महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन (Gandhiji’s Philosophy of Education)
महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन- महात्मा गाँधी भारतीय संस्कृति एवं भारतीय परम्परा के एक महान् पुरुष माने जाते हैं। उनका यह महान कार्य केवल दार्शनिक, चिन्तन अथवा धार्मिक मीमांसा तक ही सीमित न था वरन् वह दार्शनिक विचारक अथवा धर्म मीमांसा से बढ़कर अपने युग के महान शिक्षा-शास्त्री भी थे। महात्मा गाँधी का आविर्भाव भारतीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना है। वस्तुतः इनका कार्य इतना व्यापक, विशाल तथा सारगर्भित है कि उसमें समस्त धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक मूल्यों तथा धारंणाओं और विचारों का समाहार हो जाता है। सामान्यतः शिक्षा के क्षेत्र में मौलिक रूप से चिन्तन करने वाले व्यक्ति को शिक्षा शास्त्री कहा जाता है परन्तु जब हम गाँधी जी के शिक्षा-दर्शन का आलोचनात्मक अध्ययन कर रहे. हैं तो हमें बड़ी गम्भीरता से इस बारे में विचार करना चाहिए कि उन्होंने किस प्रकार जीवन जगत् की समस्याओं पर सामाजिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में अपने ढंग से उस समाधान को क्रियान्वित करने की योजना प्रस्तावित करता है।
अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से शिक्षा दर्शन का सम्बन्ध कर्म-योग, कर्म-फल और आत्मा की अमरता का मानवीय दृष्टिकोण है। वास्तव में एक शिक्षा शास्त्री के लिए मौलिक प्रतिभा तथा दार्शनिक चिन्तन की क्षमता का ही प्रदर्शन पर्याप्त नहीं होता है। शिक्षा शास्त्री में निश्चित गुणों के साथ-साथ अन्य ऐसी विशेषतायें भी होनी चाहिए जो उसे युगों-युगों तक चिर-स्मरणीय बना दे| गाँधी जी ने समस्त विश्व का बौद्धिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक संरचना का सजग चित्रण प्रस्तुत किया है महात्मा गाँधी के ग्रन्थों के आधार पर उनके शिक्षा-दर्शन का सुव्यवस्थित एवं प्रयोगात्मक रूप दृष्टिगोचर होता है। महात्मा गाँधी, स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर, स्वामी दयानन्द, डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् की शिक्षा प्रणालियों के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र का चिन्तन करने के परिणामस्वरूप ही ये शिक्षाविद् ऐसा सर्वांगीण शिक्षा-दर्शन विकसित कर पाये जो भारतीय शिक्षा जगत् की महान् उपलब्धि है।
महात्मा गाँधी ने शिक्षा के सभी अंगों पर राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में अपने विचार अभिव्यक्त किये हैं उनके लेखों व सम्पादकीयों में शिक्षा का स्वरूप, शिक्षा के उद्देश्य, शिक्षण विधियाँ, पाठ्यक्रम, शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध तथा अनुशासन और धार्मिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा आदि सभी विषयों में पर्याप्त समृद्ध चिन्तन मिलता है। इनके सम्पूर्ण चिन्तन में राष्ट्रीयता क्की भावना का समावेश है। अतः शिक्षा सम्बन्धी विचारों की उच्चता, चिन्तन की प्रखरता एवं मनन की उत्कृष्टता के कारण महात्मा जी को शिक्षा दार्शनिक मानना तथ्यों की उपेक्षा नहीं होगा।
भारतवर्ष में शिक्षा के क्षेत्र में प्रचलित दोषों से शिक्षा को मुक्त करने तथा उसे देश की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने की आवयश्यकता पर महात्मा गाँधी ने बल दिया है। वह शिक्षा का भारतीयकरण करना चाहते थे। वे भारत के श्रेष्ठतम आदर्श पुरुष थे। भारत के किसी भी महापुरुष ने अपने समय में इतनी लम्बी अवधि तक कठिन संघर्षों में इतनी सच्चाई, लगन, दया, आत्म-त्याग, विनय सेवा और अहिंसा का जीवन नहीं बिताया जितना गाँधी जी ने बिताया । उनके शिक्षा दर्शन का विकास सहसा नहीं हुआ है बल्कि ठोस तथा सबल पृष्ठभूमि में ही उनके प्राज्जवल एवं उदात्त चिन्तन का विकास हुआ है।
महात्मा गाँधी ने शिक्षा पर कोई ग्रन्थ नहीं लिखा जिससे उनके शिक्षा-सम्बन्धी विचारों को क्रमानुसार समझा जा सकता है। उन्होंने समय-समय पर अपने विचार सभाओं में तथा ‘हरिजन’ के अनेक लेखों में व्यक्त किए। उनके अनुसार, शिक्षा के मूल्यों को अनुभव में ही खोजना चाहिए। शिक्षा की कोई भी योजना बने, किन्तु शिक्षा के द्वारा बालक में व्यवहार-कुशलता का आना आवश्यक है। व्यवहार के कौशल प्राप्त करने के लिए बालक को हस्त-कार्य, निरीक्षण, अनुभव, प्रयोग, सेवा तथा प्रेम का आश्रय लेना होगा । गाँधी जी का कहना है कि “जो शिक्षा चित्त की शुद्धि न करे, मन और इन्द्रियों को वश में रखना न सिखाये, निर्भयता और स्वावलम्बन पैदा न करे, निर्वाह का साधन न बनाये तथा स्वतन्त्र रहने का हौसला और सामर्थ्य न उपजाये, उस शिक्षा में चाहे जितनी जानकारी का खजाना, तार्किक कुशलता और भाषा पाण्डित्य मौजूद हो वह सच्ची शिक्षा नहीं है। “
महात्मा गाँधी एक महान् दार्शनिक थे। उन्होंने विभिन्न समस्याओं एवं प्रवृत्तियों का गहन अध्ययन करके भारतीय दर्शन-शास्त्र में भारी योगदान दिया है। वेद और उपनिषद् का उनके दर्शन पर विशेष पड़ा। इसीलिए उनका दर्शन नव्य वेदान्त दर्शन कहा गया। उनके साहित्य से यह पूर्णत; स्पष्ट हो जाता है कि उनके प्रत्येक क्षण और प्राणों का हर स्पन्दन एवं हृदय की प्रत्येक धड़कन समाजोत्थान के लिए समर्पित थी ।
गाँधी जी आत्म-साक्षात्कार को ही मोक्ष मानते थे। आत्म-साक्षात्कार का सर्वोत्तम साधन मानव-सेवा है। गाँधी जी का साधना-मार्ग न तो केवल प्रवृत्ति मार्ग है, न निवृत्ति। उन्होंने विकार रहित जीवन को सर्वोत्तम जीवन माना है। आत्म समर्पण के माध्यम से कर्त्तव्य-पालन पर जोर दिया है। उनके अनुसार अपनी समस्त स्वार्थ बुद्धि का परित्याग करना आवश्यक है।
महात्मा गाँधी जी ने यथार्थ ज्ञान को विद्या, तो इसके विपरीत ज्ञान को अविद्या कहा. है। महात्मा गाँधी के अन्य दार्शनिक विचारों में कर्मयोग, कर्मफलवाद और आत्मा की अमरता, महत्त्वपूर्ण हैं।
वह ‘सर्वधर्म समभाव’ के पक्षधर थे। गाँधी जी सभी धर्म पंथों के प्रति एक-सौ कसौटी के पक्षधर थे। श्रद्धा और प्रेम तथा मनुष्य-मनुष्य के बीच सच्ची और सजीव समानता के पक्ष में थे।
राष्ट्र भक्ति और सेवा का उच्च आदर्श और जीवन शुद्धि का उत्कट से उत्कट जागरुक प्रयत्न के साथ एवं गुरुभक्ति के वातावरण का ध्यान योग, आत्मोन्नति साधना के नये नमूने राष्ट्र के सामने पेश हुए । भारत का आज का उद्बोधन सारे संसार के उद्बोध का अंग है। अगर इसका विरोध होता है तो उसे किसी प्रकार की शान्ति नहीं मिलेगी।
मनुष्य की वृत्तियाँ चंचल है, ज्यादा लेकर भी वह सुखी नहीं होता। भोग भोगने से भोगने की इच्छा बढ़ती जाती है। गाँधी जी के जीवन दर्शन में, भगवान के नाम पर किया गया। और उसे समर्पित किया गया कोई भी काम छोटा नहीं है। सम्पूर्ण जीवन परहित-साधन, मानव सेवा तथा देश सेवा में व्यतीत हुआ। उनका जीवन परिपूर्ण व्यस्तता, साधना तथा वैराग्य का था। उनका कहना था कि सत्य के बिना किसी भी नियम का शुद्ध पान नामुमकिन है।
शिक्षा का वृहद् अर्थ मानव को समाज के अनुकूल बनाना है। मनुष्य और समाज का आध्यात्मिक और बौद्धिक उत्कर्ष शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव है। शिक्षा द्वारा समाज अपनी संस्कृति की रक्षा करता है। सुख-समृद्धि लाने का कार्य भी शिक्षा द्वारा ही सम्भव है।
शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। पाश्चात्य शिक्षा शास्त्रियों के अनुसार बालकों को पूर्वजों के वैयक्तिक, सामाजिक और राजनैतिक अनुभवों, नियमों का व्यावहारिक ज्ञान देना ही शिक्षा है। आदर्शवादियों के अनुसार सांस्कृतिक गुणों, बौद्धिक, सौन्दर्य बोध, नैतिक अर्थात् सत्यं, शिवम् सुन्दरम् तथा धर्म में अन्तिम चरम सत्ता का बालकों को रसास्वादन कराने वाली शिक्षा है। प्रसिद्ध पाश्चात्य शिक्षा शास्त्री रूसो ने शिक्षा को प्राकृतिक जीवन के विकास की प्रक्रिया बताया है। हरबर्ट स्पेंसर के अनुसार शिक्षा का कार्य सच्चरित्र नागरिक का निर्माण करना है। व्यवहारवादियों के अनुसार शिक्षा ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को विभिन्न परिस्थितियों में समायोजित करती है। अतः शिक्षा मानव जीवन के विकास की अनवरत प्रक्रिया है।
भारतीय दर्शन में जीवन की समग्र कल्पना की गई है। व्यक्ति मात्र शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक प्राणी नहीं है वरन् वह चिन्तनशील और आध्यात्मिक प्राणी है। उन्होंने आध्यात्मिक पक्ष पर बल दिया है।
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा वही है जो व्यक्ति को यथार्थ एवं वस्तुगत ज्ञान प्रदान करती है। इसी यथार्थ एवं वस्तुगत ज्ञान को सम्य ज्ञान की संज्ञा प्रदान होने से साम्य ज्ञान ही वास्तविक शिक्षा है वह जीवनोपयोगी शिक्षा पर बल देते थे। मनुष्य की आत्मा ज्ञान स्वरूप है जिसका अनावरण में अध्यापक का कार्य संकेत देना है। यह जीवन के साथ चलने वाली प्रक्रिया है।
गाँधी जी के अनुसार, “जब तक सच्चा जीवन जीना नहीं आता तब तक सारी पढ़ाई बेकार है। सच्चे जीवन में बनावट की गुंजाइश नहीं है। यथार्थ ज्ञान को महत्त्व देना एवं शिक्षा द्वारा शक्तियों का विकास करना ही गाँधी जी का उद्देश्य था। “
मनुष्य को मनुष्यत्व व समाज में समायोजन हेतु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में परिवर्तित करने का कार्य शिक्षा द्वारा सम्भव है। मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति भोजन, वस्त्र तथा आवास आदि की भाँति शिक्षा भी मानव की मूलभूत आवश्यकता है। गाँधी जी के अनुसार ” जो शिक्षा चित्त की शुद्धि न करे, निर्वाह का साधन न बनाये तथा स्वतंत्र रहने का हौसला और सामर्थ्य न उपजाये उस शिक्षा में चाहे कितना खजाना, तार्किक कुशलता मौजूद हो वह सच्ची शिक्षा नहीं।” शिक्षा प्रकाशपुंज, अन्तर्दृष्टि तथा मनुष्य का तीसरा नेत्र माना जाता है । उसका जीवन में गहन महत्त्व एवं आवश्यकता है।
शिक्षा समाज की आवश्यकताओं, परम्पराओं, प्रथाओं में सहायक है। अतः व्यक्ति शिक्षा द्वारा ही समाज में समायोजन करता है जिससे समाज में सभ्यता, संस्कृति एवं धर्म आदि का विकास होता है। शिक्षा के अभाव में व्यक्ति पत्थर के समान है। जिस प्रकार पत्थर कलाकार के हाथ में आने पर सुन्दर-सुन्दर कलाकृतियों को धारण करके अपने आपको सार्थक समझते हैं उसी प्रकार शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियाँ, गुणों का प्रस्फुटन करती हैं।
वर्तमान शिक्षा के दोषों को दूर करने के लिए गाँधी जी ने शिक्षा में क्रान्तिकारी परिवर्तन किये। उनकी नवीन शिक्षा पर विचार करने के लिए बेसिक शिक्षा जीवन व्यापी और राष्ट्र व्यापी निर्माण की प्रक्रिया थी ।
गाँधी जी की शिक्षा के उद्देश्य (Ganidhiji’s Aims of Education)
शिक्षा मनुष्य की नैसर्गिक चेष्टा है। उसकी विकास की प्रवृत्ति है। सम्पूर्ण जीवन का विकास ही शिक्षा का उद्देश्य है एवं लक्ष्य प्राप्ति का साधन । समाज के अनुरूप ही शिक्षा के उद्देश्यों की रचना होती है। विभिन्न समाज के दर्शनों द्वारा शिक्षा के उद्देश्य, लक्ष्य एवं मूल्यों में परिवर्तन होता रहता है।
वर्तमान भारतीय दार्शनिक विचारधारा नैतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक मान्यताओं पर आधारित है। अन्तरात्मा की आवाज सुनने, समझने एवं उसके अनुसरण की योग्यता प्रदान करना है। गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में स्वावलम्बन लाना है। व्यक्ति का व्यावसायिक, सांस्कृतिक, चरित्र विकास एवं सर्वांगीण विकास करना ही शैक्षिक उद्देश्य है। गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का कोई एक उद्देश्य नहीं हो सकता है। उन्होंने जीवन के सभी पक्षों को ध्यान में रखा है और शिक्षा को तदनुसार कई दृष्टिकोणों से देखा है।
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा के द्वारा व्यक्ति में स्वावलम्बन का गुण आना आवश्यक है। जब बालक विद्यालयीय शिक्षा समाप्त करे तो वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके, इसके लिए उसे व्यावसायिक दक्षता प्राप्त करनी होगी। व्यवसाय में कुशलता प्राप्त करना देश और समाज के लिए तो लाभकारी है ही, स्वयं व्यक्ति के लिए भी आवश्यक है। शिक्षा प्राप्त करने पर भी यदि बालक बेकार रहता है तो इसमें शिक्षा का ही दोष है। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि गाँधी जी यहाँ पर जीविकोपार्जन के उद्देश्य का समर्थन करते दिखायी पड़ते हैं । व्यावसायिक उद्देश्य तथा जीविकोपार्जन के उद्देश्य पर गाँधी जी ने वल दिया है।
गाँधी जी व्यवसाय को जीवन के साध्य के रूप में कभी नहीं स्वीकर कर सकते थे अतः उनहोंने संस्कृति की ओर भी ध्यान दिया । कस्तूरबा बालिकाश्रम नई दिल्ली में 22 अप्रैल 1946 को व्याख्यान देते हुए गाँधी जी ने कहा था, “मैं शिक्षा के साहित्यिक पक्ष की अपेक्षा सांस्कृतिक पक्ष को अधिक महत्त्व देता हूँ। संस्कृति प्रारम्भिक वस्तु एवं आधार हैं जिसे बालिकाओं को यहाँ से ग्रहण करना चाहिये।” इस दृष्टि से गाँधी जी शिक्षा के सांस्कृतिक उद्देश्य को महत्त्वपूर्ण मानते थे।
चरित्र विकास भी गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है, “मैंने हृदय की संस्कृति या चरित्र-निर्माण को सदा प्रथम स्थान दिया है। मैंने चरित्र-निर्माण को शिक्षा की उपयुक्त आधारशिला माना है।”
गाँधी जी जीवन के किसी पक्ष तक ही अपने विचार सीमित नहीं रखते थे। वे बालक के सर्वांगीण विकास को शिक्षा का उद्देश्य मानते थे। उनके अनुसार शिक्षा का अर्थ शरीर, मन तथा आत्मा, सभी का सर्वोत्तम विकास है। किसी एक पक्ष का विकास एकांगी है।
उपर्युक्त शैक्षिक उद्देश्यों के अतिरिक्त गाँधी जी प्राचीन भारतीय ऋषियों की भाँति यह भी कहते थे कि विद्या सदा मुक्ति के लिए होनी चाहिए। ‘सा विद्या या विमुक्तये’ उनका भी आदर्श था। शिक्षा द्वारा आध्यात्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए।
आध्यात्मिक स्वतन्त्रता की प्राप्ति से ईश्वर का ज्ञान एवं आत्मानुभूति होती है। शिक्षा का यही अन्तिम लक्ष्य है। अन्य उद्देश्य तो तात्कालिक हैं। चरम लक्ष्य के रूप में गाँधी जी ईश्वर के ज्ञान एवं आत्मानुभूति को ही स्वीकार करते थे।
गाँधी जी के शैक्षिक उद्देश्यों को यदि हम वैयक्तिक एवं सामाजिक दृष्टि से देखें तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि उनके अनुसार शिक्षा के उद्देश्य दोनों प्रकार के हैं। वे वैयक्तिक स्वतन्त्रता का सदा आदर करते थे किन्तु व्यक्ति को वे सामाजिक प्राणी के रूप में ही देखते थे। उनका विचार था कि व्यक्तित्व का विकास शून्य में असम्भव है।
गाँधी जी का पाठ्यक्रम (Gandhiji’s Curriculum)
गाँधी जी ने उद्देश्यों के अनुसार पाठ्यक्रम में निर्धारित ज्ञान या क्रिया को विद्यार्थी तक पहुँचाने का प्रयास किया है। दर्शन में शिक्षा के लक्ष्य के अनुसार शिक्षण पद्धति निश्चित होती है। उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु विधियों का चयन एवं सम्पर्क स्थापित करना है।
गाँधी जी प्रचलित शिक्षण पद्धति को दोषपूर्ण समझते थे। पद्धति ऐसी हो जो आर्थिक रूप से आवश्यक हो। क्रिया-प्रधान शिक्षण विधियों को बल दिया गया है। क्राफ्ट शिक्षण पद्धतिं का बल दिया गया है। अनुभव द्वारा सीखने को प्रोत्साहन दिया है।
शिक्षा एक ऐसा साधन है जो पिछड़े लोगों और शोषित वर्गों के वैमनस्य को मिटाने में योग दे सकता है शिक्षा द्वारा पिछड़ापन एवं शोषित वर्ग की असुरक्षा की भावना को दूर किया जाये। सभी को समान अवसर एवं सुविधायें दी जायें। अवांछित प्रवृत्तियों के सुधार हेतु वातावरण का गठन करना है।
गाँधी जी ने देश की आधारभूत आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर प्रचलित शिक्षा पाठ्यक्रम की उपेक्षा की है। अध्यापक को समाज और बालक दोनों की आवश्यकताओं का पता लगाकर बालक की क्षमता, रुचि तथा स्वभाव आदि के अनुकूल पाठ्यक्रम संजोयें तभी व्यक्ति समस्त उपलब्धियों को प्राप्त कर सकता है जो देश की आधारभूत आवश्यकतायें हैं।
गाँधी जी के विचार से परम्परागत पाठ्यक्रम ऐसा नहीं होना चाहिए जिससे केवल बौद्धिक विकास हो वरन् किसी क्राफ्ट को केन्द्र मानकर शिक्षा दी जाये जिससे उसका सर्वांगीण विकास हो क्योंकि समन्वित पाठ्यक्रम ही बालक को विवेकशील, बुद्धिमान, स्वस्थ, भावात्मक दृष्टि से सबल, जीविकोपार्जन में सफल बना सकता है।
गाँधी जी के शिक्षा-दर्शन में क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम को महत्त्व दिया गया है। क्राफ्ट कोई भी हो सकता है— कृषि, कताई-बुनाई, गत्ते का कार्य, लकड़ी का कार्य आदि । ये सभी क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम में समन्वित हैं जिससे मौजूदा सामाजिक कटुता की बुराइयाँ बड़ी हद तक दूर होने में सहायता मिलेगी।
गाँधी जी ने नवीन पाठ्यक्रम में शिक्षण को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया । प्रस्तावित पाठ्यक्रम-हस्तकला एवं उद्योग, मातृभाषा, हिन्दुस्तानी व्यावहारिक गणित, सामाजिक विषय, सामान्य विज्ञान, संगीत, चित्रकला, स्वास्थ्य विज्ञान, आचरण शिक्षा आदि विषयों का निर्धारण व्यक्ति के सर्वांगीण विकास हेतु माना है।
गाँधी जी के विचार से पाठ्यक्रम ऐसा नहीं होना चाहिये कि उससे केवल बौद्धिक विकास हो । बौद्धिक विकास तो केवल साहित्यिक विषयों से हो सकता है किन्तु उनसे शारीरिक एवं आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं है। प्रचलित शिक्षा में शारीरिक एवं आध्यात्मिक विकास की उपेक्षा की गयी । केवल मस्तिष्क को शिक्षित करने का प्रयत्न किया गया है। गाँधी जी के अनुसार, यदि पाठ्यक्रम में किसी क्राफ्ट को केन्द्रीय स्थान दिया जाय तो प्रचलित शिक्षा के दोष दूर हो सकते हैं। अतः उन्होंने क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम की योजना बनायी।
इस नवीन पाठ्यक्रम में क्राफ्ट को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया। क्राफ्ट कोई भी हो सकता है । भारतीय समाज की दृष्टि से कृषि, कताई-बुनाई, गत्ते का कार्य, लकड़ी का काम, धातु का काम आदि में से एक क्राफ्ट को चुना जा सकता है। कताई-बुनाई की ओर विशेष रुचि प्रदर्शित की गयी।
भी इस पाठ्यक्रम में मातृभाषा को प्रमुख स्थान दिया गया। शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा को ही स्वीकार किया गया। गणित, सामाजिक अध्ययन, ड्राइंग तथा संगीत भी पाठ्यक्रम में अवश्य होने चाहिए। सामान्य विज्ञान को भी रखा गया। सामान्य विज्ञान में जीव विज्ञान, शरीर विज्ञान, रसायन शास्त्र, स्वास्थ्य विज्ञान, प्राकृतिक अध्ययन, भौतिक संस्कृति तथा नक्षत्र के सामान्य तत्त्व निहित हैं।
गाँधी जी का यह पाठ्यक्रम प्राथमिक एवं लघु माध्यमिक स्तर तक ही सीमित है। उन्होंने सर्वाधिक विचार इसी स्तर के लिए किया। उनकी नवीन शिक्षा योजना नई तालीम, बुनियादी तालीम, बेसिक शिक्षा आदि के नाम से सामने आयी । पाँचवीं कक्षा तक के बालकों एवं बालिकाओं के लिए एक ही प्रकार का पाठ्यक्रम होना चाहिए। इसके बाद बालिकाओं को सामान्य विज्ञान के स्थान पर गृह विज्ञान पढ़ाना चाहिए।
गाँधी जी की शिक्षण विधि (Gandhiji’s Method of Teaching)
गाँधी जी ने जिस नवीन शिक्षा-योजना का विचार जनता के समक्ष रखा उसमें शिक्षण-विधि नितान्त नवीन है । प्रचलित शिक्षण-विधि में अध्यापक एवं छात्र में कोई सम्पर्क नहीं रहता । अध्यापक व्याख्यान देकर चला जाता है। छात्र निष्क्रिय श्रोता के रूप में बैठे रहते हैं। इस प्रकार की दोषपूर्ण शिक्षण-पद्धति के विपरीत गाँधी जी ऐसी शिक्षण प्रक्रिया को लाना चाहते थे जिसमें छात्र और शिक्षक के बीच की खाई कम हो और छात्र निष्क्रिय श्रोता के रूप में न होकर सक्रिय अनुसन्धानकर्त्ता, निरीक्षणकर्त्ता एवं प्रयोगकर्त्ता के रूप में हो।
शिक्षण-विधि में गाँधी जी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन चाहते थे। इस परिवर्तन की दिशा में वे पहली बात यह चाहते थे कि शिक्षण का माध्यम मातृभाषा हो । दूसरी महत्त्वपूर्ण बात वे यह चाहते थे कि शिक्षण पुस्तकीय न होकर क्राफ्ट-केन्द्रित शिक्षा के द्वारा वे बालकों को हाथों की शिक्षा देना चाहते थे।
क्राफ्ट-केन्द्रित शिक्षण विधि में क्रिया एवं अनुभव पर बल है। इस प्रकार की शिक्षण-पद्धति की आवश्यक प्रविधि है— समन्वय विभिन्न विषयों की शिक्षा पृथक विषय के रूप में न होकर समन्वित ज्ञान के रूप में होगी। क्राफ्ट का शिक्षण केन्द्र बिन्दु होगा और सभी विषय क्राफ्ट से समन्वित किए जायेंगे।
गाँधी जी ने शिक्षा की जो नवीन योजना भारत के समक्ष रखी उसमें श्रम को आध्यात्मिक एवं नैतिक महत्त्व प्रदान किया गया है। वे शिल्प के द्वारा बालक को गीता में वर्णित निष्काम कर्म के महत्त्व से परिचित कराना चाहते थे और देश की गरीबी को दूर करने के लिए शिक्षा में आमूल परिवर्तन करना चाहते थे। उनके इसी प्रकार के चिन्तन एवं ट्रान्सवाल में टॉलस्टॉय फार्म पर किये गये उनके प्रयोगों के परिणामस्वरूप शिल्प-केन्द्रित शिक्षा का उदय हुआ ।
गाँधी जी की शैक्षिक विचारधारा की कुछ विशेषताएँ (Some Characteristics of Educational Thoughts of Gandhiji)
महात्मा गाँधी भारतीय संस्कृति एवं परम्परा के महान पुरुष माने जाते हैं। उन्होंने अपने ज्ञान लोक से न केवल भारतवर्ष को ही आलोकित किया वरन् उनके दिव्य प्रकाश से समस्त विश्व प्रकाशमान हो उठा था। वे भारत की दिव्य विभूति हैं। शिक्षा क्षेत्र में मौलिक रूप से चिन्तन करने वाले व्यक्तियों को ही शिक्षा-शास्त्री कहा जाता है। गाँधी जी भी मौलिक विचारक थे उन्होंने अपने चिन्तन से शिक्षा जगत् को नई दिशा प्रदान की। महात्मा गाँधी सर्वश्रेष्ठ शिक्षा शास्त्रियों की श्रेणी में आते है।
यद्यपि स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त शिक्षा के मूल लक्ष्य भारतीयों में उनकी संस्कृति, सभ्यता तथा उनके भूतकालिक गौरव तथा उनके इतिहास से परिचित कराना होना चाहिए था। उनकी प्राप्ति नहीं हो पाई थी क्योंकि राष्ट्रीय भावना को मानवता के भाव को उत्पन्न करने वाली प्रेरणा का अभाव था । प्रचलित दोषों से शिक्षा को मुक्त करने तथा देश की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने की आवश्यकता पर महात्मा गाँधी जी ने बल दिया। वे शिक्षा का भारतीयकरण करना चाहते थे।
गाँधी जी के दर्शन में वे सभी गुण निहित थे, जिसे हम भारतीयता समझते हैं। वे भारत के श्रेष्ठतम आदर्श पुरुष थे। उनके विचारों का भारतीय जनमानस पर गहरा प्रभाव पड़ा। जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य घोषित करके शिक्षा शास्त्र में ज्ञान एंव शिक्षा के अटूट सम्बन्ध की स्थापना की । वह दार्शनिक विचारक थे। उन्होंने विभिन्न समस्याओं एवं प्रवृत्तियों का गहन अध्ययन करके भारतीय दर्शन में भारी योगदान दिया। गाँधी जी ने मानव मन में ज्ञान धारण करने की अद्भुत शक्तियों का भौतिक जगत् में समन्वय किया है। मोक्ष को मानवता की सेवा माना है।
महात्मा गाँधी ने राजनीतिक, सामाजिक व अन्य क्षेत्रों में इतनी ख्याति अर्जित की और राजनीति तथा समाज के क्षेत्र में उनका योगदान इतना महान् रहा कि उनका शिक्षा क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रायः लोगों की दृष्टि से ओझल हो जाता है। किन्तु शिक्षा के क्षेत्र में उनकी विचारधारा किसी उच्च कोटि के शिक्षा शास्त्री की विचारधारा से किसी भी प्रकार कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
गाँधी जी ने शिक्षा के उद्देश्यों के रूप में वैयक्तिक एवं सामाजिक, दोनों प्रकार के उद्देश्यों का प्रतिपादन किया है। व्यक्ति और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं, न कि विरोधी । गाँधीजी बालकों में नैतिक गुणों का विकास करना चाहते थे। साक्षरता अपने आप में शिक्षा नहीं है। बच्चे का शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास ही शिक्षा है। जीवन में श्रम का अत्यधिक महत्त्व है। गाँधी जी श्रम को जीवन का आवश्यक आधार बताते थे। कहीं ऐसा न हो कि बालक श्रम से घृणा करने लगे। गाँधी जी बालकों में श्रम का आदर जगाकर उसमें श्रम की आदत डालना चाहते थे।
बालक की शिक्षा शिल्प-केन्द्रित होनी चाहिए। शिल्प-केन्द्रित शिक्षा के अनेक लाभ हैं। मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक, सभी दृष्टिकोणों से शिल्प-केन्द्रित शिक्षा उपयुक्त समझ पड़ती है। गाँधी जी के अनुसार शिक्षण का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए। विद्यालय में इस प्रकार का वातावरण रहना चाहिए कि बालक प्रयोग कर सकें। प्रयोगों के अवसर बालकों को मिलने ही चाहिए। प्रयोगों द्वारा वे सत्य तक सरलता से पहुँच सकते हैं । सात से चौदह वर्ष तक के बालकों के लिए उनके अनुसार शिक्षा निःशुल्क व अनिवार्य होनी चाहिये। गाँधी जी विषयों को नितान्त पृथक् रूप में पढ़ाने के विरुद्ध थे । ज्ञान अन्ततः एक है। विषयों की दीवारें कृत्रिम एवं सुविधाजन्य हैं। अतः विषयों को यथासम्भव साहचर्य – विधि से पढ़ाना चाहिए।
उपर्युक्त सभी विचार प्रगतिशील विचार हैं। इनमें मनोवैज्ञानिक पुट है। दर्शन सम्मतता भी इनमें है। सामाजिक दृष्टिकोण से भी ये उचित ठहरते हैं और सबसे विशेष बात तो यह है कि आधुनिक शिक्षा की उत्तम प्रणालियों में ये ही सिद्धान्त हमें मिलते हैं। पश्चिम में भी उपर्युक्त सिद्धान्त प्रगतिशील शैक्षिक विचारधारा के सिद्धान्त हैं। प्रोजेक्ट-विधि समस्या-विधि, कॉम्प्लेक्स-विधि आदि ऐसी शिक्षण-विधियाँ हैं जिनमें हम गाँधी जी द्वारा समर्थित सिद्धान्तों को देख सकते हैं, यद्यपि यह कहना कठिन है कि गाँधी जी किसी आधुनिक पश्चिमी शिक्षण-पद्धति के सिद्धान्तों का विधिवत् ज्ञान रखते थे। उनके निष्कर्ष अपने थे और इन तक वे स्वानुभव से पहुँचे थे।
गाँधी जी ग्रामीण भारत की नाड़ी पहचान गये थे। भारत गाँवों में बसा है और किसी महान् भी शिक्षा-पद्धति की सफलता यहाँ पर ग्रामीण शिक्षा के परिणामों पर ही निर्भर है। भारतीय समाज के लिए उन्होंने बेसिक शिक्षा को सर्वोत्तम शिक्षा कहा है किन्तु बेसिक शिक्षा के स्तम्भ डॉ० जाकिर हुसैन के शब्दों में, “जिस प्रकार से राज्यों में बेसिक शिक्षा व्यवहार में लाई गई है वह प्रवंचना मात्र रही है।”
- जॉन डीवी के शिक्षा दर्शन तथा जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा व्यवस्था
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- राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 [ National Policy of Education (NPE), 1986]
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