स्वामी विवेकानन्द का शिक्षा दर्शन (Educational Philosophy of Swami Vivekanand)
स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार किया है। यूरोप के अनेक नगरों का भ्रमण करते हुए उन्हें शिक्षा की भौतिक उपलब्धियाँ भी दिखाई पड़ी। भारत की निर्धनता का एक कारण उन्होंने अशिक्षा को माना।
स्वामीजी तत्कालीन शिक्षा प्रणाली से दुखी थे। उनका विचार था कि उस समय की शिक्षा मनुष्य में कोई गुण उत्पन्न नहीं करती। यह मनुष्य बनाने वाली शिक्षा है ही नहीं । उसमें कोई तत्व की बात दी ही नहीं जाती। उस शिक्षा को स्वामी जी ने निषेधात्मक शिक्षा कहा है। अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली में निषेधों पर बल दिया जाता था। उसमें हाथ-पैर से काम न करने पर, मातृभाषा के प्रयोग न करने पर, मौलिकता प्रदर्शित न करने पर बल था । अभावात्मक शिक्षा व्यक्ति को पंगु बना देती है, उसकी मौलिकता को कुण्ठित कर देती है और उसमें मनुष्यत्व के गुणों का विकास नहीं करती।
स्वामीजी के अनुसार शिक्षा को मात्र सूचना तक नहीं सीमित करना चाहिए। तमाम असम्बद्ध जानकारियों को मस्तिष्क में ठूंस देने से कोई लाभ नहीं। सूचना का अपने में कोई महत्त्व नहीं है । जो विचार जीवन-निर्माण में सहायक हों उनकी अनुभूति करना आवश्यक है । स्वामीजी के अनुसार केवल कुछ विचारों को रटकर डिग्री प्राप्त कर लेना शिक्षा नहीं है । विदेशी भाषा में कुछ रटकर अपने को शिक्षित समझने की भूल शिक्षा की जानकारी या सूचना तक सीमित रखने का परिणाम है। स्वामीजी के शब्दों में, “यदि तुम केवल पाँच ही परखे हुए विचार आत्मसात् कर उनके अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हो, तो तुम एक पूरे ग्रन्थालय को कण्ठस्थ करने वाले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हो। यदि शिक्षा का अर्थ जानकारी ही होता, तब तो पुस्तकालय संसार में सबसे बड़े सन्त हो जाते और विश्वकोष महान् ऋषि बन जाते।
व्यक्ति में ज्ञान स्वतः निहित है। ज्ञान स्वयं सिद्ध है। जन्म के समय बालक में ज्ञानराशि है स्वतः निहित है ज्ञान बाहर से नहीं आता, वह तो अन्दर ही है। उस प्रच्छन्न ज्ञान को अनावृत्त करना है। बालक को अपने अन्दर निहित ज्ञान का अन्वेषण करना है। जब हम कहते हैं कि मनुष्य जानता है तो इसका अर्थ है कि वह खोजता है, प्रकट करता है| मन में ही सारा ज्ञान निहित है, बाहरी संसार सुझाव या प्रेरणा मात्र देता है, तब व्यक्ति अपने मन काही अध्ययन करने के लिए प्रेरित होता है। न्यूटन ने गुरूत्वाकर्षण के नियम का आविष्कार किया। यह गुरूत्वाकर्षण का नियम न तो सेब में था, न पृथ्वी के किसी केन्द्रीय पदार्थ में यह तो न्यूटन के मन में था जिसे उसने अध्ययन करके प्रकट किया।
लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार का ज्ञान मानव-मन में निहित रहता है। यह प्राय: ढका रहता है। जब धीरे-धीरे आवरण हटता है तो कहा जाता है कि व्यक्ति सीख रहा है जिसके मन से आवरण पूर्णतः हट जाता है उसे सर्वज्ञ कहा जाता है । मन में ज्ञान ऐसे ही निहित है जैसे चकमक पत्थर में चिनगारी । आत्मा से ही सारा ज्ञान उद्भुत होता है। अतः कोई किसी को ज्ञान नहीं दे सकता, न ही कोई किसी को सिखा सकता है। गुरू केवल प्रेरणा दे सकता है, अत: यह कहना अधिक उपयुक्त है कि बालक स्वयं अपने को सिखाता है। ज्ञान या दिव्य ज्योति इस प्रकार ढकी रहती है जैसे लोहे के सन्दूक में बन्द दीपक । पवित्रता एवं त्याग भावना से आवरण हटता है और अवरोधक समाप्त होता है।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शैक्षिक उद्देश्य
बालक को इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जिससे उसका चरित्र बने, बुद्धि का विकास हो, मानसिक शक्ति बढ़े और वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके। मन में समस्त झुकावों और सभी प्रकार की प्रकृतियों का समवाय चरित्र है। विचारों से ही मनुष्य बनता है । जब हम विचार करते हैं तो प्रत्येक विचार हमारे शरीर पर कुछ असर डाल देता है । जिस प्रकार हथौड़े की हल्की चोट भी लोहे पर प्रभाव डालती है। विचार में सजीवता होती है। वाणी इतनी सजीव नहीं होती जितने सजीव विचार होते हैं। अतः शिक्षा द्वारा विचारों का निर्माण होना चाहिए ।
सुख-दुःख- दोनों का चरित्र की दृष्टि से महत्त्व है। कभी-कभी दुःख अधिक सबल शिक्षक होता है भलाई-बुराई में बुराई से कभी-कभी अधिक शिक्षा मिलती है। महापुरूषों की जीवनियाँ हमें बताती हैं कि महापुरूषों ने सुख की अपेक्षा दुःख, सम्पत्ति की अपेक्षा दरिद्रता एवं प्रशंसा की अपेक्षा आघातों से ही अधिक शिक्षा ग्रहण की है। आध्यात्मिक अन्तर्ज्योति तो तभी प्रकाशित होती है जब व्यक्ति के हृदय में वेदना की टीस होती है और चारों ओर से तूफानों के बादल उमड़ पड़ते हैं।
उसमें बालक का प्रत्येक विचार व कार्य मन पर एक संस्कार छोड़ जाता है चरित्र का निर्माण इन्हीं संस्कारों से होता है। बुरे कर्म बुरे संस्कार छोड़ते हैं। जो व्यक्ति सदा बुरे शब्द सुनता है, बुरे विचार सोचता है, बुरे कार्य करता है, उसका मन बुरे संस्कारों से परिपूर्ण हो जाता है और वह कुसंस्कारों के हाथों का खिलौना बनकर बुरे कर्म कर डालता है । इसी प्रकार अच्छे शब्द सुनने वाला, अच्छे विचार सोचने वाला, अच्छे संस्कार से युक्त है और इच्छा न होते हुए भी वह सत्कार्य करने के लिए विवश हो जाता है। जब व्यक्ति हो जाता संस्कारवश अच्छे कार्य करता है तभी उसका चरित्र गठित कहा जायेगा । यही चरित्र गठन शिक्षा का उद्देश्य है।
शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी प्राप्त करना नहीं होना चाहिए। नौकरी को शिक्षा का उद्देश्य मानने वाले छात्रों को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं, “तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है? या तो मुंशीगीरी मिलना, या वकील हो जाना, या अधिक से अधिक डिप्टी मजिस्ट्रेट बन जाना, मुंशीगरी का ही दूसरा रूप है-बस यही न ? इससे तुमको या तुम्हारे देश को क्या लाभ होगा ? आँखें खोलकर देखो, जो भारतखण्ड अन्न का अक्षय भण्डार रहा है, आज वहीं उसी अन्न के लिए कैसी करूण पुकार उठ रही है। क्या तुम्हारी शिक्षा इस अभाव की भाएँ करेगी। वह शिक्षा जो जनसमुदाय को जीवन-संग्राम के उपयुक्त नहीं बनाती, जो उनकी चारित्र्य-शक्ति का विकास नहीं करती, जो उनमें भूत-दया का भाव और सिंह का साहस पैदा नहीं करती, क्या उसे भी हम शिक्षा का नाम दे सकते हैं।”
शिक्षा द्वारा छात्रों में श्रद्धा की निष्पत्ति होनी चाहिए । स्वामीजी श्रद्धा को बहुत महत्त्व देते हैं और भारतीय शिक्षा प्रणाली में ‘श्रद्धा’ के अभाव से वे दुखी थे। उनके मतानुसार श्रद्धा से समस्त जगत क्रियाशील होता है और श्रद्धा के द्वारा ही मनुष्य के जीवन को समृद्धशाली बनाया जा सकता है। श्रद्धा के अभाव में मनुष्य आधारहीन हो जाता है। श्रद्धा का उन्मूलन करना मनुष्य को पतन के गर्त में ढकेलना है। आत्मज्ञान द्वारा व्यक्ति में श्रद्धा उत्पन्न होती है। बाह्य आडम्बरपूर्ण जीवन बिताना नहीं है। केश कमण्डल दण्ड से आत्मज्ञानी नहीं बन जाता। गिरिकन्दराओं में निवास करना भी इसके लिए आवश्यक नहीं है। इसका तात्पर्य है अपनी अन्तर्निहित सुप्त शक्तियों का ज्ञान प्राप्त करना । इसके लिए स्वयं पर दृढ़ विश्वास रखना आवश्यक हैं ।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार पाठ्यक्रम
एक शिक्षा शास्त्री की दृष्टि से स्वामी विवेकानन्द ने पाठ्यक्रम पर क्रमबद्ध विचार नहीं किया है। वस्तुतः उन्होंने तो शिक्षा पर भी कोई शास्त्रीय ढंग से विचार नहीं किया है। सम्पूर्ण जीवन पर विचार करते समय उन्होंने शिक्षा पर भी यत्र-तत्र अपने मत व्यक्त किये हैं और शिक्षा को सम्पूर्ण जीवन का एक अंग मानकार उस पर आध्यात्मिक दृष्टि से अद्भुत प्रेरणाप्रद सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। उनके भाषणों को यदि पाठ्यक्रम की दृष्टि से देखें तो कुछ बातें स्फुट विचार के रूप में मिल जाती हैं ।
हमारा पाठ्यक्रम ऐसा हो जिसमें निषेधात्मकता न हो। हमें छात्रों के समक्ष विधायक या भावात्मक विचार रखने चाहिए, न कि अभावात्मक या निषेधात्मक । देश को सफल बनाने के लिए जिन-जिन विषयों को पढ़ाने की आवश्यकता हो वे विषय अवश्य पढ़ाए जाएँ। वेदों का अध्ययन आवश्यक है और उदात्त वैदिक मन्त्रों की मेघगर्जना द्वारा भारत में प्राण का संचार करना है। श्री रामचन्द्र, श्रीकृष्ण, महावीर, हनुमान आदि के जीवन चरित का अध्ययन करना है। ऐसी बातें पढ़ानी हैं जिससे छात्रों में प्रबल शक्ति का संचार हो। मुरलीधर कृष्ण की अपेक्षा गीतारूपी सिंहनाद करने वाले श्री कृष्ण की उपासना करनी है ।
संगीत भी सीखना है, किन्तु वंशीनाद, खेल और करताल से देश का कल्याण नहीं होगा, अत: नगाड़े, बिगुल आदि ओजस्वी बाजों को बजाना है । कोमल संगीत को कुछ दिनों के लिए बन्द करके ध्रुपद राग की शिक्षा देनी है।
धार्मिक शिक्षा भी देनी है किन्तु आडम्बर से दूर रहना है मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर को स्वामीजी खिलवाड़ समझते थे। धर्म का क्रियात्मक अनुभव होना आवश्यक है । केवल बौद्धिक प्रशिक्षण से छात्रों में मनुष्यता के गुणों का प्रादुर्भाव नहीं होता, अतः विशिष्ट भावों को जाग्रत करना आवश्यक है। विद्यालयों में किसी मत या सम्प्रदाय की शिक्षा न देकर सभी धर्मों के सारभूत तत्त्वों की जानकारी दी जानी चाहिये। प्राचीन धर्म में नास्तिक उसे कहा गया था जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता था। नये धर्म में नास्तिक वह है जो स्वयं में विश्वास नहीं करता था। इसी नये धर्म को पाठ्यक्रम में स्थान मिलना चाहिए।
पाठ्यक्रम में सत्य का समावेश होना चाहिये। सत्य आत्मा का स्वभाव है। शरीर, बुद्धि या आत्मा को कमजोर बनाने वाला तत्त्व सत्य नहीं होता । सत्य में जीवन-शक्ति होती है, वह बलप्रद पवित्र और ज्ञान स्वरूप होता है। यह शक्ति देता है, हृदय के अन्धकार को करता है, स्फूर्ति देता है, प्रकाश देता है।
उपनिषदों का अध्ययन भी महत्त्वपूर्ण है। इनमें सत्य की स्थापना हुई है। भारत का दिव्य दर्शनशास्त्र फिर से पढ़ाना आवश्यक है। यह दर्शन बलप्रद, आलोकप्रद एवं सत्य को प्रकाशित करने वाला है । उपनिषदों के सत्य महान् होता है वह सहज भी होता है। स्वामीजी के शब्दों में, “ और उपनिषद् शक्ति की विशाल खान हैं। उनमें ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि वे समस्त संसार को तेजस्वी कर सकते हैं। उनके द्वारा समस्त संसार पुनरूज्जीवित एक शक्ति और वीर्यसम्बन्ध हो सकता है। वे तो समस्त जातियों को, सभी मतों को, भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय के दुर्बल दुःखी और पददलित लोगों को उच्च स्वर से स्वयं को अपने पैरों पर खड़े होने और मुक्त हो जाने के लिए कहा है। मुक्ति अथवा स्वाधीनता दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आध्यात्मिक स्वाधीनता—यहाँ उपनिषदों का मूल मन्त्र है।”
पाठ्यक्रम में शारीरिक प्रशिक्षण का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। शारीरिक दुर्बलता हमारे दुःखों का महत्त्वपूर्ण कारण है। इसके कारण हम आलसी बन जाते हैं, मिलकर काम नहीं कर सकते, आचरण प्रत्येक विचार को उतार नहीं पाते। नवयुवकों को बलवान बनाने के लिए शिक्षा में कुछ करना आवश्यक है। खेल-कूद का महत्त्व है। अतः खेल-कूद का अभ्यास होना आवश्यक है।
बालक को दुर्बल बनाने वाली कहानियों को पाठ्यक्रम में कोई स्थान नहीं मिलना चाहिए। छात्र को भाषा और साहित्य का भी अध्ययन कराना है, काव्य और कला की भी शिक्षा देनी है, किन्तु इन सबमें उन बातों पर बल होना चाहिए जो बालक को शक्तिशाली बना सकें। विदेशी भाषा की अपेक्षा स्वदेशी भाषाओं पर पहले अधिकार करना चाहिए। मातृभाषा पर अधिकार कर लेने के बाद विदेशी भाषा का अध्ययन लाभप्रद हो सकता है। भाषा साहित्य के शिक्षण में सदा भूलों की ओर ही संकेत नहीं होना चाहिए।
पाठ्यक्रम परिवर्तनशील होना चाहिए। विद्यार्थियों की आवश्यकता का ध्यान रखा जाए और तदनुसार शिक्षा में परिवर्तन होना चाहिए । पाठ्यक्रम ऐसा हो जो बालक को सदा आगे बढ़ने की प्रेरणा दे । किन्तु पाठ्यक्रम को सदा उच्च नैतिकता एवं उदात्त आदर्शों से युक्त होना ही चाहिए। उसके हृदय को सुसंस्कृत बनाने की प्रेरणा मिले। हमारे पाठ्यक्रम में अतीत, वर्तमान और भविष्य किसी की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। स्वामी जी के शब्दों में,
अतीत में जो कुछ भी हुआ है, वह सब हम ग्रहण करेंगे, वर्तमान में ज्ञान ज्योति का उपभोग करेंगे, और भविष्य में आने वाली बातों को ग्रहण करने के लिए अपने हृदय के सारे दरवाजों हो खुला रखेंगे। अतीत के ऋषियों को प्रणाम, वर्तमान के महापुरूष को प्रणाम और जो-जो भविष्य में आएँगे, उन सबको प्रणाम । “
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षण-विधि
स्वामी विवेकानन्द को तत्कालीन शिक्षण विधि में कोई आस्था नहीं थीं। उनके अनुसार ज्ञान की प्राप्ति का केवल एक ही मार्ग है और वह है ‘एकाग्रता’ | मन की एकाग्रता द्वारा ही शिक्षण हो सकता है, किसी अन्य विधि द्वारा नहीं । रसायन शास्त्री अपनी प्रयोगशाला में मन की सारी शक्तियों को एकाग्र करके ही सफलता प्राप्त करता है, ज्योतिषी एकाग्रता द्वारा ही दूरदर्शी यन्त्र के माध्यम से ताराओं का निरीक्षण करता है, “चाहे विद्वान | अध्यापक हो, चाहे मेधावी छात्र हो, चाहे अन्य कोई भी हो, यदि वह किसी विषय को जानने की चेष्टा कर रहा है तो उसे उपर्युक्त प्रथा से ही काम लेना पड़ेगा।”
शैक्षिक उपलब्धियाँ एकाग्रता की मात्रा पर निर्भर करती है। एकाग्रता जितनी अधिक होगी-ज्ञान भी उतना ही अधिक प्राप्त होगा । एकाग्रचित होकर चर्मकार जूता अच्छा साफ करेगा, रसोइया भोजन अच्छा बनाएगा, अर्थोपार्जक पैसा अधिक कमाएगा, ईश्वरोपासक आराधना अधिक अच्छी करेगा।
मनुष्य और पशु में भेद ही एकाग्रता को लेकर है। पशु में यह शक्ति कम होती है, मनुष्य में अधिक। निम्नतर मनुष्य में यह शक्ति कम है और उच्चतर पुरूष में अधिक। मनुष्यों में भेद इसी शक्ति के आधार पर है।
शिक्षा की सफलता इसी पर निर्भर है। कला, संगीत आदि में कुशलता का आधार ही एकाग्रता है । एकाग्रता शिक्षा की कुँजी है। छात्र का मन यदि इधर-उधर भटकता रहेगा तो उसके हाथ कुछ नहीं होगा। इस समय छात्रों की शक्ति बहुत नष्ट हो रही है। ध्यान का अभ्यास करने से मानसिक एकाग्रता प्राप्त होगी। विषय-सामग्री का संग्रह शिक्षा नहीं है, एकाग्रता का विकास शिक्षा है । एकाग्रता ऐसा साधन यन्त्र है जिसकी पूर्णता प्राप्त हो जाने पर बालक इच्छानुसार अनेक विषयों का संग्रह कर सकता है।
एकाग्रता की शक्ति प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक है। ब्रह्मचर्य से बौद्धिक एवं आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है। वासनाओं को वश में करना चाहिए। काम शक्ति को आध्यात्मिक शक्ति में रूपान्तरित कर देना चाहिए। ब्रह्मचर्य से स्मृति शक्ति का विकास होता है, प्रबल कार्य शक्ति प्राप्त होती। अमोघ इच्छा शक्ति को विकास होता है, मानव जाति की अदभुत प्रभुता मिल जाती है और पवित्रता से भाव जाग्रत होता है। अतः बालकों को ब्रह्मचर्य का अभ्यास करना चाहिए।
सीखने में स्वाभाविकता का महत्त्व है, अतः बालक में ज्ञान को हँसना नहीं चाहिए । उसे पर्याप्त स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए। अनुचित दबाब नहीं डालना चाहिए। बालक को सिंह बनने दीजिए, उसे बहुत अधिक परतन्त्र न बनाइए । बालक को सुधारने का या सिखाने का दम्भ व्यर्थ है। उसे स्वाधीन करिए और उसे स्वयं सीखने के लिए प्रेरित करिए । स्वामीजी के शब्दों में, “तुम किसी बालक को शिक्षा देने में उसी प्रकार असमर्थ हो, जैसे—किसी पौधे को बढ़ाने में। पौधा अपनी प्रकृति का विकास आप ही कर लेता है। बालक भी अपने आपको शिक्षित करता है। पर हो, तुम उसे अपने ही ढंग से आगे बढ़ने में सहायता दे सकते हो। तुम जो कुछ कर सकते हो, वह निषेधात्मक ही होगा, विधिआत्मक नहीं । तुम केवल बाधाओं को हटा सकते हो और बस ज्ञान अपने स्वाभाविक रूप से प्रकट हो जायेगा। जमीन को पोली बना दो ताकि उसमें से उगना आसान हो जाय। उसके चारों ओर घेरा बना दो और देखते रहो कि उसको कोई नष्ट न कर दे। उस बीज से उगते हुए पौधे की शारीरिक बनावट के लिए मिट्टी, पानी और समुचित वायु का प्रबन्ध कर सकते हो, और यहीं तुम्हारा कार्य समाप्त हो जाता है, वह अपने प्रकृति के अनुसार जो भी आवश्यक होगा ले लेगा। वह अपनी प्रकृति से ही सबको पचा बैठेगा। बस ऐसा ही बालक की शिक्षा के बारे में है। बालक स्वयं अपने आपको शिक्षित करता है।
स्वामीजी द्वारा समर्थित शिक्षण-विधि में पुस्तकीय शिक्षा की प्रधानता नहीं है। केवल पुस्तकों के अध्ययन को वे शिक्षा मानने को तैयार नहीं थे । पुस्तकों का अध्ययन किया जाए पर इस प्रकार नहीं जिस प्रकार आजकल किया जाता है। पुस्तकों को पढ़ने से यदि एकाग्रता नहीं विकसित होती, शिक्षा व विकास यदि नहीं होता और छात्रों में आत्म-विश्वास यदि नहीं जाग्रत होता तो उन्हें पढ़ाना व्यर्थ है।
स्वामी विवेकानन्द का विचार था कि विद्यार्थी अनुकरण द्वारा अधिक सीखते हैं। स्वामीजी कहते हैं कि, “अध्यापक के व्यक्तिगत प्रभाव के बिना कोई शिक्षा सम्भव नहीं है।” इसलिए वे गुरुगृह में गुरु सान्निध्य में शिक्षा देने की बात कहते हैं। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार – “छात्र अपनी बाल्यावस्था से ऐसे गुरु के साथ रहें जिसका चरित्र जाज्वल्यमान हो और छात्रों के सामने उच्चतम त्याग का उदाहरण हों।”
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षक एवं शिष्य
स्वामीजी के अनुसार शिक्षा ‘गुरु-गृह-वास’ है। शिक्षक के व्यक्तिगत जीवन के बिना शिक्षा नहीं हो सकती। शिक्षक का चरित्र अग्नि के समान प्रकाशमान हो। उसे उच्चतम आदर्शों की सजीव मूर्ति होना है। उसे ज्ञान के दान के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। ज्ञान का दान बिना त्याग के नहीं हो सकता, अतः उसे त्यागी भी होना चाहिए।
शिक्षक को छात्र के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए। शिष्य में सारी शक्ति लगा देने वाला ही सच्चा गुरु है। एक अच्छा शिक्षक अपने को शिष्य के स्तर पर लाकर अपनी आत्मा को शिष्य की आत्मा में प्रविष्ट कर देता है।
स्वामीजी ने शिक्षक के तीन विशेष गुण बताए हैं। प्रथम गुण है उसका शास्त्र ज्ञान । अच्छा शिक्षक शास्त्रों के मर्म को जानता है, वह शब्दों के पूरे अर्थ को जानता है। दूसरा गुण है निष्पापता। उसे हृदय और मन से पवित्र होना चाहिए। चित्त की शुद्धता के बिना वह छात्रों में आध्यात्मिक शक्ति का संचार नहीं कर सकता। तीसरा गुण यह है कि शिक्षक को धन, नाम या यश सम्बन्धी स्वार्थसिद्धि के लिए धर्म-शिक्षा नहीं देनी चाहिए। अतः गुरु में त्यागभाव आवश्यक है।
शिक्षक में अपने शिष्यों के प्रति प्रेम होना चाहिए। जिस शिक्षक के हृदय में छात्र के लिए प्रेम नहीं उमड़ता वह छात्र को कुछ भी शिक्षा नहीं दे सकता। प्रेम के संचार में लोभ नहीं आना चाहिए और न ही स्वार्थ प्रेम केवल शिष्य को निर्देशित करने के लिए हो। ऐसे प्रेम से आध्यात्मिकता जाग्रत होती है।
शुद्ध स्वामीजी ने शिष्य के लिए भी कुछ आवश्यक गुण बताये हैं। शिष्य में शुद्धता, विचार, वाणी और कर्म की पवित्रता होनी चाहिये। उसमें ज्ञान की पिपासा होनी चाहिये। जिज्ञासु ही वास्तविक शिष्य है। छात्र में लगन के साथ परिश्रम करने की इच्छा व शक्ति होनी चाहिये । शिष्य में जिज्ञासा ही वह मूल चाह है जिससे वह ज्ञान प्राप्त करता है। हम वही पाते हैं जो चाहते हैं। शिष्य के हृदय में उच्च आदर्शों के लिए व्याकुलता होनी चाहिये ।
शिष्य को गुरु में अटूट विश्वास होना चाहिए। गुरु के प्रति विश्वास, नम्रता, विनय और श्रद्धा के बिना छात्र शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता। गुरु के प्रति श्रद्धा तो हो किन्तु शिष्य मैं स्वतन्त्र चिन्तन की भी शक्ति होनी चाहिये। स्वामीजी कहते हैं, “जिन देशों में इस प्रकार के गुरु-शिष्य सम्बन्ध की अपेक्षा हुई है, वहाँ धर्मगुरु एक वक्ता मात्र रह गया है— गुरु को मतलब रहता है अपनी ‘दक्षिणा’ से और शिष्य को मतलब रहता है गुरु के ‘शब्दों’ से, जिन्हें वह अपने मस्तिष्क में ठूंस लेना चाहता है। यह हो गया तो बस दोनों अपना-अपना रास्ता नापते हैं। पर यह भी सत्य है कि किसी के प्रति अन्धी भक्ति से मनुष्य की प्रवृत्ति दुर्बलता और व्यक्तित्व की उपासना की ओर झुकने लगती है। अपने गुरु की पूजा ईश्वर दृष्टि से करो पर उनकी आज्ञा का पालन आँखें मूँदकर न करो। प्रेम तो उन पर पूर्ण रूप से करो, परन्तु स्वयं भी स्वतन्त्र रूप से विचार करो।”
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार विद्यालय एवं अनुशासन
स्वामी विवेकानन्द के विद्यालय सम्बन्धी विचार बहुत ही सीमित रूप में प्राप्त होते हैं । उन्होंने यदि शिक्षा को ‘गुरु वास’ की संज्ञा दी है तो निश्चय ही विद्यालय ‘गुरुगृह’ होगा। गुरुगृह (विद्यालय) कैसा हो इसके विषय में केवल कल्पना की जा सकती है जिसका आधार अध्यापक का गुण है। यदि अध्यापक पवित्र है, शुद्ध हृदय एवं विचार वाला है, अच्छे आचरण एवं व्यवहार वाला है, अच्छे स्वास्थ्य और मनवाला है तो निःसन्देह उसका वास स्थल उस वातावरण से पूर्ण होगा जिससे उपर्युक्त गुणों का विकास सम्भव हो सकेगा। शुद्ध वायु से पूरित, शान्त, सुखद एवं सुरम्य स्थल में और आध्यात्मिक विकास सहायक वातावरण का विद्यालय होना चाहिए। प्राचीन परम्परानुसार स्वामीजी ने ‘विद्यालय को ‘मठ’ के साथ जोड़ा है परन्तु उनके साथियों (रामकृष्ण मिशन के कार्यकर्त्ताओं) ने आधुनिक विद्यालय को जहाँ उचित स्थान मिला वहाँ स्थापित किया है। इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द के अनुसार विद्यालय व्यक्ति, शारीरिक, बौद्धिक, भावात्मक एवं आध्यात्मिक विकास के केन्द्र हैं।
स्वामी विवेकानन्द का विचार था कि बालकों को शिक्षा देने में दण्ड का प्रयोग न करके सहानुभूति का प्रयोग किया जाय। स्वामीजी गुरु एवं शिष्य दोनों में आत्मानुशासन को आवश्यक मानते हैं। उनका विचार है कि गुरु स्वयं अनुशासित रहे तभी उनके व्यवहार और आचरण से प्रभावित होकर छात्र भी अनुशासित रहेंगे । यहाँ गुरु के प्रति आदर्शवादी, गुरु प्रभावात्मक अनुशासन देखने को मिलता है। स्वामीजी छात्रों को दण्डित करने के प्रबल विरोधी थे। वे बालकों को उनकी प्रकृति के अनुरूप शिक्षा देने की बात कहते हैं। यहाँ स्वामीजी मुक्त्यात्मक अनुशासन के समर्थक मालूम पड़ते हैं किन्तु जहाँ वे छात्र को की आज्ञा का पालन एवं शीश नमन की अनिवार्यता बताते हुए कहते हैं कि, “पहले आज्ञा पालन करो, आज्ञा देना स्वयं आ जायेगा। पहले सेवक बनना सीखो, एक योग्य गुरु (स्वामी) हो जाओगे।”
स्वामी विवेकानन्द ने समाज सेवा के लिए जोर दिया है, अतएव समाज में अनुशासित व्यवहार की आवश्यकता ऐसी स्थिति में पड़ती है और व्यक्ति अपने ऊपर नियंत्रण रखता है। इस विचार से व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों प्रकार के अनुशासन को स्थापित करने के लिए स्वामीजी का विचार है। सन् 1897 ई० में स्वामीजी ने “रामकृष्ण मिशन” संघ की स्थापना की थी, उसके सामने जनसेवा और समाज सेवा का आदर्श था। इस संघ से सेवाव्रतियों के सामने “आत्मनो मोक्षार्थ जगत्हिताय च “अपनी मुक्ति तथा जगत का हितरूप युगल आदर्श स्थापित है।”
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार स्त्री-शिक्षा
वास्तव में गम्भीरता के साथ देखा जाय तो यही ज्ञात होगा कि भारत के पतन और अवनति का एक प्रमुख कारण स्त्रियों की अशिक्षा है । इसका अनिवार्य फल यह हुआ जो जाति सभी प्राचीन जातियों में सर्वश्रेष्ठ थी वही आज पृथ्वी की समस्त जातियों में तुच्छ समझी जाने लगी । यथार्थ शक्ति पूजा का आविष्कार तथा विवेचन सर्वप्रथम हमारे देश केही पूर्वजों ने किया था, आज हम ही लोग स्त्रियों के अनादर के प्रत्यक्ष दृष्टान्त स्वरूप हो गये हैं प्रत्येक भारतीय हिन्दू को चाहिए कि अपने समस्त ज्ञान को स्त्री और पुरुष में समान रूप से वितरित करे। स्त्री-शिक्षा से ही हिन्दू जाति का महान लाभ सम्भव है। क्योंकि विस्तार ही जीवन है तथा संकीर्णता ही मृत्यु है, प्रेम ही जीवन है और घृणा ही मृत्यु है । अतः प्रत्येक भारतीय हिन्दू को जीवित रहने के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने सीमित ज्ञान को असीमित लोगों में प्रचार करे। प्राचीन काल में विवाह बहुत कम आयु में ही माता-पिता कर दिया करते थे और कर्त्तव्य से मुक्त हो जाते थे। बाल-विवाह सदैव हानिकारक सिद्ध होते हैं। क्योंकि बाल-विवाह के कारण वर्तमान समय में अधिकांश हिन्दू परिवारों में विधवाओं की समस्या दिखाई देती है। इसका कारण बाल्यावस्था में ही शादी करना होता है। क्योंकि बाल्यावस्था में लड़के-लड़की को यह भी ज्ञात नहीं होता कि वे समाज के भावी निर्माता हैं और उनको किस प्रकार की सन्तान उत्पन्न करनी चाहिए जो कि लाभकारी हो इस कारण पुरुष का शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ने पर और उसकी शीघ्र ही मृत्यु होने पर पत्नी विधवा हो जाती है। इसके साथ ही बाल-विवाह से जनसंख्या की भी समस्या उत्पन्न होती है जो कि आगे चलकर खाद्य-पदार्थ आदि की भी समस्या उत्पन्न कर देती है। किसी अबोध बालिका पर मातृत्व का भार डालना ही क्या धर्म है। स्त्री-पुरुष का विवाह, ज्ञान, आत्म-विश्वास, परिश्रम आदि मानवीय गुणों के विकास के बाद ही अधिक उचित रहता है । लड़कों तथा लड़कियों दोनों को ही पुस्तकीय शिक्षा के अलावा चरित्र की भी शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए, जिससे समाज में सदाचार का वातावरण सदैव ही बना रहे । इससे उनके मानसिक बल की वृद्धि होकर बौद्धिक विकास होता है तथा उन्हें अपने पाँवों पर खड़े होने की भी शक्ति प्राप्त होती है।
भारतीय नारी की पवित्रता तथा सतीत्व बहुमूल्य निधि है जो उसे अतीत काल से प्राप्त हुई है। इसीलिए वह उसे स्वभावतः समझती है। सर्वप्रथम हमको इनमें इस आदर्श के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा एवं भक्ति उत्पन्न करनी चाहिए। यदि वे इस आदर्श पर दृढ़ हो गईं तो इसके परिणामस्वरूप उनका चरित्र इतना बलवान तथा दृढ़ होगा कि वे उसके स्वभाव से अपने प्राणों की आहुति देकर भी अपनी पवित्रता के सतीत्व की रक्षा करना अपना धर्म समझेंगी । जहाँ तक ब्रह्मचर्य व्रत का प्रश्न है, स्त्री प्रत्यक्ष उदारहण से एवं राष्ट्रीय आदर्श का पालन करके ब्रह्मचर्य व्रत को भी निभा सकती है। इसके उच्च प्रत्यनों को देखकर लोगों के विचारों एवं आकांक्षाओं में महान क्रान्ति उपस्थित होगी वास्तव में यदि हम वर्तमान विचारधारा के प्रवाह को बदल सकें, तो जनता में फिर उस पुरातन श्रद्धा के जाग्रत होने की कुछ आशा की जा सकती है यदि हम सभी नवयुवक और युवतियाँ विवाह देरी से करने के व्रत का पालन करें तो हम जान सकते हैं कि हममें कितना आत्म-विश्वास होगा। श्रद्धा, आत्म-विश्वास एवं आत्म-बल जगाने का उपाय केवल यही है कि प्रत्येक नवयुवक और युवती सुशिक्षित और सुसंस्कृत बने। जनता इस प्रकार शिक्षित होने पर स्वयं ही अपना हानि-लाभ समझकर कुरीतियों को निकालकर बाहर करेगी। वैसे, इस समय तो भारत सरकार ने भी बाल-विवाह, बहु-विवाह आदि पर कानूनी रोक लगा दी है।
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- राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 [ National Policy of Education (NPE), 1986]
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