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रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन | Tagore’s education philosophy in Hindi

रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन
रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन

रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन (Tagore’s education philosophy)

रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन- टैगोर ने शिक्षा के सिद्धान्तों की खोज अपने अनुभव से की है। ‘विश्वभारती’ के संस्थापक के रूप में वे एक व्यावहारिक शिक्षा शास्त्री होने का परिचय देते हैं। शिक्षा – शास्त्र में उनकी देनों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वे एक उच्च कोटि के शिक्षा शास्त्री थे, यद्यपि उन्होंने अध्यापन का पेशा कभी नहीं ग्रहण किया।

टैगोर ने भारतीय शिक्षा में एक नये प्रयोग का सूत्रपात किया । भारतीय आदर्शों से प्रभावित तो थे ही, पाश्चात्य विचारों के प्रति भी वे जाग्रत थे। उन्होंने अपने शैक्षिक प्रयोग को प्रारम्भ करने के पहले रूसो के विचारों से, फ्रोबेल के किण्डरगार्टन स्कूल से तथा डीवी की शैक्षिक विचारधारा से अवश्य परिचय प्राप्त किया होगा किन्तु इनके सिद्धान्तों को वे सर्वत्र सत्य मानने को तत्पर न हुए होंगे। इस प्राक्कल्पना का आधार यह है कि उन्होंने अपने शान्ति-निकेतन में किसी पाश्चात्य शैक्षिक विचारधारा का अन्धानुकरण नहीं किया और न ही अपने विद्यालय को किसी पश्चिमी शिक्षा-प्रणाली पर आधारित किया। उन्होंने अपने शिक्षा-सिद्धान्तों की स्वयं खोज की थी। उनके शैक्षिक विचार उनके स्वानुभव पर आधारित थे।

उनकी प्रज्ञा इतनी प्रबल थी कि वे अपनी बुद्धि के सहारे किसी विषय की तह में बैठ सकते थे। किसी पदार्थ की मूल प्रकृति एवं उसके वास्तविक स्वरूप का पता लगा लेने में ये सिद्धहस्त थे। उनकी बुद्धि का ही यह कमाल था कि जिस समय भारत शिक्षा के क्षेत्र में पश्चिम का अनुकरण करने में लगा हुआ था, उस समय वे आधुनिक भारतीय जीवन केअनुकूल एक शिक्षा प्रणाली की खोज कर रहे थे। जिस समय भारतीय विश्वविद्यालयों में पश्चिमी सिद्धान्तों को दिव्य मानकर आत्मसात् किया जा रहा था उस समय वे शिक्षा के नये सिद्धान्तों का पता लगाने में जुटे हुए थे।

टैगोर प्रकृतिवादी थे किन्तु उनका प्रकृतिवाद रूसो के प्रकृतिवाद से भिन्न था। रूसो में समाज को सभी बुराइयों की जड़ मानकर समाज और सामाजिक जीवन का घोर विरोध किया था किन्तु टैगोर के हृदय में समाज के प्रति प्रेम व दया का भाव था । वे समाज का उन्नयन करना चाहते थे और अतीत भारत की आत्मा में देखना चाहते थे। वे समाज को प्राकृतिक नियमों पर आधारित तो करना चाहते थे किन्तु आधुनिक वैज्ञानिकता एवं अतीत की धार्मिकता एवं नैतिकता से विहीन समाज को अच्छा नहीं समझते थे।

टैगोर के शिक्षा-प्रदर्शन में रहस्यवाद भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है किन्तु उनका यह रहस्यवाद स्वस्थ एवं सबल तथा विस्तृत था जबकि फ्रोबेल का रहस्यवाद केवल शैशव तक सीमित था। टैगोर ने रहस्यवाद को जीवन की यथार्थ भूमि पर आधारित किया और इसका विस्तार करके शिक्षा के सभी स्तरों पर इसे लागू किया। फ्रोबेल ने अपना ध्यान पूर्व प्राथमिक शिक्षा पर केन्द्रित किया था और पेस्तालात्सी ने प्राथमिक स्तर पर, किन्तु टैगोर ने सभी शैक्षिक स्तरों के सम्बन्ध में अपनी अनुभूतियों से सिद्धान्तों की चर्चा करके फ्रोबेल और पेस्तालात्सी को पीछे छोड़ दिया।

टैगोर शिक्षा के क्षेत्र में आत्मवादी थे। प्रायः प्रकृतिवाद अध्यात्मवाद का विरोध करता है किन्तु टैगोर का प्रकृतिवाद एकांगी नहीं था; इसलिए उनके प्रकृतिवाद की अनिवार्य परिणति आदर्शवाद में हुई और बालकों में उदात्त भावनाओं को जाग्रत करके उन्हें आध्यात्मिक भूमि पर लाना चाहते थे। आध्यात्मिकता की बात करके टैगोर ने भारत के अतीत का सम्मान किया है और उसी पर वर्तमान को आधारित करना चाहा है।

टैगोर उच्च कोटि के मानवतावादी थे और मानव-व्यक्तित्व की गरिमा में उनका विश्वास था। वे मानव-जाति का उद्धार करना चाहते थे और मनुष्य के मूल्य को गिराने का घोर विरोध करते थे। उन्हें बड़ा दुःख था कि मानवीय मूल्यों का तिरस्कार हो रहा है और वर्तमान युग में मनुष्य का जीवन सस्ता होता जा रहा है। उनका विश्वास था कि यह दुनिया मूल रूप में मानवीय दुनिया है। वे जानते थे कि ईश्वर को भी वहीं पर खोजना चाहिए जहाँ पर किसान हल जोत रहा हो।

टैगोर अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध के बहुत बड़े समर्थक थे और वे बालकों में अन्तर्राष्ट्रीय भावना को जाग्रत करना चाहते थे। वे अपने राष्ट्र से बहुत प्रेम करते थे और भारतीय राष्ट्र की परिस्थितियों को सुधारना चाहते थे किन्तु उनका राष्ट्र प्रेम संकीर्ण नहीं था। उनकी देश भक्ति और उनका राष्ट्र-प्रेम अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक नहीं था । वे समस्त विश्व को एक समझते थे और हमें इस योग्य बनाना चाहते थे कि हम विश्व-नागरिकता के प्रति सम्मान का भाव रख सकें।

शैक्षिक विचारों के आधार (Bases of Educational Ideas)

टैगोर के शैक्षिक विचारों का पहला आधार दार्शनिक है। कौन-सा दर्शन ग्राह्य है और कौन-सा नहीं तथा शिक्षा दर्शन में किसी दार्शनिक के विचारों को उसके तत्त्व मीमांसीय, ज्ञान मीमांसीय तथा मूल्य मीमांसीय पद्धति से परखा जाता है। टैगोर के दार्शनिक विचारों के आधार स्रोत पर पहले विचार किया जा चुका है।

विचारों को प्रभावित करने का दूसरा आधार मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि माना गया है। क्योंकि लक्ष्यों को व्यवहार में परिवर्तित करने का कार्य मनोविज्ञान करता है। ज्ञान की कौन-सी शाखा किस स्तर पर ठीक है, बच्चे को कितना पढ़ाया जाये, किस विधि से पढ़ाया जाये, कौन-सी परिस्थितियाँ पैदा की जायें, यह सब काम मनोविज्ञान की परिधि में आता है।

शिक्षा विचारों को प्रभावित करने का तीसरा आधार सामाजिक परिस्थितियाँ हैं, जिसके आधार पर शैक्षिक उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं शिक्षा व्यवस्था बनती है।

शिक्षा के लक्ष्य को राजनीति भी प्रभावित करती है। जैसी राजनीतिक व्यवस्था होती है उसी प्रकार के शिक्षा के उद्देश्य बनते हैं और विचार आरोपित किये जाते हैं।

विचारों को प्रभावित करने का पाँचवाँ आधार वैज्ञानिक दृष्टिकोण होता है। समाज में जो नये-नये वैज्ञानिक आविष्कार होते हैं, वह व्यक्ति के विचारों को प्रभावित करते हैं और पाठ्यक्रम भी फिर वैसा ही बनता है।

टैगोर के शैक्षिक आधार स्रोतों पर उनके दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं वैज्ञानिक आविष्कारों का प्रभाव पड़ा है। टैगोर के दार्शनिक पक्ष, व्यक्ति, जीव, ईश्वर, जगत् आदि के सम्बन्ध में सोचने का दृष्टिकोण स्पष्ट है। वे आधुनिक आदर्शवादी हैं, मानववाद के पक्षधर हैं। वे बच्चों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को समझते हुये शिक्षा देने के पक्षपाती प्रतीत होते हैं और उनकी सामाजिक मान्यताओं में स्पष्टता है। वे व्यक्ति को समाज का एक अच्छा नागरिक बनाना चाहते हैं और समाजोपयोगी शिक्षा देना चाहते हैं। वे अन्ध-विश्वासों में विश्वास नहीं करते और भारतीय सभ्यता और संस्कृति के पुनरुत्थान में आस्था रखते हैं। वे शिक्षा के क्षेत्र में राज्य के महत्त्व को स्वीकार करते हैं और राज्य का नियन्त्रण शिक्षा पर उस सीमा तक चाहते हैं, जहाँ तक व्यक्ति का व्यक्तित्व नष्ट न हो। टैगोर वैज्ञानिक, औद्योगिक तथा पाश्चात्य शिक्षा देने के समर्थक हैं, लेकिन वे उस सीमा तक ही पाश्चात्य शिक्षा को ग्रहण करना पसन्द करते जहाँ तक भारत का व्यक्तित्व नष्ट न हो।

टैगोर की शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education According to Tagore)

रवीन्द्रनाथ टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी विचार उनके निजी अनुभवों पर आधारित हैं। शहर में बन्धनग्रस्त जीवन बिताने के कारण वे बच्चों के लिये मुक्त जीवन की आवश्यकता के सम्बन्ध में सचेत हो गये थे। जिन विद्यालयों में उन्होंने छुटपन में शिक्षा पाई थी उनमें कुछ ऐसे विषयों में पढ़ाई की जाती थी जो नीरस एवं भावहीन होती थी। वे प्रकृति के स्वच्छन्द वातावरण में बिना किसी बन्धन के मुक्त शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। वे चाहते थे कि हम बालकों को एक ऐसी शिक्षा दें जिससे उनका सर्वांगीण विकास हो। वे बच्चों के ऊपर थोपी गई शिक्षा के विरुद्ध थे। वे चाहते थे कि एक ऐसी शिक्षा हो जिसमें बालक किसी प्रकार का बन्धन महसूस न करे और जैसा वह चाहे वैसा सीख सके। बन्धनमुक्त शिक्षा से उनका अभिप्राय यह नहीं था कि बालकों को अपने भविष्य के बारे में सोचने के लिये छोड़ दिया जाये। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं था कि बालक पर किसी ऐसी बात को सीखने के लिये जोर दिया जाये जिसे वह नहीं चाहता है।

इसलिये वे उस शिक्षा पद्धति के विरोधी हो उठे जिनमें निश्चित विषयों की पढ़ाई निश्चित ढंग से की जाती है। वे स्वशिक्षा पद्धति के समर्थक थे और अनुभव करते थे कि जो शिक्षा उन्हें दी जाती है, उसका सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है।

उनमें यह विश्वास गहराई से घर कर गया था कि शिक्षा बच्चे के व्यक्तित्व का विकास प्रकृति की पृष्ठभूमि में करें । उनका यह विश्वास था कि बच्चा जब प्रकृति से सम्बद्ध रहकर अपनी वृत्तियों का विकास करेगा तभी उसके व्यक्तित्व में पूर्णता आ सकती है। यह आवश्यक है कि प्रकृति का सौन्दर्य अपनी विविधता और वैचित्र्य के साथ बच्चे के मन पर अज्ञात रूप में समा जाये। उसका व्यक्तित्व संध्या की स्निग्ध शांति, प्रातःकाल की नयी आशा, तारों की जगमगाती हुई शोभा और उगते हुये सूर्य के नये प्रकाश से भरा-पूरा होना चाहिये।

टैगोर ने अपने लेखों में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से शिक्षा के उद्देश्यों की चर्चा की है। उन्होंने शिक्षा में हेर-फेर नामक बँगला लेख में छात्रों के दुर्बल स्वास्थ्य पर चिन्ता प्रकट की है। वे स्वस्थ शरीर को बहुत महत्त्व देते थे। इस दृष्टि से उन्होंने शारीरिक विकास को शिक्षा के एक उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया है।

उनके अनुसार शिक्षा का दूसरा उद्देश्य बौद्धिक विकास होना चाहिए। वे पुस्तकीय शिक्षा का विरोध करते दिखाई पड़ते हैं तथा स्वतन्त्र चिन्तन का समर्थन करते हैं। स्मृति पर अधिक भार न संभालने व चिन्तन एवं कल्पना की शक्तियों का विकास करना आवश्यक है।

‘शिक्षा समस्या’ में वे सच्चे अनुशासन का विश्लेषण करते हुए व्यक्ति के नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास पर बल देते हैं। वे युवकों को तपस्या एवं दृढ़ भक्ति की भावना का विकास करने का परामर्श देते हैं। इस प्रकार की भावना तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास करे और अपनी आत्मा को सभी प्रकार की दासता से मुक्त करे। इस प्रकार टैगोर गुलामी को समाप्त करना आध्यात्मिक विकास के लिए बहुत आवश्यक समझते थे ।

टैगोर एक उच्च कोटि के अन्तर्राष्ट्रीयतावादी थे। उन्होंने पूर्व और पश्चिम का अभूतपूर्व समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया। उनके द्वारा स्थापित ‘विश्व भारती’ सच्चे अर्थ में विश्व-भारती है । इस दृष्टि से वे शिक्षा द्वारा बालकों में अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास करने में रुचि लेते हुए दिखाई पड़ते हैं।

टैगोर के पाठ्यक्रम (Tagore’s Curriculum)

टैगोर में देश-प्रेम तथा जन-कल्याण की भावना प्रबल थी। अतः वे व्यक्तियों में राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास करना चाहते थे । वे संकीर्ण राष्ट्रीयता के समर्थक नहीं थे। वे समस्त मानव जाति के प्रति प्रेम एवं सद्भावना रखने के पक्ष में थे अर्थात् वे विश्व बन्धुत्व में विश्वास करते थे और शिक्षा द्वारा अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति करना चाहते थे । अतः इस दृष्टि से उन्होंने पाठ्यक्रम में अपने देश की भाषा, संस्कृति तथा सभ्यता के साथ-साथ अन्य देशों की भाषा एवं संस्कृति के अध्ययन पर बल दिया । उनका विश्वास था कि इस प्रकार की शिक्षा से विभिन्न राष्ट्रों के बीच साझेदारी और सद्भावना स्थापित हो सकेगी। अतः टैगोर पाठ्यक्रम में राष्ट्रीय विषयों के साथ-साथ मानवता का विकास करने वाले विषयों को महत्त्वपूर्ण स्थान देने के समर्थक थे। शान्ति निकेतन में उनके द्वारा लागू किया गया पाठ्यक्रम संकीर्ण नहीं था । संकीर्णता के टैगोर विरोधी थे, फिर वह चाहे जिस क्षेत्र की संकीर्णता हो । रवीन्द्र बाबू पुस्तकों की अपेक्षा प्रकृति से शिक्षा ग्रहण करने के पक्षपाती थे अर्थात् वह अपनी शिक्षा-प्रणाली में पुस्तकों की भूमिका नगण्य मानते थे। टैगोर ने स्वयं उच्च कोटि की पुस्तकों की रचना की थी किन्तु वे बच्चों को पुस्तकों के बोझ से दूर रखना चाहते थे। बाद में ऊँची कक्षाओं में पुस्तकों का सहारा लिया जाना चाहिए। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में पुस्तकों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया । प्रत्येक विषय का क्रमबद्ध ज्ञान, प्रकृति से प्राप्त करना, अव्यावहारिक प्रतीत होता है।

टैगोर ने पाठ्यक्रम को विस्तृत बनाने का परामर्श दिया है। उनके अनुसार पाठ्यक्रम को इतना व्यापक होना चाहिए कि बालक के जीवन के सभी पक्षों का विकास हो सके। टैगोर ने किसी निश्चित पाठ्यक्रम की योजना नहीं बनायी। उन्होंने पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में सामान्य विचार यत्र-तत्र प्रस्तुत किये हैं और उन्हीं के आधार पर यह कहा जा सकता कि वे सांस्कृतिक विषयों को बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान देते थे । विश्व भारती में इतिहास, भूगोल, विज्ञान, साहित्य, प्रकृति का अध्ययन आदि की शिक्षा तो दी ही जाती है, साथ ही अभिनय, क्षेत्रीय अध्ययन, भ्रमण, ड्राइंग, मौलिक रचना, संगीत, नृत्य आदि की भी शिक्षा का विशेष प्रबन्ध है।

यदि किसी को यह अवसर मिले कि वह शान्ति निकेतन जाये और विश्व भारती के पाठ्यक्रम के व्यावहारिक रूप को देखे तो उसे यह विश्वास हो जायेगा कि शान्ति-निकेतन शिक्षा-प्रणाली में पाठ्यक्रम विषय केन्द्रित नहीं है । विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ वहाँ देखने को मिलेंगी। ड्राइंग, परिभ्रमण, प्रयोगशाला के कार्य, गायन, नृत्य, प्रातःकालीन प्रार्थना, सरस्वती – यात्राएँ, छात्रों का स्वशासन, खेल-कूद, समाज-सेवा आदि क्रियाएँ पाठ्यक्रम के अंग की भाँति ही हैं । इसीलिए विश्व भारती के पाठ्यक्रम को अनुभव-केन्द्रित पाठ्यक्रम ही माना जायेगा। इसका श्रेय टैगोर को ही है।

टैगोर की शिक्षण-विधि (Tagore’s Method of Teaching)

टैगोर बालक असीम शक्ति एवं जिज्ञासा के प्रति आस्था प्रकट करते हैं। वे बालक की अनन्यता में विश्वास की करते हैं और कहते हैं कि प्रत्येक बालक की व्यक्तिगत भिन्नता को ध्यान में रखकर उसकी शिक्षा का प्रबन्ध किया जाय।

वे बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता देने का समर्थन करते हैं। उनका विचार है, बालकों में विशेष प्रकार की आदतें डालकर उन आदतों का उन्हें दास न बनाया जाय।

उनका कथन है कि शिक्षण सजीव होना चाहिए। शिक्षण में सजीवता लाने के लिए बालक की रूचियों एवं संवेगों पर ही विधि आधारित हो। यहाँ पर संवेगों पर ध्यान देना चाहिए। शिक्षण जीवन की यथार्थ परिस्थितियों के द्वारा दिया जाना चाहिए । जहाँ तक सम्भव हो, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि का शिक्षण प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा ही प्रदान किया जाय। भ्रमण, दृश्य-दर्शन आदि प्रविधियों के द्वारा शिक्षा में यथार्थ दृष्टिकोण का विकास किया जा सकता है।

शिक्षण – विधि का अन्य महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त क्रिया- सिद्धान्त है। टैगोर शरीर और मस्तिष्क की शिक्षा के लिए क्रिया को आवश्यक मानते थे। उनके अनुसार बालक को किसी हस्तकला में अवश्य प्रशिक्षित किया जाय। वे पेड़ पर चढ़ने, कूदने, बिल्ली या कुत्ते के पीछे दौड़ने, फल तोड़ने, हँसने, चिल्लाने, ताली बजाने, अभिनय करने को शिक्षण की आवश्यक प्रविधि या युक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।

टैगोर को अधिगम के आधुनिक सिद्धान्तों का पूर्वाभ्यास था । वे मनोवैज्ञानिकों से सिद्धान्त रूप से सहमत दिखाई पड़ते हैं तो कुछ की उन्होंने आलोचना भी की है। उनका विचार था कि बालक को सीखने का अवसर प्रदान करना चाहिये। शिक्षण विधि में उन्होंने प्रेम एवं सहानुभूति से ओत-प्रोत वातावरण को महत्त्व दिया। बालक के प्रति सहानुभूति रखने से अनेक सिद्धान्त अपने आप प्रकट हो जाते हैं। टैगोर प्राकृतिक वातावरण में प्राकृतिक सिद्धान्तों द्वारा शिक्षा के समर्थक थे।

ये विभिन्न विषयों- जीव विज्ञान, विज्ञान, खगोल विद्या, भूगर्भ विद्या आदि की शिक्षा प्राकृतिक पर्यावरण में देना चाहते हैं, जिसमें बालक स्वानुभव, रुचि तथा करके सीख सकता है। इस प्रकार वे शिक्षण की मनोवैज्ञानिक विधियों का समर्थन करते थे ।

छात्र- शिक्षक सम्बन्ध (Pupil-Teacher Relationship)

गुरु-शिष्य सम्बन्ध के विषय में टैगोर के विचार अनुकरणीय हैं। टैगोर का विश्वास व्यक्ति के गौरव पर था इसलिये वे स्वभावतः शिक्षक के व्यक्तित्व पर सबसे अधिक ध्यान दिया करते थे। शिक्षा समस्या निबन्ध में टैगोर कहते हैं कि सबसे पहला काम है एक यथार्थ शिक्षक को ढूँढ़ निकालना, जब यह काम हो जाये, पाठ्यक्रम सूची, शिक्षण पद्धति और अनुशासन सम्बन्धी बातें आसानी से तय की जा सकती है । किसी शिक्षक का प्रत्यक्ष उदाहरण उसके विचारों, और यहाँ तक कि उसके ज्ञान से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। टैगोर के मतानुसार केवल पुस्तकगत ज्ञान 1 भारस्वरूप होता है, पर जब वही सच्ची लगन और आस्था से आलोकित हो उठता है, तब आने वाली अनगिनत पीढ़ियों को प्रकाश और ताप देता है। उनका कथन था कि ज्ञान प्राप्त करना या सीखना एक निरन्तर चलती रहने वाली प्रक्रिया है और वह तभी यथार्थ बन पाता है, जब शिक्षक और शिक्षा प्राप्त करने वालों के मन एक-दूसरे से मिल जायें। उन्होंने शिक्षा की तुलना एक दीये से दूसरे दीये को जलाते चले जाने से की है और यह कहा है कि यथार्थ शिक्षक दीये की तरह होता है, जहाँ शिक्षक ने सीखना और अध्ययन करना छोड़ दिया, वहीं वह बुझ जायेगा।

छात्र और शिक्षक का सम्बन्ध औपचारिक नहीं होना चाहिए। टैगोर ने शिक्षक के सम्बन्ध में जो विचार प्रकट किये हैं वह उनके प्रकृतिवादी दृष्टिकोण को प्रकट करते हैं। आदर्शवादी विचारक होने पर भी वह गुरु को “गुरुर्ब्रह्म, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा” का उच्च स्थान न देकर उसे छात्र के पथ प्रदर्शक के रूप में स्वीकार करते हैं। छात्र-शिक्षक का सम्बन्ध ठोस धरातल पर होना चाहिए। यह सम्बन्ध पिता-पुत्र के समान घनिष्ठ होना चाहिए। दोनों ही शिक्षा की साधना में तत्पर हैं। दोनों ही ज्ञान के पथिक हैं। एक इस पथ में कुछ आगे है तो दूसरा थोड़ा पीछे है।

रवि बाबू आवासीय विद्यालयों का समर्थन करते हैं। उन्होंने बताया है कि शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति केवल निवास योग्य विद्यालयों में हो सकती है। वहाँ बच्चों को प्रतिदिन प्रकृति के घनिष्ठ सम्पर्क में रखा जा सकता है। वहाँ वे लगन वाले शिक्षकों के व्यक्तिगत सम्पर्क में रहकर राष्ट्रीय परम्पराओं को अपना सकते हैं। इन आदर्शों को मूर्त रूप देने और बच्चे के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं में सामंजस्य स्थापित करने के उद्देश्य से ही उन्होंने आवासीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की ।

टैगोर की शैक्षिक विचारधारा की कुछ विशेषताएँ

टैगोर ने अपने लेखों में तत्कालीन शिक्षण-प्रणाली की कटु आलोचना की और इसको काल्पनिक, विदेशी, पुस्तकीय एवं अनुपयुक्त कहा। वे शिक्षा को भारतीय संस्कृति पर आधारित करना चाहते थे और शिक्षा के माध्यम के रूप में उन्होंने मातृभाषा का समर्थन किया है। संगीत, अभिनय, कला आदि पर विशेष बल दिया। शिक्षा के क्षेत्र में वे भारतीय विचारधारा का समर्थन करते हुए मानवतावादी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर अन्तर्राष्ट्रीयता का विकास करना चाहते थे। भी उन्होंने प्रेम एवं सार्वभौमिकता का पाठ पढ़ाया और उन्हें उच्च शैक्षिक मूल्यों के रूप में स्वीकार किया।

टैगोर का सम्मान एक महाकवि के रूप में है। वे गीतांलि – रचयिता एवं नोबिल पुरस्कार विजेता के रूप में भुलाये नहीं जा सकते। वे एक दार्शनिक थे। सत्यम्, शिवम्, एवं अद्वैतम् के व्याख्याकार के रूप में भी वे हमारे सामने आते हैं। किन्तु इन महान् योगदानों के अतिरिक्त भारत के लिए इनका एक और योगदान है जिसे भूलना भारतीय इतिहास के सत्य को ही भुला देना होगा। टैगोर एक शिक्षक के रूप में भी हमारे समक्ष आते हैं। वे ‘गुरुदेव’ थे । गुरुदेव के रूप में उनका महान् योगदान शान्ति निकेतन प्रणाली के रूप है। भारतीय शिक्षा में यह एक महत्वपूर्ण योगदान है। गुरुदेव के रूप में टैगोर तत्कालीन शिक्षा-प्रणाली से अत्यन्त असन्तुष्ट थे । उन्होंने शिक्षा के कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया में और बाद में उन्हें अपने शान्ति-निकेतन प्रयोग में, व्यवहत किया। विश्वभारती उनकी शैक्षिक विचारधारा का व्यावहारिक रूप है। यह टैगोर के गुरुदेवत्व का प्रतीक है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि टैगोर शिक्षा के क्षेत्र में भी कोरे सिद्धान्तवादी न होकर व्यावहारिक शिक्षा-शास्त्री थे। मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा की बात करके, अन्तर्राष्ट्रीय अवरोध की शिक्षा पर बल देकर, वैदिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए शिक्षा की बात करके तथा अनुभव-केन्द्रित पाठ्यक्रम पर बल देकर वे अपने समय की शिक्षा-प्रणाली में आमूल परिवर्तन करना चाहते थे।

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