सामाजिक न्याय से संबंधित शिक्षा के संवैधानिक प्रावधान
भारतीय संविधान में सामाजिक दृष्टि से सामाजिक समता और सामाजिक न्याय का बहुत महत्त्व है। वास्तव में सामाजिक एकता तथा सामाजिक न्याय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सामाजिक समानता स्थापित किए बिना सामाजिक, न्याय नहीं आ सकता। सामाजिक न्याय स्थापित करने का अर्थ है एक आदर्श समाज रचना का प्रयास। आदर्श समाज रचना का अर्थ है जिस समाज में जाति, वंश, धर्म तथा लिंग के आधार पर किस प्रकार का भेदभाव न हो। भारतीय संविधान ने सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक न्याय देने का वचन दिया है।
सामाजिक न्याय का स्वरूप-भेदभाव रहित उत्तम समाज की रचना का निर्माण कर देश में शांति तथा सुव्यवस्था रखने वाली प्रक्रिया का अर्थ है सामाजिक न्याय । भारत के किसी न नागरिक पर अन्याय न हो इसके लिए संविधान ने प्रत्येक नागरिक को कुछ मौलिक अधिकार दिए हैं, इनसे ही सामाजिक न्याय का स्वरूप स्पष्ट होता है । इन मौलिक अधिकारों में निम्नलिखित सात अधिकारों का समावेश है-
1. समता का अधिकार,
2. स्वतंत्रता का अधिकार,
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार,
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार,
5. शिक्षा तथा संस्कृति का अधिकार,
6. सम्पत्ति का अधिकार,
7. संवैधानिक अधिकार।
जब ये अधिकार सभी धर्मों वर्ण तथा जातियों के स्त्री-पुरुषों के नागरिकों को मिलें तब हमारे देश में सामाजिक न्याय स्थापित हो सकता है। ये अधिकार प्रत्येक नागरिक के जीवन के लिए आवश्यक है। इन अधिकारों को प्राप्त किए बिना कोई भी नागरिक अपना सर्वांगीण विकास नहीं कर सकता किसी भी नागरिक के साथ किसी भी प्रकार का पक्षपात नहीं किया जाना चाहिए। यदि किसी भी नागरिक के साथ किसी भी प्रकार का पक्षपात किया जाता है तो उसे अन्याय कहा जाएगा। जीवन के किसी भी क्षेत्र में ऊँच-नीच श्रेष्ठ-कनिष्ठ का भेदभाव नहीं होना चाहिए। स्वतंत्रता के पूर्व भारतीय समाज में सामाजिक न्याय का सर्वथा अभाव था परन्तु स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान में उदयोन्मुख शासन व्यवस्था में सामाजिक न्याय का पोषण करने का संकल्प किया गया है। किसी भी शासन व्यवस्था में सामाजिक न्याय का बहुत महत्त्व है। यहाँ तक तानाशाही और राजशाही में ही न्याय देने की व्यवस्था रहती है। जिस शासन व्यवस्था में न्याय की पवित्रता की रक्षा की जाती है, वह शासन व्यवस्था श्रेष्ठ मानी जाती है। पद्मपुराण में कहा गया है कि यदि नौकर अपराध करें तो स्वामी को दण्ड मिलना चाहिए—
“भृत्यापराधे सर्वत्र स्वामिनो दण्डयेत” -पद्मपुराण
महाराष्ट्र में रामशास्त्री प्रभुणे का न्याय इतिहास प्रसिद्ध है। भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय को प्रभावी बनाने के लिए निम्नलिखित व्यवस्था की गई है। संविधान में कहा गया है— “The State shall ont discriminate against any citizen on grounds of religion, race, sex or place of birth nor5 shall any restriction or disabil ity be imposed on any of these grounds in regard to access to places of public extertainment, restaurants, shops, hotels, etc. use of wells, tanks bathing ghats etc. No man can be comelled to work against his wishes only the State can impose cvompulsory services, e.g. mobilisation during war and that only for public purposes without regarded to race or caste. No citizen shall on the grounds of religion, caste or sex, place of birth of residence be disqualified for any employment in the State.”
1. समता का अधिकार- इस अधिकार के अनुसार सभी व्यक्ति कानून की दृष्टि से समान माने जाएँगे और हर व्यक्ति को कानून का संरक्षण मिलेगा। धर्म, वंश, लिंग, स्थान के आधार पर नागरिकों के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जायेगा। सामाजिक दृष्टि से यह समानता प्रत्येक व्यक्ति को मिलनी आवश्यक है। संविधान के 14वें परिच्छेद के को अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को कानून की दृष्टि से समान माना जाएगा और प्रत्येक व्यक्ति कानून का पूरा संरक्षण दिया जाएगा। 15वें परिच्छेद के अनुसार धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर नागरिकों में भेदभाव किया जाएगा। दुकान, उपहार, गृह, होटल तथा मनोरंजन गृहों में किसी को प्रवेश के लिए मना नहीं किया जाएगा। इस प्रकार का भेदभाव करना अपराध माना जाएगा। सामाजिक न्याय की दृष्टि से यह व्यवस्था महत्त्वपूर्ण है। संविधान के 16वें परिच्छेद में किसी भी व्यक्ति को अपनी योग्यता के अनुसार कोई पद या नौकरी प्राप्त करने का अधिकार है। संविधान के 17वें परिच्छेद में अस्पृश्यता का पालन गाँधी, ज्येतिबा फुले, बाबा साहेब अम्बेडकर ऐसे नेताओं ने इसका निर्मूलन करने का भरसक करना कानून अपराध माना गया है। अस्पृश्यता भारतीय समाज के लिए कलंक है। महात्मा प्रयास किया।
2. स्वतंत्रता का अधिकार- प्रत्येक व्यक्ति को अपना विकास करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई है। संविधान के 19,20,21 वें परिच्छेद में स्वतंत्रता के अधिकार का प्रावधान किया गया है । कोई भी व्यक्ति किसी की स्वतंत्रता का हनन नहीं कर सकता। किसी भी व्यक्ति को देश के किसी भाग में जाकर विकास करने का अधिकार है। कोई भी व्यक्ति देश के किसी क्षेत्र में जाकर बस सकता है या व्यवसाय अपना सकता है और अपनी इच्छानुसार अपना जीवनयापन कर सकता है । जनता को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का अधिकार है। कोई भी व्यक्ति, संघ या यूनियन बना सकता है। शोषण के विरुद्ध आवाज उठा सकता है । इस प्रकार सामाजिक तथा आर्थिक न्याय स्थापित करने का प्रयत्न कर सकता है। किसी भी स्त्री या पुरुष का क्रय-विक्रय नहीं किया जा सकता। किसी को बंधुआ मजदूर या क्रीतदास नहीं बनाया जा सकता । संविधान के 23वें परिच्छेद के अनुसार इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है । किसी भी स्त्री को देवदासी बनने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। मजदूरों, दलितों तथा पिछड़ी जातियों के विरुद्ध किसी भी प्रकार की ज्यादती नहीं की जा सकती। कोई भी व्यक्ति समाज कुरीतियों तथा रूढ़ियों के विरुद्ध आन्दोलन कर सकता है। या आलोचना कर सकता है परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि हम इस अधिकार का दुरुपयोग करें।
3. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार- प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा अनुसार कोई। भी धर्म स्वीकार करने तथा उसका प्रचार प्रसार करने का अधिकार है। धर्म एक वैयक्तिक विश्वास है उसमें किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। सभी धर्म समान है इसलिए धर्म के आधार पर किसी को ऊँच-नीच मानना गैर-कानूनी है। हिन्दुओं के सभी मन्दिर सब जातियों के लिए खुले रहेंगे। प्राचीन काल में अछूतों को मन्दिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जाती थी। पर अब मन्दिरों के द्वार सबके लिए खुले हैं। इन स्थितियाँ में सबको न्याय मिलेगा। पहले कई जातियों पर धार्मिक अन्याय होते थे पर अब उनका परिमार्जन कर दिया गया है और हर आदमी को अपनी इच्छा तथा रुचि के अनुसार धर्म पालन करने तथा उपासना का अधिकार दिया गया है।
4. संस्कृति तथा शिक्षा का अधिकार- संविधान के 29वें परिच्छेद में हर व्यक्ति को अपनी भाषा तथा संस्कृति की रक्षा करने का अधिकार दिया गया है। संविधान 300 परिच्छेद में अल्पसंख्यकों को अपने धर्म तथा भाषा के आधार पर शिक्षा संस्थाएँ बोला का अधिकार दिया गया है । इन संस्थाओं को सरकार की ओर से अनुदान भी मिल इन संस्थाओं के साथ किसी भी प्रकार का पक्षपात नहीं किया जाएगा। कोई भी शिक्षा त्या किसी भी व्यक्ति के धर्म, जाति, वंश, भाषा के नाम पर प्रवेश देने के लिए इन्कार नहीं कर सकती है।
5. सम्पत्ति का अधिकार- प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत सम्पत्ति रखने का अधिकार है। हर व्यक्ति को अपने श्रम तथा कर्त्तव्य शक्ति के बल पर चल और अचल सम्पत्ति को अर्जित करने और उसका स्वामी बनने का अधिकार दिया गया है। 31 वें परिच्छेद के अनुसार सार्वजनिक कल्याण के लिए सरकार किसी व्यक्ति को चल और अचल सम्पत्ति की उचित कीमत देकर अपना अधिकार कर सकती है।
6. संवैधानिक अधिकार- सामाजिक न्याय की दृष्टि से यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। नागरिकों को 6 मौलिक अधिकार दिए गए हैं। संविधान ने इन अधिकारों के संरक्षण की भी व्यवस्था की है। यदि किसी नागरिक के इन मौलिक अधिकारों पर कोई अतिक्रमण करता है या किसी नागरिक पर किसी भी प्रकार का अन्याय हुआ है तो कोई भी नागरिक न्याय प्राप्त करने के लिए उच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है। डॉ. बाबासाहेब के कुर्त्तव्य भी निश्चित किए गए हैं। नागरिकों से यह आशा की जाती है कि वे अपने कर्त्तव्यों का समुचित पालन करेंगे। यदि नागरिक अपने कर्त्तव्यों (obligations) का पालन नहीं करेंगे तो समाज में जंगल राज्य स्थापित हो जाएगा। नागरिकों को यह अधिकार है कि वे अपने प्रतिनिधियों को चुनकर लोकसभा और विधान सभाओं में भेजें। लोकसभा को कानून बनाने का अधिकार दिया गया है परन्तु यह ध्यान देने की बात है कि हमारे जनप्रतिनिधि अपने अधिकारों का दुरुपयोग न करें।
देश और समाज के विकास के लिए नागरिकों के निम्नलिखित कर्तव्य है-
1. संविधान, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत का सम्मान करना।
2. स्वतंत्रता संग्राम के प्रेरणादायी उदात्त आदर्शों की रक्षा करना और अपने जीवन में उन्हें उतारने का प्रयास करना।
3. भारत की सार्वभौमिकता तथा एकता का सम्मान करना एवं उसकी रक्षा के लिए तत्पर रहना।
4. देश का संरक्षण करना और किसी भी प्रकार की चुनौती का मुकाबला करने के लिए तैयार रहना और राष्ट्र की सेवा करना ।
5. भारत में वर्गविहीन समाज की स्थापना के लिए प्रयत्नशील रहना तथा भेदभाव रहित बन्धुत्व भाव का पोषण करना एवं नारी सम्मान में बाधक कुरीतियों तथा रूढ़ियों का उन्मूलन करने का प्रयास करना ।
6. राष्ट्र की गौरवशाली संस्कृतिक तथा वैभवशाली परम्परा का संरक्षण करना।
7. वन, अरण्य, नदियाँ, सरोवर, वन्य पशु तथा प्राकृतिक सम्पत्ति का संरक्षण एवं संवर्धन करना तथा सभी प्राणियों के प्रति दया भाव रखना।
8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद तथा ज्ञान के विकास के प्रति सचेष्ट रहना।
9. सार्वजनिक सम्पत्ति का संरक्षण तथा हिंसा एवं अनाचार से दूर रहना।
10. वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ना एवं राष्ट्र के उत्तरोत्तर विकास के लिए प्रयत्नशील रहना ।
सामाजिक न्याय तथा शिक्षा
उदयोन्मुख भारतीय समाज से ऊँच-नीच का भाव नष्ट करने, व्यक्ति विकास एवं स्वतंत्रता का पूर्ण उपभोग करने के लिए संविधान ने नागरिक अधिकारों तथा कर्त्तव्यों को व्यवस्था की है। इसी प्रकार अनुसूचित जाति, जनजातियों को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए सरकार ने विशेष सुविधाएँ दी है। पिछड़ी जातियों को शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश के लिए आरक्षण की सुविधा प्रदान की गई है। उनके लिए विशेष जगहें सुरक्षित रखी गई हैं ताकि पिछड़ी जातियों के बच्चे सरलता से प्रवेश पा सकें। पिछड़े वातावरण में पालन-पोषण होने के कारण इस समाज के बच्चों की शैक्षिक उपलब्धियाँ नगण्य रहती है इसलिए ये बच्च प्रतियोगिता में ठहर नहीं पाते और असफलता ही उनके हाथ लगती है इसलिए ऐसे बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा, शिक्षावृत्तियाँ, छात्रावास तथा आर्थिक सहायता की व्यवस्था की गई है । सरकारी नौकरियों में भी पिछड़ी जातियों के बच्चों को आरक्षण दिया गया है। संविधान के 46वें अनुच्छेद में समाज के कमजोर वर्गों विशेषकर अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा तथा आर्थिक कल्याण का प्रावधान रखा गया है। सरकार इनके विकास के लिए हर सम्भव प्रयास करेंगी और उन्हें सामाजिक अन्याय तथा शोषण से मुक्त कराने का प्रयास करेगी। शिक्षा के माध्यम से नई पीढ़ी में सामाजिक न्याय के प्रति जागरूकता पैदा की जा सकती है तथा उनमें उदात्त मूल्यों और आदर्शों को प्रतिष्ठित किया जा सकता है । विद्यालय का वातावरण पवित्र, उज्जवल तथा भेदभाव रहित रखने का प्रयास किए जा रहे हैं। शैक्षिक प्रदूषण समाज के लिए बहुत घातक है। शिक्षा के द्वारा शैक्षिक प्रदूषण की कम किया जा सकता है। शिक्षा के द्वारा बच्चों में मनुष्यता के भाव भरे जा सकते हैं। शिक्षा के द्वारा समाज में व्याप्त अस्पृश्यता को नष्ट करने का प्रयास करने का प्रयास किया जा रहा है । कुरीतियों, अंधविश्वासों तथा अकल्याणकारी परम्पराओं को समाप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। विद्यार्थियों में जागरूकता पैदा कर स्वस्थ समाज के निर्माण का प्रयास किया जा रहा है। स्त्री-शिक्षा की ओर भी सरकार विशेष ध्यान दे रही है क्योंकि देश की आधी संख्या स्त्रियों की है। स्त्रियों को जीवन के हर क्षेत्र में समानता के अधिकार दिये जा रहे हैं। प्राचीन काल में स्त्रियों का कार्यक्षेत्र केवल घर तक सीमित था पर आज वे घर से बाहर निकलकर हर क्षेत्र में आगे आ रही हैं। पहले यह माना जाता था कि स्त्रियों का काम सन्तानोत्पत्ति, बाल संगोपन तथा घर-गृहस्थी सँभालना है किन्तु आज यह धारणा समाप्त हो गई है। इसी संकुचित दृष्टिकोण के कारण पहले ऊँचे घरों तक की स्त्रियाँ अशिक्षित तथा पिछड़ी रह जाती थी उन्हें शिक्षा प्राप्त करने के अवसर नहीं मिलते थे। स्त्री शिक्षा को महत्त्व देने से सच्चे अर्थों में सामाजिक न्याय की स्थापना होगी। ऐसा कहा जाता है कि एक लड़की को शिक्षा देने से सम्पूर्ण परिवार शिक्षित होता है। अतः स्त्रियों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार बहुत आवश्यक है। उदयोन्मुख भारतीय समाज का विकास करने के लिए स्त्री शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। पुरुषों का भी यह कर्त्तव्य है कि वे स्त्रियों के सम्बन्ध में जो दकियानूसी विचार रखते हैं, उन्हें त्यागें और नया दृष्टिकोण पैदा करें। स्त्रिया स्वत्व तथा अस्मिता को स्वीकार करना बहुत जरूरी है। सन् 1981 की जनगणना के अनुसार पुरुषों में 47 प्रतिशत साक्षरता तथा स्त्रियों में 25 प्रतिशत साक्षरता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि 4 स्त्रियों में 3 स्त्रियाँ निरक्षर हैं। स्त्रियों के लिए प्राथमिक माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। जब तक देश की नारी समाज पूर्ण रूप से शिक्षित तथा विकसित नहीं होगा तब तक भारतीय समाज कमजोर ही रहेगा। शिक्षा ही समाज को नई शक्ति तथा चेतना प्रदान कर सकती है।
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