मार्क्सवाद पर एक निबंध लिखें। (Write an essay on Marxism)
कार्ल मार्क्स का दर्शन साम्यवाद या मार्क्सवाद के नाम से आज जाना जाता है। साम्यवाद आधुनिक युग का बड़ा सशक्त दर्शन है और इस दर्शन को यह भी सौभाग्य प्राप्त है कि इसका व्यावहारिक प्रयोग रूस, चीन और अन्य देशों ने किया। आदर्शवाद, प्रकृतिवाद, यथार्थवाद तथा प्रयोजनवाद का व्यावहारिक रूप हमें आज उस तरह देखने को नहीं मिलता जिस तरह साम्यवाद का मिलता है।
इस दर्शन के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स थे। लेनिन तथा स्टालिन ने इस दर्शन को व्यावहारिक रूप प्रदान किया । माओत्से-तुंग ने इसे कृषि प्रधान समाज प्रयुक्त करके इसके क्षेत्र को और अधिक व्यापकता प्रदान कर दी।
साम्यवाद में सामाजिक न्याय, साम्प्रदायिक भ्रातृत्व, शोषण का विरोध, मानवीय समस्याओं के प्रति तार्किक दृष्टिकोण और ज्ञान के प्रत्यय प्रमुख हैं। वर्तमान विज्ञान द्वारा प्रदत्त तथ्यों के आधार पर यथार्थवादी दृष्टिकोण का यह समर्थक है । समाज के अज्ञान के कारण ज्ञान को दूषित कर दिया जाता है और यदि समाज में चेतना है तो मानसिक व्यवस्था में परिवर्तन किया जा सकता है। साम्यवाद डार्विन के उस सिद्धान्त से सहमत हैं जिसके अनुसार प्रकृति जड़ न होकर प्रवाहयुक्त सत्ता है। पूँजीवादी के साहस का विश्लेषण करके इसकी उपलब्धियों को आँका गया और शोषण के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग को सचेत किया गया । औद्योगिक क्रान्ति की देन पर इसका विश्वास है तथा स्वतन्त्रता को समानता के सिद्धान्त से सम्बद्ध करने पर इसका आग्रह है। श्रम में ही मूल्य निहित है।
कार्ल मार्क्स ने मानव प्रकृति का गम्भीर अध्ययन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि मानव अकेला नहीं रह सकता । उसका अस्तित्व स्वयं में नहीं है । वह समाज के सन्दर्भ में ही अस्तित्व रखता है । ‘मनुष्य’ एकवचन के रूप में कहीं नहीं है। वह सदा बहुवचन होता है। अर्थात् उसकी प्रवृति सदा सामाजिक होती है। इस प्रकार मानव विज्ञान एक प्रकार से समाज विज्ञान होता है । कार्ल मार्क्स इस निष्कर्ष पर अपने अनुभव एवं निरीक्षण में पहुँचे । उन्होंने देखा कि मनुष्यों के व्यवहारों में भिन्नता है और कोई सामान्य ‘मनुष्य’ या सामान्य मानव व्यवहार नहीं है।
विश्व परिवर्तनशील है। संसार की सभी वस्तुएँ परिवर्तनशील है। परिवर्तन में भी एक पैटर्न होता है । इतिहास हमें यह पैटर्न बताता है। इतिहास में कारण-कार्य के आन्तरिक सम्बन्धों की सुन्दर एवं उपयोगी व्याख्या मार्क्स और एञ्जिल्स ने की। कारण-कार्य-सम्बन्ध यान्त्रिक नहीं है। यह घटना के परिणामस्वरूप नितान्त नवीन घटना घटित हो सकती है।
कार्ल मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद की गम्भीर व्याख्या प्रस्तुत की है। मार्क्सवादी सामाजिक विज्ञान के चार उपकरण प्रसिद्ध हैं प्रथम है, समस्या का आलोचनात्मक विश्लेषण, दूसरा है समस्या का विस्तृत ऐतिहासिक विशिष्टीकरण, तीसरा है समाज की उत्पादनशील शक्तियों के स्वरचित विकास का अनुभवाश्रित अभ्युपगम और चौथा है, यह अनुभवाश्रित सामान्यीकरण कि ऐतिहासिक विकास मनुष्यों के अन्तर्द्वन्द्वों का परिणाम है और प्रतियोगी सामाजिक वर्गों का संघर्ष सामाजिक परिवर्तन का गतिशील कारण है। प्रथम उपकरण में समस्या की सूझ और उसकी व्युत्पत्ति निहित है। दूसरे में काल्पनिक निष्कर्षो को अनुभवगत प्रत्ययों में बदलना भी निहित है। इतिहास को केवल कालक्रम की दृष्टि से या अभिलेखों के माध्यम से पढ़ना सत्य के विश्लेषण से परे हैं। इतिहास को पढ़ने की मार्क्सवादी विधि है द्वन्द्व न्याय (डायलेक्टिक)। द्वन्द्वात्मक विधि से विकास का विश्लेषण नए तथ्यों एवं नई घटनाओं की जानकारी प्रदान करता है।
कार्ल मार्क्स के अनुसार ज्ञान हमें पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं प्रदान कर सकता । ज्ञान हमें अगले कदम की दिशा बता देता है। यदि ज्ञान रचनात्मक हो जाए तो इससे हमें शक्ति व सत्य प्राप्त हो जाएँगे किन्तु यदि वह केवल चिन्तनात्मक एवं निष्क्रिय है तो यह अपूर्ण एवं भ्रष्ट कहा जाएगा। विज्ञान की प्रयोगात्मक पद्धति में यह रचनात्मक बनी रहती है।
जहाँ तक नैतिकता का प्रश्न है मार्क्सवादी विचारक नैतिकता को समाज केन्द्रित मानते हैं। मानव यद्यपि प्रकृति पर विजय प्राप्त करने में समर्थ है पर वह सामाजिक नियति से बँधा हुआ है और यह सामाजिक नियति से स्वतन्त्र नहीं है। सभी प्रकार के सामाजिक संगठन आर्थिक नियति से बंधे हुए है। धार्मिक नियति का निर्धारण उत्पादन की प्रक्रिया एवं अन्य आर्थिक प्रक्रियाओं द्वारा होता है। विचार एवं आदर्श भी उत्पादन प्रक्रिया पर आधारित है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आदर्शों एवं विचारों का जनक स्वयं मनुष्य है। नैतिक आदर्शों की प्राप्ति न आत्मा से हैं, न मन से, न हृदय से वरन् बाह्य भौतिक परिस्थितियाँ एवं उच्च स्तरीय सामाजिक जीवन से है। नैतिकता सामाजिक पूर्णता है। नैतिकता का आधार आध्यात्मिकता नहीं है। जिसे आध्यात्मवादी आत्मा कहता उसका तो मनुष्य की चेतना के रूप में शनैः-शनैः विकास हुआ है। हमारी चेतना भ्रमवश परा-ऐन्द्रिय प्रतीत होती है । वस्तुत: यह पुद्गल से उद्भुत है । मनस् चेतना या आत्मा पुद्गल की उच्चतम उपज़ है न कि पुद्गल मन की उपज।
साम्यवाद के अनुसार मनुष्य और नैतिक प्राणी पर्यायवाची शब्द है और नैतिकता का मूल स्रोत मनुष्य का सामाजिक संगठन है। इस प्रकार मार्क्स नैतिकता की सभी आध्यात्मिक और भाववादी व्याख्याओं को अस्वीकार करता है। उदाहरणतः सभी धार्मिक विचारक कहते हैं कि नैतिकता का मूल कारण आस्तिकता है। बिना ईश्वर का विश्वास रखे मानव नैतिक नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वर सृष्टि का ही नहीं नैतिकता का भी आदि कारण है। यूरोप में प्राचीन काल में सन्तं ऑगस्टीन तथा एक्विनाश एवं आधुनिक युग में ब्रेडले तथा टी. एच. इलियट जैसे विचरिकों ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया पर स्पष्टतः मार्क्सवाद इसे स्वीकार नहीं करता। दूसरी तरफ भौतिकवादी एवं घोर व्यक्तिवादी विचारक है, जो नैतिकता के मूल में कोई न कोई भाववाचक संज्ञा बतलाते हैं। विचारक रंगविक्यूरस ने भौतिक सुख पर, बेंथम और मिल ने व्यक्तिगत स्वार्थ पर तथा नीत्से ने व्यक्तिगत बल प्रयोग पर जोर दिया है। साम्यवादी विचारक इन सभी व्यक्तिवादी सिद्धान्तों को अस्वीकार करते हैं, क्योंकि
उन्होंने इस महान् मौलिक सत्य की अवहेलना की है कि नैतिकता सामाजिक आवश्यकताओं के कारण व्यक्ति और समाज में सामंजस्य स्थापित करने के लिए ही बनी है, निर्जन टापू पर रहने वाले रॉबिन्सन क्रूसो के लिए नैतिकता का कोई अर्थ नहीं। मार्क्सवाद स्पष्ट शब्दों में कहता है कि इतिहास के विकास में जिन तत्वों ने काम किया है या करते हैं वे नैतिक तत्व नहीं हैं बल्कि भौतिक उत्पादन, विनिमय और वितरण व्यवस्था है।
साम्यवाद श्रमिक वर्ग का इसलिए समर्थन नहीं करता कि श्रमजीवी वर्ग अन्य वर्गों से नैतिक है, अपितु इसलिए कि श्रमजीवी वर्ग को अपने जीवन की विषमताओं से विवश होकर समाजवाद के लिए संघर्ष करना पड़ेगा और समाजवाद समस्त शोषित जनता को भौतिक एवं सांस्कृतिक विभूतियों से सम्पन्न करेगा। श्रमजीवी वर्ग समाज को प्रगति की ओर ले जाएगा, अतः अन्य वर्गों की अपेक्षा नैतिक दृष्टि से वह ऊँचा है एवं उसका समर्थन उचित है। दूसरा आरोप है कि मार्क्सवाद में श्रमिकों के प्रति नैतिक सहानुभूति एवं पक्षपात हैं, अतः उसका अर्थ अवैज्ञानिक है। मार्क्स ने अपने दर्शन में जगह-जगह पर यह विश्लेषित किया है कि श्रमिक वर्ग का महत्त्व नैतिक कारणों से नहीं वरन् आर्थिक कारणों से । आर्थिक और वैज्ञानिक कारणों से आज यह स्पष्ट है कि सर्वहारा वर्ग ही समाज को समृद्धि की ओर ले जाएगा। यदि मार्क्स को यह पता होता तो वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ उसका समर्थन करता है। मार्क्स के वैज्ञानिक अर्थशास्त्र और नैतिकशास्त्र में एक द्वंद्विक एकता है, जहाँ अन्य अर्थशास्त्रियों के विज्ञान और नैतिकता में यान्त्रिक पार्थक्य है।
साम्यवाद की विचार पद्धति द्वन्द्ववादी है, जिसके अनुसार सभी वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं तथा विकास की प्रक्रिया भी द्वन्द्ववाद के आधार पर होती है। जिस प्रकार कोई भी समाज पद्धति शाश्वत सत्य नहीं होती है, उसी प्रकार शाश्वत नैतिकता नाम की वस्तु भी असम्भव है। उदाहरणस्वरूप यूरोप में बाइबिल में दस आदर्शों को शाश्वत सत्य की उपाधि दी जाती है। किन्तु प्रसिद्ध विद्वान् ‘हाउआर्ड सेल्साम’ ने अपनी पुस्तक ‘सोशलिज्म एण्ड इथिक्स’ में अधिक एवं सामाजिक विश्लेषण के आधार पर बतलाया है कि बाइबिल में वर्णित दस आदर्श तत्कालीन सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। इसी प्रकार के विचार (जैसे बाइबिल में मिलते हैं) भारतीय प्राचीन ग्रन्थों में भी वर्णित हैं। सेल्साम ने लिखा है कि ‘मूसा इजराइल की बिखरी और दलित जातियों का संगठन कर एक संयुक्त मूलक समाज का संगठन करना चाहते थे। ये दस आदर्श इसी समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निर्मित किए गए थे।’
नैतिक आदर्शों का आधार सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था है। आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों के साथ-साथ नैतिक आदशों में भी परिवर्तन होते हैं। समाजशास्त्र के अनुसार प्रत्येक समाज का आधार उसकी उत्पादन व्यवस्था है जिसके साथ किसी वर्ग विशेष का सम्बन्ध रहता है। प्रत्येक समाज में किसी पुरुष वर्ग का प्रभुत्व रहता है, जो समाज के नैतिक ही नहीं प्रत्युत आध्यात्मिक साधनों और तत्वों पर भी अधिकार कर लेता है, जिससे कि प्रभुसत्ता वर्ग के स्वार्थ अक्षुण्ण रहें। जिस प्रकार प्रत्येक समाज में सत्ता-सम्पन्न वर्ग की अर्थ प्रणाली, साहित्य एवं कला को ही महिमा मण्डित किया जाता है उसी प्रकार उसकी कुछ नैतिकता भी उसके हितों का अनुगमन करती है और जनता में यह धारणा पैदा हो जाती है कि मानव मात्र नैतिकता की कला है। अतः प्रत्येक प्रभुसत्ता वर्ग अपने समय के विशिष्ट नैतिक गुणों का सृजन करता है। ये गुण काल और समय के अनुसार बदलते रहते हैं, जैसे सामन्तवादी युग में साहस, स्वामिभक्ति, बल-प्रयोग सर्वश्रेष्ठ गुण माने जाते थे, कानून या नियम को मानना कोई विशेष प्रसंसनीय नहीं माना जाता था। पूँजीवादी युग के आ जाने पर सर्वप्रथम नियमानुकूलता, दायित्व, व्यवहार कुशलता, बौद्धिक कुशाग्रता अथवा तर्क-शक्ति इत्यादि युग धर्म हो गए, क्योंकि वे बुर्जुआ वर्ग की प्रगति में सहायक है। यह धारणा गलत है कि बुर्जुआ वर्ग ने सामन्तयुगीन समस्त नैतिक धारणाओं को अस्वीकार कर दिया । जिस प्रकार बुर्जुआ वर्ग ने सामन्तयुगीन कला साहित्य दर्शन के श्रेष्ठ तत्वों को ग्रहण किया, उसी प्रकार उसके श्रेष्ठ जीवन्त नैतिक परम्परा के कुछ भाग को भी अपनाया । अन्तर केवल इतना ही रहा कि बुर्जुआ ने उन गुण तत्वों पर विशेष जोर दिया जो उसकी आवश्यकता के अधिक थे
साम्यवाद के अनुसार नैतिकता केवल मानवीय और सामाजिक नहीं बल्कि मूलतः वर्गाश्रित है जो सभी नैतिक आदर्शों के वर्ग-सार पर जोर देती है। लेनिन ने लिखा है “हम उन सभी नैतिक आदर्शों को अस्वीकार करते हैं जिनकी उत्पत्ति श्रेणी निरपेक्ष सिद्धान्तों पर हुई है, हम घोषित करते हैं कि वे आदर्श धोखेबाजी से भरे हैं और इसका अभिप्राय है। कि पूँजीवादी वर्ग के स्वार्थ रक्षार्थ श्रमजीवी वर्ग को धोखा देना है।”
सभी समाज वर्ग समाज है और सभी नैतिकताएँ हैं। जिस प्रकार लघुसंख्यक वर्ग, प्रभुत्व वर्ग तभी शासन और शोषण कर सकता है, जब जनपद में वह यह धारणा पैदा कर दे कि उसका शासन सभी के कल्याण के लिए है, उसी प्रकार प्रभुत्व वर्ग की नैतिकता भी तभी सफल और सर्वमान्य हो सकती है जब यह घोषित किया जाए कि उसका उद्देश्य मानव-मात्र का कल्याण करना है।
- दर्शन और शिक्षा के बीच संबंध
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 [ National Policy of Education (NPE), 1986]
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