शिक्षण नियोजन की मूलभूत मान्यताएँ क्या हैं?(What are basic assumphens of planning teaching?)
हमने शिक्षण की जिन सामान्य मान्यताओं का वर्णन किया है, वे सभी शिक्षकों के लिये अत्यन्त उपयोगी हैं। यदि वे अपने शिक्षण को लाभप्रद और प्रभावशाली बनाना चाहते हैं तो इनका अनुशरण किया जाना अनिवार्य है। इन मान्यताओं में से वे भले ही किसी को किसी समय भूल जायें, पर उन्हें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि छात्रों को सीखने के लिये प्रेरित करके ही सिखाया जा सकता है। मन (Mann) ने उचित लिखा है—“जो शिक्षक छात्र को सीखने की इच्छा से प्रेरित किये बिना सिखाने का प्रयास करता है वह केवल ठण्डे लोहे पर हथौड़ा बजाता है।” शिक्षण की मान्यताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) शिक्षक व्यावसायिक है या होना चाहिये जो कि शिक्षण कार्य के बारे में सभी प्रकार के निर्णय लेने योग्य हो ।
(ii) शिक्षण का प्राथमिक उद्देश्य – विद्यार्थी- अधिगम (Student Learning) को प्रोत्साहित करना है।
(iii) विद्यार्थियों में अधिगम और उनके व्यवहार में आये परिवर्तनों को प्रेक्षण द्वारा मापा जा सकता है ।
(iv) शिक्षण एक कठिन प्रक्रिया है जो उन शक्तियों से, जिनसे शिक्षक आंशिक रूप से अवगत होते और वे आंशिक रूप से ही नियंत्रित कर सकते, से प्रभावित होती है।
(v) शिक्षण वह क्रिया है जिसकी व्याख्या और विश्लेषण हो सके।
(vi) शिक्षकों को अपने शिक्षण के बारे में वस्तुनिष्ठ प्रमाण प्रयोग करने चाहिये और इसी प्रकार विद्यार्थी के अधिगम पर प्रभाव और अपने शिक्षण का मूल्यांकन करने के लिये वस्तुनिष्ठ प्रमाणों का प्रयोग करें।
शिक्षक की मान्यताएँ (Assumptions of Teacher )
1. बालक स्वभाव से क्रियाशील होता है। अतः उसे करके सीखने का अवसर देना चाहिये-बालक के जीवन की प्रमुख विशेषता शारीरिक और मानसिक क्रियाशीलता है। यही कारण है कि शिक्षाशास्त्री सदैव से इस बात पर बल देते आये हैं कि बालक के शरीर और मस्तिष्क को क्रियाशील बनाकर ही उनकी किसी बात को भली प्रकार सिखाया जा सकता है। उदाहरणार्थ, फ्रॉबेल (Froebel) का कथन है-” बालक क्रिया के द्वारा ही कार्य को सीखता है। अतः जहाँ तक सम्भव हो सके, उसे ‘करके सीखने’ (Learning by Doing) का अवसर दिया जाये।
2. प्रेरणा क्रियाशीलता उत्पन्न करती है । अतः बालक को सीखने के लिये प्रेरित करना चाहिये-प्रेरणा व्यक्ति की वह आन्तरिक स्थिति है, जो उसमें ऐसी क्रियाशीलता उत्पन्न करती है, जो लक्ष्य की प्राप्ति तक चलती रहती है। प्रेरित हो जाने पर बालक स्वयं क्रियाशील हो जाता है, जिससे वह अपने आप कार्य में रुचि लेने लगता है। परिणामतः उसकी सीखने की प्रक्रिया सरल और तीव्र हो जाती है।
3. जीवन एक अनुभव है । अतः बालक को सिखाई जाने वाली बात का सम्बन्ध उसके जीवन के अनुभवों से होना चाहिये-जीवन एक निरन्तर अनुभव है। हम प्रतिदिन अनुभव प्राप्त करते हैं, पर इन अनुभवों में से केवल वे ही स्थायी हो पाते हैं, जिनका सम्बन्ध पिछले अनुभवों से होता है। अतः बालक के अनुभवों का उसके पुराने अनुभवों से सम्बन्ध स्थापित किया जाना आवश्यक है। ऐसा करने से बालक नये अनुभव या ज्ञान को सरलता और सुगमता से सीखकर उसको अपने जीवन का स्थायी अंग बना लेता है।
4. सफलता का आधार पूर्व नियोजन है, अतः शिक्षण को सफल बनाने के लिये पाठ्य-विषय का पूर्व नियोजन करना चाहिये – कुशल शिक्षण का आधार नियोजन है। अतः किसी भी पाठ को पढ़ाने से पूर्व शिक्षक को यह निश्चित कर लेना चाहिये कि उसे उसमें क्या पढ़ाना है, किस विधि को अपनाना है, किस सहायक सामग्री का प्रयोग करना है और सम्भावित समस्याओं को किस प्रकार हल करना है। ऐसा न करने से शिक्षण के समय उसके सामने संकटपूर्ण स्थिति आ सकती है, पर उसे यह नहीं भूलना चाहिये कि पाठ योजना उसकी स्वामिनी न होकर सेविका है।
5. ज्ञान अति विस्तृत है। अतः बालक की योग्यता के अनुसार उसमें से केवल उपयोगी बातों का ही चयन करना चाहिये – शिक्षक किसी भी बात से सम्बन्धित सम्पूर्ण ज्ञान को बालकों को 40 या 45 मिनट की अवधि में प्रदान नहीं कर सकता है। अत: उसके लिये यह चयन करना आवश्यक हो जाता है कि वह क्या और कितना पढ़ाये; उदाहरणार्थ- भूगोल का शिक्षक संसार में पाई जाने वाली सभी प्रकार की जलवायु का ज्ञान एक घण्टे में नहीं दे सकता है। उसे उसमें से किसी एक प्रकार की जलवायु का चयन करना पड़ेगा।
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