जॉन डीवी का शिक्षा में योगदान (Contribution of Dewey in education)
शिक्षा’ सामाजिक प्रक्रिया है, समाज से बाहर समाज के प्रति कर्त्तव्यों से विमुख उसका कोई महत्त्व नहीं। समाज की नकल स्कूल होना चाहिए, किन्तु स्कूल समाज का वह रूप है जहाँ आकस्मिक परिवर्तन नहीं होते। उसे हम एक विशेष प्रकार का समाज कह सकते हैं। स्कूल द्वारा ही विकास तथा रचनात्मक-दोनों ही बालक में आती है। सामाजिक कुशलता की शिक्षा के लिए स्कूलों का जन्म हुआ । नैतिक अनुशासन के स्थान पर शारीरिक अनुशासन थोपना अनुचित है । अपने को बालक का अंग मानकर अनुशासन भंग नहीं कर सकता ।
बालकों की प्रवृत्तियों को पहचान कर, मनोविज्ञान की सहायता से उन्हें रचनात्मक कार्य में लगाना चाहिए। वास्तव में शिक्षा, “जीवन की क्रिया है, न कि किसी भविष्य के जीवन के लिए तैयारी।” हरबार्ट के विपरीत डीवी रुचि तथा कार्यों को विभिन्न सामाजिक रूपों से ही सम्बन्धित रखना चाहते हैं । हरबार्ट ने केवल बौद्धिक पक्ष पर ही बल दिया था पर डीवी उसके अतिरिक्त शारीरिक, सामाजिक इत्यादि पक्षों पर बल देता है। दूसरी बात यह कि वह शिक्षा पर कोई पूर्व-निर्धारित अपरिवर्तनशील सिद्धान्त लागू नहीं कर सकता। ‘शिक्षा को तो अनुभवों का अनवरत पुनर्निर्माण समझना चाहिए।” “शिक्षा का अपने से दूर कोई भी महत्त्व नहीं, वह स्वयं अपना उद्देश्य है।” “शिक्षा की प्रक्रिया तो सदैव ही पुनः संगठन तथा पुन:निर्माण पर आधारित और परिवर्तनशील है !’ ‘शिक्षा पर बाहर के 77 66 उद्देश्यों को थोपने का तात्पर्य होगा कि शिक्षा का बहुत बड़ा अर्थ समाप्त हो जाय।” शिक्षा को संकुचित आदर्शों से युक्त कराने का श्रेय डीवी को है। चूँकि जीवन में बालक को भाग लेना है, उसे ही सक्रिय तथा प्रगतिशील होना चाहिए। परीक्षा इसलिए नहीं लेनी है कि बाहरी अर्जित ज्ञान की सीमा परखनी है वरन् समाज हेतु योग्यता का अनुमान लगाना ही परीक्षा का मूलतः ठीक सिद्धान्त है।
व्यावहारिकतावादियों के अनुरूप ही डीवी सोचता है कि उन विचारों की हम परीक्षा कर सकते हैं, जो सत्य है। प्रत्येक सत्य विचार उपयोगी होता है तथा उपयोगी विचार ही आधारभूत सत्य होता है। आंशिक सत्य होते हुए भी इस बात से दो बातें स्पष्टतः प्रकट हैं-
(1) सत्य की परीक्षा आवश्यक है तथा
(2) उसे उपयोगी भी होना चाहिए।
रूसो की भाँति बालक को ‘लघु मनुष्य’ वह नहीं मानता। शिक्षक का कर्त्तव्य है कि बालक को उचित अवसर दे, ताकि वह प्रगति तथा विकास की ओर अग्रसर हो सके। स्कूल वर्तमान जीवन के लिए है, न कि किसी भविष्य के जीवन की तैयारी हेतु सामाजिक कुशलता का उद्देश्य डीवी ने निर्धारित नहीं किया, वह उसे उसके विचार से स्वयं पूरा हो जाता है परम्परागत स्कूल समाज के अंग नहीं हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं, स्कूल समाज के हैं तो स्कूल को भी समाज का प्रतिबिम्ब होना चाहिए। स्कूल के द्वारा ही बालक को सामाजिक आवश्यकताओं से परिचित कराया जा सकता है। प्रायः बाहरी सूत्रों से प्राप्त सत्य स्कूलों पर लादा जाता रहा है। इन दोनों बातों से डीवी का स्कूल दूर हो गया।
शिक्षा की परिभाषा डीवी के शब्दों में निम्न है, “शिक्षा उन सब शक्तियों के विकास का नाम है जिनके द्वारा मनुष्य में अपने वातावरण पर नियन्त्रण रखने तथा अपनी समस्त शक्तियों की सामर्थ्य उत्पन्न होती है।”
डीवी के अनुसार शिक्षा प्रक्रिया के दो अंग हैं (1) मनोविज्ञान, (2) समाज ।
मनोविज्ञान द्वारा डीवी शिक्षा को बालक की अभिरुचियों तथा अन्तर्प्रवृत्तियों के अध्ययन में सहायता पहुँचाना मानता है तथा मानता है कि सामाजिक जीवन की कुशलता ही शिक्षा की प्रेरणा देती है। बालक के बौद्धिक, शारीरिक अथवा अन्य प्रकार के विकास में समाज का ही हाथ रहता है। मनोविज्ञान पर आधारित शिक्षा समाजोन्मुखी होनी चाहिए । स्कूल एक विशिष्ट समाज है। “जातीय सामाजिक जीवन में क्रियाशील रहते हुए ही मनुष्य शिक्षा प्राप्त करता है ।” समाज के अनुरूप ही शिक्षा भी होनी चाहिए। सामाजिक हितों में भाग लेने के कारण ही बुद्धि का विकास होता है। अनुभव परिवर्तित तथा संशोधित होते रहते हैं तथा अनुभव ही शिक्षा का आधार है।
प्रजातन्त्र में ही समाज तथा व्यक्तिगत हितों में सामंजस्य स्थापित हो सकता है । अतः प्रजातन्त्र पर ही आधारित शिक्षा उचित है। आत्म-संयमी, स्व-प्रेरित, क्रियाशील प्राणी ही समाज का आदर्श प्राणी है। प्रजातन्त्र में इन्हीं गुणों का विकास होता है तथा स्कूलों को इन्हीं गुणों की चिन्ता करनी चाहिए।
डीवी का प्रायोगिक स्कूल डीवी के प्रायोगिक स्कूल की स्थापना 1896 में शिकागो में हुई। साधारण स्कूलों से भिन्न, विभिन्न प्रवृत्तियों के आधार पर व्यावहारिक तथा रचनात्मक पाठ्यक्रम के अनुसार 4 वर्ष से 13 वर्ष तक के बालकों को शिक्षा दी जाती है-
(1) वहाँ प्रामाणिक प्रयोगों द्वारा शिक्षण- सिद्धान्तों को परखना, यथा-ज्ञान की खोज करना, जिनकी जानकारी अभी तक शिक्षाशास्त्रियों को नहीं थी। उद्देश्य इस प्रायोगिक स्कूल हे थे।
इस स्कूल में सिद्धान्तों की खोज तो अवश्य हो सकती है, पर क्या यहाँ रसायनशाला की भौति शिक्षा के प्रयोग भी सम्भव हैं ? प्रो० चार्ल्स हार्डी इस बात पर विश्वास नहीं करते । शिक्षा का प्रभाव तो जीवन में उतर आने पर ही देखा जा सकता है। इसलिए स्कूल में ही इस प्रकार के प्रयोग सम्भव नहीं हो पायेंगे। डीवी यदि शिक्षा के सिद्धान्तों को सिद्धि करने तथा परखने के बजाय केवल खोज पर ही अधिक बल देते तो ठीक रहता।
शिक्षा का उद्देश्य- पूर्व निर्धारित उद्देश्य डीवी द्वारा मान्य नहीं हो सकते। वर्तमान जीवन में उचित साधनों का उपभोग ही भविष्य के लिए तैयारी है। भविष्य की बात परिवर्तनशील विश्व में पहले से बताई नहीं जा सकती। शिक्षा का उद्देश्य बालक की रुचि के अनुसार सम्यक् विकास है। सामाजिक कुशलता उसकी आधारभूत शिक्षा । ” भोजन तथा सन्तानोत्पत्ति जिस प्रकार भौतिक शारीरिक जीवन के लिए है, ठीक उसी प्रकार शिक्षा समाज के लिए है।” उपयोगिता पर परखी हुई शक्तियों का विकास ही बालक में होना चाहिए ।
एक और आलोचक-समूह का दावा है कि डीवी के सामने मात्र विकास को छोड़कर शिक्षा का कोई और स्पष्ट उद्देश्य नहीं था। यहाँ भी उनके इस वक्तव्य की सतही और भ्रामक व्याख्या की गई है कि शिक्षा का कोई निरपेक्ष उद्देश्य नहीं होता बल्कि यह एक सतत्, आयुपर्यंत प्रक्रिया होती है। अक्सर इस बात को अनदेखा किया जाता है कि उन्होंने स्पष्ट कहा था कि शैक्षिक उद्देश्य व्यक्तियों अर्थात् अभिभावकों, छात्रों और अध्यापकों के अन्दर जन्म लेते हैं। दूसरे शब्दों में, उद्देश्य साकार होने पर शब्दों या नारों में नहीं, मानवीय उपलब्धियों में प्रतिबिम्बित होते हैं।
डीवी तथा पाठ्यक्रम — परम्परागत विषयों की निर्धारित सीमाएँ भ्रामक हैं। ज्ञान एक है, सम्पूर्ण सामाजिक जीवन की एकता विषयों की एकता में परिलक्षित होनी चाहिए। लचीले पाठ्यक्रम द्वारा ही बालक समाज की सदस्यता प्राप्त कर सकता है। डॉ० अदावाल ने उदाहरण दिया है कि डीवी के विचार से प्रारम्भिक विद्यालय का आधार बालक की चार अभिरुचियाँ (भाव-विनिमय तथा संवाद, जिज्ञासा, रचना तथा सौन्दर्याभिव्यक्ति) ही होनी चाहिए। अस्तु, पाठ्यक्रम में पठन, लेखन, गणना, हस्त-कार्य तथा चित्रकला का समावेश होना चाहिए। शैक्षिक अनुभवों तथा समस्याओं से पाठ्यक्रम पूरा होना चाहिए। बालकों द्वारा पूर्व अर्जित ज्ञान भविष्य के ज्ञानार्जन के लिए आधार रूप होना चाहिए। पाठ्यक्रम बालकों के वर्तमान अनुभवों पर ही निश्चित करना ठीक होगा, विभिन्न विषयों में समन्वय होना चाहिए। मनोविज्ञान के आधार पर विभिन्न विषयों की सूची भ्रामक है।
शिक्षा-पद्धति- ‘करके सीखना’ पद्धति के अनुसार एक क्रिया का बालक की अभिरुचि के अनुसार तथा उपयोगिता के आधार पर चुनाव होता है, वह क्रिया से सम्बन्धित कुछ विषयों का ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है। बुनियादी शिक्षा-प्रणाली तथा योजना-पद्धति (जिसका पहले कोई काम नहीं था ) मूलतः एक ही विचार से प्रेरित हैं। यह पद्धति बालक में आत्म-विश्वास, आत्म-निर्भरता तथा मौलिकता के विकास में सहायक होती है।
प्रो० चार्ल्स हार्डी के अनुसार योजना-पद्धति की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. जो काम बालक को करना है, उसका सुझाव वह स्वयं रखे ।
2. उन्हें केवल वही कार्य करके देना चाहिए जिनसे उत्तम चित्तवृत्तियों का निर्माण हो।
3. इन कार्यों की पूर्ति के लिए जिस ज्ञान की आवश्यकता हो, उस ज्ञान को उसे देना चाहिए।
4. बालक के समस्त कार्यों में सहायता व पथ-प्रदर्शन की आवश्यकता है जिससे वे आगामी अनुभवों की अभिवृद्धि हो सके।
(डीवी ने ‘हाउ वी थिन्क’ तथा ‘इन्टरेस्ट एण्ड एफर्ट इन एजुकेशन’ नामक पुस्तकों में शिक्षण-प्रणाली की व्याख्या की है।)
डीवी तथा अनुशासन- समाजोन्मुखी शिक्षा में बालक के सहयोग द्वारा तथा स्कूल के कार्यों द्वारा उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करके हम उसमें आज्ञा पालन, अनुशासन, नियम आदि आवश्यक बातों को चरित्र निर्माण का अंग बना सकते हैं। सहयोग तथा रुचि पर आधारित शिक्षा में अनुशासन के भंग होने की आशंका ही सम्भव नहीं । बल का प्रयोग अनुशासन की व्यवस्था में अनुचित है। वैयक्तिक पक्ष को वह सामाजिक पक्ष के सम्मुख झुकाकर अनुशासन की समस्या हल कर देता है । प्रजातन्त्र में सहयोग, आत्म-निर्भरता, समता इत्यादि की उन्नति होती है। लेविन तथा लिप्पिट के प्रयोगों द्वारा यह बात सिद्ध हो चुकी है। इसलिए ऐसे स्कूलों में, जिनमें प्रजातान्त्रिक समाज का प्रतिबिम्ब हो, इन गुणों का विकास तथा अनुशासन की स्थापना स्वाभाविक रूप से हो जाती है।
हैरोल्ड जी. शैन के शब्दों में :
“कुछ आलोचकों के मत में डीवी के लिए अनुशासन महत्त्वहीन होता है और विद्यालय में बच्चों को वही करना चाहिए जो उन्हें अच्छा लगे। डीवी ने रूचि और अभिप्रेरणा के महत्त्व को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है। लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना पूरी तरह गलत है कि बच्चों को जो कुछ पसन्द हो उन्हें वही करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। अपनी रचनाओं में उन्होंने रुचि को अपने इस विश्वास के कारण महत्त्व दिया है कि यह अधिगम के लिए बच्चों के प्रयासों में तेजी लाती है। जहाँ तक अनुशासन का सवाल है, डीवी के मानदण्ड उच्चतम श्रेणी के थे—आवश्यकता हो तो अध्यापकों पर कठोर नियंत्रण रखने से लेकर छात्रों की परिपक्वता के साथ आत्मानुशासन के महत्त्व को स्वीकारने तक।”
शिक्षक का स्थान- डीवी के लिए स्कूल एक मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक आवश्यकता है। बालक के अनुभवों तथा समाज के साथ स्कूल के सम्बन्ध के आधार पर स्कूल का उपयुक्त आवश्यकताओं से सम्बन्ध होता है।
डीवी के लिए स्कूल में शिक्षक बालक को समाजोन्मुख करने के लिए एक विशेष व्यक्ति है। वह समाज का प्रतिनिधि है। पर उसे केवल निरीक्षण करने, सहयोग देने तथा बालक को उत्साहित मात्र करने का अधिकार है, उस पर अपने विचार लादने का नहीं । बालक की रुचि, उसके सुझाव, उसकी आवश्यकताएँ ही शिक्षक के सम्मुख रहनी चाहिए । बालकों का कार्य क्षेत्र से बाहर न जाय, अनुशासन कायम रहे। शिक्षक को अपनी परिष्कृत बुद्धि, परिमार्जित व्यक्तित्व, बालकों के ज्ञान तथा समाज के हेतु तैयारी के आधार पर बालकों की सहायता करनी चाहिए ।
अध्यापक का कार्य विषय-वस्तु को समझकर पढ़ाना है। विषय-वस्तु के अर्थ के सम्बन्ध में बराबर नये समाधानों की तलाश होनी चाहिए। लगता है डीवी का यह विचार था कि पाठ्यक्रम को कभी जड़ या महिमामय नहीं बनने देना चाहिए। इसकी बजाय अनुदेशन के संदर्भ के चयन और सुधार की जारी प्रक्रियाओं और इन प्रक्रियाओं में व्यक्त अनुभवों के सिलसिले में उदीयमान सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन संदर्भों का एक महत्त्वपूर्ण स्त्रोत होना चाहिए। पाठ्यक्रम किस प्रकार शिक्षणीय हो, इसकी रणा शिक्षा कर्म के संशोधन के लिए ऐसे दृढ़ निर्णयों की आवश्यकता दिखाती है जो विद्यालयों को एक जीवंत समाज में प्रवर्तन के और भी अधिक विचारोत्तेजक केन्द्र बनायें। हमें उनको अतीत से प्राप्त ज्ञान का भण्डार नहीं मानना चाहिए जिसकी निगरांनी अध्यापकों के हवाले हो । अध्यापक पाठ्य-वस्तु को गतिशील बनाता है। अध्यापक को अभिव्यक्ति के कुछ अध्यापकों में एक रचनात्मक कलाकार बनने का प्रयास करना चाहिए। अगर इन बातों में निहित दर्शन को समझने में एक सीमा तक सफलता प्राप्त करनी हो तो होना चाहिए कि गतिशील अध्यापक शिशुओं और किशोरों का अध्यापन करें। डीवी का निष्कर्ष था कि इस प्रकार का आदर्श व्यक्ति अभिव्यक्ति के कुछ रूपों में पारंगत होना चाहिए। इनमें मौखिक कुशलताओं से लेकर नृत्य, लेखन आदि कलाओं द्वारा रचनात्मक अत्माभिव्यक्ति के और अधिक ठोस रूप भी हैं।
डीवी के दर्शन का मूल्य तथा प्रभाव — डीवी का दर्शन भी इस बात का अपवाद नहीं है कि दार्शनिक प्राचीन विचारों के विरुद्ध नवीन विचारों का प्रतिपादन किया करता है। प्लेटो को समझने के लिए हमें उस समय के सोफिस्ट्स को समझना होगा। धर्म तथा संस्थाओं की रूढ़ियों के साथ-साथ वैज्ञानिक प्रगति का विकास हो रहा था। हीगल के सक्रिय दर्शन से डीवी को अनुभव हुआ कि वह इन रूढ़ियों से हटकर प्रगति की बात कर सकेगा । 1900 ई. के लगभग सम्पत्ति का विकास तथा झठी धारणाओं की प्रगति एक साथ हुई। डीवी इन दोनों के विरोध में प्रजातान्त्रिक, समाजोन्मुखी, प्रगतिशील परिवर्तित अनुभवों पर आधारित, प्रायोगिक शिक्षा की कल्पना करने लगा। एक सार्वभौमिक सत्ता के विश्वास के कारण प्रायः प्रगति रुकी है, इसलिए वह उन धार्मिक संस्थाओं के भी विरुद्ध हो गया, जो प्रगति में बाधक । थी । विकास, प्रभाव, व्यावहारिकवादिता तथा परम्पराओं के विरुद्ध परिवर्तनशील तत्त्व में विश्वास डीवी का उत्तर था। वैसे, डीवी ने 1930 के लगभग आकर ‘आदर्श’ तथा ‘साध्य’ में संशोधन कर लिया। प्रजातन्त्र की असफलता के कारण निराश होकर वह प्रत्येक वस्तु को प्रायोगिक क्रिया द्वारा परखना नहीं चाहता था। इस समय में उसने मूल्य में भी संशोधन कर लिया था। वह प्रत्येक मूल्य को बनाया हुआ नहीं मानता था, पर कुछ मूल्यों को वह ऐसी मान्यता देता था, जिसे आत्मवादी या विचारवादी सहर्ष मानने को राजी हो जायेंगे। विश्व के पीछे वह प्रयोजन तथा शक्ति का अनुभव भी करने लगता है । इसी कारण राबर्ट यूलिय ने उसे विचारवादियों के अधिक माना है। इस विवेचन के पश्चात् डीवी की विचारधारा में परस्पर विरोध, क्रान्तिकारी हुंकार तथा नवीन विचारधारा की उत्पत्ति का कारण स्पष्ट समझ में आ जाता है।
डीवी का प्रभाव हम रस्क के शब्दों में कह सकते हैं कि “आधुनिक औद्योगिक तथा यान्त्रिक विकास को पाठ्यक्रम में स्थान दिलाने में इस प्रायोगिक तथा नैमित्तिक विचारधारा ने परम्परागत शिक्षा की पूर्ति की है। किन्तु अनुभव के कुछ प्रकरण की अवज्ञा करके तथा अन्य स्थानों पर व्यर्थ बल देकर यह विचारधारा शिक्षा की दार्शनिक पृष्ठभूमि होने में सफल हो गई।”
समाज तथा स्कूल का अभिन्न सम्बन्ध बताकर, सामाजिक कुशलता पर बल देकर, वर्तमान को भविष्य से अधिक महत्त्वपूर्ण बताकर, बालक की अभिरुचि, रचनात्मकता तथा प्रयोगों द्वारा सत्य का निर्धारण करके डीवी ने आधुनिक शिक्षा प्रणाली पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला है। बालक की अभिरुचियों को ध्यान में रखकर उसने अनुशासन की समस्या पर नवीन रोशनी डाली है । परम्परागत होने के कारण ही कोई बात महत्त्वपूर्ण तथा आवश्यक नहीं हो पाती । स्वशासन, आत्म-निर्भरता, सहयोग, स्वतन्त्रता तथा प्रजातन्त्र की भावनाएँ डीवी ने बलपूर्वक प्रकट की हैं। इसी वातावरण में बालक का विकास सम्भव बताकर उसने रूढ़िगत मूल्यों को हटा फेंका। उसकी योजना-पद्धति का प्रभाव विश्वव्यापी है।’
‘करके सीखना’, ‘सहयोग से कार्य करना’ इत्यादि बातों में वह फ्रोबेल के साथ; शिक्षा को विकास मानकर तथा वर्तमान के लिए वह स्पेन्सर के विरुद्ध; तथा शिक्षक को केवल निरीक्षक का स्थान देकर यह रूसो के साथ है। हरबार्ट के विवेक पर महत्त्व तथा पंचपद-प्रणाली का वह विरोध करता है। वह आत्म-क्रिया पर बल देता है। रूसो इसके विपरीत समाज को अधिक महत्त्व देता है।
डीवी और प्रयोजनवादी शिक्षा-युगों से संसार इस तथ्य को साश्चर्य देखता चला आ रहा है कि दार्शनिक जीवन-मरण, आत्मा, परमात्मा, सृष्टि आदि के विषय में विचार करते-करते शिक्षा पर कुछ कहने लगता है। सुकरात, अफलातून, अरस्तू, रूसो, लॉक, डीवी, बटेंण्ड रसल, महात्मा गाँधी आदि के सिद्धान्त इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं। शिक्षा जहाँ अपनी प्रक्रिया को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए विज्ञान का आश्रय लेती है वहाँ अपने स्वरूप को निश्चित करने के लिए ऐसे दर्शन की शरण में जाना पड़ता है। दार्शनिक है कभी अपनी कल्पनाओं को मूर्त रूप देने के लिए शिक्षा का आँचल पकड़ना पड़ता शिक्षा के क्षेत्र में इसलिए हम विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का दर्शन करते हैं। आदर्शवादी और प्रकृतिवादी विचारधाराएँ बहुत पुरानी हैं। प्रकृतिवाद से ही यथार्थवाद निकला है । आदर्शवाद और प्रकृतिवाद का मध्यवर्ती दर्शन प्रयोजनवादी है। प्रयोजनवाद ही इस समय हमारी चर्चा का विषय है।
प्रयोजनवाद अंग्रेजी के प्रेग्मेटिज्म शब्द का हिन्दी अनुवाद है। इस शब्द के हिन्दी अनुवाद के विषय में भी बड़ा झमेला है। हिन्दी की पुस्तकों में प्रेग्मेटिज्म के लिए प्रयोगवाद, प्रयोजनवाद, व्यवहारवाद, उपयोगितावाद, फलवाद आदि शब्द देखने में आते हैं। प्रेग्मेटिज्म शब्द के लिए हिन्दी के विद्वान किसी एक शब्द पर सहमत नहीं हैं। इस असहमति का कारण हिन्दी भाषा की अनिश्चितता अथवा अक्षमता नहीं है वरन् इस वाद की अनश्चितता है। यह बात आगे की चर्चा से स्वतः स्पष्ट हो जायेगी। मैंने प्रयोजनवाद शब्द को चुना है। इस चुनाव का कारण मेरी अपनी रुचि है।
प्रयोजनवाद के जन्मदाता पीयर्स महोदय हैं। पीयर्स ने सर्वप्रथम प्रेग्मेटिज्म शब्द का प्रयोग किया था किन्तु यह प्रयोग सीमित अर्थ में ही था। प्रेग्मेटिज्म शब्द ग्रीक भाषा के ‘प्रामेटीकोस’ से निकला है जिसका अर्थ है ‘क्रिया’, ‘व्यवहार’, ‘प्रयोग’ आदि। पीयर्स प्रयोजनवाद को दर्शन की संज्ञा नहीं देता था। प्रयोजनवाद का दर्शन का रूप देने वाले थे विलियम जेम्स। मूलतः एक मनोवैज्ञानिक होने के नाते विलियम जेम्स ने ‘संकल्प शक्ति’ को ही मन का आधारभूत माना। उन्होंने आदर्शवाद का खण्डन करते हुए काल्पनिक एवं अनुपयोगी बताया।
डॉक्टर डीवी के हाथों में पड़कर प्रयोजनवाद अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया। डॉक्टर डीवी ने प्रयोजनवाद को एक क्रमबद्ध दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया। आज प्रयोजनवाद का जो स्वरूप प्रचलित है वह बहुत कुछ डॉक्टर डीवी का ही सिद्धान्त हैं। डॉक्टर डीवी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘जनतन्त्र और शिक्षा’ में अपने शिक्षा सम्बन्धी विचार व्यक्त किए हैं प्रयोजनवादी शिक्षा के स्वरूप का विकास इसी पुस्तक से हुआ है। इस पुस्तक ने डॉक्टर डीवी को प्लेटो और रूसो जैसे दार्शनिकों की श्रेणी में ला दिया है।
प्रयोजनवादी दार्शनिक शिक्षा को मानव की जन्मजात आवश्यकता मानता है । शिक्षा एक विकासात्मक प्रक्रिया है। विकास के लिए निर्बलता एवं असहायता का भाव आवश्यक है। स्वभाव से ही मानव-शिशु असहाय होता है। यह स्थिति पशुओं एवं पक्षियों में हम नहीं देखते हैं। गाय का बछड़ा जन्म लेने के कुछ क्षण पश्चात् चलने और दौड़ने लगता है किन्तु मानव शिशु को इन क्रियाओं को सम्पन्न करने में महीनों लग जाते हैं। प्रकृति ने मानव शिशु को बहुत निस्सहाय बनाया है किन्तु यह परवशता मनुष्य के लिए अभिशाप न होकर वरदान है। वस्तुस्थिति यह है कि प्राणी जितना ही निस्सहाय उत्पन्न होता है उसमें उतनी ही अधिक शिक्षा ग्रहण करने की योग्यता होती है।
हम शिक्षा के उद्देश्यों की प्रायः चर्चा किया करते हैं। किसी भी दार्शनिक विचारधारा से हम यह आशा करते हैं कि वह शिक्षा के उद्देश्यों पर कुछ प्रकाश डालेगी। प्रयोजनवाद ने इस समस्या पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। बहुचर्चित शैक्षिक उद्देश्यों यथा वृद्धि, चरित्र, आत्मानुभूति, सामंजस्यपूर्ण विकास आदि की वह परीक्षा करके इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ये सभी तथाकथित शैक्षिक उद्देश्य असन्तोषजनक हैं। प्रयोजनवादी शिक्षा के किसी भी अन्तिम उद्देश्य का विरोध करता है और कहता है कि आदर्शवादियों के मस्तिष्क की यह उपज है । शिक्षा का कोई उद्देश्य होता ही नहीं। शिक्षा तो एक प्रक्रिया है। किये प्रक्रिया का क्या उद्देश्य हो सकता है? कोई प्रक्रिया अपना कोई उद्देश्य नहीं रख सकती। हाँ, शिक्षक किसी प्रयोजन से शिक्षण कार्य करते हैं, शिक्षार्थी किसी प्रयोजन से विद्याध् करते हैं, तो शिक्षक, माता-पिता और शिक्षार्थी कुछ प्रयोजन रख सकते हैं, शिक्षा का अपन कोई उद्देश्य नहीं है। प्रयोजनवाद विभिन्न प्रयोजन पर बल देता है, किसी एक उद्देश्य कार नहीं इसीलिए इस दर्शन को प्रयोजनवाद कहा गया। यह प्रयोजन वर्तमान की उपज है। शिक्षा में ये विभिन्न प्रयोजन (ध्यान रखिये शिक्षा के नहीं शिक्षा में) तात्कालिन होते हैं। विद्यार्थी इन्हें स्पष्ट रूप से देखता रहता है। इन्हें प्राप्त करने के पश्चात् वह अपना दूसरा प्रयोजन निश्चित कर लेता है। यह स्थिति आ जाती है और प्रयोजन परिवर्तित हो जाता है। एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। मान लीजिए एक छात्र हाई स्कूल में पढ़ रहा है इस समय उस छात्र का प्रयोजन हाई स्कूल के पाठ्यक्रम को पूरा करना है। ज्यों ही वह हाई स्कूल परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है, उसका प्रयोजन परिवर्तित हो जाता है। अब वह इण्टरमीडिएट के पाठ्यक्रम में दीक्षित होने का प्रयोजन बनाता है। किन्तु उसके पश्चात् ? प्रयोजनवादी कहता है कि अनुभव बताएगा कि उसके पश्चात् कोई छात्र क्या करे।
प्रयोजनवादी दार्शनिक शिक्षा में विभिन्न प्रयोजनों पर बल देते हुए भी एक-दो निश्चित उद्देश्यों की ओर ध्यान देता है। वह कहता है कि शिक्षा के उद्देश्यों के रूप में सामाजिक दक्षता का स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है। शिक्षा समाज की वस्तु है। समाज के अस्तित्व के लिए भी शिक्षा की आवश्यकता है। समाज शिक्षा के द्वारा ही अपनी विशेषताओं, परम्पराओं, मान्यताओं, प्रणालियों आदि को सुरक्षित रखता है। इसलिए शिक्षा का उत्तरदायित्व समाज के ऊपर है समाज शिक्षा का संगठन करता है, शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करता है, पाठ्यक्रम के सिद्धान्तों का निरूपण करता है और सम्पूर्ण शिक्षा के आर्थिक भार को वहन करने का साहस करता है। समाज अपने इन कार्यों का प्रतिफल भी चाहता है। समाज ‘यह आकांक्षा होती है कि उसके भावी सदस्य वर्तमान सदस्यों से अधिक सक्षम बनें और समाज को उन्नति के शिखर पर पहुंचाएं। इसीलिए प्रत्येक छात्र में सामाजिक दक्षता का । आना आवश्यक है। सामाजिक दक्षता का तात्पर्य वाक्पटुता नहीं है। सामाजिक दक्षता से यह भी तात्पर्य नहीं है कि समाज के उच्च वर्ग के दो व्यक्तियों की वेशभूषा आदि का अनुकरण करके छात्र टीम-टाम में दक्षता प्राप्त कर लें। इससे यह अभिप्राय है कि बालकों में सामाजिक भावना का उदय हो और समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने की उनमें क्षमता उत्पन्न हो। किस समाज की क्या आवश्यकता है, इसका निर्णय अनुभव करेगा। प्रयोजनवादी अनुभव पर बड़ा बल देते हैं। उनके लिए अनुभव ही यथार्थ है । सत्य कोई निश्चित वस्तु नहीं है, यथार्थता पूर्वकाल से कहीं विद्यमान नहीं है। सत्य है नहीं, सत्य हो जाता है अर्थात् सत्य समय-समय पर बनाया जाता है। अनुभव जिसे सत्य माने वही सत्य है। देश और काल के अनुसार अनुभव बदलते रहते हैं, अतः सत्य भी बदलता रहता है। किसी एक सत्य की खोज में परिश्रम करने की अपेक्षा अनुभव द्वारा सत्य का निर्माण कर लेना अधिक श्रेयस्कर है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जाएगा कि किसी एक सत्य को शिक्षा का उद्देश्य रखने की अपेक्षा समय-समय पर जो सत्य समझ पड़े उसे ही शिक्षा के उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया जाए।
प्रयोजनवादी उपयोगिता को ही सत्य एवं कल्याण की कसौटी मानता है । वही सत्य है जो उपयोगी है, अनुपयोगी वस्तु यह विचार असत्य है। उपयोगिता ही अच्छाई की भी कसौटी है। कौन-सा शैक्षिक उद्देश्य अच्छा है ? इस प्रश्न का उत्तर प्रयोजनवादी उपयोगिता के सिद्धान्त से ही देगा। कोई वस्तु सदा एवं सबके लिए अच्छी नहीं होती। एक उदाहरण लीजिए । बाइसिकिल अच्छी है या बुरी ? दूर से कॉलेज आने वाले छात्र के लिए अच्छी है, लाभप्रद है, किन्तु एक रुग्ण एवं दुर्बल व्यक्ति के लिए यह बुरी है। उपयोगिता ही यहाँ अच्छाई का मापदण्ड है। इसीलिए कुछ विद्वान इस विचाराधारा को उपयोगिता कहना अधिक पसन्द करते हैं। सत्य पर निरन्तर प्रयोग चल रहा है। प्रयोग के ही द्वारा सत्य का निर्माण होता है। किसी आराम कुर्सी पर बैठकर या चारपाई पर लेटकर सत्य का निर्माण नहीं हो सकता है। इसके लिए जीवन की प्रयोगशाला में अथवा कृत्रिम प्रयोगशालाओं में निरन्तर प्रयोग चलते रहते हैं। क्रिया के पश्चात् ही सत्य की झलक मिलती है। अत: इसे प्रयोगवाद अथवा व्यवहारवाद कहना भी अनुचित नहीं है।
प्रयोग के द्वारा उपयोगिता के आधार पर शिक्षा में उद्देश्य निर्धारित कर लेने के पश्चात् इन उद्देश्यों की प्राप्ति का भी प्रयत्न करना चाहिए। किस विधि से ये उद्देश्य प्राप्त होंगे? सामाजिक दक्षता ही यदि अभीष्ट है तो किस विधि द्वारा इसकी सिद्धि होगी ? प्रयोजनवादी शिक्षण-विधि के लिए कुछ निश्चित सिद्धान्त देता है।
उनमें मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(1) बालक को अधिकतम स्वतन्त्रता प्रदान की जाय,
(2) बालक की रुचि का ध्यान रखा जाय,
(3) बालक को कक्षा-कार्य में निष्क्रिय न बनाकर सक्रिय बनाया जाय,
(4) वैयक्तिक विभिन्नता का ध्यान रखा जाय,
(5) बालक में सामाजिकता की भावना का उद्बुद्ध किया जाय, और
(6) विद्यालय में शब्दों से अधिक कार्यों पर ध्यान दिया जाए।
इन मूल सिद्धान्तों के आधार पर कुछ प्रयोजनवादियों ने शिक्षा की विशिष्ट पद्धतियों को जन्म दिया। किलपैट्रिक महोदय डाक्टर डीवी के मेधावी शिष्य हैं। वे ‘प्रोजेक्ट पद्धति’ के जनक हैं। प्रोजेक्ट पद्धति आज एक बहुत अच्छी शिक्षण-पद्धति मानी जाती है। प्रोजेक्ट पद्धति प्रयोजनवादी दर्शन पर आधारित है। अमेरिका में ‘प्रोग्रेसिव एजुकेशन’ का आन्दोलन भी बहुत सक्रिय है। प्रोग्रेसिव एजुकेशन प्रयोजनवादी सिद्धान्त पर आधारित है। ‘एक्टीविटी स्कूल’ का विचार भी प्रयोजनवाद की देन है। इस प्रकार आधुनिक विशिष्ट पद्धतियों पर प्रयोजनवाद की छाप स्पष्ट है।
पाठ्यक्रम जहाँ तक पाठ्यक्रम का सम्बन्ध है, प्रयोजनवादी वर्तमान अनुभव को अतीत के अनुभवों एवं भविष्य की कल्पनाओं से श्रेष्ठ समझता है। अतीत के वे ही अनुभव आज के में आ सकते हैं जिनसे वर्तमान को समझने में सहायता मिले। प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम की रचना के चार आधारभूत सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है। ये चार सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. उपयोगिता का सिद्धान्त – शैक्षिक उद्देश्यों पर विचार करते समय हम इस सिद्धान्त पर विचार कर चुके हैं । बालक को केवल वही ज्ञान एवं कौशल प्रदान करना चाहिए जो उसके सामाजिक जीवन में काम आ सके। इस सिद्धान्त के आधार पर व्यावसायिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में प्राय: सम्मिलित कर लिया जाता है । स्थानीय इतिहास व भूगोल, सामान्य अंकगणित, भाषा, सामाजिक अध्ययन (Social Studies) आदि कुछ विषयों को इस सिद्धान्त से बड़ा बल मिलता है। किन्तु सबसे अधिक महत्त्व की बात तो यह है कि सामान्य विज्ञान को पाठ्यक्रम में सर्वोपरि स्थान मिल जाता है।
2. बालक की प्राकृतिक रुचि-यह पाठ्यक्रम निर्माण का दूसरा सिद्धान्त है । बालक की प्रमुख अभिरुचियों को जॉन डीवी ने चार वर्गों में विभक्त किया है—
(1) वार्तालाप तथा व्यवहार में रुचि,
(2) अन्वेषण में रुचि,
(3) रचनात्मक रुचि तथा
(4) कलात्मक अभिरुचि ।
इस सिद्धान्त के आधार पर लिखना, पढ़ना, गिनना, हस्तकला आदि विषयों को पाठ्यक्रम में स्थान मिल जाता है।
3. बालक की क्रियाओं एवं अनुभवों के आधार पर सिद्धान्त — प्रयोजनवादी शिक्षा को एक क्रियाशील प्रक्रिया मानते हैं । अतः वे पाठ्यक्रम में केवल रटने पर बल नहीं देते। रटना एवं कुछ सीमित पुस्तकों का अध्ययन कराना व्यर्थ है यदि बालक की प्रकृतिदत्त क्रियाशीलता का शैक्षिक प्रक्रिया में सदुपयोग न किया गया। पाठ्यक्रम का संगठन इस प्रकार का होना चाहिए जिससे बालक में क्रियाशीलता का विकास हो सके और छात्र पग-पग पर अपने अनुभवों द्वारा ही सीखता चले। बालक जिस समुदाय में रहता है उसकी झलक पाठ्यक्रम में अवश्य मिलनी चाहिए। स्थानीय इतिहास, भूगोल एवं सामाजिक अध्ययन पर इस दृष्टि से ध्यान देना चाहिए।
4. सानुबंधिता का सिद्धान्त – पाठ्यक्रम निर्धारण का चतुर्थ- सिद्धान्त सानुबंधिता का है। इस सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि पाठ्यक्रम को विभिन्न विषयों में विभाजित करके उन विषयों का पृथक्-पृथक् ज्ञान देने की आवश्यकता नहीं है । किसी विषय की शिक्षा संकुचित सीमा के अन्तर्गत नहीं देनी चाहिए। पाठ्यक्रम के सभी विषयों में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करके शिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए।
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- राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 [ National Policy of Education (NPE), 1986]
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