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शिक्षण प्रतिमान के प्रकार | Types of Teaching Models in Hindi

शिक्षण प्रतिमान के प्रकार
शिक्षण प्रतिमान के प्रकार

अनुक्रम (Contents)

शिक्षण प्रतिमान के प्रकार (Types of Teaching Models)

शिक्षण प्रतिमान का वर्गीकरण विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने शोध परिणामों के आधार पर विभिन्न समूहों में समेकित कर दिया है:

(1) ऐतिहासिक शिक्षण प्रतिमान (Historical Models of Teaching)

 जॉन पी. डिकेको ने परम्परागत शिक्षण प्रत्यय तथा आधुनिक शिक्षण प्रतिमानों के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए तीन ऐतिहासिक प्रतिमानों का विवेचन किया-

(i) सुकरात का शिक्षण प्रतिमान

सुकरात की यह धारणा थी कि कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं दिया जा सकता है। सभी ज्ञान बालक के अन्दर निहित होते हैं। प्रश्नों की सहायता से उन्हें बाहर लाया जा सकता है। यह शिक्षक पर निर्भर करता है कि प्रश्नों की श्रृंखला कहाँ से किस प्रकार आरम्भ करें, जिससे छात्रों में ज्ञान का विकास हो। इसलिए प्रश्नोत्तर विधि को महत्त्व दिया । प्रश्नोत्तर विधि सुकरात की ही देन है। प्रश्नोत्तर विधि शिक्षक और छात्र के मध्य अन्तःप्रक्रिया को अधिक अवसर देती है। फिलैण्डर की अन्तःप्रक्रिया सुकरात के शिक्षण प्रतिमान की देन है।

(ii) परम्परागत मानवीय प्रशिक्षण प्रतिमान

 यह दूसरा ऐतिहासिक प्रतिमान है। यह 15वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक अधिक प्रचलित रहा है। शिक्षक को पाठ्य सामग्री तथा विधियों की व्यवस्था करके प्रभावशाली अनुदेशन प्रणाली विकसित करनी पड़ती है। पाठ्यक्रम उच्च स्तर का होता है। इस प्रतिमान में शिक्षण के बाद समीक्षा को महत्त्व दिया जाता है। जब यह सक्रिय अनुक्रिया करता है तो शिक्षक छात्र की प्रशंसा करता है और जब गलत अनुक्रिया करता है, तो शिक्षक उसके लिए छात्र को प्रेरित करता है इसमें निष्पत्ति परीक्षा के लिए मानदण्ड की रचना की जाती है। इसमें मौलिक प्रतिमानों के सभी तत्वों को सम्मिलित किया जाता है।

(iii) व्यक्तिगत विकास का शिक्षण प्रतिमान

 यह ऐतिहासिक प्रतिमानों का तीसरा शिक्षण प्रतिमान है। यह अमेरिका के विकासात्मक अभियान की देन है। इसका विकास 19वीं शताब्दी के आरम्भ से हुआ है। इसके अनुदेशन में स्व-विकास और व्यक्तिगत विकास को प्रधानता दी जाती है। ऐसी शैक्षिक परिस्थितियाँ तथा वातावरण उत्पन्न किया जाता है जिससे छात्र को अपनी योग्यताओं, रुचियों और क्षमताओं के अनुकूल विकसित करने का अवसर मिल सके और जीवन में समायोजन की क्षमताओं को विकसित कर सके। शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति माना जाता है। शिक्षक को ऐसी क्रियाओं तथा परिस्थितियों की व्यवस्था करनी होती है जिससे आत्मानुभूति का विकास हो सके।

(2) दार्शनिक शिक्षण प्रतिमान (Philosophical Models of Teaching)

सन् 1964 में इजराइल सेफलर ने अपने शोध के आधार पर दार्शनिक शिक्षण प्रतिमानों के तीन प्रकारों का वर्णन किया है—

(i) प्रभाव शिक्षण प्रतिमान

 ऐसा माना जाता है कि जन्म के समय बच्चे का मस्तिष्क रिक्त होता है। शिक्षण द्वारा जो भी अनुभव प्रदान किए जाते हैं वे अनुभव के मस्तिष्क पर प्रभाव डालते रहते हैं। इस प्रभाव को अधिगम भी कहा जाता है। इस अधिगम-प्रक्रिया में ज्ञान-इन्द्रियों की अनुभूतियों तथा भाषा सिद्धान्तों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। सम्पूर्ण शिक्षण प्रक्रिया की सफलता एवं प्रभावशाली शिक्षक की योग्यता तथा उसकी सम्प्रेषण की क्षमताओं पर निर्भर करती है।

(ii) सूझ-बूझ शिक्षण प्रतिमान

 शिक्षक का सूझ-बूझ प्रतिमान प्रभाव प्रतिमान से बिल्कुल ही भिन्न है। प्रभाव प्रतिमान से तात्पर्य शिक्षण द्वारा विचारों या ज्ञान को छात्र के मानसिक भण्डार में पहुँचाना है। सूझ प्रतिमान इस धारणा का खण्डन करता है। ज्ञान को केवल इन्द्रियों की अनुभूति द्वारा ही नहीं प्रदान किया जा सकता अपितु इसके लिए पाठ्य पुस्तक की सूझ ‘लेना महत्त्वपूर्ण होता है। इस प्रतिमा का विकासकर्त्ता प्लेटो था। उसका मानना था कि मानसिक प्रक्रिया तथा भाषा दोनों मिलकर ही कार्य करते हैं।

(iii) नियम शिक्षण प्रतिमान

 प्रभाव शिक्षण प्रतिमान और सूझ-बूझ शिक्षण प्रतिमान दोनों में अपनी-अपनी कुछ कमियाँ हैं। इनकी कमियों को नियम शिक्षण प्रतिमान में दूर किया गया है । काण्ट महोदय ने शिक्षण में तर्कशक्ति को अधिक महत्त्व दिया है। तर्क में किन्हीं नियमों का पालन किया जाता है। शिक्षा का प्रमुख कार्य चरित्र का विकास करना है नियम प्रतिमान का लक्ष्य बालकों की क्षमताओं का विकास करना है। इस कार्य के लिए विशेष प्रकार के नियमों का पालन किया जाता है। जैसे—शिक्षण का नियोजन, व्यवस्था का नियोजन, व्यवस्था तथा अन्तःक्रिया विशेष नियमों द्वारा की जाती है। इस प्रतिमान द्वारा सांस्कृतिक तथा नैतिक मूल्यों का विकास भी किया जाता है।

(3) मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान (Psychological Model of Teaching)

 मनोवैज्ञानिक तथा शिक्षा शास्त्रियों की यह धारणा है कि शिक्षण प्रतिमान शिक्षण सिद्धान्तों का स्थान ग्रहण कर सकते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि शिक्षण प्रतिमान ही शिक्षण सिद्धान्तों का आदि रूप है। शिक्षण प्रतिमानों में शिक्षण के लक्ष्य, शिक्षण तथा अधिगम की विभिन्न क्रियाओं में पारस्परिक सम्बन्ध की व्याख्या की जाती है ।

जॉन, पी. डिकेको ने निम्नलिखित मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान बताए हैं :

(a) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान

बुनियादी शिक्षण प्रतिमान का विकास राबर्ट ग्लेसर (1962) में किया था। मनोवैज्ञानिक अधिनियमों तथा सिद्धान्तों का शिक्षण प्रयोग किया जाता है। मनोवैज्ञानिक शक्तियों की सहायता से शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयास किया जाता है इसमें कक्षा-सभा प्रतिमान के नाम से ब्रूस. जे. जुआइस ने व्यक्तिगत स्रोत में सम्मिलित किया है।

(b) कम्प्यूटर पर आधारित शिक्षण प्रतिमान

इस शिक्षण प्रतिमान का विकास स्टूलोरो और डेनियल डेविस ने 1965 में किया था। इस प्रतिमान को सबसे जटिल प्रतिमान माना जाता है । इस प्रतिमान के अग्रलिखित तत्व हैं :

(i) विद्यार्थी का पूर्व व्यवहार,

(ii) अनुदेशन के उद्देश्यों का निर्धारण ।

(iii) शिक्षण पक्ष—इस तत्व के अन्तर्गत विद्यार्थी के पूर्व व्यवहारों तथा अनुदेशन के उद्देश्यों के अनुसार कम्प्यूटर शिक्षण योजना का चयन किया जाता है। छात्रों की निष्पत्तियों का निरीक्षण किया जाता है। यदि परिणाम सन्तोषजनक हो तो दूसरी योजना प्रस्तुत की जाती हैं। इस प्रतिमान में शिक्षण और निदान की क्रियाएँ एक साथ ही होती हैं। निदान के आधार पर ही उपचारात्मक अनुदेशन भी दिया जाता है। इस प्रतिमान में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को भी महत्त्व दिया जाता है।

(c) विद्यालय अधिगम के लिए शिक्षण प्रतिमान

 इस प्रतिमान का विकास जॉन करौल ने किया था। इसमें समय को अधिक महत्त्व दिया गया है। करौल की धारणा यह है कि छात्रों की उनकी आवश्यकताओं के अनुसार समय एक महत्त्वपूर्ण घटक माना जाता है। इस प्रतिमान का महत्त्व निम्नलिखित है :

करौल के प्रतिमान की प्रमुख विशेषता यह है कि यह अनुदेशन की प्रक्रिया में छात्रों को पूरे अवसर प्रदान करता है। उनकी आवश्यकतानुसार ही उन्हें समय प्रदान किया जाता है, जिससे व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर नियंत्रण हो जाता है। इसका सबसे बड़ा दोष यह है कि क्रमबद्ध ढंग से निष्पत्ति परीक्षण की व्यवस्था नहीं की जाती है।

(d) अन्तःप्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान (Interaction Model of Training)

नैड ए. फलैंडर द्वारा इस प्रतिमान को प्रतिपादित किया गया। इससे सामाजिक अन्तःप्रक्रिया प्रतिमान कहते हैं। फलैंडर ने शिक्षण प्रक्रिया को एक अन्त:प्रक्रिया माना है।

(4) अध्यापक शिक्षा के लिए शिक्षण प्रतिमान (Teaching Models of Teacher Education)

अध्यापक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य होता है कि छात्राध्यापक शिक्षण की प्रक्रिया को भली-भाँति समझ सके । शिक्षण को समझने के लिए शिक्षण-प्रतिमानों की जानकारी अधिक उपयोगी होती है। शिक्षण प्रतिमान शिक्षण की समस्याओं के लिए समाधान प्रदान करते हैं। शिक्षण के चार प्रतिमान अध्यापक शिक्षा के लिए अधिक उपयोगी माने जाते हैं, जो निम्न प्रकार हैं :

(a) तबा का शिक्षण प्रतिमान

इस प्रतिमान के प्रयोग से बालकों की तार्किक क्षमताओं का विकास किया जाता है। शिक्षक को छात्रों के चिन्तन तथा कौशल के विकास में सहायता प्रदान करनी होती है। इसके लिए पाठ्यक्रम में तीन क्रियाओं को सम्मिलित करना चाहिए :

(1) प्रत्यय की रचना।

(2) प्रदत्तों के आधार पर व्याख्या तथा सामान्यीकरण करना।

(3) अधिनियमों तथा सिद्धान्तों के आधार पर तथ्यों की व्याख्या तथा पूर्व कथन करना।

इन कार्यों के संचालन में बाह्य क्रियाओं तथा आन्तरिक चिन्तन का प्रयोग किया जाता है। छात्र की अन्तःप्रक्रिया के लिए प्रश्नों की सहायता ली जाती है। क्या, कैसे, कहाँ के बाद क्यों ? के प्रश्न पूछने चाहिए। छात्र को विश्लेषण तथा सामान्यीकरण के लिए अवसर देना चाहिए। शिक्षक को ऐसे अवसरों पर निर्देशन कार्य करना चाहिए।

(b) टरनर शिक्षण प्रतिमान

 इस प्रतिमान में टरनर तथा फातू ने प्रमुख रूप से यह प्रयास किया है कि शिक्षण अधिगम को कठिनाइयों का निर्धारण करना चाहिए। शिक्षक को पाठ्य-वस्तु का स्वामित्व जितना आवश्यक है, उतना ही छात्रों के अधिगम के कठिनाइयों का समाधान करना आवश्यक होता है ।

इस प्रतिमान में अनुकरणीय शिक्षण को प्रयुक्त किया जाता है जिसमें छात्रों के अधिगम की कठिनाइयों का बोध होता है तथा सुधार के लिए सुझाव दिए जाते हैं। इसका प्रयोग कक्षा शिक्षण में ही नहीं किया जाता है, अपितु प्रशिक्षण के लिए भी उपयोगी होता है।

(c) शिक्षण अभिविन्यास विषमता प्रतिमान

 यह प्रतिमान फलैण्डर्स का अन्तःप्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान ही है। इसका उल्लेख मनोवैज्ञानिक प्रतिमानों में किया जा चुका है प्रतिमान का उपयोग अध्यापक शिक्षा में छात्राध्यापक के व्यवहार में परिवर्तन में किया जा सकता है। इसका प्रयोग शिक्षण में पृष्ठ पोषण प्रविधि के रूप में किया जाता है छात्राध्यापक अपने स्वयं के व्यवहार का विश्लेषण करके कला शिक्षण के लिए समुचित आव्यूह का निर्माण कर सकता है। । इस

(d) फाक्स-लिपिट विषमता प्रतिमान

 इस प्रतिमान में शिक्षण की प्रक्रियाओं का विश्लेषण किया जाता है। शिक्षक सदा, प्रदा शिक्षण पदों का विश्लेषण करता है। प्रदा (Output) के आधार पर शिक्षक अपने अदा (Input) में सुधार तथा विकास करता है तथा उसके प्रदा का पुनः मूल्यांकन करता है जिसे ग्लेसर ने पृष्ठ पोषण के रूप में प्रयुक्त किया है। इसमें शिक्षक स्वयं समस्या का चयन करके उसका विश्लेषण करता है और निदान के आधार पर सुधारने का प्रयास करता है। इसमें निर्देशन बहुत कम दिया जाता है। इस चक्रीय विश्लेषण से छात्राध्यापक अपने शिक्षक की समस्याओं का समाधान करके, शिक्षण क्षमताओं तथा कौशलों का विकास करता है।

(5) आधुनिक शिक्षण प्रतिमान (Modern Teaching Models)

 बी. आर. जुआइस (Bruce R. Joyce) ने सभी शिक्षण प्रतिमानों की समीक्षा करके चार परिवारों में विभाजित किया है इन्होंने प्रतिमानों के वर्गीकरण के लक्ष्य (Goals) को आधार माना है, प्रथम वर्ग में सामाजिक अन्तःप्रक्रिया, द्वितीय वर्ग में सूचना प्रक्रिया ( Information Process) तृतीय वर्ग में व्यक्तिगत विकास (Personal Development) और चतुर्थ वर्ग में व्यवहार परिवर्तन (Behaviour changing) के विकास को महत्त्व दिया है।

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