B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

दर्शन और शिक्षा के बीच संबंध | Relationship of Philosophy and Education in Hindi

दर्शन और शिक्षा के बीच संबंध
दर्शन और शिक्षा के बीच संबंध

दर्शन और शिक्षा के बीच संबंध | Relationship of Philosophy and Education

दर्शन और शिक्षा के बीच संबंध- शिक्षा तथा दर्शन के पक्षों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। दर्शन में विषय पर सूक्ष्म रूप से विचार किया जाता है और शिक्षा में व्यावहारिक रूप प्रदान किया जाता है।

दर्शन जीवन के लिए आदर्शों और मूल्यों की स्थापना का कार्य करता है, शिक्षा उसके क्रियान्वयन तथा प्रसार का कार्य करता है।

जब-जब प्रयोग द्वारा दार्शनिक सिद्धान्तों में त्रुटियाँ पाई गई, तब-तब उनमें परिवर्तन किए गए । इस प्रकार शिक्षा एक ओर तो दर्शन से अपना मार्ग निर्धारित करती है, दूसरी ओर वह दर्शन को मर्यादित भी करती है। पाश्चात्य देशों में शिक्षा दर्शन में जो नए-नए ‘वाद’ चले हैं, वे शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले प्रयोगों के परिणामस्वरूप विकसित हैं।

हुए शिक्षा दर्शन के बिना आधी है तथा दर्शन शिक्षा के बिना पंगु है। जैसे शरीर और प्राण का आपसी सम्बन्ध है, वैसे ही दर्शन एवं शिक्षा का आपसी सम्बन्ध है । इस बारे में निम्नलिखित बातें महत्त्वपूर्ण हैं-

(1) दर्शन की विचारधारा के अनुरूप शिक्षा की संरचना की जाती है

(2) शिक्षा क्रियात्मक है जबकि दर्शन विचारात्मक।

(3) दर्शन सत्यता खोजता है तथा शिक्षा उसका प्रयोग करती है।

(4) शिक्षा एक दार्शनिक आधार होता है।

(5) महान् दार्शनिक महान् शिक्षाशास्त्री हुए हैं तथा महान् शिक्षाशास्त्री महान् दार्शनिक।

(6) दर्शन तथा शिक्षा दोनों ही मानव जीवन के लिए आवश्यक है।

(7) शिक्षा तथा दर्शन एक-दूसरे पर निर्भर है।

दर्शन तथा शिक्षा के अन्तर्सम्बन्ध पर विद्वानों के विचार

रॉस के अनुसार, “दर्शन तथा शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक-दूसरे में निहित हैं। पहला विचारपूरक पहलू है और दूसरा क्रियाशील । “

जॉन एडम्स के शब्दों में, “शिक्षा दर्शन का गतिशील पहलू है।”

जॉन ड्यूवी ने लिखा है, “शिक्षा एक ऐसी प्रयोगशाला है जहाँ दार्शनिक सिद्धान्त तथा विशिष्टताएँ स्पष्ट होती हैं तथा उनका परीक्षण होता है । “

कॉनोर के अनुसार, “दर्शन शिक्षा को निर्देशित करता है तथा शिक्षा दर्शन को।”

बटलर ने कहा है कि “दर्शन शैक्षिक अभ्यास के लिए पथ-प्रदर्शक है। शिक्षा खोज के क्षेत्र में दार्शनिक निशार्य के लिए कुछ निश्चित आँकड़े प्रदान करती है। “

हरबार्ट के कथनानुसार, “जब तक समस्त दार्शनिक समस्याओं को व्यावसायिक रूप नहीं दिया जाता है, तब तक चैन नहीं आ सकता। कहा जाता है कि शिक्षा दर्शन के बिना आधी है तथा दर्शन शिक्षा के बिना पंगु है।”

जी. ई. पैर्टिज के शब्दों में, “अत्यन्त गम्भीर अर्थ में यह कहना बिल्कुल उचित है। कि जिस प्रकार शिक्षा दर्शन पर आधारित है उसी प्रकार दर्शन शिक्षा पर आधारित है।”

दर्शन का शिक्षा के विभिन्न पक्षों पर प्रभाव

(I) दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव में कुछ विद्वानों के मत : दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव के महत्त्व के बारे में कुछ विद्वानों के विचारों का नीचे उल्लेख किया जा रहा है-

1. दर्शनशास्त्र से शिक्षा को दिशा मिलती है-दर्शन से शिक्षा को मार्गदर्शन मिलता। है। दार्शनिक सिद्धान्तों के बिना शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती।

फिक्टे के अनुसार, “दर्शन के बिना शिक्षण कला अपने आप में कभी स्पष्ट पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकेगी।”

बोड के विचार में, “उद्देश्य को निश्चित करने में जब तक हमें दार्शनिक निर्देशन प्राप्त न हो, तब तक हम कहीं भी नहीं पहुँच सकते।”

2. दर्शन शैक्षिक प्रयोगों का पथ-प्रदर्शक है-बटलर के विचार में, “दर्शन शिक्ष के प्रयोगों के लिए पथ-प्रदर्शक है।”

3. दर्शन शिक्षा की प्रकृति का स्पष्टीकरण करता है-जैण्टील का कहना ” दर्शन के बिना शिक्षा की स्पष्ट प्रकृति को नहीं समझा जा सकता।”

(II) दर्शन तथा शिक्षा के उद्देश्य-टी. पी. नन के अनुसार, “शिक्षा की प्रत्येक योजना अन्त में व्यावहारिक दर्शन है और जीवन के प्रत्येक बिन्दु को आवश्यक रूप से स्पर्श । करती है। अतः दर्शन शिक्षा के आदर्शों से सम्बन्ध रखता है, क्योंकि जीवन के आदर्श सर्वथा भिन्न होते हैं। इसलिए उनकी भिन्नता शैक्षिक सिद्धान्तों में अवश्य प्रतिबिम्बित होगी।”

ड्यूवी के विचार में, “दर्शन का शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित करने से गहरा सम्बन्ध है।”

रॉस ने इस सम्बन्ध में लिखा है, “शिक्षा के उद्देश्य तथा विधियाँ दार्शनिक सिद्धान्तों के उप-सिद्धान्त हैं।”

प्राचीन भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन का उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना था, तद्नुसार शिक्षा के उद्देश्य। अंग्रेजी राज में शिक्षा के उद्देश्य उनके दर्शन के अनुसार था ।

स्वतन्त्र भारत में शिक्षा के उद्देश्य संविधान में दर्शाए मूल्यों के अनुसार है।

प्राचीनकाल में स्पार्टा राज्य के निवासियों के जीवन दर्शन का मुख्य बिन्दु संघर्ष था । अतः इस आदर्श के अनुसार वहाँ शिक्षा का उद्देश्य देश की रक्षा के लिए सैनिक तैयार करना था।

एथेन्स में स्पार्टा के विपरीत वहाँ के निवासियों का जीवन दर्शन आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करना था। अतः वहाँ की शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों को इस योग्य बनाना था कि वे शारीरिक, चरित्रात्मक तथा कलात्मक सौन्दर्य का विकास करके जीवन को आनन्दपूर्वक व्यतीत कर सकें ।

आदर्शवाद शिक्षा में इन उद्देश्यों पर जोर देता है-

(i) सत्यम् शिवम् एवं सुन्दरम् की प्राप्ति,

(ii) नैतिक तथा पवित्र जीवन का विकास,

(iii) आत्म-बोध ।

प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य हैं—

(i) आत्म-अभिव्यक्ति,

(ii) व्यक्तित्व का स्वतः विकास,

(iii) वर्तमान तथा भविष्य में आनन्द की प्रगति ।

प्रयोजनवाद के मुख्य उद्देश्य हैं

(i) सामाजिक कुशलता,

(ii) साधनापूर्ण तथा साहसपूर्ण मस्तिष्क का विकास ।

(III) दर्शन और पाठ्यक्रम (Philosophy and Curriculum)- दर्शन ही पाठ्यक्रम का आधार है। पाठ्यक्रम में समाज की आशाओं, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं का समावेश होता है। दर्शन के आधार पर ही कभी पाठ्यक्रम शिक्षक केन्द्रित रहा, कभी विषय केन्द्रित, कभी क्रीड़ा केन्द्रित तथा कभी छात्र केन्द्रित । कभी पाठ्यक्रम में मानवीय विषयों को तथा कभी वैज्ञानिक विषयों को दर्शन के आधार पर ही प्रधानता दी जाती रही है ।

रस्क का विचार है, ‘दर्शन पर शिक्षा की निर्भरता और कहीं इतनी अधिक दिखाई नहीं देती जितनी पाठ्यक्रम में।” पाठ्यक्रम की विवेचना करते समय ब्रिग्स का कथन है, “पाठ्यक्रम में शिक्षा को उन शिक्षाविदों की वास्तव आवश्यकता है जिनके पास दूसरों को सन्तुष्ट करने के लिए विस्तृत तथा गहन दर्शन है तथा जो वांछित पाठ्यक्रम का निर्माण करने में उसका सतत् प्रयोग कर सकते हैं।”

आदर्शवादी इस बात पर बल देते हैं कि पाठ्यक्रम जीवन मूल्यों पर आधारित हो । वे संस्कृति तथा सभ्यता के उत्कर्ष की झलक को उजागर करने में विश्वास रखते हैं, अध्यात्मवादिता के महत्त्व पर जोर देते हैं। इन्हीं तत्त्वों के आधार पर वे विषयों तथा क्रियाओं का समर्थन करते हैं। पाठ्यक्रम में विभिन्न

प्रकृतिवादी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए बालकों की प्राकृतिक शक्तियों, रुचियों तथा अनुभवों पर बल देता है। उसके अनुसार आत्म-रक्षा करने वाले विषयों तथा गतियों को पाठ्यक्रम में प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम में सैद्धान्तिकता की अपेक्षा व्यावहारिकता को महत्त्व देते हैं। अतः पाठ्यक्रम में जीवन की वास्तविक व्यावहारिक क्रियाओं को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता. है। छात्र में सामाजिक कुशलता के गुणों के विकास के लिए क्रिया-कलापों की प्रधानता रहती है।

(IV) दर्शन और शिक्षण विधि (Philosophy and Methods of Teaching)- शिक्षण विधि का सम्बन्ध भी दर्शन से होता है। शिक्षक द्वारा पढ़ाई गई विषय-वस्तु को छात्र ग्रहण नहीं करता तो उसके कारणों का पता लगाने में दर्शन उसकी सहायता करता है। शिक्षक पता लगाता है कि छात्र के सीखने में कौन-कौन से तत्त्व बाधक हो रहे हैं। बटलर के विचार में, “दर्शन शिक्षा के प्रयोगों के लिए पथ-प्रदर्शक है।” इसी सम्बन्ध में रॉस का कथन है, “शैक्षिक उद्देश्य और विधियाँ सिद्धान्तों के स्वाभाविक परिणाम हैं।” 

शिक्षण में विभिन्न शिक्षण विधियाँ दार्शनिक विचारों के परिणामस्वरूप ही प्रयोग में लाई जा रही है। सुकरात के दर्शन के सन्दर्भ में प्रश्नोत्तर विधि का उदाहरण हमारे सम्मुख है। कई उपनिषदों ने प्रश्नोत्तर तथा संवाद विधि को जन्म दिया। इसी प्रकार प्लेटो के साथ संवाद विधि जुड़ी हुई है। अरस्तु ने ‘आगमन एवं निगमन विधि’ का उद्गम किया। बेकन ने विचारों को स्पष्ट करने के लिए ‘प्रयोग’ एवं ‘निरीक्षण’ पर बल दिया। रूसो ने प्राकृतिक विधि अर्थात् स्वयं करने की विधि का समर्थन किया। मॉण्टेसरी ने ‘इन्द्रिय यथार्थवाद’ के आधार पर ‘इन्द्रिय प्रशिक्षण’ को अपनी पद्धति का आधार बनाया। ड्यूबी ने प्रयोजनवाद के सन्दर्भ में ‘प्रयोजन विधि’ को अपनाया। प्रयोजनवादियों ने सामाजिक विधि पर भी बल दिया। गुरुदेव टैगोर ने प्राकृतिक विषियों पर बल दिया। प्राकृतिवादी दार्शनिकों ने ‘बाल केन्द्रित’ को महत्त्वपूर्ण माना। आदर्शवादियों ने इस प्रकार की विधियों को सबसे उत्तम माना जिनमें अध्यापक के व्यक्तित्व की छाप छात्रों पर पड़ सके।

(V) दर्शन और अनुशासन (Philosophy and discipline)- अनुशासन का सम्बन्ध । स्वतन्त्रता, स्वच्छन्दता और नियन्त्रण से होता है। दर्शन के द्वारा ही यह जाना जाता है कि स्वतन्त्रता कहाँ तक आत्म-नियन्त्रण सिखाने में सहायक होती है। छात्रों को किस सीमा तक और किन परिस्थितियों में स्वतन्त्रता देनी चाहिए यह जानना अनुशासन स्थापित करने में सहायक सिद्ध होती है। अनुशासन का अर्थ जनतन्त्र प्रणाली में क्या है तथा एकतन्त्र प्रणाली में क्या, इस दिशा में दर्शन सहायक होता है। रस्क ने कहा है, “विद्यालय कार्य के अन्य किसी पक्ष की अपेक्षा अनुशासन किसी व्यक्ति या युग की दार्शनिक पूर्व धारणाओं को अधिक प्रत्यक्ष रूप से प्रतिबिम्बित करता है।” प्रकृतिवाद दण्ड विधान में ‘प्राकृतिक परिणामों एवं स्वतन्त्रता को सर्वोत्तम स्थान देते हैं। प्रयोजनवादी अनुशासन स्थापित करने के लिए सामाजिक तथा सहयोगी क्रियाओं को ऊँचा स्थान देते हैं। आदर्शवादी मुख्यतः आत्म-नियन्त्रण तथा शिक्षक के प्रभाव द्वारा अनुशासन स्थापित करने के समर्थक हैं।

रस्क ने तीन प्रमुख दार्शनिक विचारधाराओं के प्रभाव को इस प्रकार दर्शाया है, “प्रकृतिवादी दर्शनशास्त्र में नैतिक मापदण्डों की प्रमाणिकता को अस्वीकार करते हैं तथा बालक की जन्मजात अथवा मूल प्रवृत्यात्मक प्रवृत्तियों को स्वतन्त्रतापूर्वक प्रकट होने के अवसर प्रदान करता है। प्रयोजनवादी ऐसे मापदण्डों को सामान्य रूप से अस्वीकार करता हैं तथा छात्रों के आचरण की सामाजिक स्वीकृति पर ही नियन्त्रित करने की आस्था रखता है। आदर्शवादी मानव व्यवहार को नैतिक आदर्शों के अभाव में अपूर्ण मानता है और बालकों को नैतिक मानदण्डों को स्वीकार करने के लिए अग्रसर करता है। उन्हें धीरे-धीरे अपने आचरण का अंग बनाने के लिए प्रशिक्षण प्रदान करना अपना कर्त्तव्य मानता है। “

(VI) दर्शन तथा पाठ्य-पुस्तकें (Philosophy and Text Books) — जिस प्रकार पाठ्यक्रम को दर्शन प्रभावित करता है, उसी प्रकार पाठ्य पुस्तकों को भी । पाठ्य-पुस्तकें पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पाठ्य-पुस्तकें पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में सशक्त साधन हैं। पाठ्य-पुस्तकें जीवन के आदर्शों, मान्यताओं तथा सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर निर्मित की जाती हैं क्योंकि इनके माध्यम से जीवन के आदर्शों का स्थापन किया जाता है।

आदर्शवादी पुस्तकों का ऐसा स्वरूप चाहते हैं जिनमें व्यक्तित्व के आदशों की झलक आती हो तथा जिससे विद्यार्थी प्रभावित हों ।

प्रकृतिवादी ऐसी पुस्तकें स्वीकार करते हैं जो व्यावहारिक ज्ञान को उदाहरणों तथा चित्रों द्वारा प्रदर्शित करें । रूसो ने तो पाठ्य-पुस्तकों पर न के बराबर ध्यान दिया है। प्रयोजनवादी पाठ्य-पुस्तकों में सामाजिक तथा सहयोग को बढ़ावा देने वाली पाठ्य सामग्री का समर्थन करते हैं।

(VII) दर्शन अथवा अध्यापक (Philosophy and the Teacher ) — हैण्डरसन (Handerson) के विचार में, “अध्यापक के लिए दर्शन का ज्ञान अनिवार्य है ।” इस प्रकरण पर अलग से प्रकाश डाला गया है

(VIII) दर्शन तथा छात्र (Philosophy and Student )— प्रकृतिवादी छात्र को सक्रिय मानता है । उसे शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का केन्द्र बिन्दु मानता है। वह छात्र की स्वयं की क्रियाओं पर बल देता है। छात्र की नैसर्गिक योग्यताओं तथा क्षमताओं पर बल देता है। आदर्शवाद में छात्र से अधिक शिक्षक को महत्त्वपूर्ण माना गया है। प्रयोजनवाद छात्रों के सहयोग पर आधारित प्रक्रिया को स्वीकार करता है

(IX) दर्शन तथा शिक्षा प्रबन्ध (Discipline and Educational Administration) यदि समाज लोकतान्त्रिक है तो वह अध्यापकों तथा छात्रों की स्कूल प्रबन्ध में भागेदारी पर बल देता है। इसके विपरीत तानाशाही दर्शन इसे कोई स्थान नहीं देता है।”

(X) दर्शन और शिक्षा की समस्याएँ (Problems of Philosophy and Education)—शिक्षा के क्षेत्र में अनेक समस्याएँ उठती हैं। जितना ठोस समाधान दर्शन के क्षेत्र में इन समस्याओं का मिलता है, अन्य क्षेत्रों अर्थात् राजनीति आदि में नहीं मिलता । दर्शन समस्याओं के मूल में जाकर उनका विश्लेषण करता है, जिससे वास्तविक कारणों का पता चलता है। बर्ट्रेण्ड रसेल का कहना है, “शिक्षा के अन्तिम प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास ही दर्शन है ।” रस्क के विचार में, “शैक्षिक समस्याओं के प्रत्येक पहलू से शिक्षा और जीवन के दार्शनिक आधार की माँग की जाती है।”

निष्कर्ष- दर्शन को शिक्षा का डायनेमो कहा जाता है। वह शिक्षा को शक्ति तथा दृष्टि प्रदान करता है। दर्शन से शिक्षा के उद्देश्य, तर्क, औचित्य, विधि, रूप तथा अनुशासन प्राप्त होता है । दर्शन शिक्षा को जीवन प्रदान करता है। दर्शन शिक्षा को आगे बढ़ने की इच्छा शक्ति देता है । दर्शन शिक्षा की आत्मा है । दर्शन के बिना शिक्षा एक अन्धा प्रयास है । दर्शन शिक्षा की विकट समस्याओं के समाधान के लिए प्रकाश स्तम्भ है । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि दर्शन शिक्षा को गतिशील बनाता है।

इसे भी पढ़े…

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment