयुक्त पुनर्गलन द्वारा इस व्यवहार को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। जब बालक यह समझने लगता है कि वह चाहे पढ़े या न पढ़े उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है तो वह पढ़ाई के प्रति उदासीन हो जाता है। अतः बालक के सही और उचित कार्य का प्रबलन मुस्कराहट, सहानुभूति, प्रशंसा या अधिक अंक देकर करना चाहिये। छोटी कक्षाओं में बालक चाकलेट के लालच में लिखता पढ़ता है।
(2) इस सिद्धांत के अनुसार वाँछित और अच्छे व्यवहार का पुनर्बलन पुरस्कार देकर तुरंत करना चाहिये। देर करने से प्रभाव कम हो जाता है। अध्यापक जो गृहकार्य देता है यदि वह उसे दूसरे दिन ही देख लेता है और अपनी टिप्पणी उस पर लिख देता है तो छात्र गृह कार्य की ओर ध्यान देते हैं और नित्य करके लाते हैं। गृह कार्य का निरीक्षण न होने पर छात्र उदासीन हो जाते हैं और उसे करना बंद कर देते हैं।
(3) इस सिद्धांत का प्रयोग जटिल कार्यों को सिखाने में किया जा सकता है। स्किनर ने अपने प्रयोगों द्वारा चूहों तथा कबूतरों को ऐसी अनुक्रियाएँ सिखायी जो उनके सामान्य व्यवहार से परे थीं । ठीक इसी प्रकार व्यक्ति का व्यवहार इतना जटिल होता है कि उसे वाँछित दिशा में एकदम बदलना सम्भव नहीं होता। स्किनर के अनुसार उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त करके ही समग्र रूप से बदला जा सकता है। स्किनर की यह मान्यता शिक्षण में अत्यन्त उपयोगी है, विशेषकर वर्तनी ज्ञान एवं उच्चारण में।
(4) इस सिद्धांत के अनुसार अनुक्रिया की उपयुक्तता एवं कार्य की सफलता अभिप्रेरणा का सबसे अच्छा स्रोत है । चूहे और कबूतर को भोजन की प्राप्ति एक अच्छा अभिप्रेरक है और विद्यार्थी को अपने सही उत्तर की जानकारी प्रशंसा के दो शब्द, अध्यापक के प्रोत्साहित करने वाले हाव-भाव, सफलता की अनुभूति, अधिक अंक, पुरस्कार, इच्छित कार्य करने की स्वतंत्रता आदि विद्यार्थी की दृष्टि से अच्छे प्रेरक हैं। स्किनर इस प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में अभिप्रेरणा पर बहुत अधिक बल देते हैं।
(5) स्किनर सीखने में पुनर्बलन को बहुत अधिक महत्व देते हैं। शिक्षण में अभिक्रमित अनुदेशन प्रणाली तथा शिक्षण मशीनों का प्रयोग इसी सिद्धांत पर आधारित है। इस प्रणाली में छात्र अपनी गति एवं क्षमता के अनुसार सीखता है। छात्र तभी आगे बढ़ता है जब उसका सही उत्तर द्वारा प्रबलन को जाता है अन्यथा नहीं। इस प्रणाली में सम्पूर्ण विषय-वस्तु छोटे-छोटे खण्डों में विभक्त होती है। छात्र एक खण्ड से दूसरे खण्ड की ओर तभी बढ़ता है जबकि वह पहले खण्ड को सीख लेता है। यही बात शिक्षण मशीन में भी है।
(6) स्किनर के इस सिद्धांत के अनुसार छात्रों की प्रगति का ज्ञान उनके सीखने की गति में तीव्रता लाता है। स्किनर ने बताया कि हमारे दैनिक जीवन में ऐसे बहुत से कार्य होते हैं जिनका पारितोषिक हमें तुरंत न मिलकर कुछ समय पश्चात् मिलता है; उदाहरणार्थ- कलाकार, फैक्ट्री या मिल में काम करने वाले मजदूर। फिर भी, उन्हें यह विश्वास रहता है कि उनके कार्य का पारितोषिक एक दिन उन्हें अवश्य मिलेगा और वे इसी आशा में अपने काम में बराबर मन लगाये रखते हैं।
(7) इस सिद्धांत के अनुसार अधिगम में अधिक से अधिक सफलता तभी मिल सकत है जबकि सीखने की सामग्री को इस प्रकार आयोजित किया जाये की सीखने वाले को अधिक से अधिक सफलता तथा कम से कम असफलता का सामना करना पड़े। साथ ही, सही अनुक्रिया अथवा उत्तरों के लिये उसे तेजी से पुनर्बलन मिलता रहे और उसे स्वयं उसी की गति से सीखने का अवसर मिलता रहे।
(8) इस सिद्धांत के अनुसार विद्यार्थी में किसी भी प्रकार के व्यवहारगत परिवर्तनों के लिये कई सोपानों से गुजरना पड़ता है। किन्तु शिक्षक के पास इतना समय नहीं होता कि वह वाँछित परिवर्तनों हेतु इस सभी सोपानों से गुजर सके। इस दृष्टि से शिक्षक पढ़ाने से पूर्व उन सभी उद्दीपनों पर विचार कर सकता है जो उसे अपनी कक्षा अथवा स्कूल वातावरण में उपलब्ध हैं जिनका प्रयोग कर वह अपने शिक्षण को प्रभावी बना सकता है।
(9) व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिये इस सिद्धांत का भली प्रकार उपयोग किया जा सकता है। स्किनर के अनुसार “हम अपने आप में वही होते हैं जिसके लिये हमें प्रोत्साहित या पुरस्कृत किया जाता है। जिसे हम व्यक्तित्व कहते हैं वह और कुछ नहीं बल्कि समय-समय पर प्राप्त उन पुनर्बलनों का परिणाम है जिससे हम और हमारा व्यवहार एक निश्चित साँचे में ढल जाता है। उदाहरणार्थ-एक अंग्रेज बालक छोटी उम्र में ही अंग्रेजी अच्छी तरह से बोलना इसलिए सीख जाता है क्योंकि जब पहली बार उसने अंग्रेजी भाषा जैसी ध्वनियाँ निकाली होंगी तो उसके प्रयासों को पूरा प्रोत्साहन मिला होगा। अगर यही बालक किसी रूसी या जापानी परिवार में पैदा हुआ होता तो फिर अंग्रेजी का स्थान जापानी या रूसी भाषा ने ले लिया होता क्योंकि इस अवस्था में उसे वैसा प्रयास करने पर अपने परिवेश द्वारा पुनर्बलन या प्रोत्साहन मिलता।”
(10) इस सिद्धांत के द्वारा मानसिक रूप से अस्वस्थ बालकों को भी प्रशिक्षित किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर केसोरम नाम की एक महिला मनोचिकित्सक ने एक सत्तर वर्षीय बूढ़े व्यक्ति की, जिसने पचास वर्ष की आयु में अपनी आवाज खो दी थी, लगभग पच्ची दिनों में पचहत्तर प्रतिशत आवाज वापस ला दी थी। मनो-विश्लेषण विधि के असफल रहने पर ही बाद में उसे क्रिया-प्रसूत अनुबंधन से इलाज के लिये भेजा गया था।
(11) यह सिद्धांत अभ्यास और पुनरावृत्ति पर बल देता है। अतः शिक्षक को चाहिये कि वह इन दोनों नियमों को व्यवहार में लाकर शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बनायें। संगीत, संस्कृत एवं गणित जैसे विषयों में इन नियमों की सार्थकता बहुत अधिक मानी गई है।
(12) इस सिद्धांत के अनुसार ताड़ना या दण्ड न तो वाँछित व्यवहार को सीखने में मदद ही करता है और न ही अवाँछित व्यवहार अथवा बुरी आदतों को तोड़ने में । दण्ड के द्वारा बालक कुछ समय के लिये गलत व्यवहार करना छोड़ तो सकता है लेकिन जैसे ही दण्ड का भय अथवा उसका प्रभाव समाप्त हो होता है, बुरे व्यवहार की पुनरावृत्ति होने लगती है। इसलिये यह सिद्धांत दण्ड के स्थान पर वाँछित व्यवहार का पुनर्बलन कर उसे सुदृढ़ करने अवाँछनीय व्यवहार की अपेक्षा कर उसे विलुप्त करने का विकल्प सुझाता है।
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